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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी यति में से पूर्ण साधु बनना जरा कठिन है, साधु कहलाकर साधुत्व के सिद्धान्तों को अंशतः मान कर रहना और फिर उनका त्याग करना अधिक मनोबल की आवश्यक्ता रखता हैं। फिर मुनिश्री का यह वैराग्य, दुःख या चिन्ताओं के मूलबाला नहीं था, न क्षणिक उपदेशों से ही आपको वेग चढा था बल्कि अंदर से यह भाव उठे थे। संसार स्वरूप का स्पष्ट दर्शन कर चुके थे, संसारिक विचित्रता में मूल सत्य क्या और कहां है इसका अनुभव आपको हो चुका था । बडे बडे सेठ-साहूकारों व जोहरिओं का सन्मान, यतित्व की समृद्धि और कीर्ति को भी आपने क्षणभंगुर ही समझा था। आप तो ज्ञानगर्भित वैराग्यामृत का पान ही करना चाहते थे और इस तरह आपका किया हुआ क्रियोद्धार जैन समाज में एक अनोखा बनाव बन गया। महाराजश्री का यश चारों ओर फैल गया। दूर दूर से लोग दर्शनार्थ आने लगे। अजमेर शहर भी अपने को धन्य मानने लगा। जाति पांति के संबंध तोड, मत संप्रदाय का मोह छोड जनता इस वैरागी का उपदेश सुनने उमड़ने लगी। महाराजश्री को अब विहार की भी जल्दी थी। श्री संघ के आग्रह से कुछ दिवस ठहर आपने अजमेर से प्रस्थान कीया। स्थान स्थान पर ठहरते व उपदेश देते आप पाली पहुंचे। पाली उन दिनों भी राजस्थान की आज की तरह मुख्य व्यापारिक मंडी थी। दूर दूर से व्यापारियों का आवागमन होता था। गुजराती बंधुओ की भी कोइ १५०-२०० दुकानें थी। जैन समाज बडा जागृत था । बारह व्रतधारी उत्कृष्ट श्रावक श्री नगराजजीने अभी हालही में दीक्षा ली थी। द्रव्यानुयोग के महान् अभ्यासी For Private and Personal Use Only
SR No.020481
Book TitleMohan Sanjivani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1960
Total Pages87
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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