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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरु वियोग १९ ही करते थे। बम्बई का चातुर्मास हुआ, फिर दोनों गुरु चेले भोपाल के श्रावकों के आग्रह से वहां पहुंचे, चातुर्मास भी वहीं हुआ। फिर बम्बइ पधारना हुआ। बम्बइ उन दिनों कोइ साधु नहीं आता था, अतः इस उदीयमान नगर में हमेशां यतियोंश्रीपूज्यों से ही धार्मिक समारंभ किये जाते थे। बम्बइ से आप गवालियर, कोटा, उज्जेन आदि स्थानों में भ्रमण करते और चातु. र्मास करते हुए बनारस पधारे। श्री मोहनलालजी का अध्ययन चालु था। अध्ययन से भी अधिक आपको ध्यान में रुचि थी और हरवख्त आप प्रभुध्यान करते थे, और विशेष अवकाश मिलते ही योग्य मुद्रा में स्थिर बैठ एकाग्रत हो जाते थे । बना. रस में यतिश्री रुपचंदजी का स्वास्थ्य बिगडा, अनेक उपचार किये गये, श्री मोहनलालजीने पूरी तन्मयता से गुरुसेवा की। पर होनहार को कौन रोक सकता है, महाराजश्री का चै. शु. ११ सं. १९१० में स्वर्गवास हो गया। श्रीपूज्यजी श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी भी यहीं विराजते थे। गुरु वियोग से खिन्न हमारे चरित्रनायकजी को उन्होंने खूब सांत्वना दी व अपने पास रख लिये। श्रीपूज्यजी के पास रहने से आपको और भी अधिक लाभ हुआ, आपने अपना अध्ययन आगे बढाया एवं अन्य परिपादियों में शंका समाधान कर योग्य विचार स्थिर करने लगा। ३-४ वर्ष श्रीपूज्यजी के साथ बीते । १९१४ का चातुर्मास लखनउ में था। पर्युषण महापर्व के दिवस थे। यतिश्री मोहनलालजी धर्मसाधन में विशेष उद्यत थे। तपस्वी श्रीपूज्यजी की सेवा में तत्पर थे। जनसमुदाय को धर्मक्रियायें करवाने में तत्पर थे । पर्युषण में श्रीपूज्यजी महाराज का स्वास्थ्य भी खराब हुआ । इन महापर्वो के For Private and Personal Use Only
SR No.020481
Book TitleMohan Sanjivani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1960
Total Pages87
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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