SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी क्यों की पीछले कई वर्षों तक आप राजस्थान से बाहर थे । __ महाराजश्रीने पात्र समझ स्वीकृति दे दी और जोधपूर पधारे। प्रथम शिष्य भी महाराजश्री को यहीं प्राप्त हुआ था और दूसरा भी यहीं मिल रहा था। जोधपुर के श्री संघ में उत्साह का वातावरण था। १९४० के जेठ शुद ५ को दीक्षा दी गइ । यशोमुनि नाम रक्खा गया । नाम क्या निकला था साक्षात् यश ही प्राप्त हुआ था। पिछले ९ वर्षों में आपने त्याग बल व वचनबल से जो यशोपार्जन किया वह मूर्त रूप धारण कर यह यशोमुनि शिष्यरूप में आ मिला था। नवदीक्षित मुनि की आयु २८ वर्ष की थी। लोगोंने फिर भी पूछ लिया-महाराज ! नये मुनि जल्दी तैयार हो जायेंगे क्या ?" महाराजश्रीने शांतभाव से प्रत्युत्तर दिया “ तीसरे वर्ष तुम्हें व्याख्यान सुनाधेगा"। बात बात में मिल गइ। जोधपुर से विहार हुआ-अजमेर पहुंचे। १९४० का दसवां चातुर्मास अजमेर में किया । दिनोदिन महाराजश्री का प्रभाव बढ रहा था । तप भी वृद्धि गत होता जा रहा था और त्याग व तप से शासन की शोभा भी बढ़ रही थी, चातुर्मास में खूब धर्मध्यान हुआ। अजमेर ही में महाराजश्री की भावना तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजी की यात्रा करने की हो रही थी। चातुर्मास की पूर्णाहुति के बाद अपने विनीत शिष्य श्री जसमुनि के साथ महाराजश्रीने पालीताणा की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में आपने गोढवाड की पंचतीर्थ-वरकाणा, राणकपुर, नाडोल, नाडलाइ व मुछाला महावीरजी ( घाणेराव ) की भी यात्रा की । धर्मोपदेश करते करते आपश्री सिद्धाचलजी पहूंचे। कुछ दिन For Private and Personal Use Only
SR No.020481
Book TitleMohan Sanjivani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1960
Total Pages87
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy