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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी ___ यतिजी सामुद्रिक शास्त्रके भी पूर्ण ज्ञाताथे तुरंत वे शिष्य होने के नाते उसे देखने लगे, इधर स्वप्न के वृत्तांतका भी उन्हें ध्यान आया। मोहनको भी उन्होंने योग्य सुलक्षणों से युक्त पाया फिर भी स्पष्ट अनुमति लेना आवश्यक समझ उन्होंने अपने सारे आचार विचार आदि से पंडितजीको अवगत करवा कर जल्दी नहीं कर खूब सोच उत्तर देनेका आग्रह किया । पंडितजी तो कृतनिश्चयी थे फिर महाराजश्री की इतनी निस्पृहताने उनको और भी प्रभावित कर दिया था उन्होंने आंखों में अश्रु भरे और भारी हृदय के साथ फिर एक बार अर्ज करी कि “महाराज ! मोहन आपके योग्य है आप इसे स्वीकार करें !" । ____ यतिजीने कहा " धन्य है पंडितजी ! आप, यह आपका मोहन इतना सुलक्षणा है कि यह संघका अधिपति बनेगा, हजारों सेठ-साहुकार इसके हुकम में-सेवा में रहेंगे और अनेक विमार्गियोंको सन्मार्ग पर लावेगा। आपका यह पुत्र-धर्म की जिस गद्दी पर बैठेगा उसे दीपित करेगा आप इसकी रत्ती भर भी अब चिन्ता न करें। असार संसार मोहन अब यतिजी के पास रहने लगा। विद्याभ्यास में अपना सारा समय देता था-फिर भी जब अवकाश मिलता तो वह अन्य चीजों की जानकारी करने में नहीं चूकता था। थोडे ही वर्षों में उसने नमस्कार महामंत्र से श्री गणेश कर पंचप्रतिक्रमण, अर्थान्वय जीव विचार, नवतत्त्व, दंडक आदि ग्रन्थोंका अध्ययन कर लिया। जैन आचार विचार परंपरा आदिका भी ठोस ज्ञान For Private and Personal Use Only
SR No.020481
Book TitleMohan Sanjivani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1960
Total Pages87
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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