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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुओं को अंतिम शिक्षा ५ जैन शासन की प्रभावना में हानि न पहुंचने के इरादे से आज के जमाने में अनियमित टाइम से ऋतुधर्म में आने वाली युवान स्त्रियों के लिये प्रभावशाली, मूलनालक जिनप्रतिमा को स्पर्श करके केसर चंदनादि से अंग पूजा करने का निषेध करना खरतरगच्छ वालोंने योग्य समझा और तपगच्छ वालोंने उसको अयोग्य समझा। इत्यादि बातों का फरक होते हुए भी मैने अपनी सरलताको लेकर और शासन प्रभावना के ध्येय को आगे रख कर यद्यपि इन लोगों की समाचारी करना प्रारंभ किया फिर भी विघ्नसंतोषियोने तो अपना कार्य किया ही और हाल तक भी विराम नहीं लेते, अत. मेरी हार्दिक इच्छा यह है कि अब से तुम सभी साधु अपने गच्छ की क्रिया शरू कर लो, जो श्रावक तपगच्छ के अपने साथ प्रतिक्रमणादि क्रिया करें उनको उनकी इच्छानुसार क्रिया करा देना परंतु अपने अपनी क्रिया को छोड़ देनी नहीं । __ यह बात मैने पंन्यास हर्षमुनि जो गृहस्थावस्था में भी पारख गोत्रीय खरतरगच्छ का ही है, उसको २-४ वखत बम्बइ में कही, लेकिन इनका लक्ष इस तरफ नहीं देखा अतः मैने विशेष बाण नहीं किया और न अब करता हूं। भाग्यशालियो ! मैने तो कैसे संयोगों में और जैसे कि मैं पहले कह चुका हु वैसे किस इरादे से यह क्रिया का परिवर्तन किया, यह मेरी आत्मा ही जानती है परंतु तुम को तो आज इसका वनलेपसा हो गया है, जिस से इस क्रिया को छोडना और अपने गच्छ की क्रिया को करना नहीं चाहते हो। इस बात का मुझे बड़ा दुःख है, परंतु क्या होवे ? भावि प्रबल है । For Private and Personal Use Only
SR No.020481
Book TitleMohan Sanjivani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1960
Total Pages87
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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