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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी ____ अब मै दबाब से किसीको कुछ न कह कर इतना ही कहता हुँ कि यह पंन्यास जसमुनि मेरी आज्ञा से अपने ग्बरतरगच्छ की समाचारी करता है अतः दूसरे जिनकों इनके साथ रह कर अपने गच्छ की शुद्ध समाचारी करनी हो वे मेरे सामने अभी बोल जाओ।" . . इस प्रकार गुरुदेव का आदेश प्राप्त कर वहां विद्यमान साधु ओंमें से श्री ऋद्धिमुनिजी ( आ. जिनऋद्विसूरि ) श्री रत्नमुनिजी (आ. जिन रत्नहरि ) श्री भावमुनिजी इत्यादिने स्पष्टीकरण करते हुए जाहिर किया कि-" हम लोग आपकी आज्ञानुमार पंन्यासजी श्री जसमुनिजी के अनुयायी बन कर श्री खरतरगच्छ की समाचारी अब से करेंगे।" जब श्री पंन्यासजी श्री हर्षमुनिजी, श्री कांतिमुनिजी आदि ने कहा कि-" हम तो जो करते हैं वहीं करेंगे, यानी तपागच्छ की ही समाचारी करेंगे।" ... तब गुरुदेव श्री मोहनलालजी महाराजने फरमाया कि--- "अच्छा ! अब मैं दबाब से किसी को कुछ नहीं कहता, जिसकी इच्छा हो सो करो। परंतु इतना अवश्य ध्यान में रखना कि ओघा जो विना · गांठ की दसियों वाला मेंने ता जिंदगी रखा है और तुम भी अब तक रखते हो वही रखना, और दीक्षा में जो खरतरगच्छाचार्यों के नाम बोले जाते हैं वो किसीने कभी बदलना नहीं । इन दो बातों का जो बदलेगा वह दो बाप का होवेगा । और सब आपस में हिलमिल के रहना, एक दूसरे के प्रति ईर्षा भाव से निन्दा में उतरकर शासन की अवहे. लना मत करना, बस यही हमारी अंतिम शिक्षा है। इसका For Private and Personal Use Only
SR No.020481
Book TitleMohan Sanjivani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1960
Total Pages87
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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