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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी महाराजश्रीने सम्मति दी। सारे चातुर्मास में खूब तप उजमणे आदि हुए । दरबार भी हमेशां संपर्क में आते रहते और यथा समय उपदेश सुनते । १९३२ का चातुर्मास पूर्ण होने पर आप विहार कर फिर पाली पधारे । पाली श्री संघ तो आपके उपदेश के विना बेचैन सा हो रहा था। सबने मिल महाराजश्रीको खूब आग्रह किया, फलतः १९३३ का चातुर्मास पाली ही में हुआ। १९३४ का चातुर्मास सादडी, १९३५ का जोधपुर एवं १९३६ का अजमेर में हुआ। अजमेर से आप विहार कर भिन्न भिन्न गांवों में उपदेश देते हुए, त्याग करवाते हुए फिर जोधपुर पधारे । शहर में प्रवेश करते समय महाराजश्री का दहेना (जीमणा) नेत्र और हाथ फुरकने लगा, उस पर"सिरफुरणे फिर रज, पियमेलो होइ बाहुफुरणम्मि । अच्छिफुरणम्मि य पियं, अहरे पियसंगमो होइ ॥१॥" (उत्त० अ० ८ सुखबोधाट्रीका) इत्यादि शास्त्रकथनानुसार महाराजश्रीने विचारा कि-यहां अवश्य कोइ भव्यात्मा प्रतिबोध पायेगा। क्रमशः धर्मशाला में पधारे । श्री संघने आग्रह किया और चातुर्मास तक स्थिरता करना तय हुआ। इसी स्थिरता काल में आपश्री के उपदेश से आत्मज्ञान प्राप्त कर वैराग्यभाव धारण कर पारखगोत्रीय श्री आलमचंद नामा महानुभावने महाराजश्री से विनंती की कि उसे प्रवज्या दी जाय । महाराजश्री को तो लोभ था नहीं आपने उसे सब तरह समझाया व दीक्षा लेने बाद साधु की क्या जिम्मेदारी है For Private and Personal Use Only
SR No.020481
Book TitleMohan Sanjivani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1960
Total Pages87
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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