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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी प्रधान शिष्य शांतस्वभावी व विनीत पंन्यासजी श्री जसमुनिजी को, जो कि उस समय जोधपुर में चातुर्मास थे, आज्ञा पत्र लिख भक्त श्रावक श्री कानमलजो पटवा को दे दिया । ___पत्र मिलते ही पंन्यासजी महाराजने कोइ दलील न लिखते सिर्फ इतना ही लिख दिया कि आपकी आज्ञा शिरसावंद्य है और आप सूचित करें उसी मिती से यह सेवक अपने गच्छ की संपूर्ण क्रियाएं करने को तैयार है। इस तरह का उत्तर देख कर श्री हर्षमुनिजीने भी इसी तरह की विचारधारा दिखाने का प्रयत्न किया अतः यह कार्य कुछ समय की प्रतीक्षा में स्थगित हो गया। फिर मुनि श्री मोहनलालजी का ध्यान अब स्पष्ट में गच्छ की ओर आकर्षित हो गया था और जब देखा कि श्री हर्षमुनिजी समय निकाल रहे हैं तो एक दिन (सं. १९६३ कार्तिक कृ० ७ को) उन्होंने मुनि श्री जस. मुनिजी पंन्यास को आज्ञा लिख भेजी कि कार्तिक शु. ३ सं० १९६३ से खरतरगच्छ की क्रियाएं संपूर्ण रूप में प्रारंभ कर दें। पाठकों की विशेष जानकारी व तसल्ली के हेतु उक्त पत्र का श्लोक यहां दे दिया गया है। - इस पत्र के अंत में गुरुदेवने यह बिलकुल स्पष्ट कर दिया है कि मैं खरतरगच्छ का हूं, गुजरात में मुझे सभी खरतरगच्छ का कहते हैं, तपा कोइ नहीं कहते । मेरी जीवनचरित्र की पुस्तक में तपा ऐसा नाम भी नहीं है। इस से यह स्पष्ट होता है कि आपके वे शिष्य जो आज तपागच्छ की क्रिया करते हैं और अपने गुरु श्री मोहनलालजी महाराज को तपागच्छ काही बताते For Private and Personal Use Only
SR No.020481
Book TitleMohan Sanjivani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1960
Total Pages87
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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