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श्रीमन्मोहन-यशः स्मारक ग्रन्थमाला. अन्धांक २४
मोहन-संजीवनी
लेखक: पाली (राजस्थान) निवासी श्रीमान् रूपचंदनी भणायाम
ना सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका
उपयोग कर सकें. विहितसमस्तागमयोगान ख० अनुयागाचार्य श्रीमत्केशरमुनिजी गणिवर विनेय
बुद्धिसागर गणिः
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श्रीमन्मोहन-यशः स्मारक ग्रन्थमाला. ग्रन्थांक २४
मोहन-संजीवनी
: लेखक : पाली (राजस्थान) निवासी श्रीमान् रूपचंदनी भणसाली
: संपादक: विहितसमस्तागमयोगोद्वहन स्व० अनुयोगाचार्य श्रीमत्केशरमुनिजी गणिवर विनेय
बुद्धिसागर गणिः
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प्रकाशक
प्रशांत स्वभावी श्रीमान् गुलाबमुनिजी महाराज के सदुपदेशद्वारा
संप्राप्त अनेक सद्गृहस्थों की उदार सहाय से महावीर जिनालयस्थ
मुंबई - पायधुनी श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार कार्यवाहक शाह झवेर भाइ केसरीभाइ झवेरी
वीर सं. २४८७ ]
विक्रम सं. २०१७
मूल्य : वांचन-मनन
: मुद्रक : श्री अमरचंद बेचरदास महेता श्री बहादूरसिंहजी प्री प्रेस, पालीताणा (सौराष्ट्र)
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[ सन् १९६०
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प्रस्तावना
musinn महानुभावो ! परमसुविहित खरतरगच्छ विभूषण वीसमी शताब्दी के महान् शासन प्रभावक क्रियोद्धारक स्वनामधन्य श्रीमन्मोहनलालजी महाराज के नाम से शायद ही भारतवासी और खास कर जैन समाज का कोइ मनुष्य अपरिचित होगा।
आपका जीवन चरित्र योंतो गुर्जर अनुवाद सह संस्कृत में कभी का छपा है, परंतु साधारण जनता उसका यथेष्ट उपयोग नहीं कर सकती।
इसी कारण को लेकर महाराजश्री के प्रशिष्यरत्न थाणातीर्थोद्धाराद्यनेकविध शासनप्रभावक महान् तपस्वी आचार्यवर्य श्रीमान जिनसिरिजी महाराज के परम विनीत शिष्यरत्न प्रशांत स्वभावी श्रीमान् गुलाबमुनिजी महाराज की यह भावना हुइ कि-हिंदी भाषा में संक्षिप्ततया महाराजश्री के चरित्र को प्रकाशित किया जाना परमावश्यक है।
इसी भावनानुसार उन्हीं की प्रेरणा से संप्राप्त अनेक सद्सद्गृहस्थों की उदार सदायता से यह चरित्र पाठकों के करकमलों में उपस्थित किया जा रहा है।
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अंत में पाली (राजस्थान) निवासी श्राद्धवर्य श्रीमान् रूपचंदजी भणसाली को शतशः धन्यवाद है, जिन्होंने अपने व्यवसाय में से टाइम लेकर गुरुभक्ति से हिंदी भाषा में यह चरित्र लिखने का शुभ प्रयास किया है।
प्रूफ सुधारने में सावधानी रखने पर भी छद्मस्थ स्वभाव सुलभ जो कुछ भी स्खलना रही हो उसके लिये क्षमा याचना सह सुधार कर वांचने की पाठकों से नम्र प्रार्थना है । इति शम् ।
सं. २०१७ मार्ग० कृ० १३ )
कल्याणभुवन, पालीताणा (सौराष्ट्र)
प्रार्थकस्व. अनुयोगाचार्य श्रीमत् केशरमुनिजी गणिवर विनेय
बुद्धिसागर गणि
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इस प्रकाशन में उदारभाव से द्रव्य सहाय
करनेवाले महानुभावों की शुभ नामावली।
नाम
सुरत
रकम
गाम १५१) सेठ रायचंद मोतीचंद १०१) श्री सिद्धचक्र मंडल ह. जेरूपचंदजी
दादर १०१) श्री बोरिवल्ली श्री जैन संघ
___ ह. जुहारमलजी उत्तमाजी बाफणा ५०१) सेठ फतेचंद प्रागजी महुवावाला
मुंबई १०१) सेठ चंदुलालभाइ जेसंगभाइ उगरचंद अमदावाद ५१) सेठ चुनीलाल केशवलाल ह० शांतिलाल बोटादवाला ५१) सेठ नंदलाल मगनलाल ह० कंचनबेन कतरास ५१) आगरतड श्री शांतिनाथ जैन देरासरकी पेढी दादर ५१) शा. गुलाबचंदजी सायबचंदजी नाहार सामटा ३१) शा. राजमलजी लखमाजी खीमेलवाला बोरीवली ३१) लाभचंदजी सेठ की धर्मपत्नि
कलकत्ता २५।) शा. रामजी आनंदजी
लायजा-कच्छ २५) सेठ भोगीलाल अनोपचंदभाइ २५) सेठ फतेचंद झवेरभाइ
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रकम नाम
गाम २१) सेठ जुहारमलजी उत्तमाजी बाफणा बोरीवली २१) केशव मोहन ठाकुर
कलकत्ता २१) प्रवीण फार्मसी के मालीक फकीरचंदभाइ जरीवाला मलाड १५) सेठ भगवानदास गोविंदजी भावनगरवाला ११) शा. हिम्मतलाल चुनीलाल साह
ओड ११) शा. ताराचंदजी कुपाजी
माहिम ११) एक सद्गृहस्थ ११) शा. मोहनलाल संपतलाल डफरीया
सामटा ११) शा. छोगमलजी केसुरामजी
गोलवड ११) शा. लक्ष्मीचंद ताराचद संचेती उम्मरगांव रोड ११) झवेरचंद प्रेमचंद झवेरी बोरीवली
दोलतनगर ११) बाबू सौभाग्यचंदजी सेठ कलकत्तावाला
खार ५) शा. नारायण आय्यर
कलकत्ता ५) सेठ सिवराज ताराचंद महेता खीमेलवाला मलाड ५) सेठ केसरीमल गणेशमल कांठेड
मलाड ५) सेठ रमणलाल मंगलदास कांदिवलि चिंतामणी बील्डींग ५) सेठ भीखालाल गांगजी
कतरास ५) सेठ जगजीवनदास जीवराज
वांकानेर ५) सेठ लीलाधर वीरचंद
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दादर
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मोहनामा
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सर्वत्र यो ‘मोहनलालजी' ति, प्राप्तः प्रसिद्धि परमां महात्मा । स्वर्ग गतं सच्चरितं पवित्रं, नमामि नित्यं मुनिमोहनं तम् ॥ १॥ श्रीभारतेऽस्मिन् मथुरासमीपे,
श्रीसुन्दरीबादरमल्लपत्नी । सूते स्म यं चन्द्रपुरे सुयोगे, नमामि नित्यं मुनिमोहनं तम् ।। २॥ नैमित्तिकात् स्वप्नफलं विबुध्य, त्यागी स्वपुत्रो भवितेति मत्वा । तौ पश्यतो द्वौ पितरौ सुतं यं, नमामि नित्यं मुनिमोहनं तम् ॥ ३ ॥ धैर्य समालम्ब्य विहाय शोक, श्रीरूपचन्द्राय सुतं समय । सोढो वियोगः कठिनश्च यस्य, नमामि नित्यं मुनिमोहनं तम् ॥ ४ ॥ प्राप्ते यतित्वे हृदयं सशल्यं, ज्ञात्वा प्रबुद्धो भजते विरागम् । यस्तु क्रियोद्धारतया दिदीपे, नमामि नित्यं मुनिमोहनं तम् ।। ५ ।।
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[ ८ ]
रंगितात्मा,
नित्यम् ।
संवेगरंगेन प्रशांतमूर्तिर्विजहार भव्याय जातो य इहोपकारी, नमामि नित्यं मुनिमोहनं तम् ॥ ६ ॥
स
महात्मनां सूर्यपूरे तथाऽस्यां, महोपकारः पुरि मोहमय्याम् । जातोऽस्ति तेषां खलु यो हि मुख्यो, नमामि नित्यं मुनिमोहनं तम् ॥ ७ ॥ सन्मान्यो मुनिमोहनो मुनिवरं तं मोहनं भो ! भजे, संजाता मुनिमोहनेन जनता धर्म्या च तस्मै नमः | पुण्यश्रीमुनि मोहनाय मुनिवन्मुम्बाऽधुना मोहनाद्, भूयान्मे मुनिमोहनस्य शरणं भक्तिश्च मे मोहने ॥ ८ ॥
मास्तर विजयचन्द मोहनलाल शाह
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શ્રી ખરતરગચ્છ વિભૂષણ ક્રિોદ્ધારક શાસન પ્રભાવક
- પૂજ્યપાદુ શ્રી મેહનલાલજી મહારાજ જન્મ : ૧૮૮૭ ચાંદપુર યતિદીક્ષા : ૧૯૦૨ મક્ષીતીર્થ ક્રિોદ્ધાર : ૧૯૩૦ અજમેર
સ્વર્ગવાસ : ૧૯૬૪ સુરત
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॥ श्री वीतरागाय नमः ॥
मोहन-संजीवनी
या नि
परमसुविहित खरतरगच्छविभूषण जैनशासन प्रभावक जगत्पूज्य क्रियोद्धारक श्रीमन् मोहनलालजी
महाराज का संक्षिप्त जीवनचरित्र
शान्ताय दान्ताय जितेन्द्रियाय, धीराय वीराय मुनीश्वराय । सद्धयानज्ञानादि गुणाकराय, भत्तया नमः श्रीमुनिमोहनाय ॥१॥
जगत्पूज्य मुनि प्रवर श्रीमन्मोहनलालजी महाराज जैनसमाज में वीसवीं शताब्दि के प्रकाशमान नक्षत्रोंमेंसे सर्वाधिक तेजवान् शासनप्रभावक और तपस्वी मुनिराज थे। इस संजीवनी में हम उन्हीं महापुरुषका जन्मस्थानादि संक्षिप्त जीवन परिचय पाठकोंकी सन्मुख रखनेका प्रयत्न करते हैं। ___ भारत वर्ष की गौरव भूमि भगवान् सुपार्श्वनाथ स्वामि की जन्मभूमि, श्रीकृष्ण भगवान की लीला भूमि मथुरा से शायद ही कोइ भारतीय अपरिचित होगा | उत्तर प्रदेश का. यह विभाग
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मोहन-संजीवनी
प्रजभूमि कहलाता है, यह सुरम्य है, प्राकृतिक सौन्दर्य से समृद्ध है, श्रीकृष्ण के भक्तों का परम धाम है, साधु-संतोका पुण्यागार है। इसी मथुरा के वायव्य में बसा हुआ एक छोटा ग्राम (चांदपुर) है। ब्रजभूमिका ही अंग होने से इसे भी तीर्थस्थानों में स्थान मिला ही है। और फिर यह भूमि मोहन मुरलीवाले भगवान् श्रीकृष्ण के बाद हमारे चरित्रनायक “ मोहन" को जन्म देकर ओर भी कृतकृत्य हो गइ है। ____चांदपुर में पंडित बादरमलजी सनाढ्य जाति के ब्राह्मण रहते थे। चांदपुर में पंडितजी सर्वमान्य व्यक्ति थे। इनकी धर्मपत्नि का नाम सुंदरदेवी था। दोनों पति-पत्नी बडे प्रेम से अपना जीवन निर्वाह करते थे। साधारण गृहस्थों की तरह आपको भी पुत्ररत्न की चाह तो थी ही । आप अपने क्रिया-भक्ति कर्मकांडों में परायण थे और उन्हीं में आपको अपनी इच्छा पूर्ण होती नजर आ रही थी।
एकदा अपनी सुख निद्रा में सोती हुइ श्रीमती सुन्दरबाइ रात्रि के पिछले हिस्से में एक स्वप्न दर्शन करती है। उसे अनुभव हुआ कि अपनी पूर्ण कलाओं के साथ चन्द्र प्रकाशित है,
और वह पूर्ण चंद्र उसके मुख में प्रवेश कर रहा है । तत्काल सुन्दरदेवी जाग खड़ी हुइ। उसके जी में अजीब सा कुतुहल मचा था पर उसके अंग अंग में शांति पसरी थी ओर कुछ अच्छा, बहुत अच्छा होगा यह उसकी आत्मा मान रही थी। उसने प्रभुनाम का स्मरण करना शरु किया। सुसंस्कृत पंडिता. इनको अन्य तृष्णा तो थी ही नहीं। गांवका सुखी जीवन था। पुत्ररत्न की आकांक्षा अवश्य थी। पतिदेव के जागृत होने पर
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नामकरण
३
स्वप्न का वृत्तांत उन्हें सुनाया गया। पंडितजी को भी अनहद खुशी हुइ और पत्नी से कहा कि अब अपनी इच्छा पूर्ण होगी। अवश्य तेरी कूख से एक यशस्वी पुत्र होगा। पूर्णचंद्र की तरह वह शांत और शांतिदाता होगा। उसके प्रताप से प्रभावित अनेक बड़े बडे लोग उसे अपना आदर्श मानेंगे।
समय बीतते क्या देरी। बात की बात में ९ महिने ४ दिन बीत गये और वैशाख शु ६ सं. १८८७ में उत्तराषाढा नक्षत्र सिंहलग्न में माता सुन्दरबाइ के एक पुत्र हुआ ।
नामकरण जन्म से १० वा दिन नामकरण का था। अनेक मित्र व संबंधी निमंत्रित किये गये । उनका योग्य सत्कार किया गया। बालक को देख सभी को प्रसन्नता हुइ: और इस मोहिनीरूप राशिको देख पंडितजीने अपने पुत्रका नाम “मोहन" रक्खा । बड़े दुलार से मोहन की परवरिश होने लगी ओर मोहन भी शुक्लपक्ष के चंद्र की भांति ही बढता चला। योग्य समय आते अच्छा मुहूर्त देख विद्याध्ययन के लिये पाठशाला में प्रवेश कराया गया । कंठस्थ करने में बालक बडा तेज निकला, गुरुजी जो जो पढाते वह बालक बहुत जल्दी याद कर लेता । सात वर्ष की आयु में इतनी योग्यता आगइ कि गुरुजी इस बालक की प्रशंसा मुक्त कंठ से करने लगे।
गृह त्याग भूतपूर्व जोधपुर राज्य में नागौर एक महत्त्वपूर्ण शहर है। यह बहुत प्राचीन नगर है, राजस्थान की यह वीरभूमि है,
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मोहन-संजीवनी
वाणिज्य भूमि है ओर शृंगार भूमि भी। यहां का किला भी प्रसिद्ध है, यहां के बैल सारे भारतवर्ष में प्रसिद्ध हैं, कई वनौ. षधियां यहां की भूमि में ही पैदा होकर महत्त्व पाती हैं। यहां के लोग बडे साहसी हैं ओर व्यापार के लिये दूर दूर तक फेले हुए हैं। यहां ही खरतरगच्छ आम्नाय के विद्वान् यतिश्री रूपचंद्रजी रहते थे, आपने यति दीक्षा यद्यपि विद्वद्वर्य जैनाचार्य श्री जिनहर्षसूरिजी के पास ली थी, तथापि आप यतिश्री लालचंद्रजी के शिष्य घोषित किये गये थे। आपकी परंपरा इस प्रकार है।
गुरु परंपरा यतिवर्य आचार्य श्री जिनमुखसरि
शिष्य
कर्मचंद्रजी
ईश्वरदासजी,
वृद्धिचंदजी
लालचंदजी
रूपचंदजी पूज्य आचार्य श्री जिनहर्षसूरिजी, भगवान् महावीर के पट्टानुक्रम में ७० वें पाट पर हुए हैं। पाठकों की जानकारी के लिये इस परंपरा का संक्षिप्त इतिहास देना अनुचित न होगा।
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गुरु परंपरा
भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद श्री सुधर्मास्वामी और बाद में अनेक प्रभावक आचार्य होते गये । यद्यपि उनके उल्लेखनीय अनेकानेक कार्य हैं पर वें तो बडे बडे ग्रन्थों में भी उल्लिखित नहीं हो सकते, यहां तो केवल खरतरगच्छ परंपरा से संबंधित पट्टावली का परिचय मात्र करवाने का उद्देश है। ३८ वें पधर ८४ गच्छों के संस्थापक आचार्य श्रीमद् उद्योतनसूरि हुए। ३९ वें पाट पर उपदेश पद टीकादि के प्रणेता आचार्य श्री वर्धमानसूरि हुए। आपके बाद खरतर बिरुद के प्राप्त करने वाले प्रभावक आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि व बुद्धिसागरसूरि हुए । __ तत्कालीन गुजरात की राजधानी पाटन थी। और सोलंकीवंशीय महान् प्रतापी विक्रमी व विद्वान् राजा दुर्लभराज उस वखत *पाटन में ही था। पाटन में चैत्यवासियों ( जिनमंदिरों में
* पाठकों को यह याद दिलाकर सतर्क करना आवश्यक है किगुजरात के राजकीय इतिहास के आधार से तो यही मालूम पडता है कि महाराजा दुर्लभराज सं. १०७८ में राजा भीमदेव को अपना उत्तराधिकारी बना उसका राज्याभिषेक कर स्वयं तीर्थयात्रा को चला गया। बाद में क्या हुआ उसका प्रायः वर्णन नहीं है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि तीर्थ यात्रा में ही उसका स्वगवास हो गया हो। इस तरह का उल्लेख कहीं नहीं मिलता, अपितु अनेक पट्टावलियों में व स्वयं युगप्रधानाचाय श्री जिनदत्तसूरि रचित गुरुपारतंत्र्य नाभक स्मरण स्तोत्र में राजा दुर्लभराज का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। अतः यह मानना ठीक लगता है कि दुलभराज तीर्थयात्रा से लौट आया हो ओर बाद में अपना शेष जीवन धर्मसाधना में ही व्यतीत करता रहा हो एवं अन्य राज्यनैतिक मामलों में हस्तक्षेप न करत हुए भी आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासी यतियों के साथ का विवाद धार्मिक होने से ही उसमें उपस्थित
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मोहन-संजीवनी
रहने वाले और मंदिरों के मालिक बने हुए यतिओं) का बड़ा जोर था, पाटन को वसाने वाला राजा वनराज चावडा को चत्यवासी यतियों से बड़ी सहाय मिली थी और तभी से यह राज्याज्ञा प्रसारित करदी गइ थी कि बाहर के आगंतुक साधु यदि इन चैत्यवासी यतियों के साथ न उतरे तो उन्हें अन्य कोई स्थान न दिया जावे, कोई न देने पावे ।. .
इसी कारण से सुविहित, समाचारी एवं पूर्ण क्रियानिष्ठ साधुओं का पाटन में आवागमन कई वर्षों से बंध था। राजधानी की प्रवेशबंदी आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि को खटकी, उन्होंने गुरुवर्य श्री वर्द्धमानसूरि से विनंति कर आज्ञा लेकर आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरि के साथ पाटन में प्रवेश किया। अनेक विद्वान् शिष्य आप के साथ थे। खूब प्रयास करने के बाद चैत्यवासियोंने शास्त्रार्थ करना स्वीकार किया। राजा दुर्लभराज की अध्यक्षता स्वीकार की गइ । साध्वाचार पर राजसभा में बड़ा भारी शास्त्रार्थ हुआ। परिणाम स्वरूप चैत्यवासियों की शिथिलता एवं पाखंड का भंडा फोड हुआ, आचार्य महाराज की विद्वत्ता, क्रिया शीलता एवं साधुचर्या से राजा बडा हर्षित व प्रभावित हुआ एवं भर दरबार में घोषित किया कि आप वर्तमान विद्वानो में सवोपरि, वादियों को परास्त करने में सच्चे एवं साध्वाचार पालन करने में अत्यंत खरे (सच्चे ) हो अतः आजसे आप को खरतर विरुद से अलंकृत करता हूं। तब से श्री जिनेश्वरसूरि की पाट परंपरावाले "खरतर" नाम से विख्यात है। आप की पाट पर (४२) नवांगी रहना, एवं मध्यस्थता करना स्वीकार किया हो । क्यों कि यह विवाद सं. १०८० में हुआ है।
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गुरु परंपरा
टीकाकार श्री अभयदेवसूरि हुए। आप भारी विद्वान् व महाप्रभावक थे। आप कोढ रोग से प्रपीडित थे। शासनदेवी के आदेश से गुजरात में खंभात के पास स्तंभनपुर (वर्तमान थांभणा ग्राम) के बाहर सेढी नदी के तट पर "जय निह अण" स्तोत्र की तत्क्षण रचना कर पार्श्वनाथ भगवान् की स्तवना की। स्तोत्र पूर्ण होने के पूर्व ही प्रभु श्री स्तंभन पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हुई । उन्ही प्रभुजी के स्नात्र जल से आपका कोढ रोग मिटकर देह स्वर्णतुल्य बन गइ । वि. सं. ११२० से ११३५ तक में आपने श्रीठाणांग, समवायांग, भगवती सूत्र, आदि ९ अंग सूत्रों की व उववाइ (औपपातिक) उपांग सूत्र एवं पंचाशक प्रकरण की टीकाएं रची तथा नवतत्व भाष्य, पंच निर्ग्रन्थी प्रकरण, प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी, आगम अष्टोत्तरी आदि अनेकों ग्रन्थ स्वतंत्र बनाये।
श्री अभयदेवसूरि की पाट पर (४३) आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि आये। आप पहले चैत्यवासी व कुर्चपुरगच्छीय आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे। आप का नाम जिनवल्लभ था। अपनी कुशाग्र बुद्धि से आपने अल्प आयु में ही पाणिनीय आदि आठों व्याकरण, न्याय, कोष, अलंकारशास्त्र आदि अनेक विषयों का गहन अध्ययन कर उच्च योग्यता संपादन करली थी। जैनागमों व विविध शास्त्रों का अभ्यास करने के लिये आप के गुरुने आप को पूज्य श्री अभयदेवसूरिजी के पास भेजा। आप में योग्यताथी, अभ्यास की लगन थी, व विनय भरी नम्रता थी। श्री अभयदेवसूरिने बड़े चावसे आप को समग्र आगम शास्त्रों का अध्ययन करवा दिया।
श्री अभयदेवसूरि के भक्तों में अक महान् ज्योतिषी विद्वान
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मोहन-संजीवनी
भी था कि जिसने आचार्य महाराज से भक्तिपूर्वक यह निवेदन कर रक्खा था कि " भगवन , आपको कोइ योग्य शिष्य मिले तो आप मेरे पास अवश्य भेजदें, ताकि मैं उसे ज्योतिष शास्त्र में भी पारंगत कर दूं! श्री जिनवल्लभ यद्यपि अभी तक आप के शिष्य नहीं थे पर उन की योग्यता से प्रसन्न हो उन्हें उक्त ज्योतिषी के पास भेज दिया। उन से भी विद्या ग्रहण कर श्री जिनवल्लम फिर लौट आये ओर अभ्यास पूर्ण हो जाने से अपने गुरु के पास जानेकी आज्ञा मांगी। श्री अभयदेवसूरिने अनुमति देते हुए फरमाया-"शास्त्रकारों की आज्ञा है, कि "ज्ञानस्य फलं विरति" ज्ञान संपादन करने का अर्थ-फल विरतिभाव, त्यागभाव स्वीकार करना है, तुमने जैन आगमों का संपूर्ण अध्ययन किया है अतः शास्त्रों में जैसा श्रमण धर्म का निर्देश किया गया है वैसा यथाशक्ति पालन करना ।"
___ श्री जिनवल्लभ में विनयावनत हो कर कहा, आचार्य भगवन् ! मेरी हार्दिक भावना यही है कि गुरुजी के पास जाकर, उन्हें निवेदन कर आज्ञा ले पुनः आपके पास लौट आई व आप से चारित्रोपसंपद लेकर आपके चरणों में रह आत्मकल्याण करूं।
तत्पश्चात आप पाटन से रवाना हो अपने गुरुजी के पास पहुंचे । उनका विनय कर आत्म निवेदन किया । अनुमति मिल गइ । आप तुरत ही लौट आये। शुभ मुहूर्तमें आपने आचार्य महाराज के पास शुद्ध चारित्रोपसंपदा ली एवं शिष्य बन गये। यही बात आपने स्वरचित " अष्ट सप्ततिका" में ईस प्रकार लिखी हैं
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गुरु परंपरा
"लोकार्यकर्चपुरगच्छमहाधनोत्थ
मुक्ताफलोज्ज्वलजिनेश्वरमरिशिष्यः । प्राप्तः प्रथां भुविगणिजिनवल्लभोऽत्र,
तस्योपसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च ॥१॥ इस तरह श्री अभयदेवसूरि के पास उपसंपदा स्वीकार कर आप देशदेशान्तरों में लगातार विचरण करते रहे। चैत्यवासियों की जड़ें खोखली करने व उन्हें आमूल उखाड फेंकनेका आपने जी जान प्रयत्न किया और इस कार्य में आपको आशातीत सफलता भी मिली। अपने अगाध पांडित्य व असाधारण कवित्व शक्ति द्वारा आपने अनेक ग्रन्थों की रचना कर जैन साहित्य को समृद्ध बनाया। आपके ग्रंथों की रचना देख आज भी विद्वान लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं। बागड देश में अपने उपदेश से आपने कोइ दस हजार अन्य मतावलबियोंको जैन धर्मोपासक बनाये । यो सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न इन आचार्यश्रीने अनेक लोगों को धर्म में जोडे । __इनके पट्टधर हुए प्रथम दादा श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज । आप अनेक यौगिक शक्तियों से विभूषित थे व आपका प्रभाव भी अपूर्व था। आपने एक लाख तीस हजार नये श्रावक बनाये, उनके नये गोत्र स्थापित किये एवं ये गोत्र ( पूर्व के ओसवाल श्रीमाल आदि के ) विभिन्न गोत्रों में दूध पानीकी तरह हिलमिल गये । इतने बड़े प्रमाण में नये श्रावकोंको बनाने का गौरव जैन समाज के इतिहास में केवल आपको ही मिला है। आप बडे दादाजी के नाम से प्रख्यात है और आज भी सारे
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१०
मोहन- संजीवनी
हिन्द में आपकी पादुकाएं पूजी जाती हैं, जो स्थान दादावाडियों के नाम से प्रसिद्ध है ।
श्री जिनदत्तसूरि की पाट पर आते हैं मणिधारी दादा श्री जिनचंद्रसूरि । छोटी उम्र में ही आपका प्रभाव यशस्वी बन चूका था । पावापुरीजी के शिलालेख एवं कइ पट्टावलियों से मालूम होता है कि महातियाण जाति के कि जिस जातिने पूर्वदेशीय श्री पावापुरीजी, चंपापुरीजी, राजगिरीजी आदि अनेक तीर्थस्थानों पर मन्दिरोंका जिर्णोद्धार करवाया है, उसके स्थापक आप ही हैं । आपका प्रभावशाली नाम अमर रखने के हेतु खरतरगच्छ में प्रति चतुर्थ पाट पर जो आचार्य होते हैं उनका नाम श्री जिनचंद्रसूरि रक्खा जाता है ।
क्रमशः ५० वीं पाट पर दादा श्री जिनकुशलसूरि हुए । आपने भी ५० हजार विधर्मियों को जैन धर्मी बनाए। आपके समय में खरतरगच्छ में ७०० साधु ब २४०० साध्वियां थी । सबके सब आपकी आज्ञा में विचरते थे । मुनिश्री धर्मकलशजीने अपने “ श्री जिनकुशलसूरि रास " में भी इस बात का उल्लेख किया है उससे उस समय आपका कितना प्रभाव था यह सहज ही समझ में आ जाता है। आपकी चरणपादुकायें भी बडे दादा साहब के साथ ही हर स्थान पर पूजी जाती हैं । आपके पश्चात १७ वीं शताब्दि के प्रारंभ काल तक अनेक प्रभावक व विद्वान् आचार्य होते रहे ।
संवत् १६१२ की भाद्रपद शु. ९ को ६१ वें पाट पर श्री जिनचंद्रसूरि महाराज बिराजे । ग्रामानुग्राम विहार करते आप संवत् १६२७ में नगर आगरा पधारे। एक मास के मास कल्प
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गुम परंपरा
की स्थिति कर आप ४४ मील दूर यात्रार्थ श्री शौरीपुर तीर्थ पधारे । वहां से श्री हस्तीनापुरजी की तीर्थयात्रा की। आगरा के श्री संघका पूर्ण आग्रह था अतः आपका सं. १६२८ का चातुमौस आगरा में ही हुआ। ___चातुर्मास की पूर्णाहुति के पश्चात् विहार करते करते संवत १६४९ में आपश्री गुजरात के सुप्रसिद्ध शहर खंभात में पहुंचे। आपके तप चारित्र ओर विद्वत्ता की कीर्ति चारों तरफ फैल चुकी थी। सम्राट अकबर लाहोर में थे। उनके कानों भी आपके संबंध में अनेक समाचार पहुंचे । बस क्या था, झट से पूछपरछ शुरु हुइ। मालूम हुआ मंत्रीश्वर कर्मचंद्र गुरुजीका पता दे सकेगा ! मंत्रीश्वर के उपस्थित होने पर सम्राट्ने पूछा--" आज कल आपके गुरु कहां बिराजते है ?
मंत्रीश्वर-“ हजूर ! वे खंभात में है।"
सम्राट-एसा कोइ उपाय है ? जिस से वे शीघ्र ही यहां पहुंच जाय ? ___मंत्रीश्वर-“गरीब परवर ! आज कल तो ग्रीष्म ऋतु है
और चातुर्मास में वे कहीं विचरण नहीं करते, वे पादविहारी हैं, अवस्था भी वृद्ध है अतः बहुत जल्दी तो कैसे आ सकते है। हां, फिर भी मैं आपकी ओर से निवेदन पत्र लिख के दो शाही दत भिजवाकर यथा शीघ्र आनेकी प्रार्थना करुंगा।"
यों सम्राट का आदेश पा मंत्री कर्मचंदने सम्राट अकबर की तरफ से प्रार्थना पत्र लिखकर शाही दूतों के साथ तथा अपनी
ओर से विनंती पत्र के साथ अपने आदमियोंको गुरुमहाराज की सेवा में भेज दिये।
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१२
मोहन- संजीवनी
पत्र प्राप्त होने पर धर्मप्रचार का लाभ देख लाहोर की तरफ गुरुश्रीने विहार कर दिया । बनती त्वरा से आप १६४९ की फाल्गुन शु. १२ को लाहोर पधार गये । बहुत धूमधाम से आपका नगरप्रवेश महोत्सव हुआ । स्वयं सम्राटने खूब दिलचस्पी ली और खूब सत्कार किया । समय समय पर आचार्यश्री का उपदेश श्रवण करने लगा । उपदेशका सम्राट् पर पूरा प्रभाव पडा और आचार्यश्री के चारित्र व त्याग की छाप भी उस पर काफी मात्रा में पडी । सूरिजी की प्रेरणा से आषाढ चौमासी पर्व के ८ दिनों में कोई किसी जीवको न मारे, यह फरमान बादशाहने निकाल दिया । सम्राट् आपको बड़े गुरुके नाम से ही संबोधन करते थे । आप के इस अमारी फरमानका अन्य राजा महाराजाओं पर भी प्रभाव पडा और अपने अपने राज्यों में १० दिवस से लगाकर २ महिनों तक के अमारी घोषणा पत्र जारी किये । इस तरह आचार्यश्री के प्रभाव से अनेक जीवोंको अभयदान मिला व जैनधर्म की महती प्रभावना हुइ ।
आप के बाद अन्य ८ प्रभावक आचार्य हुए जिन्होंने समय समय पर अच्छे प्रभावना के कार्य किये हैं । ७० वीं पाट पर आते हैं शांतमूर्ति आचार्य श्री जिनहर्षसूरि, जिनके कर कमलोंद्वारा चरित्रनायकजी के यतिगुरु श्री रूपचंदजी यतिदीक्षा लेते हैं ।
दैवी संकेत पर संकेत
यति श्री रूपचंदजी गांव के सम्मान्य गुरु थे । नित्य अपने क्रियाकर्मों से मुक्त हो, आप लोगों के विभिन्न प्रश्नों का समाधान करते थे । स्वास्थ्य लाभ, रोगमुक्ति के हेतु भी लोग आप के पास
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देवी संकेत पर संकेत
आते थे, परकाय प्रवेश, नजर, डाकिन, भूत या अन्य उपद्रवों की आशंका में लोगों की नजर उन्हीं यतिजी पर पडती थी । जन्मपत्री, मुहूर्त आदि में भी आप कुशल थे। यों तो राजस्थान के प्रायः सभी यति उन सब कामों में कुशल होते हैं। फिरभी रूपचंदजी की योग्यता तो अद्वितीय थी। अधिष्ठायक देव भी साधना के कारण प्रसन्न थे। आपको एक रात्रि में स्वप्न में संकेत मिला, स्वप्न में कोई विनंति कर रहा है और कह रहा है " महाराज ! यह क्षीर से भरा सुवर्ण कलश आप वोहरें-स्वीकार करें!" महाराज जागृत हुए । स्वच्छ हो पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर सोचने लगे स्वप्न तो बहुत अच्छा है, पैसे का में आकांक्षी नहीं अन्य चीजों की मुझे आवश्यक्ता नहीं। किंतु इस शुभ स्वप्न के अनुसार तो मुझे कोइ योग्य शिष्य ही मिलना चाहिये।
इधर चांदपुर में हमारे चरित्रनायक विद्याध्ययन में आगे बढते जा रहे थे। और आयुभी साथ साथ बढ़ती ही जा रही थी। माता-पिता के भी वे पूरे भक्त थे। मोहन को देख देख दोनों का आत्मा संतुष्ट था। एक बार पंडित बादरमलजी रात्रि में अपनी सुख निद्रा में सोये हुए थे कि उन्हें अेक स्वप्न-दर्शन हुआ-उन्होंने देखा की उन के हाथ में सुवर्ण थाल है। उसमें क्षीरपात्र है और सामने कोई महात्मा-यति खडे है, पंडितजी स्वयं कह रहे हैं “ महाराज ! लीजिये यह स्वीकार कीजिये।” पंडितजी जग पड़े सोचने लगे यह मैंने क्या देखा ? मुझ गरीब के घर में कहां सोने का थाल ओर कहां एसे शांत महात्मा को मेरा दान करना ! देवी स्वप्नद्वारा “ मोहन" के जन्म का संकेत पाना उन्हें याद आया और यह निश्चय कर लिया कि मोहन उनके
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मोहन-संजीवनी
हाथ से निकल जायगा-निकल नहीं जायगा वे स्वयं अपने हाथों उसे किसी को देदेंगे । पंडितजी को यह विचार आते ही एक बार रोमांच हो आया। जी कांपने लगा ! प्राण प्यारा मोहन दूर हो जायगा ? फिर हमारा जीवन कैसे चलेगा? और उस की मांकी तो क्या दशा हो जावेगी? इस तरफ अनेक वार विचार कर सोचा मैं योंही गभराता हूं। मेरा घर मोहन के योग्य कहां ? यहां रह कर तो वह हमारी ही, विद्या व परंपरा में आयगा । वास्तव में वह तो कोइ सिद्ध महात्मा बनने को ही संसार में आया है, मुझे अपना मोह छोड देना चाहिये और जैसा दैवी संकेत है किसी योग्य महात्मा को मोहन सोंप देना चाहिये ।
स्वप्न सिद्धि पंडित बादरमलजी को अब चिन्ता होने लगी। कौन ऐसा अच्छा महात्मा है जिसे वे अपना लाडिला सोंप दें। यति वेष का ध्यान उन्हें था फिर भी वे योग्य गुरु की फिकर में थे। जहां जाते मोहन को भी साथ ले जाते। मोहन भी ज्ञान की बातें करने लगा था और “ होनहार विरवान के, होत चीकने पात" की कहावत चरितार्थ कर रहा था।
किसी दिन कार्यवशात् पंडितजी का नागौर जाना हुआ। मोहन भी साथ ही में था । यतिश्री रूपचंदजी का नाम शहर के सभी लोगों के मुंह पर था। परिचितों से उनकी यशोगाथा सुन उनके दर्शनार्थ जाने का प्रलोभन उन्हें भी हुआ। दोनों बाप बेटे यतिजी के उपाश्रय में पहुंचे। उनकी शांत मुद्रा का प्रभाव पडा ही। पंडितजीने कुछ दिन नागौर रहना तय किया। प्रतिदिन यतिजी के
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म्वप्न सिद्धि
दर्शनार्थ जाते, वार्तालाप करते, पूछ-परछ करते, एवं आने-जानेवालों पर उनका प्रभाव देखते । उनका हृदय कहने लगा-ये ही महापुरुष है, जिन्हें मोहन सोंपा जा सकता है। नौ-दश वर्ष का मोहन भी यत्तिजी के प्रति कम आकर्षित नहीं हुआ था। उपाश्रय में जो भीड लगी रहती थी-महाराजश्री को वंदना करने आते थे, भोजन पान के लिये विनंति करने आते थे। महाराज के पास अपने दुःख दर्द मिटाने की आशा से आते थे। धर्मकार्य के लिये आते थे उन सबने मोहन पर भी गहरा प्रभाव डाला था। एक दिन पंडित बादरमलजीनें भी भारी हृदय से अपने पुत्र को गले लगा पूछ हि लिया-" बेटा ! क्या तूं इन महात्मा के पास रह जायगा ?" बालक मोहनलाल तो तैयार था ही। उसे अन्य समझावट या प्रलोभन की आवश्यक्ता नहीं थी उसने तुरंत ही अपनी सम्मति देदी। ___एक दिन अवसर देख पंडित बादरमलजी मोहन को साथ ले महाराजश्री के पास पहुंचे। योग्य अवसर देख उन्होंने महाराजश्री से विनंती की-" महाराज ! आप से एक अर्ज हैं।"
यतिजी-" निस्संकोच हो कहिये, मेरा तो यही काम है कि हर प्राणी की यथाशक्ति सेवा करुं !"
पंडितजी-नहीं गुरुजी, ऐसा मेरा कोई कार्य नहीं है। आप के पास आते मुझे दिन निकल गये-आपकी विद्वत्ता, सेवाभाव, क्रिया शीलता, धर्मवृत्ति ओर कीर्ति सबसे मुझे परिचय हुआ है। मैं चाहता हुं-मेरा यह पुत्र आपकी सेवा में रहे। ____ यतिजो-हम तो साधु हैं। हमें चीज दी जा सकती है पुनः लेना आपके अधिकार की बात नहीं होगी।
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मोहन-संजीवनी
___ यतिजी सामुद्रिक शास्त्रके भी पूर्ण ज्ञाताथे तुरंत वे शिष्य होने के नाते उसे देखने लगे, इधर स्वप्न के वृत्तांतका भी उन्हें ध्यान आया। मोहनको भी उन्होंने योग्य सुलक्षणों से युक्त पाया फिर भी स्पष्ट अनुमति लेना आवश्यक समझ उन्होंने अपने सारे आचार विचार आदि से पंडितजीको अवगत करवा कर जल्दी नहीं कर खूब सोच उत्तर देनेका आग्रह किया । पंडितजी तो कृतनिश्चयी थे फिर महाराजश्री की इतनी निस्पृहताने उनको
और भी प्रभावित कर दिया था उन्होंने आंखों में अश्रु भरे और भारी हृदय के साथ फिर एक बार अर्ज करी कि “महाराज ! मोहन आपके योग्य है आप इसे स्वीकार करें !" । ____ यतिजीने कहा " धन्य है पंडितजी ! आप, यह आपका मोहन इतना सुलक्षणा है कि यह संघका अधिपति बनेगा, हजारों सेठ-साहुकार इसके हुकम में-सेवा में रहेंगे और अनेक विमार्गियोंको सन्मार्ग पर लावेगा। आपका यह पुत्र-धर्म की जिस गद्दी पर बैठेगा उसे दीपित करेगा आप इसकी रत्ती भर भी अब चिन्ता न करें।
असार संसार मोहन अब यतिजी के पास रहने लगा। विद्याभ्यास में अपना सारा समय देता था-फिर भी जब अवकाश मिलता तो वह अन्य चीजों की जानकारी करने में नहीं चूकता था। थोडे ही वर्षों में उसने नमस्कार महामंत्र से श्री गणेश कर पंचप्रतिक्रमण, अर्थान्वय जीव विचार, नवतत्त्व, दंडक आदि ग्रन्थोंका अध्ययन कर लिया। जैन आचार विचार परंपरा आदिका भी ठोस ज्ञान
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પૂજ્ય શ્રી મેહનલાલજી મહારાજને તિપણાની દીક્ષા આપનાર તેમજ મેાતીશા શેઠની ટુંકની અંજનશલાકા કરનાર
આચાર્ય શ્રી જિનમહેન્દ્રસૂરીજી
જન્મ : સ’. ૧૮૬૭ આચાય પદવી : ૧૮૯૨
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દીક્ષા : સં. ૧૮૮૫ સ્વર્ગ વાસ : ૧૯૧૪
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स्वप्न सिद्धि
उसे होगया। मोहन की आयु अब १५ वर्ष की है, वह महाराजश्री के हर कार्य में सहायक बनता है। यतिश्री का १९०२ का चातुर्मास बम्बइ हुआ। मोहन भी साथ पहुंचा । चेले की योग्यता से किस गुरुको खुशी न होगी। यतिजी भी बम्बइ में बालक की तारीफ सुन फूले न समाते थे।
समय देख यति श्री रूपचंदजीने मोहन से कहा-भाइ ! तुम्हारे पिताश्रीने तुम्हें मुझे सोंपा था। इतने वर्ष तुम्हें साथ रक्खा है विद्याभ्यास करवाया है, साधना सिखाइ है, तुम भी अब योग्यायोग्य का विचार कर सकते हो। हमारा तो यतिधर्म है, संसार से हमें कुछ रस नहीं है। मेरी इच्छा है कि तुम एक बार फिर सोच लो कि तुम्हें क्या करना है। ___मोहनलाल को यह बात कांटे की तरह चुभी। यतिधर्म की इतनी कठिनता नहीं थी जितनी साधु धर्म की-फिर उन्हें तो अध्ययन से स्वयं समझ में आ गया था कि कौन क्या है। गुरुजी के प्रति भी उसका इतना अनन्य भाव बढ़ गया था कि वह एक दिन भी उन से अलग होने की नहीं सोच सकता था। उसने कहा-आप मेरे गुरु है, मेरे लिये दूसरा मार्ग नहीं है, मैं आपका हुँ।
यतिजी को आनंदाश्रु हो आये। मोहन दीक्षा के योग्य है यह उन्हें लग गया था, फिर उसे एक बार कस भी लिया था। ___यतिदीक्षा हमेशां श्रीपूज्य ही देते आये हैं। अतः इस संबंध में यतिजीने श्रीपूज्यजी श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी को, जो उस वख्त इन्दौर बिराजते थे और जिन के ही हाथों सिद्धक्षेत्र पाली
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मोहन-संजीवनी
ताणा में स्वनाम धन्य शेठ मोतीशाह की विशाल ढूंक में मूलनायकजी तथा अन्य अनेक जिनबिम्बों की अंजनशलाका व प्रतिष्ठा हुइ थी, लिखा । उनकी अनुमति आने पर मोहन को इन्दौर भेज दिया गया। श्रीपूज्यजीने बालक मोहनलाल की योग्यता की भी परीक्षा करी व दीक्षित करने का निर्णय किया। ____ मक्सीजी मध्य भारत में पार्श्वनाथ भगवान का बड़ा तीर्थस्थान है। दुर्भाग्य से यहां दीर्घकाल तक श्वेतांबर दिगंबरों का झगडा रहा है। तीर्थ बहुत प्रभावक एवं चमत्कारिक है। श्रीपूज्यजी महाराज ने इस होनहार बालक के लिये इसी स्थल को दीक्षास्थान चुना व उसे साथ ले आ पहूंचे। शुभ मुहूर्त देख इस असार संसार से बालक मोहन को दूर कर उसे यतिदीक्षा से संस्कृत किया । __कुछ दिनों श्रीपूज्यजीने यतिश्री मोहनलालजी को अपने साथ रक्खे । श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथजी की यात्रा करी, फिर भोपाल आये ओर नवीन यतिजी को पुनः अपने गुरुके पास जाने की आज्ञा दी। तदनुसार यति मोहनलालजी बम्बइ अपने गुरुजी के पास पहुंचे, अपने उत्तराधिकारी के रूप में "मोहन" को देख महाराजश्री बहुत हर्षित हुए।
गुरु वियोग यतिश्री रूपचंदजी यद्यपि नागौर रहते थे फिर भी यतिधर्मानुसार वे प्रायः धर्मप्रचारार्थ बाहर आते जाते रहते थे। चातुर्मास प्रायः अन्य अन्य नगरों में होता था। ‘महाराजश्री की योग्यता से सब जगह अनेक भक्तगण अपने यहां आमंत्रित किया
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गुरु वियोग
१९
ही करते थे। बम्बई का चातुर्मास हुआ, फिर दोनों गुरु चेले भोपाल के श्रावकों के आग्रह से वहां पहुंचे, चातुर्मास भी वहीं हुआ। फिर बम्बइ पधारना हुआ। बम्बइ उन दिनों कोइ साधु नहीं आता था, अतः इस उदीयमान नगर में हमेशां यतियोंश्रीपूज्यों से ही धार्मिक समारंभ किये जाते थे। बम्बइ से आप गवालियर, कोटा, उज्जेन आदि स्थानों में भ्रमण करते और चातु. र्मास करते हुए बनारस पधारे। श्री मोहनलालजी का अध्ययन चालु था। अध्ययन से भी अधिक आपको ध्यान में रुचि थी
और हरवख्त आप प्रभुध्यान करते थे, और विशेष अवकाश मिलते ही योग्य मुद्रा में स्थिर बैठ एकाग्रत हो जाते थे । बना. रस में यतिश्री रुपचंदजी का स्वास्थ्य बिगडा, अनेक उपचार किये गये, श्री मोहनलालजीने पूरी तन्मयता से गुरुसेवा की। पर होनहार को कौन रोक सकता है, महाराजश्री का चै. शु. ११ सं. १९१० में स्वर्गवास हो गया। श्रीपूज्यजी श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी भी यहीं विराजते थे। गुरु वियोग से खिन्न हमारे चरित्रनायकजी को उन्होंने खूब सांत्वना दी व अपने पास रख लिये। श्रीपूज्यजी के पास रहने से आपको और भी अधिक लाभ हुआ, आपने अपना अध्ययन आगे बढाया एवं अन्य परिपादियों में शंका समाधान कर योग्य विचार स्थिर करने लगा। ३-४ वर्ष श्रीपूज्यजी के साथ बीते । १९१४ का चातुर्मास लखनउ में था। पर्युषण महापर्व के दिवस थे। यतिश्री मोहनलालजी धर्मसाधन में विशेष उद्यत थे। तपस्वी श्रीपूज्यजी की सेवा में तत्पर थे। जनसमुदाय को धर्मक्रियायें करवाने में तत्पर थे । पर्युषण में श्रीपूज्यजी महाराज का स्वास्थ्य भी खराब हुआ । इन महापर्वो के
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मोहन-संजीवनी
दिनों में वे अधिकांश ध्यानमग्न रहते । बाह्य उपचार था सही पर आपकी तत्परता, आत्मदर्शन की तरफ ही थी। संवत्सरी पर्वका महादिवस-जब सारी दुनिया से जैन मानस क्षमा का आदान प्रदान कर निर्वर हो मैत्रीभाव धारण करता है। श्रीपूज्यजोने भी ८४ लक्ष जीवायोनि के जीवों से क्षमापना करते हुए अपना नश्वर देह छोडा।
पूर्ण सन्यास की ओर श्रीपूज्यजी महाराज के स्वर्गवास से आपको काफी रंज हुआ। गुरुजो के बाद आपको श्रीपूज्यजीने बहुत स्नेह के साथ रक्खा था व काशी में विद्याध्ययन करवाया था। खूब अपने मन को समझाते रहे फिर भी जी में गुरुभक्ति उमड आती थी और आंखें उत्तर देने लगती थी। आपने सोचा कुछ दिन तीर्थयात्रा कर आउं तो ठीक हो । इधर बाबू छुट्टनलालजी की भावना हुइ कि पालीताणा की यात्रा संघ के साथ की जाय । जब उनकी तय्यारी हो गई तो उन्होंने यति श्री मोहनलालजी से भी साथ चलने की विनंती की । महाराजश्री की भावना तो थी ही, आप संघ के साथ पालीताणा पहुंचे। बडी भक्तिभाव के साथ आपने यात्रा की। श्री गिरनारजी भी संघ के साथ पधार आये । इस यात्रा से आपको पर्याप्त सांत्वना मिली । यात्रा कर आप पुनः लखनउ पधार गये और वहीं रह कर ध्यान करने लगे। लखनउ ही अब आपका साधनाक्षेत्र बन गया। १२ वर्ष आपने यहीं बिताये।
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मुनि भावोत्पत्ति
मुनि भावोत्पत्ति ___ संघ के आग्रह से आप एक बार कलकत्ता पधारे । ध्यान तो आपका जीवन का कार्य बन गया था। एक दिन जब आप ध्यान में तल्लीन हो रहे थे, शरीर व आंख की सारी चेष्टायें बंध थी, योगीन्द्र श्री पार्श्वनाथ भगवान का ध्यान चल रहा था उसी में आपने देखा एक काला नाग, फण उसका खुल्ला है, मुंह फाडे हुए है और चला आ रहा है। जब आपका ध्यान छूटा तो बार बार आप इस दृश्य पर विचार करने लगे, उनका हृदय कहने लगा यह जरूर कुछ दैवी संकेत है । अंत में आपने निर्णय किया-प्रभु की कृपा से ही मुझे चेताया गया है कि संसार का यही स्वरूप है। काल कराल सदा मुंह फाडे खडा है कब काल भक्षण कर जायगा, पता नहीं। फिर संसार में बांधने वाले इन परिग्रह आदि का क्या प्रयोजन ? ज्यों ज्यों आपकी विचारधारा तीव्र होती गई आपके विचार-स्पष्ट ओर निश्चित होने लगे।
अपूर्व गुणग्राहकता इसी अवसर में एक ऐसी घटना बन गइ की जिस का प्रभाव आप के हृदय पर बडा ही गहरा पडा, बात ऐसी बनी की सं. १९२८ का यह चातुर्मास आप का कलकत्ते में था। उस समय आप जैन रामायण पर हमेशां उत्तम शैलीसे प्रवचन किया करते थे, आप की वाणी में अनन्य साधारण माधुर्य था, विषय प्रतिपादन शैली जनाकर्षक थी, इससे जनता की भीड अधिक प्रमाण में जमती थी, शास्त्रश्रवण के अभिलाषी गुजराती श्रावक लोक भी
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२२
मोहन- संजीवनी
अनेकों आया करते थे, उनमें से एक गु० श्रावक जो धर्मनिष्ठ होने के साध कुछ धर्मशास्त्र का अभ्यासी था, वह भी हमेशां नियमित व्या० श्रवण को आता था, परंतु कभी भी गुरुजी को ' अब्भुट्टिओ' खमाके वंदन नहीं करता, एक दिन किसी गुरुभक्तने उसे कहा- क्यों जी ! तुम गुरूजी म० को वंदन नहीं करते ? |
,
गु० भाइने कहा — वंदन के योग्य हो तो न ।
गुरु भक्त – कैसे ? ।
गु० भाइ — पंचमहाव्रतों का यथावत्पालन करने वाले ही वंदन के योग्य होते हैं, इन गुरुजी में इन सब बातों का अभाव है । इसी कारण मैं वंदन नहीं करता ।
गुरुभक्त को यह बात रुचिकर न हुइ, बस फिर क्या कहना था ? उसने यह सारी ही हकीकत चरित्रनायक से निवेदन करी, सुनकर चरित्रनायकने फरमाया - महानुभाव ! उस का कहना बिल्कुल ठीक है, हमारे पास केवल वेष मात्र है, परंतु वेष के योग्य
हमारे में सम्हालें, श्रावक बडा
नहीं है, अतः हमको तुमने इस बाबत में
समझदार है, उसने
वर्तन जो कि शास्त्रों में वर्णित है, चाहिये - अपनी कर्त्तव्यदिशा को जरा भी नाराज न होना, वह यह बडी ही अच्छी शिक्षाकी बात कही है, इस प्रकार अपनी भूल को सुधारने का, नहीं कि कहनें वाले के प्रति द्वेष करने का लक्ष्य रक्खा, बस फिर क्या था ? अपनी भावना में खूब ही स्थिर हो गये और दूसरे ही दिन प्रातः काल जब आपश्री जिनमंदिर दर्शनार्थ पधारे तो वहीं श्री संभवनाथ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष प्रतिज्ञा की कि अब मैं कोई नया परिग्रह नहीं लूंगा, जो है
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अपूर्व गुणग्राहक
२३
उसका भी त्याग कर दूंगा व इस अर्ध संन्यास को छोड पूरा संधेगी मुनि बन जाउंगा।
चातुर्मास पूर्ण होने पर कलकत्ता से यतिश्री बनारस पहुंचे जब श्रावकों के सामने यतिश्रीने अपने विचार रक्खे तो लोग अचंभे में रह गये। कितने यति ऐसे थे कि जो रुपयों में ही बात करते थे। महाराजश्री का त्याग अद्वितीय था। जैसे जैसे विचार किया था वैसे वैसे अपना द्रव्य व्यय करवाने लगे। श्रावकोंने चातुर्मास के लिये आग्रह किया। अतः १९२९ का चातुर्मास बनारस में ही हुआ । चातुर्मास पूर्ण होने पर आपने अयोध्याजी, सावत्थी आदि तीर्थों की यात्रा की और लखनउ पहूंचे । लखनउ में भी श्रावकोंने जब आप के विचार जाने तो भक्ति से गद् गद् हो गये । महाराजश्री कुछ दिन ठहरे। अपने द्रव्य का व्यय किया व अन्य परिग्रह की योग्य व्यवस्था की, यहां से जयपुर जाने का निर्णय कर प्रस्थान किया। दिल्ही, आगरा आदि अनेक स्थानों में होते हुए जयपुर के निकट प्रदेश में पहुंच गये ।
मविश्वास इस प्रदेश में आपने एक दफा मध्यान्ह के वाद विहार किया। सूर्य ढल रहा था। धारणानुसार अल्प दूरी निकली नहिं मंजिल तक पहुंचने में काफी रात आजाना संभव था। ऐसा करना साध्वाचार से विपरीत था। महाराजश्री कुछ विचार में पड़ गये थोडी ही दूर चलने पर एक बगीचा नजर आया। इस सुने जंगल में महाराजश्री को बगीचा देख कुछ संतोष हुआ। महा. राजश्रीने अंदर प्रवेश किया-देखा तो एक छोटा सा मकान बीच में
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मोहन-संजीवनी
खडा है पर मनुष्य का कोइ वास नहीं है। ओर कोइ साधन उपलब्ध नहीं है। फिर भी महाराजश्री अपने विचार बल में स्थिर थे, वहीं उन्होंने " अणुजाणह जसगो" कहा और अपना आसन बिछाया। प्रतिक्रमण किया, यथा समय पोरसी पढ़ाली । ओर कुछ देर आराम कर इस शून्य आवास में पूर्ण शांति के वातावरण में आप पद्मासन जमा ध्यान में बैठ गये। मध्य रात्रि का समय हुआ था, महाराज स्थिर बैठे थे, वायु धांय धांय चल उठा था, पशुओं की गति और उनके आवाज का शब्द धीमे थे पर स्पष्ट सुने जा रहे थे। महाराजश्री ध्यानमें मग्न थे। कुछ ही देर में शेर की गर्जना सुनाई दी। गर्जना धीमे धीमे समीप सुनी जाने लगी। कुछ ही देर में आंख खोली तो देखा सामने ही शेर मुंह फाडे चला आ रहा है। महाराजश्री अपने ध्यान में और स्थिर हो गये. देह की नश्वरता और आत्मा के अमरत्व का आप को अनुभव हो चूका था। जरा भी विचलित हुए वगैर प्रभुध्यान और शास्त्रों की आज्ञाओं में तल्लीनता बढने लगी। " एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥१॥" " संजोगमूला जोवेण. पत्ता दुक्खपरंपरा ।
तम्हा संजोगसंबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरियं ॥२॥" "खामेमि सच जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सम्वभूएसु, वे मज्झ न केणइ ॥३॥"
इन्हीं विचारणाओ में समय चला गया, शरीर स्थिर था। शेर कुछ देर खडा रहा और फिर लौट चला। ध्यान ही में रात्रि
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છે
પૂજ્યપાદ શ્રીમાન મોહનલાલજી મહારાજશ્રીના
જુદી જુદી અવસ્થાને ફોટાઓ
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· विहार-शिष्य परिवार
व्यतीत हुइ । वैराग्य की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। प्रातःकाल हुआ और विहार कर आप क्रमशः जयपुर पधार गये । यह चातुमौस (सं. १८३०) जयपुर में ही हुआ। चातुर्मास के बाद आप विहार कर अजमेर पहुंचे।
यह प्राचीन नगर अनेक ऐतिहासिक घटनाओंसे संबद्ध है। सारे राजपूताना के राज्यों का ब्रिटिश निरीक्षण केन्द्र है ओर बडे दादा श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज की स्वर्गवास भूमि है। यतिश्री मोहनलालजी के आगमन से श्री संघ में अत्यधिक हर्ष फैला हुआ है। महाराजश्री वैराग्य रस में निमग्न हैं। .. अच्छा मुहुर्त देख महाराजश्रीने प्रभु श्री संभवनाथजी की प्रतिमा समक्ष जा अपने सारे परिग्रह का त्याग किया पूर्ण पंच महाव्रत धारण किये व शुद्ध मुनिवेष को धारण कर ४३ वें वर्ष में क्रियोद्धार किया-संवेग भाव धारण किया। अजमेर नगरमें यह समाचार फैल गये । श्री संघमें खुशी खुशी छा गई । महाराजश्री की कीर्तिपताका लहराने लगी। बच्ने बच्चे की जबान कह रही थी" मुनिश्री मोहनलालजी महाराज की जय."
विहार-शिष्य परिवार मुनिश्री मोहनलालजी अब वर्तमान परिभाषा के यति नहीं रहे । उनका यह पूर्ण त्याग अनेक लोगों को आकर्षित करने लगा। गृहस्थ में से साधु बनना कइ अपेक्षाओं में सरल है पर
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मोहन-संजीवनी
यति में से पूर्ण साधु बनना जरा कठिन है, साधु कहलाकर साधुत्व के सिद्धान्तों को अंशतः मान कर रहना और फिर उनका त्याग करना अधिक मनोबल की आवश्यक्ता रखता हैं। फिर मुनिश्री का यह वैराग्य, दुःख या चिन्ताओं के मूलबाला नहीं था, न क्षणिक उपदेशों से ही आपको वेग चढा था बल्कि अंदर से यह भाव उठे थे। संसार स्वरूप का स्पष्ट दर्शन कर चुके थे, संसारिक विचित्रता में मूल सत्य क्या और कहां है इसका अनुभव आपको हो चुका था । बडे बडे सेठ-साहूकारों व जोहरिओं का सन्मान, यतित्व की समृद्धि और कीर्ति को भी आपने क्षणभंगुर ही समझा था। आप तो ज्ञानगर्भित वैराग्यामृत का पान ही करना चाहते थे और इस तरह आपका किया हुआ क्रियोद्धार जैन समाज में एक अनोखा बनाव बन गया। महाराजश्री का यश चारों ओर फैल गया। दूर दूर से लोग दर्शनार्थ आने लगे। अजमेर शहर भी अपने को धन्य मानने लगा। जाति पांति के संबंध तोड, मत संप्रदाय का मोह छोड जनता इस वैरागी का उपदेश सुनने उमड़ने लगी। महाराजश्री को अब विहार की भी जल्दी थी। श्री संघ के आग्रह से कुछ दिवस ठहर आपने अजमेर से प्रस्थान कीया।
स्थान स्थान पर ठहरते व उपदेश देते आप पाली पहुंचे। पाली उन दिनों भी राजस्थान की आज की तरह मुख्य व्यापारिक मंडी थी। दूर दूर से व्यापारियों का आवागमन होता था। गुजराती बंधुओ की भी कोइ १५०-२०० दुकानें थी। जैन समाज बडा जागृत था । बारह व्रतधारी उत्कृष्ट श्रावक श्री नगराजजीने अभी हालही में दीक्षा ली थी। द्रव्यानुयोग के महान् अभ्यासी
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विहार-शिष्य परिवार
२७
व धर्मपरायण व्रतधारी श्रावक श्री तेजमालजी पोरवाल व व्यवहार कुशल एवं साधु-साध्वियों की अनन्य भक्ति करने वाले श्रावक शिरोमणि श्री चांदमलजी छाजेड के नेतृत्व में हमेशां संघ में विविध प्रवृत्तियां चला करती थी। किसी भी साधुको पाली में प्रवेश करते समय पूरा सचेत रहना पड़ता था। कच्चे-पाचे साधुओं को यहां निभना मुश्किल था। महाराजश्री के पूर्व ही उनका यश तो पहुंच ही चुका था । पाली पधारने पर पाली के जैन श्री संघ व जनताने आपका अपूर्व स्वागत किया। महाराजश्री के पधारने पर घर घर में चेतना फैल गइ । श्री संघने अत्यंत आग्रह कर चातुर्मास करने की हाँ ली। खूब तपस्या हुइ, उत्सव-महोत्सव हुए। पाली श्री संघ में खूब आनन्द फल गया। यों आपका संवेगभाव धारण करने बाद सं० ४१९३१ का प्रथम चातुर्मास पाली में हुआ। चातुर्मास की पूर्णाहुति के बाद आपने जब विहार किया तो अनेक नर-नारियों की आंखों से अश्रुमोती झरने लगे। कई लोग दो दो चार चार मुकामों तक आपको पहूंचाने गये। महाराजश्री प्रामानुग्राम विचरते, उपदेश देते क्रमशः सिरोही पधारे, संघने स्वागत किया। तत्कालोन नरेश श्री केशरसिंहजीने जब आपके व्यक्तित्व के संबंध में सुना तो दौड आये। श्री संघ के साथ आपने भी आग्रह किया कि महाराजश्री चातुर्मास सिरोही में ही करें। लाभ का अवसर जान
x यह संवत्संख्या मूल चरित्रानुसार गुजराती पद्धति से लिखी गइ है, अतः राजस्थानादि की अपेक्षा चैत्र शु० प्रतिपदा से लगाके दीवाली से पहले के प्रसंग में एक वर्ष अधिक गिनने का सर्वत्र ध्यान रखने का अर्थात् १९३१ के बदले ३२ से प्रारंभ करके १९६३ तक के चोमासे गिनने ।
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मोहन-संजीवनी
महाराजश्रीने सम्मति दी। सारे चातुर्मास में खूब तप उजमणे आदि हुए । दरबार भी हमेशां संपर्क में आते रहते और यथा समय उपदेश सुनते । १९३२ का चातुर्मास पूर्ण होने पर आप विहार कर फिर पाली पधारे । पाली श्री संघ तो आपके उपदेश के विना बेचैन सा हो रहा था। सबने मिल महाराजश्रीको खूब आग्रह किया, फलतः १९३३ का चातुर्मास पाली ही में हुआ। १९३४ का चातुर्मास सादडी, १९३५ का जोधपुर एवं १९३६ का अजमेर में हुआ।
अजमेर से आप विहार कर भिन्न भिन्न गांवों में उपदेश देते हुए, त्याग करवाते हुए फिर जोधपुर पधारे । शहर में प्रवेश करते समय महाराजश्री का दहेना (जीमणा) नेत्र और हाथ फुरकने लगा, उस पर"सिरफुरणे फिर रज, पियमेलो होइ बाहुफुरणम्मि । अच्छिफुरणम्मि य पियं, अहरे पियसंगमो होइ ॥१॥"
(उत्त० अ० ८ सुखबोधाट्रीका) इत्यादि शास्त्रकथनानुसार महाराजश्रीने विचारा कि-यहां अवश्य कोइ भव्यात्मा प्रतिबोध पायेगा। क्रमशः धर्मशाला में पधारे । श्री संघने आग्रह किया और चातुर्मास तक स्थिरता करना तय हुआ। इसी स्थिरता काल में आपश्री के उपदेश से आत्मज्ञान प्राप्त कर वैराग्यभाव धारण कर पारखगोत्रीय श्री आलमचंद नामा महानुभावने महाराजश्री से विनंती की कि उसे प्रवज्या दी जाय । महाराजश्री को तो लोभ था नहीं आपने उसे सब तरह समझाया व दीक्षा लेने बाद साधु की क्या जिम्मेदारी है
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विहार-शिष्य परिवार
आदि सब चीजों को स्पष्ट किया, पर यह भावि शिष्य भी कोइ रस्ते चलता नहीं आया था, उसने सिर झुका महाराजश्री से इतना ही कहा-आपके आशीर्वाद से मैं विशुद्ध चारित्र पाल सकुंगा। तब श्री संघ के समक्ष उक्त प्रस्ताव रक्खा गया । एवं सर्व सम्मति से आशाढ़ शु १० को दीक्षा देने का तय हुआ। उस दिन खूब उत्सव हुए। शहर सजा था, वरघोड़ा निकला था,
और पूरी धूमधाम से यह महोत्सव पूरा हुआ । नूतन मुनिश्री का नाम आनंदमुनि रक्खा गया।
दूसरे ही दिवस विहार कर आप पाली पधारे । १९३७ का चातुर्मास पाली में हुआ। चातुर्मास की पूर्णाहुति के बाद आपने बीकानेर की ओर प्रस्थान किया । रास्ते में कुछ दिन नागौर भी ठहरे। बिकानेर जाते वख्त रास्ते में जोधपुर श्री संघने पूर्ण आग्रह किया था कि चातुर्मास जोधपुर में हि किया जाय। अतः फिर महाराजश्री जोधपुर पधार गये व १९३८ का चौमासा जोधपुर में किया। यहां से आपने मेवाड प्रदेश की ओर विहार किया और वहां से पहाडी मार्ग से ही आप सिरोही पहुंचे। १९३९ का चौमासा सिरोही में किया । सिरोही से अजमेर ओर वहां से व्यावर पधारे । व्यावर श्री संघने आप को स्थिरता करने का आग्रह किया। जोधपुरनिवासी श्री जेठमलजी महाराजश्री के पास आये और विनंति करने लगे कि गुरुदेव अपना शिष्य बनालें। श्री जेठमलजी पढ़े लिखे व्यक्ति थे। धार्मिक ज्ञान भी पर्याप्त था-अध्ययन अध्यापन का कार्य भी किथा था तप भी अनेक प्रकार के कर चुके थे। योग्य गुरु की तलाश में थे और मुनि श्री मोहनलालजी के संबंध में जब सुना तो दौडे आये।
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मोहन-संजीवनी
क्यों की पीछले कई वर्षों तक आप राजस्थान से बाहर थे । __ महाराजश्रीने पात्र समझ स्वीकृति दे दी और जोधपूर पधारे। प्रथम शिष्य भी महाराजश्री को यहीं प्राप्त हुआ था और दूसरा भी यहीं मिल रहा था। जोधपुर के श्री संघ में उत्साह का वातावरण था। १९४० के जेठ शुद ५ को दीक्षा दी गइ । यशोमुनि नाम रक्खा गया । नाम क्या निकला था साक्षात् यश ही प्राप्त हुआ था। पिछले ९ वर्षों में आपने त्याग बल व वचनबल से जो यशोपार्जन किया वह मूर्त रूप धारण कर यह यशोमुनि शिष्यरूप में आ मिला था। नवदीक्षित मुनि की आयु २८ वर्ष की थी। लोगोंने फिर भी पूछ लिया-महाराज ! नये मुनि जल्दी तैयार हो जायेंगे क्या ?" महाराजश्रीने शांतभाव से प्रत्युत्तर दिया “ तीसरे वर्ष तुम्हें व्याख्यान सुनाधेगा"।
बात बात में मिल गइ। जोधपुर से विहार हुआ-अजमेर पहुंचे। १९४० का दसवां चातुर्मास अजमेर में किया । दिनोदिन महाराजश्री का प्रभाव बढ रहा था । तप भी वृद्धि गत होता जा रहा था और त्याग व तप से शासन की शोभा भी बढ़ रही थी, चातुर्मास में खूब धर्मध्यान हुआ। अजमेर ही में महाराजश्री की भावना तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजी की यात्रा करने की हो रही थी। चातुर्मास की पूर्णाहुति के बाद अपने विनीत शिष्य श्री जसमुनि के साथ महाराजश्रीने पालीताणा की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में आपने गोढवाड की पंचतीर्थ-वरकाणा, राणकपुर, नाडोल, नाडलाइ व मुछाला महावीरजी ( घाणेराव ) की भी यात्रा की । धर्मोपदेश करते करते आपश्री सिद्धाचलजी पहूंचे। कुछ दिन
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स्थिरता कर श्री युगादिदेव की भाव भक्तिकर पुनः वहां से विहार कर आप पाटण पहुंचे। __ पाटण गुजरात का गौरवपूर्ण शहर है। अनेक उत्थान पतन इसने देखे थे। पट्टनी लोग अपनी मुत्सद्दीगिरी के लिये भी प्रसिद्ध है। यहां के व्यापारी भी स्थान स्थान पर जा कर सिद्ध हस्त सिद्ध हो रहे है। जोहरात का भी बड़ा व्यापार था। जैनों का यह शिखरसा नगर है, अनेकानेक जैनमंदिर यहां है, प्रन्थ भंडार भी बड़ा है, श्रावक गण भी योग्य हैं। जब महा. राजश्री पाटण पहुंचे तो संघने ऐसा भव्य स्वागत किया जैसा पिछले कई वर्षों में किसी साधु का नहीं हुआ था। यशः श्री से समृद्ध व यशोमुनि के साथ मुनिश्री मोहनलालजी महाराज का प्रताप भी बढ़ रहा था। १९४१ का चातुर्मास पाटण कर पालणपुर पहुंचे। यहां भी संघने बहुत आग्रह कर आप की स्थिरता करवाइ व १९४२ का चातुर्मास भी करवाया।
पालणपुर से आप डीसा पधारें। वहां पालणपुर में लगातार आप की वैराग्य देशना से तृप्त और आत्मज्ञान को लाभ किये हुए श्रावक श्री बादरमलजी आये और दीक्षार्थ विनंति की । महाराजने उन्हें (१९४३) मार्गशीर्ष कृ. २ को दीक्षा दे श्री कांतिमुनि नाम रक्खा । यहां से आपने आबूजी एवं अन्य तीर्थों की यात्रा कर विहार करते करते जोधपुर पधारे, यहां श्री कांतिमुनिजी को बडी दीक्षा दी। श्री संघ का आग्रह था अतः महराजश्री कोई तीन महिने तक जोधपुर की जनता को धर्मोपदेशामृत का पान कराते रहे। विहार कर आप फलोधी पधारे ।
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३२
मोहन-संजीवनी
- फलोधी श्री संघ के कइ वर्षों के मनोरथ पूरे हुए थे और महाराजश्रो को अब वे छोडना नहीं चाहते थे, उन्होंने चौभासे के लिये पूर्ण आग्रह किया। जोधपुर से भी श्री संघ के आगेवान आ पहूंचे । महाराजश्रोने एसी होड कभी नहीं देखी थी। जोधपुरवाले महाराजश्री को ले जाने का निश्चय कर आये थे तो फलोधीवाले भी घर आई गंगा को छोड़ने तैयार नहीं थे। अंत में गुरुवरने श्री यशोमुनिजी को जोधपुरवालों के साथ भेजा व कहा की सबका मन एकदम दुःखाकर आना उचित नहीं है। अभी तो आप लोग जाइये फिर मैं समझा बुझाकर आने की प्रयत्न करुंगा । श्री जसमुनिजी बिहार कर जोधपुर पहुंच गये, फिर भी श्री संघ का आग्रह श्री मोहकलालजी महाराज के लिये चालु ही रहा । चातुर्मास का समय समीप आने लगा-उधर गुरुमहाराज को पधारते नही देख श्री यशोमुनिने भी गुरु सेवा में जाने की बात बताई। जोधपुरवाले असमंजस में पड गये, वे गुरुमहाराज के पास पहुंचे, खूब आग्रह किया पर जब देखा की फलोधी क्षेत्र का छूटना कठिन है तो उन्होंने श्री जसमुनिजी को चौमासे में स्थिरता करने का अनुमति पत्र मांगा। महाराजश्रोने यह खुशी से दिया। श्री जसमुनिजीने भी गुरुआज्ञा शिरोधार्य समझ चौमासा जोधपुर में ही किया। आपने पूरे चातुर्मास आयंबिल की तपस्या की ओर व्याख्यान में श्री संघ को उत्तराध्ययन सूत्र सुनाया। श्री सघ में खूब हर्ष का वातावरण रहा तप जप भी बहुत हुआ। व गुरुमहाराज की दीक्षा वरन्त की भविष्यवाणी कि " तीसरे वर्ष व्याख्यान सुनावेगा" को सिद्ध हुइ । सच है महात्मा पुरुषों के वचन कभी अकारथ-निष्फल नहीं जाते। चातुर्मास पूर्ण होने पर
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विहार-शिष्य परिवार
तुरंत विहार कर श्री जसमुनिजी गुरु सेवा में फलोधी पहुंच गये।
अपने शिष्य-परिवार के साथ फलोधी से विहार कर मुनिश्री मोहनलालजी जैसलमेर पधारे । जसलमेर महातीर्थ है। यहां के किले के अंदर बने हुए मन्दिर इस बात के प्रमाण है कि राज्य पर जेनोंका बडा प्रभाव था। यहां का ग्रन्थ भंडार तो सारे भारत वर्ष में अपनी जोड का एक ही है। यहां जितने जिनविम्ब है, सारे देश में कहीं नहीं है। महाराजश्रीने श्री चिन्ता मणि पार्श्वनाथ आदि सहस्रों जिनप्रतिमाओं के दर्शन किये, ब्रह्मसर में पूज्यतम गुरुदेव दादाश्री जिनकुशलसूरि की प्रभावक पादु. काओं की वन्दना की, लोदवा में श्रेष्ठीवर्य श्री थीरुशाह भंशाली निर्मापित मंदिर में श्री सहस्रफणा पार्श्वनाथ भगवान की अलौकिक चमत्कारिक प्रतिमा के दर्शन किये । कहते हैं कि इस प्रतिमाजी को निर्मित करने वाले कुशल कारीगरने अपनी सारी उमर में यह एक ही प्रतिमाजी घडी थी । महाराजश्री इस प्रभावक क्षेत्र में थोडे दिन स्थिरता कर पुनः फलोधी पधारे व आगे पाली, वरकाणा, आदि में यात्रा कर आबूजी पधारे। आबू के महान् देवालयों में वंदना कर अचलगढ के क्षेत्र में पधारे। यहां भी आपने सभी मन्दिरों के दर्शन किये व खराडी उतरे। खराड़ी में आपने एक व्यक्तिको मुनिवेष में देखा। सहज उत्कंठा से उसे पृछा तो बताया कि “मैं पारख गोत्रीय हुँ, कच्छ-मांडवी का निवासी हूं। वैराग्य हो गया था तो ऐसे ही साधु वेषके कपडे पहन लिये हैं। महाराजश्रीने उसे पात्र समझ उपदेश दिया और सही साधु मार्ग का प्रदर्शन किया। उसने भी सोचा कि मैं अनि
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मोहन- संजीवनी
श्चित मार्ग में हुं. फिर मुझे कौन ऐसा गुरु मिलेगा ? क्यों न मैं इन की ही चरण सेवा स्वीकार कर लूं ? तत्काल विनंति की कि महाराज ! अपना शिष्य बनाने की कृपा करें। " योग्य समझ महाराजश्रोने उसे १९४४ के चैत्र सुद ८ को दीक्षा दे श्री हर्षमुनि नाम दिया।
यहां से आप अहमदाबाद पधारे। व १९४४ का चातुर्मास अहमदाबाद विद्याशाला के उपाश्रय में किया ! अहमदाबाद तो जैनपुरी कहलाता है, जैनों के यहां अनेक मन्दिर है, उपाश्रय है। अनेक प्रवृत्तियां यहां चलती रहती है। अनेक साधु साध्वियों के दर्शनका यहां योग मिला ही करता है। महाराजश्री की कीर्ति तो पहले ही फैली हुइ थी। श्री संघने चातुर्मास करवा ही लिया । महाराजश्री के उपदेश का अपूर्व प्रभाब पडा। कहते हैं अहमदाबाद में ४०० श्रावक चौथे व्रत (ब्रह्मचर्य) को धारण करने वाले थे, उनकी संख्या बढ कर आपके चौमासे में ८०० की हो गइ। पाठक अंदाज लगा सकते हैं कि अन्य व्रत-तपस्या आदि तो कितने हुए होंगे। खूब धर्मप्रभावना हुइ:। ___ यहां से विहार कर आप पालोताणा पधारे । ९९ यात्रा करने का मनोरथ पूरा किया। १९४५ का चातुर्मास भी गिरि राज की पवित्र छाया में कर समय का सदुपयोग किया।
कार्तिकी पूर्णिमा पर आनेवाले अनेक यात्रियों में सूरत के भी अग्रगण्य श्रावक आये थे। उन्होंने महाराजश्रो से अर्ज की कि वे सूरत अवश्य पधारें। महाराजश्रीने भी क्षेत्र स्पर्शना समझ हां भर ली और पालीताणा से मृरत की ओर विहार किया।
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सूरत में प्रभावना
सूरत में प्रभावना सूरत पहुंचना था, अनेक श्रावक सूरत तक साथ चलने महाराश्री की निश्रा में थे। गांव गांव घूमते, धोपदेश करते, सन्मार्ग दिखाते. त्याग करवा कर सन्मार्ग पर लोगों को लातेजैन साधुता की ध्वजा लहराते, महाराजश्री सूरत की तरफ आगे बढते जाते थे। रास्ते में आप धोलेरा पहुंचने वाले थे और वहां आपका एक दिवस का मुकाम भी था। जब आप सन्निकट पहुंचे तो मालूम हुआ कि तपागच्छीय-ख्यातनामा पू० आचार्य श्री विजयानन्दसूरि-प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी महाराज भी आज ही इस क्षेत्र में पधार रहे हैं, और उनका स्वागत हो रहा है, बाजे बज रहे हैं, श्रावक साथ में थे। उन्होंने पूछा महाराजश्रो ! हम गांव में जाकर सूचित कर आवे। पर इन महात्मा को तो कीर्ति का मोह छू भी नहीं सका था। आपने सोचा अकस्मात हमारे समाचारों से शायद उनके स्वागत में कुछ बाधा आ जावे तो ? अतः अपने को गांव से बहुत दूर रुक जाना चाहिये और जब शांतिपूर्वक सारा कार्य हो जावे तो गांव में चलेंगे। श्रावक कुछ तो अंदर के अंदर जल गये, कुछ को महाराजश्री की उदारता
और समयज्ञता और सहिष्णुता पर गौरव हुआ। महाराजश्रीने कुछ समय विश्राम कर जब यह ध्यान में आ गया कि शहर में अब शांति है, कोइ बाजा नहीं बज रहा है, आप चुपचाप अपने परिवार को साथ लिये चलते रहे । चुपचाप आप सीधे श्री आत्मारामजी महाराज जहां व्याख्यान दे रहे थे, उसी उपाश्रय में जा पहुंचे। नाम तो सबमे सुना था पर श्री संघ के अनेक व्यक्ति दर्शन से वंचित थे, जब आवाज उठी कि
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मोहन-संजीवनी
" मुनि श्री मोहनलालजी की जय" तो संघ में आश्चर्य के साथ एकदम आनन्द छा गया। पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज भी एकदम हर्ष से लबालब हो गये, ओर व्याख्यानपीठ में नीचे उतर आये। ___ श्री आत्मारामजी महाराज पंजावी थे। सारा पंजाब उनके इशारों पर नाचता था। उनको गुरु के रूपमें पा निहाल हा गया था। पर गुजरात और राजस्थान में भी उनका स्थान कम न था। वह समय था जब जैन साधुओं का बडा अभाव सा था। पंजाब से मारवाड और गुजरात तक महाराजश्रा का पूरा प्रभाव था यही स्थिति श्री मोहनलालजी महाराज की थी परंतु एक की मान्यता थी तपगच्छ की, एक की खरतरगच्छ की । दोनों ही अपने गच्छ के अधिनायक थे । पर यहां तो दोनों अपने अधिनायकत्व को भूल गये। नम्रता, उदारता ओर विशाल हृदयता के अग्छूट भंडार वाले इन की अंदर की नम्रता उभर आइ दोनों एक दूसरे को वंदन करने तैयार हो गये, बड़ी होड चली पर अंत तक किसीने भी किसी को वंदन नहीं करने दिया। कहां आज का एक गच्छवालों की अधिनायकत्व के मोह में आपसी विद्वेषता का कलुषित वातावरण और कहां इन दो भव्य विभूतियों का स्वच्छ नम्र हृदय । आज भी यदि जैन समाज के साधुओं में ऐसी उदारता होती तो प्रभु महावीर का संदेश दुनियाके कोन कोन में पहुंचा होता व समाज का वातावरण स्वस्थ होता । अस्तु, अंत में दोनों के शिष्योंने परस्पर वंदना की। श्री संघ भी उस घटना को देख दंग हो गया ओर भक्ति भरे हदयों से दोनों की भक्ति में रत हो गया।
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सूरत में प्रभावना
धोलेरा से विहार कर आपने खंभात में श्री स्तंभन पार्श्वनाथ प्रभु की यात्रा की। वहां से भरुच पधारे और श्री मुनिसुव्रतस्वामी के प्रासाद के दर्शन किये । यो यात्रा करते करते आप सुरत पहूंचे। सुरत के नर-नारियों के हर्ष का पार नहीं था । स्थान स्थान पर ध्वजाएं, पताकाएं बंधी थी, द्वार वनाये गये थे-जगह जगह महाराजश्री की वधाइ मनाइ जा रहीं थी-इस सारे कार्यमें “ श्री जैन विद्योतेजक मंडळी " ने अग्रगण्य हिस्सा लिया। धर्मप्रभावना होने लगी। उपदेशधारा वहने लगी। वैराग्यभाव से उमडते हुए दो श्रावकोंने-१ म्हेसाणा निवासी श्री उजमभाइ २ मालवा निवासी श्रो राजमलजीने जेठ कृ. एकादशी १९४६ को भागवती दीक्षा ग्रहण की । क्रमशः इनके नाम उद्योतमुनि व राजमुनि रक्खे गये । चातुर्मास में खूब ठाठ रहा । चातुमोस पूर्ण होने पर आप पुनः लौटना चाहते थे परंतु बम्बइ से श्रावकोंने आकर बहुत आग्रह किया । यों तो बम्बइ सुरत मिले हुए से थे और सारे चौमासे में सेठ साहुकारों का आना-जाना रहा था, सेठ लोग भी कैसे इस अवसर को हाथ से जाने देते। महाराजश्रीने लाभ का कारण व धर्मप्रभावना का अवसर जान सम्मति देदी। माघ कृ. ४ १९४७ को मातर निवासी श्री छगनलालभाई को दीक्षा दी व श्री देवमुनि नाम रक्खा। अब आपने बम्बइ की तरफ प्रस्थान किया।
___ महती शासनोन्नति बम्बइ उन्हीं दिनों में अधिक विकसित होने जा रहा था। भारत के कोने कोने से वहां व्यापारी, मजदूर पहुंच रहे थे। औद्योगिक विकास भी हो रहा था। सुरत, भरुच, बडोदा,
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३८
माहन - संजीवनी
सौराष्ट्र व कच्छ
गोढवाड व बडी
अहमदावाद व पालनपुर, मारवाड सभी स्थानों से जैन समाज के लोग यहां आ बसे थे विकसे थे । मन्दिरों की स्थापना की थी । उनमें उत्सव - महोत्सवों की धून मची रहती थी । धार्मिक क्रियाओं के लिये, साधु मुनिराजों के लिये उपाश्रय भी थे पर अभी तक कोइ जैन साधु बम्बई नहीं पहुंचा था। भारत की सिरमोर इस नगरी तक पहुंचने का सौभाग्य किसी को प्राप्त नहीं हुआ था । अपने चरित्रनायक ही सर्व प्रथम साधु थे, जिन्होंने सुरत से कच्चे रास्ते यहां तक आने की हिम्मत की। जैन कौम अग्रगण्य व्यापारी कौम होने से उसके संबंध सभी समाजों से थे । 'जैनों के एक बहुत बडे महात्मा आनेवाले है' के संवाद ने सबके मन में चतन्य भर दिया था। स्वागत की अभूत पूर्व तैयारियां हो रहीं था। सभी तरह के लोग शामिल हो गये थे । सं. १९४७ का चैत्र शु ६ का दिवस बम्बइ की जैन कौम के लिये गौरव का रहेगा। इसी दिन बालब्रह्मचारी महाप्रभावक मुनि श्री मोहनलालजीने सर्व प्रथम भाइखला स्थित श्री मोतीशाह सेठ के दादावाडी युक्त श्री आदीश्वर प्रभु के प्रासाद के साथ में उपाश्रय में प्रवेश किया। वहां से आप अपने छ शिष्यों सहित लालबाग आये । यह जलूस बहुत भारी था । तत्कालीन वर्त्तमानपत्रों के अवलोकन से जान पडता है कि- लार्ड रिपन को जो सम्मान मुंबई की जनता से सम्मान मिला था उस से भी कहीं अधिक सम्मान मुनिश्री का इस समय हुआ था | जोहरी लोगोंने मोतियों से महाराजश्री की वधाइ करी, जयनादों से रास्ता गुंज उठा था । घर घर में से इन महात्मा का दर्शन करने लोग निकल पड़े थे। श्री संघ के प्रत्येक व्यक्ति के
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गहती शासनन्नोति
दिलमें उत्साह समाता नहीं था। लालबाग पधार महाराजश्रीने मंगलाचरण सुनाया।
जैन साधु का चातुर्मास याने चार महिनों के लिये, त्याग, तपस्या, जप, संगीत-उत्सव आदि का जमघट । रोज व्याख्यान होते, कइ मानवी नित नये भिन्न भिन्न प्रकार के त्याग करते । महाराजश्री नैतिकता और शुद्ध ब्रह्मचर्य के जबरदस्त प्रचारक थे। चतुर्थवत के मजबूत होने पर ही मानव का विकास शीघ्र हो सकता है यह आपकी पक्की मान्यता थी। आपके उपदेशों से कोह सौ से ऊपर व्यक्तियोंने आजन्म ब्रह्मचर्य पालने का व्रत लिया ओर चार हजार से ऊपर व्यक्तियोंने परस्त्रो को मातयन समझने का अर्थान परस्त्री त्याग का व्रत लिया। अन्य अन्य प्रकार के व्रत नियम और त्याग की तो गणना ही नहीं। उपर की संख्या से पाठक स्वयं कल्पना कर सकते हैं कि महाराजश्रो के उपदेश से जनता में कितनी धर्मभावना जागृत होती थी। ध्यान रहे उन दिनों बम्बइ की जन संख्या आज की तरह ३०-३५ लाख नहीं थी। उस में भी जैनों की संख्या भी पूरी सीमित थी । संख्याको ध्यान में लेने से यह सहज ही ध्यान में आ जाता है कि महाराजश्री के उपदेश में कितना प्रभाव था। कोइ २० हजार के आसपास की जैनो की संख्या में इतना त्याग महत्व पूर्ण है।
केवल धार्मिक कार्यों के प्रति ही महाराजश्री की लगन नही थी। इसे मुख्य मानते हुए भी आपने समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य किया। इसो चौमासे में आपश्री के उपदेश से मुर्शिदावाद निवासी रायबहादुर बाबु बुधसिंहजी दुधेडियाने १६ हजार मपियों का दान दिया। बम्बइ में आने वाले यात्रिकों के सार्व
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मोहन-संजीवनी
जनिक उपयोगार्थ लालबाग के साथ की धर्मशाला उसीमें से तैयार हुइ।
चोमासे बाद वैराग्यरंग से रंजित दो वैरागियोंने महाराजश्री के पास बम्बइ में दीक्षा भी अंगीकार की। एक थे अहमदाबाद निवासी श्री सांकलचंदभाइ जिनका नाम बाद में श्री सुमतिमुनि तथा दूसरे थे वडनगर निवासी श्री हरगोविन्दभाइ जिनका नाम श्री " हेममुनि" रक्खा गया। ये दिक्षाएं सं. १९४८ की मार्गशीर्ष शु. ५ को संपन्न हुई।
बम्बइ के जौहरियों में सुरत निवासी श्री धरमचंद उदयचंद अग्रगण्य थे। आपने महाराजश्री के समक्ष प्रतिज्ञा की कि जब तक में छ"" पालन करता हुआ xश्री संघको पालीताणा ने ले जाऊं तब तक ईखका रस न पीउंगा ।
इस तरह आपने विविध धार्मिक व सामाजिक कल्याणमार्गों में अपना चातुर्मास व्यतीत कर विहार कर सूरत पधारे।
१९४८ का चातुर्मास सूरत में ही हुआ। इसी चातुर्मास में महाराजश्री के उपदेश से कतार गांव की धर्मशाला का जीर्णोद्धार करने की स्वीकृति श्री संघने ली । ज्योंही चातुर्मास पूर्ण हुआ। श्री धर्मचंद उदयचंद जौहरीने आकर सादर विनंती करते हुए, अपनी प्रतिज्ञा की याद दिलाकर श्री संघ में साथ रहकर धार्मिक नेतृत्व करने का आग्रह किया। महाराजश्रीने स्वीकृति दी। सं. १९४९ के पौष वद '५ को श्री संघ पालीताणा के लिये रवाना हुआ। संघ में करीव ५०० मनुष्य थे।
x छ “री" का अर्थ यह है कि जिनके अंत में '' अक्षर आवे वैसे एकल आहारी आदि छ नियमों को पालना ।
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महती शासनन्नोति
छ “री" पालते हुए श्री संघ के साथ यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त होना भी जीवन का एक महान् आनन्द है। धार्मिक कृत्यों की धूम रहती है, स्थान स्थान पर नये आदमी, नये मन्दिर, नया वातावरण भिन्न प्रकृति, विभिन्न प्राकृतिक दृश्य, संगीत आदि जीवन में स्फूर्ति भरते ही रहते हैं। श्री संघ के साथ भरूच में जिनपति श्री मुनिसुव्रत स्वामी के प्रासाद के दर्शन हुए तथा खंभात में श्री स्तंभन पार्श्वनाथ प्रभु के पुनीत दर्शन हुए । जुदे जुदे गांवों के संघ-इस संघ के अपने गांव में आते ही म्वागत करते । सब साधन-सामग्री उपस्थित करते भोजन देते, मुनिराजों की भक्ति करते थे। जब संघपति श्री धर्मचंदभाइ भी तत्रस्थ संघों को स्वामीवात्सल्य दे कर भक्ति करते, मन्दिरों व अन्य जीर्ण स्थानों में योग्य दान देते रहते थे। सं. १९४९ की माघ कृ. १३ को यह संघ पालीताणा पहुंचा। श्री आनन्दजी कल्याणजी की तरफ से पूरे ठाठ के व राजकीय लवाजमे के साथ मुनिश्री के नेतृत्व में श्री संघ का भव्य स्वागत हुआ। बडे उल्लास
___ छ “री" का निम्न प्रकार है-- १ भूमि संथारी- जमीन पर संथारा-शय्या करना । • ब्रह्मचारी----स्त्री को पुरुष का, पुरुषको नारीका त्याग । ३ सचित्त परिहारी----सचित्त पदार्थों के खाने-पीने का त्याग । ४ एकल आहारी-एक ही समय भोजन करना । ५ पद चारी--पैदल चलना। ६ समकितधारी-पडिकमणकारी-अरिहंत भगवान के दर्शन--पूजन व दोनों
समय-प्रातः सायं प्रतिक्रमण करना ।
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४२
मोहन-संजीवनी
भाव से, उदार हृदय व हाथों से श्री संघने तीर्थाधिराज श्री शत्रंजय महागिरि शिखरस्थ श्री युगादिदेव की यात्रा-अर्चना पूरी की। श्री धर्मचंदभाइ को श्री संघपति की माला पहनाइ गइ। बाद में शेठश्रीने संघ के साथ गुरुवंदन कर पुनः सूरत प्रस्थान किया।
शानदार अंजनशलाका तीर्थाधिराज शत्रुजय की तलहटी में जो विशाल प्रासाद है वह रायबाहादूर बाबू धनपतसिंहजी दूगड द्वारा निर्मित हुआ है। बाबूजी मुर्शिदाबाद-अजीमगंज के निवासी थे। और इस तीर्थक्षेत्र में यह मन्दिर बनवाया था। अभी अंजनशलाका होना बाकी था। उसी निमित्त बाबूजी अपने समग्र परिवार सहित पालीताणा आये थे और प्रतिष्ठा-अंजनशलाका की सब तयारी कर रहे थे। एतदर्थ कइ श्रीपूज्यों को आमंत्रण भी दे चुके थे। इसी अरसे में अपने चरित्रनायक मुनिप्रवर श्रीमन्मोहनलालजी महाराज संघ सहित यात्रार्थ पधारे और शांति से यात्रा कर अन्यत्र विहार भी कर गये। जिस दिन आपने विहार किया ठीक उसी रात्रि में बाबूजी की धर्मपत्नी श्रीमती मेनाकुमारी को स्वप्न द्वारा सूचन मिला कि-यह शुभ कार्य महान् शासनप्रभावक मुनिप्रवर श्रीमन्मोहनलालजी महाराज द्वारा ही संपन्न होगा। ___बाबूजी को स्वयं महाराजश्री के यहां के निवासकाल व कल. कत्ते के चोमासे में महाराजश्री का परिचय खूब ही हो चुका था,
और अपनी धर्मपत्नी को आये स्वप्न के सूचन को जानकर इतनी भारि प्रसन्नता हुइ कि जिसका सींग वर्णन होना इस क्षुद्र लेखनी की शक्ति के बहार का विषय है। बस फिर क्या कहना
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शानदार अंजनशलाका
था ? बाबूजीने प्रातःकाल ही अपने पुत्र नरपतसिंहजी को महाजश्री जिस गांव पधारे थे वहां भेजकर बहुत आग्रह पूर्वक विनंती करवाइ, महाराजश्रोने लाभ जानकर उसका स्वीकार किया और लौट कर पीछे पालीताणा पधारे, बाबूजीने खूब ठाठ के साथ अपूर्व स्वागत से आपका नगर प्रवेश करवाया, महाराजश्रीने धर्मशाला में आकर मांगलीक उपदेश सुनाया, बाद में बाबूजीने अपनी परिस्थिति को निवेदन करते हुए अंजनशलाका कराने को खूब आग्रह पूर्वक विज्ञप्ति करी।
अपने चरित्रनायक पूज्य गुरुदेव को इस बातका लोभ तनीक भी नहीं था कि मैं अंजनशलाका-प्रतिष्ठा करा के दुनिया में कुछ नामना प्राप्त करूं । अतः आपने फरमाया कि-महानुभाव ! यह महान् काम तो श्रीपूज्यों के हाथ से करवाना ठीक होगा,
और यह भी जानने में आया है कि-इस निमित्त आपने कुछ श्रीपूज्यों को आमंत्रण भी दिया है, यदि यह बात ठीक हो तो अब आप उनको निराश करें यह बात बिल्कुल ठीक नहीं लगती । उत्तर में बाबूजीने कहा कि महाराज साहब ! उनको किसी को भी निराश नहीं करेंगे, किंतु अन्यान्य प्रतिमाओं की अंजनशलाका वे लोग भले करें परंतु मूल गंभारे में विराजमान होनेवाली मूलनायकजी आदि प्रतिमाओं की अंजनशलाका तो आप गुरुमहाराज के पवित्र करकमलों से ही करानी है, वास्ते आप गुरुदेव कृपा कर के इस बात की स्वीकृति अवश्य प्रदान करें।
महाराजश्री ने फरमाया कि-भाग्यशालि ! ठीक, यदि तुमारी भावना ऐसी है तो 'जहासुक्खं', परंतु एक बात का सूचन
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४४
मोहन-संजीवनी
करना आवश्यक समझता हूं और वह है यह कि-जो मुहूर्त आपने निश्चित किया है उस में एक अवजोग ऐसा है जो आपकी केरीटी में कुछ हानि पहूंचावे ।
बाबूजीने कहा-गुरुदेव ! भावि में जो होनहार होगा वह अवश्य होवेगा ही, आप तो जानते ही हैं कि-जो कुछ भी शुभाशुभ होना कर्माधीन है, इस समय सब तयारी हो चुकी है अतः इसी समय कर लेने की भावना है, यदि इस समय न किया जाय तो आगे निकट के भविष्य में हो सकना कम सभव है, वास्ते इसी वर्ष हो जाना उत्तम है, आप स्वीकृति देने की कृपा करें।
महाराजश्रीने ‘जहासुक्खं' जैसी तुमारी भावना कहकर स्वीकृति दे दी, बाबूजी खूब २ आनंदित हुए, एवं तडामार तैया रियां करनी प्रारंभ कर दी। और भारी धूमधाम के साथ सं. १९४९ की माघ शुद १० के दिन मुनिराज श्री मोहनलालजी ने अंजनशलाका करवाइ।
बाद में आप भावनगर व निकट वर्ती प्रदेश में विहार करते रहे व चौमासा निकट आने पर पुनः पालीताणा पधार गये। १९४९ का चातुर्मास आपने श्री सिद्धाचलजी की पुनीत छाया में किया। ___यहीं आपने आषाढ शुद ६ को यति श्री रामकुमारजी को दीक्षा दी। यतिजी भी महाराजश्री की तरह ही स्वयं अनुभव कर वैराग्यरंग में तल्लीन व एक रंग हुए थे। चूरू की समृद्ध गादी का परित्याग कर आपने भवभयहारिणी भागवती हीक्षा अंगीकार की।
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अनुपम समयज्ञता
आप का नाम ऋद्धिमुनि रक्खा गया व महाराजश्री के मुख्य शिष्य श्री जसमुनिजी के शिष्य घोषित किये गये।
पालीताणा में सारे चौमासे में लोगों का आवागमन चालू रहा । कहा जाता है कि इतने अधिक यात्री आये थे कि यात्रीयों को धर्मशालाओं में स्थान मिलना मुश्किल हो गया था । अतः लोगों को किराये से जगह लेनी पड़ी थी । ___ पालीताणा से आप पुनः सुरत पधारे । संघने अत्यंत आग्रह किया अतः आपने १९५० का चातुर्मास सुरत में ही बिताया। महाराजश्री को सुरत विराजते जान-अनेक श्रावक बम्बइ से भी महाराजश्री के दर्शनार्थ आये और सारे चौमासे भर महाराजश्री को पुनः बम्बइ पधारने का आग्रह करते रहे। परिणाम स्वरूप महाराजश्रो चौमासे की पूर्णाहुति होने पर बम्बइ पधारे । आठ शिष्य आप के साथ थे। सं. १९५१ का चैत्र शुद ७ को आपका पूरे ठाठ व सन्मान के साथ बम्बइ में प्रवेश हुआ। महाराजश्री के १९५१ व १९५२ के दोनों चातुर्मास बम्बइ में हुए ।
अनुपम समयज्ञता चौमासे के दिनों में यथावत् धर्मक्रियाएं उद्यापन आदि उत्सव महोत्सव होते ही रहते थे। प्रतिदिन व्याख्यान भी होता ही था। इन्हीं दिनों में एक महत्त्वपूर्ण अवसर आया। यदि महाराज श्री अपना समभाव जरा भी खो बैठते व रागद्वेष के वातावरण में घुस जाते तो शायद उनका जीवन ही पलट जाता। पर उन्होंने उस असाधारण प्रतिभा व सहनशीलता, समाज की एकता की
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मोहन-संजीवनी
इच्छुकता व समयज्ञता का वह परिचय दिया जिसने उनकी कीर्तिपताका को और उंची उंची लहलहा दिया । बैरिस्टर वीरचंद राघबजी उन्हीं दिनों अमेरीका से लौटे थे। स्वनाम धन्य स्व. श्री आत्मा रामजी महाराज की प्रेरणासे ही आप अमेरीका गये थे। सर्व धर्म परिषद् जो अमेरिका के चिकागो शहर में हुइ थी उस में जैनधर्म का कोइ प्रचार न हो यह बात श्री आत्मारामजी महाराज को खटकी, उन्होंने बैरिस्टर साहब को तैयार किया, जैनधर्म के मूल तत्त्वों का धार्मिक रहस्य, व दार्शनिक विशालता आदि का विशद परिचय करवाया। धर्ममय जीवन यापन के योग्य व्रत-नियम दिलवाये व जैन जयति शासनम् ' करने उन्हें यहां से विदा किया। बैरिस्टर साहव की यात्रा सफल हुइ। सर्व धर्म परिषद् में आपने जैन धर्म की ओर विद्वानों का ध्यान खूब आकर्षित किया। जब आप पुनः बम्बइ लौटे तो आप को एक धक्का सा लगा। उन दिनों विदेश जाना एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। राजकीय क्षेत्र में वह जितना गौरवास्पद था, रूढिचुस्त-हिन्दु समाज में व जैन समाज में वह इतना ही हीनता का परिचायक भी था। लोगों की मान्यता थी कि विदेशी धरती पर पैर रखते ही आदमी भ्रष्ट हो जाता है, वहां उसका खानपान तो शुद्ध शाकाहारी रह ही नहीं सकता। अपरिचित व भ्रष्ट समाज के साथ प्रतिदिन व्यवहार होने से उसकी शुद्धता में दाग लग जाता है । अतः पुनः स्वदेश लौटने पर उसे इस विरोध का सामना करना ही पड़ता था। बैरिस्टर साहब भी इस विरोध के शिकार हुए । यद्यपि बैरिस्टर साहब न तो किसी व्यापारी लालच से गये थे न किसी राजकीय महात्वाकांक्षा को ले कर ! वे तो सिर्फ " सवी जीव करूं
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अनुपम समयज्ञता
शासन रसी" की उज्जवल भावनासे गये थे। पर रूढिचुस्त जैन समाजने उनको भी न छोडा । फिर भी समाज में समर्थक पक्ष भी था। इस पक्षने विचार किया कि बैरिस्टर साहब को सर्व प्रथम ( जहाज से उतरते ही) गुरुवंदनार्थ लाया जावे और मंगलाचरण सुनाकर उनने जो कार्य किया है उसके प्रति सद्भावना व प्रशंसा बताइ जावे। तदनुसार उस पक्ष के कुछ अग्रगण्य व्यक्ति महाराजश्री के पास आये और एतदर्थ मुनिश्री से अनुमति मांगी। महाराजश्री लकीर के फकीर नहीं थे, वे तो युगदृष्टा थे। उन्होने तुरंत अनुमति दे दी। बस फिर क्या था। बात फैल गइ, कार्यक्रम बन गया। दूसरे दिन बैरिस्टर साहब
आ पहुंचने वाले थे। विरोधी पक्ष को जब बातें मालूम हुइ तो उनकी भौहें चढ गइ-उन्होंने नागाई का आश्रय किया । गुंडों को तैयार किया। डंडे बाजी की तैयारियां की । बम्बइ का जैन समाज खलबला उठा-पता नहीं था कल क्या होगा। ___ रात ढलने लग गइ थी। बम्बइ का वातावरण भी शांत होने लग गया था। साधु लोग भी पोरिसी पढाकर निद्रान्वित हो चुके थे। कोइ ११।। बजे होंगे कि विरोधी दलका एक अग्रेसर जो एक कच्छी भाइ था-आया महाराजश्री को जगाया और कहने लगा। ___ " महाराज साहब ! सुना है कि बैरिस्टर वीरचंदभाइ को जहाज से उतरने के बाद सीधा आप के व्याख्यान में लाने वाले हैं ! क्या यह सच है ?” महाराजश्री को झूठ बोलना नहीं था उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया कि "हां श्रावकोंने विचार तो ऐसा ही किया है।"
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मोहन-संजीवनी
आगंतुक महाशय का पारा चढ गया, आवेश में ही उसने कह दिया “महाराजश्री! याद रखें यदि ऐसा हुआ तो कइयों सिर रंगे जायेंगे इतना ही नहीं संभव है आपको भी कोर्ट के कटघरे में खड़े रहने का अवसर आवे ।"
महाराजश्रीने अपने आपको पूर्ण काबु में रखते हुए यह बात सुन ली। उन्हें कोइ पक्ष न था वे तो सत्यवक्ता, कर्ता थे। अपनी विचारधारा के लोगों को प्रसन्न करना ही उनका उद्देश न था, वे तो अखिल समाज के ऐक्य व शांति के उपासक थे। उन्होंने शांति से उसे समझा कर कह दिया-"महानुभाव ! यदि तुम्हारे जैसे धर्मनिष्ठ श्रावकों को यही उचित लगेगा कि मैं कोर्ट के कठघरे में खड़ा रहुं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। बाकी मेरा तो एक ही उपदेश है कि हरसमय मन के धैर्य को न खो कर पूर्ण शांति रखकर सोच समझ कर काम किया जावे।" ____ आगंतुक महाशय तो अपने रंग में रंगे हुए थे। उन्होंने तो इतना ही कहा-“ महाराजजी ! जो कुछ सुना था आपको अर्ज कर दिया, आगे तो जो कुछ भावि में होनहार होगा वही होगा।" वह तो यह कह वंदन करता हुआ चलता बना।
महाराजश्रीने स्थिति की विषमता को पहिचानी । विचार किया और निर्णय किया कि आज तो लोगों की त्यौरियां चढी हुइ है, कुछ दिनों में उतर जायेगी, वातावरण शांत हो जायगा फिर ही कुछ कार्य करना ठीक होगा, उन्होंने लालबाग उपाश्रय के भइये को उसी समय समर्थक पार्टी के अगुआ को बुलाने भेजा, उनके आने पर सब कुछ समझा दिया। उस दिन के लिये बेरिस्टर
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अनुपम समयज्ञता
माहब के उपाश्रय आने का कार्यक्रम स्थगित रहा। उन्हें सीधा अपने डेरे पर ले जाया गया ।
विरोधी पार्टी जिसने कि अपनी सब तैयारी कर ली थी, भूलेश्वर के ईर्द गीर्द लठधारी गुण्डों की नियुक्ति कर रक्खी थी, वैरिस्टर साहब के सीधे उतारे पर जा पहुंचने की बात जान कर अचंभित रह गइ तथा अपनी जीत समझ बहिष्कार के वाताव. रण को उग्र बनाने लग गई।
इधर महाराजश्रीने अपनी उपदेश धारा बदली। प्रतिदिन व्याख्यान तो चालू ही थे। महाराजश्रीने कषायों का विषय छेड दिया। उनकी स्थिति और प्रभाव का ऐसा मार्मिक व हृदयस्पर्शी विवेचन के साथ उपदेश दिया कि '५-७ रोज में ही महाराजश्री के उपदेश से वातावरण में शांति फैल गइ। फिर भी मानसिक तनातनी दोनों ही पक्षों में साफ नहीं मिटी थी। एक दिन दोनों ही पक्षोंने अपनी जिद्द छोड महाराजश्री से विनंती की कि आप जो कुछ आज्ञा करेंगे हमें शिरोधार्य है। आपकी दीर्घदृष्टि और समयज्ञता और समाज के ऐक्य की भावना से ही समाज एक बहुत बड़ी आपत्ति से बच गया है अब जैसे भी हो इस रही सही हिचकिचाहट को भी दूर कर दें।
महाराजश्रीने रागद्वेष के परिपाक ओर संसार भ्रमण के मूल कारणों की तरफ सबका ध्यान आकर्षित किया। लोगों के मनको समभाव की ओर अग्रसर किया और बाद में श्री बैरिस्टर साहब की शुद्ध भावनाओं व सेवाओं की अनुमोदना करते हुए कहा कि
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मोहन-संजीवनी
दंड प्रायश्चित तो संघ का बहुमान है, यदि परदेश में जानते अजानते भी उन्हें कोई दोष लगा हो तो वे एक स्नात्र पूजा पढा कर श्री नमस्कार महामंत्र की एक पूरी माला गिन लें।
महाराजश्री का निर्णय सुनते ही उपाश्रय महाराजश्री की जयध्वनि से गुंज उठा। सबको खुशी हुइ, भाइ से भाइ गले लगा। __ यों एक बहुत बड़ी आपत्ति से समाज बच गया और पूर्ण ऐक्यता कायम रही।
अपने चौमासों में आप खूब धर्मप्रभावना करते रहे।
१९५२ की फागुन शु. ३ के दिन आपने गुलालवाडी स्थित श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ के मंदिर में मूलनायजी के आजुबाजू में श्री ऋषभदेव प्रभु व श्री वासुपूज्यस्वामि की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाइ । फाल्गुन शु० ४ के दिन श्री शामलिया पार्श्वनाथ (संभवतः गोडीजी में ) प्रभु की प्रतिष्ठा करवाइ ।
इसी चातुर्मास में आपही के उपदेश से मुर्शिदाबाद निवासी रायबहादूर सेठ बुधसिंहजीने २००००) बीस हजार रुपयों के खर्च से श्री मोतीशाह सेठ की लालबाग वाली जगह में भव्य उपाश्रय तैयार करवाया।
सं. १९५३ की मृगशिर कृ० ५ को आपने बम्बई से अहमदाबाद की ओर विहार किया और क्रमशः सुरत भरूच आदि होते हुए अहमदाबाद पहुंचे इस समय महाराजश्री के पुण्यप्रभाव से एक विशिष्ट घटना ऐसी बनी कि जिस से संघ में आनंद आनंद छा गया। बात ऐसी थी कि-महाराज का प्रवेश समय करीब दो ढाइ बजे दुपहर का था, ऋतु ग्रीष्म पूरजोर थी, लोक
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अनुपम समयज्ञता
सभी विचार में निमग्न थे कि-ऐसी गरमी के टाइम में महाराज का सामैया कहां कहां किस प्रकार धुमाया जाय ? जनता का आना कसा बनेगा ? इतने में तो आकाश बादलों से आच्छादित होने लगा और थोडे ही टाइम में समग्र आकाश-प्रदेश बादलों से छा जाने पर मेघराजा की पधरामणी हुइ और सारी भूमि शांत हो गइ, थोडी ही देर में वर्षा बंध हो गई, फिर क्या कहना था ? संघ के हृदय में आनन्द की लहरें उछलनी शुरु हुइ और सहस्रों संख्या में नागरिक जनता आबालवृद्ध टोळोंबंध महाराजश्री के दर्शनार्थ उमट पडी, हजारों नरनारीयों की उपस्थिति में अहमदाबाद के श्री संघने बड़े ही ठाठ से आपका नगर प्रवेश कराया। संवत् १९५३ का चातुर्मास अहमदाबाद वीरविजयजी के उपाश्रय में किया। संवत् १९५४ का चातुर्मास पाटन-सागर के उपाश्रय में किया ।
चोमासे की पूर्णाहुति होने पर तुरंत ही आपने विहार किया और मेत्राणा तीर्थ की यात्रा कर आप पालणपुर पधारे, वहां कुछ दिन स्थिरता करके फिर पीछे पाटन पधारे वहां से मार्गशीर्ष कृ० १० मी के दिन आपके सदुपदेश से शेठ नगीनचंद सांकल चंदने श्री शंखेश्वरजी तीर्थ का संघ निकाला। संघपति के आग्रह से अपने शिष्यों के साथ चल कर संघजनों के आनन्द में विशेष वृद्धि की। सर्व यात्रियोंने निर्विघ्नतया श्री शंखेश्वर पार्श्वप्रभु की प्राचीन व प्रमावशालि प्रतिमा के दर्शन कर जन्म सफल किया। ___श्री शंखेश्वरजी तीर्थ की यात्रा कर महाराजश्री राधनपुर पधारे, कुछ दिन की स्थिरता बाद पुनः पाटन लौट आये । महाराज श्री दादासाहब श्री जिनदत्तसूरि व श्री जिनकुशलसूरि के
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मोहन-संजीवनी
अनुयायी व उनके प्रति पूर्ण श्रद्धान्वित थे। पाटन जैसे प्रसिद्ध व्यापारी व प्रधान नगर में दादावाडी योग्य रूप में न होना महाराजश्री को खटका । आपने सुप्रसिद्ध जौहरी सेठ पूर्णचन्द के सुपुत्र बाबू पन्नालालजी से बात की। बाबू साहब भी दादाजी के भक्त तो थे ही फिर महाराजश्री की प्रेरणा मिली। उन्होंने शीघ्र ही नगर के बाहर निज के बगीचे में दादासाहब का मंदिर तैयार करवाया उस में पूज्य मुनिराज श्री मोहनलालजी महाराज के करकमलों से दोनों दादासाहिब के चरणों की प्रतिष्ठा बडे समारोह के साथ संपन्न हुई।
प्रतिष्टात्रितय पाटन से आपने सूरत की तरफ विहार किया। इस समय ९ शिष्य आपके साथ में थे। फागण शु. ६ को आपका बडे धूमधाम से सूरत में प्रवेश महोत्सब हुआ। शासन प्रभावना की प्रवृत्तियों में फिर वेग आया। श्री प्रेमचंद रायचंद की विशाल धर्मशाला में महाराजश्री को ठहराया गया था। (१९५५) का यह चातुर्मास आपका यहीं हुआ। प्रति दिवस अनेक लोग महाराजश्री के उपदेश श्रवण को आते थे। इसी वर्ष सूरत में कइ महान् प्रतिष्ठा महोत्सव हुए। श्री सूरजमंडन पार्श्वनाथ, श्री कुंथुनाथ भगवान् व श्री मनमोहन पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा खूब उत्साह भरे वातावरण और ठाठ से हुइ । श्री कतार गांव के मंदिरजी का जीर्णोद्धार भी आपके उपदेश से संपन्न हुआ।
मुनिश्री की वाणी से हजारों आदमी आत्मशांति पाते थे। वैराग्य की इस पावन गंगा में प्रतिदिन हजारों प्राणी म्नान कर
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प्रतिष्ठात्रितय
पवित्र होते थे। कई लोग व्रत-पच्चक्खाण करते थे। इन्हीं लोगों में सूरत के सुप्रसिद्ध जौहरी सेठ फकीरचंद हेमचंद भी थे । महा. राजश्री के उपदेशने आप के अंतरद्वार खोल दिये थे। उन्हे संसारका क्षणभंगुर स्वरूप साफ साफ दिखने लगा। धन माल की तरफ का सारा मोह काफूर (दूर) हो गया । आपने महाराजश्री के चरण कमलों में शिष्य बनने की अभ्यर्थना की। महाराजश्रीने स्वीकृति देने पर बड़े हो ठाठ से दीक्षा हुइ, यह दीक्षा-महोत्सव भी अपूर्व था। सेठ के पास लाखों की संपत्ति थी, बडा परिवार था, यश था, सुख साधन थे। इस वैराग्य की बात से सारे सूरत शहर में वैराग्य की लहर चल निकली थी। हजारों दीन दुःखियो को हजारों रुपये व साधन बांटे गये और १९५५ की फाल्गुन शु ५ को बडे ठाठमाठ से यह दीक्षा महोत्सव संपन्न हुआ। नये. मुनिवर का नाम श्री पद्ममुनि रक्खा गया और श्री हर्षमुनिजी के शिष्य घोषित किये गये।
इसी वर्ष महाराजश्री के मुख्य शिष्य श्री जसमुनिजी जो अमदावाद में थे, उन्हें शेठ मनसुखभाइ तथा जमनाभाइ भगुभाइ व लालभाइ दलपतभाइ आदि अग्रगण्यों की आगेवानी में अमदावाद के श्री संघने बड़े समारोह के साथ पंन्यासपद दिया। यह कार्य पूज्य पंन्यासजी श्री दयाविमलजी के हाथों संपन्न हुआ। अहमदाबाद के सभी निवासियोंने तो इस महोत्सव में यद्यपि हिस्सा लिया ही था फिर भी वहां के तथा बाहर के मारवाडी बंधु बहुत बड़ी संख्या में सम्मिलित हुए थे।
महाराजश्री के १९५६-५७ के चातुर्मास भी सूरत ही में हुए । सं. १९५७ में आपके विनीत व विद्वान् शिप्य पन्यास श्री जस
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मोहन-संजीवनी
मुनिजीने गुरुवर्य की आज्ञानुसार अपने लघु गुरुभ्राता मुनि श्री हर्षमुनिजी को श्री भगवती सूत्र के गणियोग करवाये और बडे समारोह के साथ उन्हें गणिपद प्रदान किया।
महाराज श्री अब ७० वर्ष के हो चुके थे, तपस्या हमेशां चालुही थी-शरीर कृश हो चला था अतः भक्तोंने आग्रह किया कि"अहोभाग्य होगा सूरत का, यदि आप अब यहां स्थायि रूप से बिराजे रहें !” पर ' साधु तो रमता भला' में श्रेय मानने वाले मुनिश्री को यह कब स्वीकार था ? कि वे कहीं के ठाणापति बन जांय । आपने कहा महानुभावो ! जब तक पैरों में शक्ति है साधु आचार के मुआफिक मैं एक स्थान पर नहीं रहूंगा। विहार की तैयारी होने लगी।
सूरत छोडना था कि बम्बइ वालों के पास समाचार पहुंचे। बम्बइ के दानवीर शेठ देवकरण मूलजी की अगवानी में श्री संघ का प्रतिनिधि मंडल आया। भारत के प्रधान नगर-व्यापारी केन्द्र
और साधुओं के आवागमन से प्रायः रहित बम्बइ पधारने की भावपूर्ण विनंति की। महाराजश्री ही प्रथम साधु थे जिन्होंने बम्बइ में प्रथम प्रवेश किया था तथापि अभी तक साधुओं का आवागमन जैसा चाहिये वैसा चालु नहीं हुआ था । महाराजश्रीने लाभालाभ का विचार किया । बम्बइ में साधुओं का जाना अधिक लाभ का कारण जान आपने विनंति स्वीकार कर बम्बइ की तरफ प्रस्थान किया । और क्रमशः बम्बइ पहुंचे।
पौष शुद १५ सं. १९५८ को आपका बडे ठाठ से प्रवेश हुआ। स्थान स्थान पर नाना प्रकार की सजावटें हुइ थी। महा
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प्रतिमात्रितय
राजश्री को मोतियों से वाया गया। सड़कों पर :भीड नहीं समाती थी। कहते हैं अकेले श्री देवकरण मूलजीने इस प्रवेश महोत्सव में २४००) रुपये खर्च किये थे तो फिर अन्य भावुकों के कुल कितने खर्च हुए होंगे इसका विचार पाठक स्वयं करलें । ध्यान रहे यह वह समय था जब अच्छे योग्य आदमी २०) २५) माहवरी से नौकरी कर अपने कुटुंब का निर्वाह सुख से कर सकते थे। अनुमान लगाया जा सकता है कि कितना ठाठ ब शानदार प्रवेश-महोत्सव हुआ होगा। ___ यहां आने पर गुरुदेव की आज्ञा मुजब पंन्यासजो श्री जसमुनिजी म. ने अपने लघु गुरुभ्राता गणिवर श्री हर्षमुनिजी को शुभ मुहूर्त में खूब धामधूम से पंन्यास पदार्पण किया। ___महाराजश्री क्षीण बल तो हुए ही थे। इधर हजारों आदमी नित प्रति महाराजश्री की वाणी का लाभ ले रहे थे, अनेक शासन प्रभावना की प्रवृत्तियां चल रही थी। इसी कारण महाराजश्री के ५८ से ६२ तक ५ चातुर्मास बम्बई में ही हुए । इस बीच १९६० में कलकत्ते के सुप्रसिद्ध जौहरी बाबू बद्रीदासजी रायबहादूर की अध्यक्षता में जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स का अधिवेशन हुआ जिसमें कइ प्रदेशों के अनेक अग्रगण्य आदमी आये थे। ___महाराजश्री सरल स्वभावी थे उन्हें अधिक मोह ममता नहीं थी। पिछले कई वर्षों से उनका विहार क्षेत्र अधिकाश में गुजरात ही रहा। गुजरात में खरतरगञ्छ का प्रचार कम था व तपगच्छ की बाहुल्यता थी तथा उन लोगों को अपने गच्छ का राग भी कुछ अधिकांश में था। महाराजश्रीने देखा कि गच्छ के झगडे में आये
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५६
मोहन- संजीवनी
तो इस प्रदेश में कुछ भी धर्मप्रभावना का काम न हो सकेगा। इसी दूर दर्शिता से व अपनी सरल प्रकृति के कारण तथा शासन उन्नति की ara से महाराजश्रीने गच्छ को गौण कर लिया और तपागच्छ के श्रावक आते तो उन्हें प्रत्यक्ष में सारी तपगच्छ की क्रिया करवाते, इससे किसी को कोई हिचकिचाहट नहीं रहती थी । परिणाम यह हुआ हि कि स्वयं महाराजश्री से भी धीमे धीमे स्वगच्छ समाचारी की कुछ क्रियाएं अमुक अंश में छूट गई। इनके शिष्य - परिवार में भी आग्रहपूर्वक इस तरफ का लक्ष्यबिंदु नहीं रहा । कोन्फरेन्स के इस अवसर पर खरतरगच्छ के जो प्रतिष्ठित व्यक्ति आये थे उन्हें भी यह बात उचित नहीं लगी। कुछ अग्रगण्य व्यक्ति, जिन में इस अधिवेशन के प्रमुख रायबहादुर बाबू बद्रीदासजी, ग्वालियर के महाराजा सिंधिया के खजानची सेठ नथमलजी गुलेच्छा, जयपुर निवासी सेठ मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर के सुप्रसिद्ध संगीतकार सेठ कानमलजी पटवा व फलोधी के सेठ फुलचंदजी गुलेच्छा आदि थे, वे सब महाराजश्री के पास आये और एकान्त में महाराज साहब से सारी हकीकत समझाइ | उन्होंने बडे विनय से यह भी कहा कि यदि आपको खरतरगच्छ की अमुक क्रियाएं ठीक न लगती हों तो हमें भी बतावें ताकि हम भी उन्हें छोड़ सकें । बाकी आप तो हमारे गच्छ के शिरोमणि हैं । अतः आपको गच्छ की धुरा बराबर संभालनी चाहिये ।
महाराज साहबने बडे प्रेम से श्रावकों की बात सुनी और उन्हें शांतिपूर्वक समझाते हुए बताया कि यह ऐसा ही प्रदेश था जहां सर्वत्र तपागच्छ वाले ही है और उनमें गच्छराग भी भारी प्रमाण में है । मैं जो इनकी तरह यदि गच्छे राग में पड़ जाता तो
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श्रावण की प्रार्थना
अन्य कुछ शासनोन्नति का कार्य नहीं होता, प्रकृति मेरी लिहाज है और कोई आग्रह मैं लोगों पर तो क्या अपने शिष्यों पर भी लाना नहीं चाहता हुं । बाकी तो आज जो कुछ भी मैं हूं और शासन प्रभावना का यत्किंचित भी काम कर सका हूं वह पूज्य परम गुरुदेव दादा साहब की असीम कृपा का ही फल है । मेरा उन पर अनन्य भक्तिभाव है । खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा स्वीकार किया हुआ मार्ग व क्रियाएं सर्वथा सत्य है । मेरे अंत:करण में उनके प्रति पूरी श्रद्धा है पर अब में ऐसी स्थिति में हूं कि एकाएक एसा परिवर्तन कर लेना मेरे लिये अशक्य है ।
श्रावकोंने महाराजश्री से यह भी अजे की कि आप से पूर्ण रूप से अभी न भी बन सके तो आप अपने शिष्यों को ही आज्ञा दें ताकि वे इस परंपरा को अपना है ।
८
महाराजश्रीने तुरंत अपने निकटतमवर्त्ति शिष्य श्री हर्षमुनिजी पंन्यास को बुलाकर कहा कि यह तुम भलीभांति जानते हो कि अपने खरतरगच्छ के हैं। सिर्फ इस गुजरात में विचरने के व प्रकृति सरल होने के कारण अपनी क्रिया मुझ से कुछ छूट गइ | ये श्रावक समुदाय आग्रह कर रहे हैं अतः यदि तुम लोग फिर से अपने गच्छ की क्रिया करना आरंभ कर लो तो बहुत अच्छा है। श्री पंन्यासजी मौन रहे । महाराजश्री व उपस्थित श्रावक समुदाय को यह समझने में देर नहीं लगी कि जिस वर्ग व समुदाय के मध्य में पंन्यासजी स्थित हैं उनके बीच में पंन्यासजी से इस मार्ग पर आना कठिन है । तब फिर महाराजश्री से अन्य शिष्य के लिये भी कहा गया । महाराजश्रीने अपने
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मोहन-संजीवनी
प्रधान शिष्य शांतस्वभावी व विनीत पंन्यासजी श्री जसमुनिजी को, जो कि उस समय जोधपुर में चातुर्मास थे, आज्ञा पत्र लिख भक्त श्रावक श्री कानमलजो पटवा को दे दिया । ___पत्र मिलते ही पंन्यासजी महाराजने कोइ दलील न लिखते सिर्फ इतना ही लिख दिया कि आपकी आज्ञा शिरसावंद्य है और आप सूचित करें उसी मिती से यह सेवक अपने गच्छ की संपूर्ण क्रियाएं करने को तैयार है।
इस तरह का उत्तर देख कर श्री हर्षमुनिजीने भी इसी तरह की विचारधारा दिखाने का प्रयत्न किया अतः यह कार्य कुछ समय की प्रतीक्षा में स्थगित हो गया। फिर मुनि श्री मोहनलालजी का ध्यान अब स्पष्ट में गच्छ की ओर आकर्षित हो गया था और जब देखा कि श्री हर्षमुनिजी समय निकाल रहे हैं तो एक दिन (सं. १९६३ कार्तिक कृ० ७ को) उन्होंने मुनि श्री जस. मुनिजी पंन्यास को आज्ञा लिख भेजी कि कार्तिक शु. ३ सं० १९६३ से खरतरगच्छ की क्रियाएं संपूर्ण रूप में प्रारंभ कर दें। पाठकों की विशेष जानकारी व तसल्ली के हेतु उक्त पत्र का श्लोक यहां दे दिया गया है। - इस पत्र के अंत में गुरुदेवने यह बिलकुल स्पष्ट कर दिया है कि मैं खरतरगच्छ का हूं, गुजरात में मुझे सभी खरतरगच्छ का कहते हैं, तपा कोइ नहीं कहते । मेरी जीवनचरित्र की पुस्तक में तपा ऐसा नाम भी नहीं है। इस से यह स्पष्ट होता है कि आपके वे शिष्य जो आज तपागच्छ की क्रिया करते हैं और अपने गुरु श्री मोहनलालजी महाराज को तपागच्छ काही बताते
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मवई " जामोद ननवा नामोहन पना सनसमनिसो जसेडनावाजतनसंगञ्छमारा डाया का निसटती ना शनिवार केहिनानाधा न सोमसहिनसे सवीतवरत का गडकीकरणामी वरवर कागद लेजका काम जर डालत. मारवार में मिक्विपातीकहन। गुजरात का है क बलांगहोय तोतेरापूसा बानायककायहाय सोलिरखना हमारासरिलितोठीक है जारसनं सं। १८४३ मिका(19 नर उमसेंकोर कहेगाकेउमरागुरु तपगा। कसमम्वारी करके तोकहेनानपारदर' मरगळक हाजीकमानते गजरात मे कोश्वासन कोतपानहाकर ही सब रक्त करतो उनका जीवनवरी में अकाजोधा नसमेतमा असानामवीनही है कारणके गजरात देश मेरहणकुवा नर यहासंघकनकलतासशरलदीत : से पसा वास्थि जसीदिनको लागये है उसकापरवपातनह।
જય શ્રી માનલાલજી મહારાજે પોતાના ઘરે શિવ પં શ્રી યમુનિઓન લખેલ પત્ર
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महाराजश्री का स्वाशय कथन
हैं वह नितांत असत्य है। ठीक है उन्होंने अमुक अंश में अथवा किसी समय पूरे रूप में भी तपगच्छ की क्रिया की हो, किंतु उन पर ऐसा आग्रह लादना उनकी सरल प्रकृति और उदारता का दुरुपयोग है। जब तक किसी भी गच्छ विशेष का साधु अन्य गच्छ के कोइ साधु को गुरु रूप में स्वीकार नहीं करता तब तक वह अपने मूल गच्छ का ही माना जायगा। महाराजश्रीने कभी किसी अन्य को गुरु रूप में माना नहीं है। यह तो उनको हृदय का विशालता थी, शासन का अनुराग था कि जहां जैसा अवसर देखा कर लिया और शासनोन्नति में हाथ बटाया । आगे चल कर महाराजश्री अपने शिष्यो से जो बातचीत अंतिम समय जान की है उस से भी यह स्पष्ट हो जायगा कि महाराजश्री अपने आपको खरतरगच्छ का ही मानते थे।
गुरुदेव का आज्ञा पत्र पाने के बाद यथा आज्ञा पंन्यासजी श्री जसमुनिजीने अपने अन्य मुनियों के साथ खरतरगच्छ की क्रिया करना प्रारंभ कर दिया । ..
बम्बइ में अनेक शासन प्रभावना के काम आपके उपदेश से संपन्न हुए जिनका संक्षिप्त वर्णन आगे दिया है।
सं. १९६३ की माघ कृष्णा १३ को अपने शिष्य-परिवार के साथ आपने बम्बइ से विहार किया। अगासी में आप ज्यादे अस्वस्थ हो गये। गुरुदेव की अस्वस्थता देख कर गुरुवर के भक्त श्री रूपचंद लल्लुभाइने २१ हजार रुपये साधारण खाते में दिये। कतार गांव मंदिर की प्रतिष्ठा के वार्षिक दिवस पर आज भी इन रुपयों के वियाजमें से नवकारशी की जाती है। थोडे समय में
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मोहन-संजीवनी
ही महाराजश्री कुछ स्वस्थ हो गये । उधर गुरुदेव के परम विनीत
और प्रधान शिष्य पंन्यासी श्री जसमुनिजी मारवाड से उग्र विहार कर गुरु दर्शनार्थ पधार रहे थे। महाराजश्रीने स्वयं सूरत पहुंचने की विचारणा से उन्हें वहां स्थिरता करने का संवाद भेजा था अतः वे वहां रुक गये थे। महाराजश्रीने अगासी से विहार किया पर दहाणू पहोंच कर फिर अधिक अस्वस्थ हो गये। उधर पंन्यासजीने गुरुदेव की अस्वस्थता के समाचार सूरत में सुने तो तत्काल विहार किया और सूरत से १८. मील नवसारी पहुंच शामको पाक्षिक प्रतिक्रमण किया। इसी तरह उग्र विहार कर वे तीसरे दिवस दहाणुं पहुंच गये व गुरु महाराज के दर्शन कर प्रसन्न हुए। कुछ दिनों में स्वास्थ्य लाभ हुआ तो विहार कर गुरुदेव सूरत पहुंचे। १९६३ की फाल्गुन वद ७ का सूरत में आपका प्रवेश हुआ। स्वास्थ्य यहां भी खराब रहने लगा-परिणाम स्वरूप बहुत कमजोर हो गये।
महाराजश्रीने जब बम्बइ से विहार किया तब यही भावना थी कि परम पवित्र तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजो जाना और वहीं युगादिदेव के चरणों में यह नश्वर देह छूट जाय तो अच्छा। परंतु प्रकृति को शायद यह स्वीकार न था। सूरत पधारने के बाद शरीर क्षीण होता ही चला। अस्वस्थता बढती ही चली । संघने अत्यंत आग्रह कर विहार न होने दिया।
इस समय आपके पास १८ साधु एकत्र हुए थे। एक दिन महाराजश्रीने उन सब को जिन में पंन्यास श्री जसमुनि, मुनि श्री कांतिमुनि व पं० श्री हर्षमुनि आदि थे-सबको आपने अपने पास बुलाया और फरमाया कि
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साधुओं को अंतिम शिक्षा
महानुभावो ! तुम को खबर है कि मेरे गुरु दादागुरु. वगैरह सभी खरतरगच्छ के थे, अतः मैं खरतरगच्छ का ही हुँ । परम गुरुदेव श्रीमान् दादासाहब को मैं अच्छी तरह मानता हूं इतना ही नहिं मेरा दृढ विश्वास है कि आज तक मैं जो कुछ भी शासन सेवा कर सका हुं वह सब उन गुरुदेव का ही महान् प्रभाव है । मैं जब तक मारवाड में विचरा, सब समाचारी खरतरगच्छ की ही करता था, परंतु मारवाड का विचरना छूटा और केवल गुजरात में ही विचरना' हुआ तब से वह क्रिया अमुक अंश में मुझ से छूट गयि । इस देश में इसी संघ की बहुलता का होना और मेरे प्रकृति की सरलता ही इस में खास कारण है । यों तो इस क्रिया में सदा के लिये कोइ खास फरक नहीं है । चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवनादि कोइ भी बोलने में किसी तरह का शास्त्रीय विरोध नहीं है । जैसे अपने पाक्षिकादि प्रतिक्रमण करते समय चैत्यवंदन में जय तिहुअण कहते हैं तो ये तपागच्छीय सक लार्हत् बोलते हैं । परंतु विचारने की जरूरत है कि जिस वख्त तक जय तिहुअण व सकलाईत् नहीं बने थे चैत्यवंदन तो कोइ न कोइ करते ही थे, परंतु वह था इन दोनों से भिन्न । इस से यह समझा जाता है कि अपने अपने गच्छ में चैत्यवंदन, स्तुति, स्तोत्रादि कहते चाहे जो हों परंतु गच्छ परंपरा के सिवाय शास्त्रीय विधान ऐसा कोई नहीं है कि चत्यवंदन, स्तुति, स्नोत्रादि अमुक ही कहना । इस लिये इन बातों का जो फरक है वह वस्तुतः फरक नहीं कहा जा सकता, किंतु फरक वही कहा जाता है कि जिस किसी भी कथन या वर्तन में शास्त्राज्ञा से प्रतिकूलता हो।
तपगच्छ खरतरगच्छ में भी ऐसे तो शास्त्रीय कइ बातों का फरक
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६२
मोहन- संजीवनी
है । लेकिन साधुओं के लिये तो मुख्य दो ही बातों का फरक है । एक तो पर्युषण का और दूसरा तिथि का ।
१ पर्युषण का फरक ऐसे है कि श्रावण या भाद्रपद की वृद्धि में खरतरगच्छ वाले ५० वें दिन संवत्सरी कर लेते है जब कि तपगच्छ वाले ८० वें दिन संवत्सरी करते हैं ।
२ तिथि की बाबत में एसा है कि अन्य तिथि की क्षय वृद्धि में तो साधुओं को विशेष हरकत आवे वैसा नहीं है, परंतु चउदस की या तो पूनम अमावास्या की क्षय और वृद्धि में दोनों की पाखी अलग अलग होती है ।
इनके सिवाय भी कितनी ही बातों का फरक परूपणा में है जैसे कि ।
३ प्रभु श्री महावीरदेव का दोनों माताओं की कूख में आना जो हुआ उस में दोनों माताओंने १४ स्वप्न देखे अतः दोनों माताओं की कूख में प्रभु का आना कल्याणकारी मानने से अपने प्रभु महावीर के छ कल्याणक मानते हैं, जब कि वे लोग गर्भापहार होकर देवानंद की कूख से रानी त्रिसला की कुख प्रभुका आना अकल्याणकभूत आवर्य रूप व अति निंदनीय मान कर कल्याणक ५ ही मानते हैं ।
में
४ श्रावक को सामायिक लेने में खरतरगच्छ वाले पहले करेमि भंते ! उचर कर सावद्य योग रूप मल को त्यागे पीछे इरिया वहिया पंडिकम के भूतकाल में लगे सावध रूप मल की शुद्धि करना बताते हैं । तपगच्छ वाले पहले इरियावहिया पडिकम के पीछे करेमि भंते उचरनी बताते हैं ।
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साधुओं को अंतिम शिक्षा
५ जैन शासन की प्रभावना में हानि न पहुंचने के इरादे से आज के जमाने में अनियमित टाइम से ऋतुधर्म में आने वाली युवान स्त्रियों के लिये प्रभावशाली, मूलनालक जिनप्रतिमा को स्पर्श करके केसर चंदनादि से अंग पूजा करने का निषेध करना खरतरगच्छ वालोंने योग्य समझा और तपगच्छ वालोंने उसको अयोग्य समझा।
इत्यादि बातों का फरक होते हुए भी मैने अपनी सरलताको लेकर और शासन प्रभावना के ध्येय को आगे रख कर यद्यपि इन लोगों की समाचारी करना प्रारंभ किया फिर भी विघ्नसंतोषियोने तो अपना कार्य किया ही और हाल तक भी विराम नहीं लेते, अत. मेरी हार्दिक इच्छा यह है कि अब से तुम सभी साधु अपने गच्छ की क्रिया शरू कर लो, जो श्रावक तपगच्छ के अपने साथ प्रतिक्रमणादि क्रिया करें उनको उनकी इच्छानुसार क्रिया करा देना परंतु अपने अपनी क्रिया को छोड़ देनी नहीं ।
__ यह बात मैने पंन्यास हर्षमुनि जो गृहस्थावस्था में भी पारख गोत्रीय खरतरगच्छ का ही है, उसको २-४ वखत बम्बइ में कही, लेकिन इनका लक्ष इस तरफ नहीं देखा अतः मैने विशेष बाण नहीं किया और न अब करता हूं।
भाग्यशालियो ! मैने तो कैसे संयोगों में और जैसे कि मैं पहले कह चुका हु वैसे किस इरादे से यह क्रिया का परिवर्तन किया, यह मेरी आत्मा ही जानती है परंतु तुम को तो आज इसका वनलेपसा हो गया है, जिस से इस क्रिया को छोडना और अपने गच्छ की क्रिया को करना नहीं चाहते हो। इस बात का मुझे बड़ा दुःख है, परंतु क्या होवे ? भावि प्रबल है ।
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मोहन-संजीवनी
____ अब मै दबाब से किसीको कुछ न कह कर इतना ही कहता हुँ कि यह पंन्यास जसमुनि मेरी आज्ञा से अपने ग्बरतरगच्छ की समाचारी करता है अतः दूसरे जिनकों इनके साथ रह कर अपने गच्छ की शुद्ध समाचारी करनी हो वे मेरे सामने अभी बोल जाओ।" . . इस प्रकार गुरुदेव का आदेश प्राप्त कर वहां विद्यमान साधु
ओंमें से श्री ऋद्धिमुनिजी ( आ. जिनऋद्विसूरि ) श्री रत्नमुनिजी (आ. जिन रत्नहरि ) श्री भावमुनिजी इत्यादिने स्पष्टीकरण करते हुए जाहिर किया कि-" हम लोग आपकी आज्ञानुमार पंन्यासजी श्री जसमुनिजी के अनुयायी बन कर श्री खरतरगच्छ की समाचारी अब से करेंगे।" जब श्री पंन्यासजी श्री हर्षमुनिजी, श्री कांतिमुनिजी आदि ने कहा कि-" हम तो जो करते हैं वहीं करेंगे, यानी तपागच्छ की ही समाचारी करेंगे।" ... तब गुरुदेव श्री मोहनलालजी महाराजने फरमाया कि---
"अच्छा ! अब मैं दबाब से किसी को कुछ नहीं कहता, जिसकी इच्छा हो सो करो। परंतु इतना अवश्य ध्यान में रखना कि ओघा जो विना · गांठ की दसियों वाला मेंने ता जिंदगी रखा है और तुम भी अब तक रखते हो वही रखना,
और दीक्षा में जो खरतरगच्छाचार्यों के नाम बोले जाते हैं वो किसीने कभी बदलना नहीं । इन दो बातों का जो बदलेगा वह दो बाप का होवेगा । और सब आपस में हिलमिल के रहना, एक दूसरे के प्रति ईर्षा भाव से निन्दा में उतरकर शासन की अवहे. लना मत करना, बस यही हमारी अंतिम शिक्षा है। इसका
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साधुओं को अंतिम शिक्षा
पालन करते हुए जनसंघ और जैनधर्म की उन्नति का प्रयत्न करते रहना । जैनधर्म का जितना ज्यादे प्रचार होगा उतना हो भव्य जीवों का कल्याण होगा।"
इस प्रकार अपने शिष्य परिवार में, उन्होंने दोनों समाचारी को स्थान दिया।
स्वास्थ्य तो धीमें धीमें गिरता ही गया। सूरत में सदा खेद का वातावरण रहता। भक्त श्रावक आते, महाराजश्री के दर्शन करते त्याग करते, नियम लेते व्रत करते । महाराजश्री की अंतिम अवस्था लोगों को दिखने लगी थी । दानवीर लोग भी महाराजश्री के प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति बताने को आगे आये । सर्व प्रथम श्री नगीनचंद कपूरचंद जौहरीने एक लाख रुपयों का दान जाहिर किया, और इतना ही मपिया रावबहादूर शेठ श्री नगीनचंद झवेरचंदने । श्री देवकरण मूलजीने भी ११ हजार लिखे, यों यह २॥ लाख का फंड हुआ। आज इसी फंड के विजायसे, पाठशाला चलती है । पुस्तकालय चलता है और जो रुपया बच रहा है वह जीवदया में खर्च किया जाता है।।
यों महाराजश्रीने अपने जीवनकाल में अंत समय तक शासनोन्नति और लोक कल्याण का कार्य चालू रक्या। उनके उपदेश से अनेकानेक कार्य संपन्न हुए हैं, कुछ का वर्णन उपर हो चुका है। कुछ का हम संक्षेप से नाम निर्देश मात्र कर देते हैं वरना संभब था कि यह छोटी सी पुस्तिका बड़ा आकार धारण कर लेती।
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मोहन-संजीवनी
१ सुप्रसिद्ध दानवीर बाबू पन्नालालजी पूरणचंदजी महाराजश्री के विशिष्ट भक्तों में से थे और उन्होंने महाराजश्री के सदुपदेश से अनेक स्थानों पर अनेक संस्थाएं स्थापित की हैं। बाबू पन्नालाल पूरणचंद हाइस्कूल, जैन डिस्पेन्सरी (जैन दवाखाना), जैन मंदिर और पालीताणा की जैन धर्मशाला आदि भी उन्हों में हैं। २ बम्बइ में जैन यात्रियों को ठहरने का सुयोग्य स्थान न था।
महाराजश्रीने उपदेश दिया और श्री भाइचंद तलकचंद सुरतनिवासीने रु. ७५०००) श्री देवकरण मूलजी को सुपुर्द किये उनसे बंबइ लालबाग में धर्मशाला बनी । ३ वालकेश्वर तीन बत्ती पर का श्री आदीश्वर भगवान का मंदिर
भी बाबू पन्नालालजी के सुपुत्र बाबू अमीचंदजीने आपश्री के उपदेश से बनवाया । प्रतिष्ठा भी आपहीने करवाइ। साथ में
वहां उपाश्रय भी बना। ४ जैन विद्यार्थियों के लिये श्री गोकलभाइ मूलचंद जैन होस्टल को
रहने जो एल्फिन्स्टन स्टेशन के पास है आपही के उपदेश से स्थापित हुइ है। ५ सूरत में श्री नेमुभाइ की वाडी जो शेठश्री का निवास स्थान
था आपश्री के उपदेश से साधु मुनियों के ठहरने के लिये उपाश्रय बना। ६ सुरत में श्री हर्षमुनिजी को गणिपद प्रदान करते वख्त में स्थानीय संघने १००,००० रुपिया इकट्ठा किया आज भी उस फंड से जीर्णोद्धार आदि के कार्य होते रहते हैं।
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सुकार्यों का वर्णन ७ सुरत में साधारण जैन जनता के लिये उपयोगपूर्वक भोजन की व्यवस्था हो सके इस लिये सं० १९५३ में एक भोजन
शाला खुली जो आज तक चालू है। ८ सूरत में श्री मोहनलालजी जैन ज्ञान भंडार. रावबहादूर
सेठ हीराचंद मोतीचंद जैन कन्याशाला, श्री मोहनलालजी जैन उपाश्रय आदि आप के भक्त श्रावकों की ओर से स्थापित हैं। ९ वापी, बगवाडा, पारडी, वलसाड, दहाणु, घोलवड, बोरडी, फणसा, बील्लीमोरा, कतारगांव आदि में मंदिर व धर्मशालाएं
आपके ही प्रयत्नों का फल है । १० जोधपुर में ५०० जैनियों को धर्म विमुख होने से बचाने का
श्रेय आप ही को है। ११ ब्राह्मणवाडा (बांभणवाडजी) में श्री महावीरस्वामीजी का दर्शनीय
मंदिर है जो राज्य के अधिकार में था, आपने ही सिरोही
नरेश श्री केशरसिंहजी को उपदेश दे कर जैनों को दिलवाया है। ५२ रोहीडा में भी ब्राह्मण लोग जैनों को मंदिर नहीं बनवाने देते
थे, महाराजश्रीने सिरोही दरबार श्री केशरसिंहजी को उपदेश
दे कर आज्ञा पत्र दिलवाया। १३ बम्बइ के निकट (दहाणु परगने में) जो जैन बंधु धर्म विमुख होते
जा रहे थे उन्हें उपदेश दे कर पुनः पक्के मूर्तिपूजक बनाये ।
बहुत बातों का वर्णन उपर भी आया ही है। महाराजजी की सरलता, निखालसता, और संयम राग, अपरिग्रहवृत्ति और
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मोहन-संजीवनी
शासन सेवा की भावनायें जीवन में उत्तरोत्तर बढते रहे ओर जनता की भक्ति भी आप में निरंतर बढती ही रही। आपकी रुग्णता से सूरत के लोग तो गमगीन थे ही बाहर से भी भक्तों के टोले उमड़ने लगे थे। महाराजश्री का स्वास्थ्य नहीं सुधर सका। फिर भी अपनी क्रियाओं में महाराजश्री कभी भी शिथिल नहीं हुए। अपने शिष्य परिवार को योग्य मार्गदर्शन देते रहे । अपना अंत समय समीप जान अपने भक्त परिवार को इस असार संसार और नश्वर देह का उपदेश देते हुए शोक न करने को समझाया । स्वयं भी आत्मध्यान में तल्लीन रहते । मोह की वृत्तियां को दबा कर आत्मवृत्ति में एकता अनुभव करते। __सं. १९६३ के वैशाख वद १२ (गुजराती चैत्र वदी १२) का दिन मध्याह्न का टाइम आ पहुंचा। महाराजश्रीने स्वयं व्रतपञ्चक्खाण किये, आत्मभाव में स्थिर हुए और समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए। सारे भारत में ये समाचार फैल गये। जैन जगत् का सूर्यास्त हो गया। हा नाथ ! हा! जैनजनाग्रगण्य !.
हा नम्यनम्याखिळलोकमान्य ।। बालं पितेवातिकरालकाले,
संत्यक्तवान्किं तव युक्तमेतत् ? ॥१॥
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पाठकप्रवर श्रीमल्लब्धिमुनीजो म० रचित
१ चरित्रनायक-स्तुत्यष्टकम्
( वसन्ततिलकावृत्तम् ) यस्तीर्थकृत्खरतरामलशिष्टिरक्तो,
वाचंयमः सुविहितो मुनिपूज्यमानः । सूत्रोक्तशुद्धविधिमार्गगतप्रकाशी,
तं नौमि मोहनमुनि भवसिन्धुपोतम् ॥ १ ॥ गम्भीरशुद्धसमयोक्तवचोध्वनिर्हि, ___ यस्याननाच्छ्रतिपुटेन निपीय भव्याः । पापूर्मयूरवदमोघमुदं मुमुक्षोः,
तं नौमि मोहनमुनि भवसिन्धुपोतम् ॥२॥ विद्वत्वशांतवदनं सुतपःप्रतापं.
क्षान्त्यादिसाधुसुगुणान् प्रविलोक्य यस्य । भेजुर्विपक्षिमनुजा अपि शान्तभावं,
तं नौमि मोहनमुनि भवसिन्धुपोतम् ॥३॥ त्यत्त्वाऽऽगमोक्तविधिना यतिन्मदतां यः,
कृत्वा क्रियोद्धरणमाविहार भूमौ । सर्वत्र वायुरिव च प्रतिबन्धमुक्तः,
तं नौमि मोहनमुनि भवसिन्धुपोतम् ॥३॥
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७०
मोहन-संजीवनी
॥
४
॥
तस्मै नमोऽस्तु दमिनेऽखिलसाम्प्रतीय
जैनागमाखिलरहस्यविदे त्रिशुद्धया । मूलोत्तरव्रतगुणप्रतिपालकाय,
विद्वत्सु सद्गुणिगणेषु सुदुर्लभाय ॥४॥ आचार्यराजिनयशोमुनिराजकादि
शिष्यपशिष्यसमुदायसुसेविताय । अात्मस्वभावनिरताय जितेन्द्रियाय, निर्मोहिने परविभावविरक्तकाय ॥६॥
युग्मम् । यश्चागमेन सुगतेः कुगतेः स्वरूप
नीरूपकः सुभविनां पुरतो नितान्तम् । ईर्यादिपञ्चसमितित्रयगुप्तधर्ता,
तं नौमि मोहनमुनि भवसिन्धुपोतम् ॥७॥ विद्वद्विचक्षणगणे तिलकायमानः,
__ लब्धप्रसिद्धिरमलवतिलब्धरेखः । यः स्वात्मसाधनपरोऽवगम क्रियाभ्यां,
तं नौमि मोहनमुनि भवसिन्धुपोतम् ॥ ८॥ खरतरगच्छाकाशचन्द्रायमानः,
सुविहितवरदान्तश्रीमतो मोहनः । प्रपठति य इमं श्रीपूज्यभत्त्याष्टकं हि,
विलसति सुमहत्त्वं सोऽत्र सौख्यं परत्र ॥ ९ ॥
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चरित्रनायक-स्तुत्यष्टकम्
२ द्वितीयमष्टकम्
(द्रुतविलम्वितवृत्तम् ) सुयशस्वियशोमुनिहर्षमुनि
मुख शिष्यवराचितपत्कमलम् । मुनिमोहनमोहनलालगुरुं,
प्रणमामि मुदा सुगुरूं तमहम् ॥ १ ॥ खरपञ्चमहाव्रतमूलगुणो
तरसद्गुणसन्मुनिताऽस्य गुरोः । परिभाति मनावधनाऽपि जने
प्रणमामि मुदा सुगुरुं तमहम् ॥ २ ॥ भविपूज्यजिनेश्वरशिष्टिकर,
समयाचरणं मुनिताक्रियया । निरवद्यसुनिर्मलवृत्तिधर,
प्रणमामि मुदा सुगुरुं तमहम् ॥ ३ ॥ यतितां प्रविहाय यकेन सुवि
हितसाधुपथं विशदं धृतम् । समताशमतादिगुणौघभृता,
प्रणमामि मुदा सुगुरुं तमहम् ॥४॥ अवलोकितभक्तजनोऽप्यधुना,
श्रतिमार्गगतान् हि यदीयगुणान् ।
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अनुमोदयते विकाशयते. प्रणमामि मुदा सुगुरुं तमहम् ॥ ५ ॥
अधुनाऽपि यदीयसुकीर्त्तियश:शुभवासनवासितभक्तजनः ।
इह भाति निरीहसुभावघरं,
उपदेशसुवान्द्रिका भविक
प्रणमामि मुदा सुगुरुं तद्दमम् || ६ ||
इछ यो जिनशासनचन्द्रसमः,
कुमुदानि विकाश्य गतस्सुदिवम् ।
tomat
प्रणमामि मुद्रा सुगुरुं तमहम् ॥ ७ ॥
चरणे करणे गुरुशिष्यगणो,
अजनिष्ट
मोहन- संजीवनी
गुरुदेवसुभक्तिकरो निपुणः । जिनागमिकावगमे,
प्रणमामि मुदा सुगुरुं तमहम् ॥ ८ ॥
मुनिमोहन शिष्यकराजमुनि
गुरुसद्गुणगुम्फित संस्तवन.
लघुशिष्यकपाठकलब्धिमुनिः ।
समाप्त
विदधे जिनरत्नगुरो कृपया ॥ ९ ॥
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 118ISTURBials श्री जिनदत्तसूरि ब्रह्मचर्याश्रम परमपवित्र तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ की शीत छाया में अखिल जैन समाज के महान् उपकारी अपने पवित्र जा देश द्वारी एक लाख तीस हजार अजैनों को जैन धर्म में संमिलि करनेवाले समपूज्य जंगमें युगप्रधान दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज के नाम से अंकित उपरोक्त संस्था को अवश्य याद करिये और अपने घर संबंधी प्रत्येक प्रसंग में इस पवित्र संस्था को यथाशक्ति सहायतारूप भेट देकर, पुण्य व यश का Serving JinShasan gyanmandir@kobatirth.org - सैट ने की योजना :रु. 503) नियत तिथि के रोज मिष्टान्न भोजन / रु. 301) नियंत तिथि को क. 151) नियत तिथि को रु. 41) प्रतिवर्ष देनेवाले को मिष्टान भोजन। 098635 रु. 31) प्रतिवर्ष देनेवाला थको एक टंक का सादा भोजन / क. 25) प्रतिवर्ष देनेवाले की ओरसे नियत तिथिको एक टंक का सादा भोजन। रु. 11) प्रतिवर्ष देनेवाले के नामसे नियत तिथिको सुबह दुध और खाखरा। रु. 251) से ज्यादा रकम देनेवाले सद्गृहस्थ का नाम आरस की तख्ती पर लिखा जायगा / Aisssssssss 1016SSERSures1001000000RRENT 165156IGHESIBIBUTELUGUDDRESS30014ssssssaa For Private and Personal Use Only