Book Title: Jinsutra Lecture 14 Prem se Muze Prem Hai
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां प्रवचन प्रेम से मुझे प्रेम है Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARMERabee प्रश्न-सार S परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को चौबीसवां तीर्थंकर क्यों स्वीकार किया? me महावीर का स्वयं सद्गुरु, तीर्थंकर बनना व शिष्यों को दीक्षा देना क्या उनके ही सिद्धांत के विपरीत नहीं है? वर्तमान शताब्दि में आप हमें कौन-सा शब्द देना पसंद करेंगे? आपके सामने दिल खोलूं कि नहीं खोलूं-मुझे घबड़ाहट होती है। और क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती? मेरी हिम्मत अब टूटी जा रही है! www.jamelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाहा हला प्रश्न H परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को भिन्नता पैदा होती है। विरोध से दूसरे को खोजने की आकांक्षा प्राचीनतम जिन-परंपरा का चौबीसवां तीर्थंकर पैदा होती है। स्त्री-पुरुष लड़ते रहते हैं और प्रेम करते रहते हैं। क्योंकर स्वीकार किया होगा? कृपया समझाएं। | लड़ाई और प्रेम कुछ इतने विपरीत नहीं हैं। जिस पति-पत्नी में लड़ाई बंद हो चुकी हो, समझना कि प्रेम भी परंपरा की तो परंपरा है ही, परंपरा-भंजन की भी परंपरा है। मर चुका। जब तक प्रेम की चिंगार रहेगी, तब तक थोड़ा-बहुत परंपरा तो प्राचीन है ही, क्रांति भी कुछ नवीन नहीं। क्रांति उतनी झगड़ा, थोड़ी-बहुत कलह भी रहेगी। लड़ने से प्रेम नहीं मरता ही प्राचीन है जितनी परंपरा। है। लड़ना प्रेम का ही अनिवार्य हिस्सा है। इस पृथ्वी पर सब कुछ इतनी बार हो चुका है कि नया हो कैसे जैनों की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी हिंदुओं की। जैनों सकेगा? जिसको तुम नया कहते हो, वह भी बड़ा पुराना है; के पहले तीर्थंकर ऋषभ का नाम वेदों में उपलब्ध है-बड़े जिसे पुराना कहते हो, वह तो है ही। जब से परंपरावादी रहा है, सम्मान से उपलब्ध है। उस जमाने के लोग बड़े हिम्मतवर रहे तभी से क्रांतिवादी भी रहा है। जब से रूढ़िवादी रहा है, तभी से होंगे। अपने विरोधी को भी सम्मान से याद किया है। रूढ़ि को तोड़नेवाला भी रहा है। जब प्रतिमाएं बनानेवाले लोग | जिस दिन दुनिया समझदार होती है, उस दिन ऐसा ही होगा। पैदा हुए, तभी से प्रतिमाओं को तोड़नेवाले लोग भी पैदा हो तुम अपने विरोधी को भी सम्मान से याद करोगे, क्योंकि विरोधी गये। वे साथ-साथ हैं। वे अलग-अलग हो भी न सकेंगे। वे के बिना तुम भी नहीं हो सकते हो। विरोधी तुम्हें परिभाषित दिन और रात की तरह साथ-साथ हैं। | करता है। उसकी मौजूदगी तुम्हें त्वरा देती है, तीव्रता देती है, क्रांति और परंपरा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न परंपरा जी गति देती है। उसका विरोध तुम्हें चुनौती देता है। उसके विरोध सकती है बिना क्रांति के, न क्रांति जी सकती है बिना परंपरा के। के ही आधार पर तुम अपने को निखारते हो, सम्हालते हो, जिस दिन परंपरा मर जायेगी, उसी दिन क्रांति भी मर जायेगी। मजबूत करते हो। इसे थोड़ा समझना; क्योंकि साधारणतः हम जीवन में जहां भी अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है : जिस राष्ट्र विरोध देखते हैं—सोचते हैं, दोनों दुश्मन हैं। ऐसा देखना अधूरा को शक्तिशाली रहना हो, उसे शक्तिशाली दुश्मन खोज लेने है। जहां-जहां विरोध है, वहां गौर से खोजोगे तो गहराई में | चाहिए। अगर दुश्मन कमजोर होगा, तुम कमजोर हो जाओगे। पाओगे, दोनों परिपूरक हैं। विरोध भी एक भांति कि मैत्री है और जिससे लड़ोगे, वैसे ही हो जाओगे। अगर दुश्मन शक्तिशाली शत्रुता भी एक ढंग का प्रेम है। पुरुष हैं, स्त्रियां हैं उनमें प्रेम भी होगा तो उससे लड़ने में तुम शक्तिशाली होने लगोगे। मित्र तो है, विरोध भी है। विरोध के कारण ही प्रेम है। क्योंकि विरोध से कैसे भी चन लेना, लेकिन शत्र जरा सोच-समझकर चनना। 299 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भार क्योंकि मित्र अंततः उतने निर्णायक नहीं हैं, जितना शत्रु निर्णायक अर्थ हुआ कि तुम दूसरे के मालिक हो गए। तुमने कहा, ऐसा है। वह तुम्हें परिभाषा देता है। वह तुम्हें जीवन की व्याख्या देता करो; अब अगर न करेगा दूसरा व्यक्ति तो उसके मन में अपराध है। वह तुम्हें चुनौती देता है। वह तम्हें बलावा देता है, प्रतिस्पर्धा | का भाव पैदा होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम्हारी हो गई। अगर का अवसर देता है। करेगा तो गुलामी अनुभव करेगा; तुम्हारी आज्ञा से चला। जैन तो ऋग्वेद ने ऋषभ को बड़े सम्मान से याद किया है। ऋषभ | कहते हैं, अगर आज्ञा मानकर किसी की तुम स्वर्ग भी पहुंच गए जैनों के पहले तीर्थंकर हैं। | तो वह स्वर्ग भी नर्क ही सिद्ध होगा; क्योंकि दूसरे के द्वारा जैनों का विरोध, जैनों की क्रांति उतनी ही पुरानी है, जितनी जबर्दस्ती पहुंचाए गए। हिंदुओं की परंपरा। जैन वेद-विरोधी हैं। लेकिन वेद ने बड़ा सुख में कभी कोई जबर्दस्ती पहुंचाया जा सकता है? सुख तो सम्मान दिया है। जैन मूर्ति-विरोधी हैं, यज्ञ-विरोधी हैं, परमात्मा | स्वेच्छा से निर्मित होता है। अगर नर्क भी तुम स्वयं चुनोगे तो को भी स्वीकार नहीं करते, भक्ति का कोई उपाय नहीं सुख मिलेगा; और स्वर्ग भी अगर धक्का देकर पहुंचा दिया, मानते-मूलतः व्यक्तिवादी हैं, अराजक हैं। समूह में उनका पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ गया और दौड़ाकर तुम्हें स्वर्ग में भरोसा नहीं है, व्यक्ति में भरोसा है। और एक-एक व्यक्ति पहुंचा दिया, तो वहां भी तुम्हें सुख न मिलेगा। अलग और अनूठा है। और एक-एक व्यक्ति को अपना ही मार्ग | निज की स्वतंत्रता में स्वर्ग है। परतंत्रता में नर्क है। खोजना है। कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह जैनों की प्राचीनतम इसलिए महावीर तो आदेश भी नहीं देते। क्रांति उनकी बड़ी परंपरा है, वह कुछ नई बात नहीं है। यद्यपि जैन भी उनसे राजी न प्रगाढ़ है। और वे कहते हैं, तुम स्वयं जिम्मेवार हो, कोई और होंगे, क्योंकि अब तो जैन भी भूल गए हैं कि उनके प्राणों में कभी नहीं। बड़ा बोझ रख देते हैं व्यक्ति के ऊपर। बड़ा भारी बोझ है! क्रांति का तत्व था; वह आग बुझ गई है, राख रह गई है। अब राहत का कोई उपाय नहीं। महावीर के पास कोई सांत्वना नहीं तो वे भी परंपरावादी हैं। है। वे सीधा-सीधा तुम्हारा निदान कर देते हैं कि यह तुम्हारी जैनों को समझना हो तो उनकी क्रांति के रुख को | बीमारी है: अब तुम्हें सांत्वना खोजनी हो तो कहीं और जाओ। / समझना जरूरी होगा। इससे बड़ी क्या क्रांति हो सकती है कि तो महावीर उस मूर्ति-भंजक परंपरा के अंग हैं, जो उतनी ही परमात्मा नहीं है, प्रार्थना नहीं है, पूजा-पूजागृह, सब व्यर्थ हैं। प्राचीन है जितनी परंपरा। इसलिए स्वभावतः उस तुम किसी की अनुकंपा के आसरे मत बैठे रहना; तुम्हें स्वयं ही परंपरा-विरोधी परंपरा ने उन्हें अपना चौबीसवां तीर्थंकर घोषित उठना है। तुम्हें कोई ले जा न सकेगा। महावीर यह भी नहीं कहते किया। वस्तुतः उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों में कोई भी उनकी कि मैं तुम्हें कहीं ले जा सकता हूं; ज्यादा से ज्यादा इशारा करता | महिमा का व्यक्ति नहीं था। वे बड़े महिमाशाली व्यक्ति थे, हूं, जाना तुम्हीं को पड़ेगा-अपने ही पैरों से। | लेकिन महावीर की प्रगाढ़ता बड़ी गहरी है। इसलिए धीरे-धीरे महावीर तो आदेश भी नहीं देते कि जाओ। वे कहते हैं, आदेश | ऐसी हालत हो गई कि तेईस तीर्थंकरों को तो लोग भूल ही गए। में भी हिंसा हो जायेगी। मैं कौन हूं जो तुमसे कहूं कि उठो और पश्चिम से जब पहली दफे लोग जैन-धर्म का अध्ययन करने जाओ? मैं उपदेश दे सकता हूं, आदेश नहीं। पूरब आये तो उन्होंने यही समझा कि ये महावीर ही इस धर्म के इसलिए तीर्थंकर उपदेश देते हैं, आदेश नहीं। उपदेश का जन्मदाता हैं। तो पुरानी सभी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच की किताबों में मतलब है : मात्र सलाह। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी। न मानो | महावीर को जैन-धर्म का स्थापक कहा गया है। वे स्थापक नहीं तो तुम कोई पाप कर रहे हो, ऐसी घोषणा न की जायेगी। मान हैं। वे तो अंतिम हैं, प्रथम तो हैं ही नहीं। लेकिन बाकी तेईस खो लो, तो तुमने कोई महापुण्य किया, ऐसा भी कुछ सवाल नहीं गए। महावीर की प्रतिभा ऐसी थी, ऐसी जाज्वल्यमान थी कि है। मान लिया तो समझदारी, न मानी तो तुम्हारी नासमझी। ऐसा लगने लगा, उन्हीं से जन्म हुआ है इस धर्म का। तेईस तो लेकिन इसमें कुछ पाप-पुण्य नहीं है। करीब-करीब पुराण-कथा हो गए; उनका कोई उल्लेख भी नहीं तीर्थंकर आदेश भी नहीं देते। वे कहते हैं कि आदेश देने का रहा। वे तो धूमिल कथा-कहानी के हिस्से हो गए, पुराण हो 300 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मुझे प्रेम है Boss गए, इतिहास न रहे। ऐसा कभी-कभी होता है, जब बहुत महावीर को पूजोगे तो मोक्ष मिल जायेगा। स्वयं को जानोगे तो प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा होता है तो वह चाहे बीच में पैदा हो, मोक्ष मिलेगा, महावीर की पूजा से नहीं। स्वयं को जगाओगे तो चाहे पहले हो, चाहे अंत में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता–सभी मोक्ष मिलेगा, महावीर की अनुकंपा से नहीं। कोई गुरुप्रसाद की चीजें उसके आसपास वर्तुलाकार चक्कर काटने लगती हैं। जगह जैनों के पास नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, सत्य अगर आज तम जिस जैन-धर्म को जानते हो, पक्का नहीं है कि किसी के प्रसाद से मिल जाये तो सस्ता हो गया। फिर तो सत्य ऋषभ का वही रहा हो, पार्श्वनाथ का वही रहा हो, नेमीनाथ का भी वस्तु की तरह हो गया; किसी ने दे दिया; उधार हो गया। वही रहा हो, जरूरी नहीं है। आज तो तुम जिस जैन-धर्म को | अपने जीवन को गलाओ। अपने जीवन को गला-गलाकर ही जानते हो, उसकी सारी रूप-रेखा महावीर ने दी है। वह सत्य ढाला जायेगा। यह सत्य कहीं बाहर नहीं है कि कोई दे दे। रूप-रेखा इतनी गहन हो गई कि अब तुम उसी बात को ऋषभ में | इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि महावीर को जब स्वीकार भी पढ़ लोगे, क्योंकि महावीर को तुमने समझ लिया है। किया गया चौबीसवें तीर्थंकर की तरह, तो इसीलिए स्वीकार समझो कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं महावीर के संबंध में, जरूरी | किया गया कि उनसे ज्यादा बगावती आदमी उस समय में कोई नहीं कि महावीर उससे राजी हों। लेकिन अगर तुमने मुझे ठीक | भी न था। और भी लोग थे। और भी दावेदार थे। क्योंकि क्रांति से समझा, तो फिर मैं तुम्हारा पीछा न छोड़ सकंगा; फिर तुम जब किसी की बपौती थोड़े ही है। जब महावीर जिंदा थे तो बड़े तूफान भी महावीर को पढ़ोगे, तुम मुझे ही पढ़ोगे। जो मैं कह रहा हूं, के दिन थे भारत में; बड़ी बौद्धिक जागृति का काल था; बड़े वह तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगा। अर्थ तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाये, शिखर पर लोग, आकाश में परिभ्रमण कर रहे थे। जैसे आज तो बाहर के शब्दों में वही अर्थ दिखाई पड़ने लगता है। अगर विज्ञान समझना हो तो कहीं पश्चिम में शरण लेनी पड़ेगी; महावीर इस क्रांतिकारी परंपरा में सबसे ज्यादा महिमावान, उस दिन अगर धर्म का कोई भी रूप समझना था, तो भारत में सबसे बड़े मेधावी व्यक्ति हुए। इसलिए उनके शब्द समझने शरण लेनी पड़ती। भारत के पास सभी धर्म की परंपराओं के बड़े जैसे हैं, विचार करने जैसे हैं, क्रांतिकारी तो अनूठे रहे होंगे; जाग्रत पुरुष थे। और उन सभी के शिष्यों की आकांक्षा थी कि वे क्योंकि जैनों के दो संप्रदाय हैं-दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर चौबीसवें तीर्थंकर की तरह घोषित हो जायें। प्रबुद्ध कात्यायन तो मानते हैं, महावीर का कोई भी वचन बचा नहीं, कोई शास्त्र था, मक्खली गोशाल था, संजय विलेट्ठीपुत्त था, और भी लोग बचा नहीं। यह भी क्रांति का हिस्सा है। वे कहते हैं, कोई शास्त्र थे। अजित केशकंबली था। ये सभी बड़े महिमाशाली पुरुष थे। महावीर का वचन नहीं। ये जो वचन हैं, यह श्वेतांबरों के संग्रह लेकिन इन सबके बीच से वह जो सर्वाधिक क्रांतिकारी था, से लिये गये हैं। दिगंबरों के पास कोई संग्रह नहीं है। यह बड़े महावीर, वह श्रमणों की परंपरा में चौबीसवां तीर्थंकर बना। बद्ध आश्चर्य की बात है कि दिगंबरों ने बचाया क्यों नहीं! यह भी | भी थे। उसी गहरी क्रांति का हिस्सा है। क्योंकि अगर बचाओ शब्दों | बुद्ध की तो अलग ही परंपरा बन गई; अलग ही धर्म का जन्म को, तो आज नहीं कल वे शास्त्र बन जाएंगे। बचाओ तो शास्त्र | हुआ। लेकिन यह सोचने जैसा है कि बुद्ध की मौजूदगी में भी आज नहीं कल वेद बन जाएंगे। इसलिए दिगंबरों ने तो महावीर | क्रांतिकारियों की धारा ने महावीर को चुना था। महावीर की के वचन बचाए ही नहीं। यह शास्त्र के प्रति बगावत की बड़ी क्रांति बुद्ध से ज्यादा गहरी है। बहुत जगह बुद्ध थोड़ा समझौता अनूठी कहानी है। मानते हैं महवीर को, लेकिन कुछ शास्त्र नहीं करते मालूम पड़ते हैं; ज्यादा व्यवहारिक हैं। महावीर बिलकुल बचाया है। व्यक्तिगत, गुरु से शिष्य को कहकर जो बातें आयी अव्यवहारिक हैं। क्रांतिकारी सदा अव्यवहारिक रहा है। उसके हैं, बस वही; उनको लिखा नहीं है। | पैर जमीन पर नहीं होते, आकाश में होते हैं। वह आकाश में और इसलिए कोई भी शास्त्र महावीर के संबंध में दिगंबरों के | उड़ता है। हिसाब से प्रामाणिक नहीं है। न शास्त्र बचाया कि कहीं उसके कुछ उदाहरण के लिए समझना जरूरी है। बुद्ध के पास स्त्रियां साथ परिग्रह न हो जाए, न इस तरह के कोई आश्वासन दिये कि आयीं, दीक्षा के लिए, तो बुद्ध ने इनकार कर दिया। यह 301 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 समझौता था। यह थोड़ा भय था। यह इस बात का भय था कि लोकतांत्रिक हिसाब है। लेकिन महावीर का प्रभाव इतना ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि स्त्री और पुरुष साथ-साथ संन्यासी महिमाशाली हुआ कि जिनके वस्त्र थे उनकी प्रतिमाओं से भी हों और साथ-साथ रहें। बुद्ध को भय लगा, इससे तो कहीं ऐसा वस्त्र उतर गए। क्योंकि फिर ऐसा लगने लगा, अगर महावीर न हो जाये कि धर्म नष्ट हो जाये! कहीं स्त्री-पुरुषों का साथ नग्न हैं और पार्श्वनाथ वस्त्र पहने हुए हैं तो पार्श्वनाथ ओछे रहना कामवासना के ज्वार के पैदा होने का कारण न बन जाये! मालूम पड़ेंगे, छोटे मालूम पड़ेंगेः इतना भी त्याग न कर पाये! कहीं स्त्रियां पुरुषों को भ्रष्ट न कर दें। तो वह जो स्त्रियों के प्रति | नग्नता कसौटी हो गई। पुरुषों का पुराना भय है, कहीं न कहीं बुद्ध के मन में उसकी छाया ऐसा सदा हुआ है। जो सर्वाधिक महिमाशाली है वह कसौटी थी। उन्होंने इनकार किया। वे वर्षों तक इनकार करते रहे कि स्त्री बन जाता है। फिर उसके पीछे इतिहास भी बदल जाता है। को मैं संन्यास न दंगा: क्योंकि स्त्री को संन्यास देने से खतरा है। अतीत भी बदल जाता है; क्योंकि अतीत के संबंध में हमारे महावीर के सामने भी सवाल उठा। वे तत्क्षण संन्यास दे दृष्टिकोण बदल जाते हैं। नग्न खड़े हो जाना बड़ा क्रांतिकारी | दिये। उन्होंने एक बार भी यह सवाल न उठाया कि स्त्री को मामला था, क्योंकि नग्नता सिर्फ नग्नता नहीं है। इसका तुम संन्यास देने से कोई खतरा तो न होगा! क्रांतिकारी खतरे को अर्थ समझो।। मानता ही नहीं, बल्कि जहां खतरा हो वहां जानकर जाता है। नग्न होने का अर्थ है: समाज का परिपूर्ण अस्वीकार; समाज उन्होंने यह खतरा स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा, जो होगा की धारणाओं की परिपूर्ण उपेक्षा। तुम अगर चौरस्ते पर नग्न ठीक है। फिर बुद्ध ने मजबूरी में, बहुत दवाब डाले जाने पर, खड़े हो जाओ तो उसका अर्थ यह होता है कि तुम दो कौड़ी वर्षों के बाद जब स्त्रियों को दीक्षा भी दी तो उन्होंने तत्क्षण कहा कीमत नहीं देते कि लोग क्या सोचते हैं, कि लोग अच्छा सोचते कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्ष से ज्यादा न जीयेगा; यह मैंने हैं कि बुरा सोचते हैं, कि लोग तुम्हारे संबंध में क्या कहेंगे। हमारे अपने हाथ से ही बीज बो दिया अपने धर्म के नष्ट होने का। और पास शब्द है भाषा में किसी को गाली देनी हो तो हम कहते हैं बुद्ध का धर्म पांच सौ वर्ष के बीच नष्ट भी हो गया भारत से। "नंगा-लुच्चा'-वह महावीर से पैदा हुआ। नग्न वे थे और और कारण वही सिद्ध हुआ जो बुद्ध ने माना था; जो भय था वह बाल लोंचते थे, इसलिए लुच्चा। पहली दफा महावीर को ही सही साबित हुआ। क्योंकि जब स्त्री-पुरुष पास-पास रहे तो लोगों ने नंगा-लुच्चा कहा; क्योंकि वे नग्न खड़े होते थे और विराग तो दूर हो गया, वैराग्य तो दूर हो गया, राग-रंग शुरू बाल भी काटते न थे। जब बाल बढ़ जाते थे तो हाथ से उनका हुआ। राग-रंग ने नये रास्ते खोज लिये, नयी तर्क की व्यवस्थाएं लोंच करते थे। खोज लीं। तंत्र का जन्म हुआ। बुद्ध-धर्म समाप्त हो गया। तुमने कभी सोचा न होगा कि आखिर नंगे को लच्चा क्यों लेकिन महावीर का धर्म अब भी जीता है, अब भी कहते हैं! लुच्चे का क्या संबंध है? फिर तो धीरे-धीरे लुच्चा जीता-जागता है। स्त्रियों को समाविष्ट कर लिया, धर्म नष्ट न शब्द अलग भी उपयोग होता है। अब तुम कहते हो, फला हुआ। बड़ा क्रांतिकारी भाव रहा होगा। महावीर नग्न खड़े हो आदमी बड़ा लुच्चा है। लेकिन तुम यह नहीं पूछते कि उसने गए। कोई जैनों में भी परंपरा न थी नग्न होने की। आज तो तुम लोंचा क्या है। महावीर के साथ पैदा हुआ शब्द है-गाली की जाकर देखोगे दिगंबर जैन मंदिरों में तो चौबीस ही जैनों की तरह पैदा हुआ, निश्चित ही समाज बहुत नाराज हुआ होगा, प्रतिमाएं नग्न हैं। वह महावीर ने परिभाषा दे दी। वे तेईस नग्न थे बहुत क्रुद्ध हुआ होगा। इस आदमी ने सारे हिसाब तोड़ दिये। नहीं, महावीर ही नग्न हुए थे। बाकी तेईस तो वस्त्रधारी ही थे। वस्त्र सिर्फ वस्त्र थोड़े ही हैं, समाज की सारी धारणा है। वस्त्रों इसलिए अगर श्वेतांबरों और दिगंबरों के विवाद में निर्णय करना में छिपे हुए समाज का सारा संस्कार, उपचार, शिष्टाचार, हो तो बहुमत श्वेतांबरों के पक्ष में होगा, क्योंकि चौबीस तीर्थंकरों सभ्यता, सब है। नग्न को हम असभ्य कहते हैं। आदिवासी हैं, में तेईस वस्त्रधारी थे, और एक ही निर्वस्त्र था। तो अगर निर्णय नग्न रहते हैं, उनको हम असभ्य कहते हैं, आदिम कहते हैं। ही करना हो तो तेईस की तरफ ध्यान करके करना चाहिए, सीधा | क्यों? क्यों असभ्य ? क्योंकि अभी उन्हें इतनी भी समझ नहीं 302 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pron म प्रेम से मुझे प्रेम है RA S कि अपने शरीर को ढांकें, छिपाएं; जानवरों की तरह हैं; पशुओं में सम्मिलित रखना मुश्किल हो गया। वह अलग ही टूट गई की तरह हैं। आदमी और जानवर में जो बड़े-बड़े फर्क हैं, उनमें | धारा। एक फर्क यह भी है कि आदमी कपड़े पहनता है। आदमी | यहां तुम सोचो, बुद्ध महावीर के समकालीन थे। बुद्ध को अकेला पशु है जो कपड़े पहनता है। बाकी सभी पशु नग्न हैं। श्रमणों की परंपरा ने अपना चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार नहीं तो महावीर जब नग्न हुए उन्होंने कहा कि संस्कृति नहीं, प्रकृति | किया; महावीर को किया। हिंदुओं ने बुद्ध को अपना दसवां को चुनता हूं; सभ्यता को नहीं, आदिम-स्वभाव को चुनता हूं। | अवतार स्वीकार किया; महावीर के नाम का उल्लेख भी नहीं और जो भी दांव पर लगती हो इज्जत, पद-प्रतिष्ठा, वह सब किया। क्या मामला है? बुद्ध अभी भी स्वीकार किये जा सकते दांव पर लगा देता हूं। आज से पच्चीस सौ साल पहले वैसी | थे। थोड़े बगावती थे, लेकिन डोर बिलकुल न तोड़ दी थी; फिर हिम्मत बड़ी कठिन थी; आज भी कठिन है। आज भी नग्न खड़े भी बंधे थे। महावीर ने बिलकुल ही डोर तोड़ दी, खूटी उखाड़ होने पर अड़चनें खड़ी हो जायेंगी, तत्क्षण पलिस ले जायेगी, ली; बाहर खड़े हो गए खुले आकाश में। अदालत में मुकदमा चलेगा। महावीर सभी तरह से मनुष्य को विशाल करना चाहते हैं। दिगंबर जैन मुनि को किसी गांव से गुजरना हो तो पुलिस को नजर को वुसअत नसीब होगी खबर करनी पड़ती है। और जब दिगंबर जैन मुनि, नग्न मुनि हदों से निकलेगा जब तखैय्युल गुजरता है, तो उसके शिष्यों को उसके चारों तरफ घेरा बनाकर हरम भी ऐ शेख! सतहे-बी, सुन चलना पड़ता है ताकि उसकी नग्नता कुछ तो ढंकी रहे। मकान है, ला-मकां नहीं है। दिगंबर जैन मुनि खोते चले गए हैं, एक दर्जन से ज्यादा नहीं हैं तभी विशालता आत्मा को उपलब्ध होती है। जब कल्पना के अब। क्योंकि बड़ा कठिन मामला है। वह नग्नता ही उपद्रव है। ऊपर से भी सारी जंजीरें हट जाती हैं। जब तुम्हारा सोच-विचार फिर सारे समाज की व्यवस्था को जड़-मूल से इनकार करना, तो मुक्त होता है तभी तुम्हारी आत्मा भी विशाल होती है। समाज भी प्रतिरोध करता है, बदला लेता है, नाराज हो जाता है। नजर को वुसअत नसीब होगी-तभी तुम्हारी दृष्टि विशाल प्रथम तीर्थंकर का उल्लेख तो ऋग्वेद में है; लेकिन महावीर बनेगी, जब उसके ऊपर किसी तरह के बंधन न रह जाएं-न का उल्लेख किसी हिंदू-ग्रंथ में नहीं है। निश्चित ही महावीर शास्त्र के, न अतीत के, न सदगुरुओं के। अति क्रांतिकारी रहे। इतने क्रांतिकारी रहे कि उनका उल्लेख हरम भी ए शेख! सतहे-बी, सुन करने तक की हिम्मत हिंदू-शास्त्रों ने नहीं की है। इस आदमी का मकान है, ला-मकां नहीं है। नाम लेना भी खतरनाक मालम हआ है। ये मंदिर, ये मस्जिद, ये पूजागह भी, सन। ये भी संकीर्ण हैं। तो क्रांतिकारियों की जो परंपरा है, उस परंपरा ने अगर महावीर | मकान हैं, ला-मकां नहीं हैं। को चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार किया, स्वाभाविक था यह। | और हमें एक ऐसी जगह चाहिए जहां कोई सीमा न हो, यह भी समझ लेना जरूरी है कि महावीर के पहले तक | ला-मकां; जहां कोई सीमा न रोकती हो। नजर को वुसअत जैन-धर्म कोई अलग धर्म न था। वह चिंतकों की एक धारा थी, नसीब होगी और तब तेरी दृष्टि विशाल होगी। लेकिन कोई अलग धर्म न था। महावीर के साथ ही चिंतकों की तो महावीर ने अत्यंत विशाल दृष्टि दी है। लेकिन जब अत्यंत धारा सघन हुई; उसने रूप लिया, संगठन बनी, संघ बनी और विशाल दृष्टि होगी, तो सभी की दृष्टियों के विपरीत पड़ हिंदू परंपरा से अलग होकर चलने लगी। | जायेगी। संकीर्ण दृष्टि के साथी मिल जाएंगे: विशाल दष्टि के पार्श्वनाथ या ऋषभदेव एक अर्थ में हिंदू ही थे-वैसे ही जैसे साथी नहीं मिलते। अब अगर मैं कृष्ण की ही महिमा गाऊं तो जीसस यहूदी थे। महावीर भी जब जिंदा थे तो करीब-करीब हिंदू हिंदू मेरे साथ हो जाएंगे; लेकिन उनकी शर्त है कि फिर महावीर थे। लेकिन महावीर ने जो प्रगाढ़ता से क्रांति को रूप दिया, वह की बात मत उठाना। अगर मैं महावीर के ही गीत गुनगुनाऊं, तो इतना प्रबल हो गया, इतना साफ हो गया कि उसे फिर हिंदू-धारा | जैन मेरे साथ हो जाएंगे; लेकिन उनकी शर्त है, अब कृष्ण को 303 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALL जिन सत्र भागः 1 Mir बीच में मत लाना। कौन राजी होगा इस आदमी से? क्योंकि तुम चाहते हो, कुछ अगर तुम संकीर्ण हो तो तुम्हें किसी न किसी का साथ मिल | बंधी हुई लकीर मिल जाये। लेकिन महावीर कहते हैं, सभी बंधी जायेगा, क्योंकि संकीर्ण लोग चारों तरफ मौजूद हैं। मुझसे जैन लकीरें, सभी संकीर्णताएं उस परम सत्य को प्रगट नहीं कर भी नाराज हो जाता है, क्योंकि मैंने कृष्ण की बात की; मुझसे हिंदू | | पातीं। एक अर्थ में वह है और एक अर्थ में नहीं है। भी नाराज हो जाता है, क्योंकि मैंने महावीर की बात की मुझसे जैसे कोई तुमसे पूछे, शून्य है? क्या कहोगे? एक अर्थ में है; बौद्ध नाराज हो जाता है कि क्यों मैंने महावीर की चर्चा की; अगर कहो कि नहीं है तो पूरा गणित गिर जायेगा। एक अर्थ में मुझसे जैन नाराज हो जाता है कि बुद्ध की बात क्यों उठाई! है। और एक अर्थ में नहीं है, क्योंकि शून्य का मतलब ही होता है मुझसे तो साथ-संग वही दे सकता है जिसकी नजर संकीर्ण न | कि जो नहीं है। और अगर दोनों बातें एक साथ सच हैं तो फिर हो। और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि मैं परंपरा के भी पक्ष तीसरी बात भी ठीक है कि दोनों है। लेकिन दोनों बातें एक साथ में हूं और क्रांति के भी पक्ष में हूं। तब और अड़चन हो जाती है। सच कैसे हो सकती हैं? कोई चीज या तो होती है या नहीं होती। तब परंपरावादी मुझसे नाराज हो जाता है कि क्रांति की तुम बात | तो महावीर कहते हैं, दोनों असत्य भी हैं। ऐसा वे बढ़ते चले करते हो; और क्रांतिवादी नाराज हो जायेगा कि तुम परंपरा की जाते हैं। और प्रत्येक वक्तव्य के साथ वे स्यात लगाते हैं, बात करते हो। लेकिन मैं असल में चाहता हूं कि तुम्हारी नजर परहैप्स। यह बड़ी अनूठी बात है। वे कहते हैं, स्यात।। पर कोई भी सीमा न रह जाये; तुम्हारी सब सीमाएं टूट जाएं; तुम | तुम सुनने आते हो कोई मत। तुम अनिश्चित हो। तुम्हें पता विशाल हो जाओ; तुम खुले आकाश के नीचे खड़े हो जाओ; नहीं, क्या है, क्या नहीं है। तुम चाहते हो, कोई आदमी जो कोई घेरा न रहे! बड़े से बड़ा घेरा भी आखिर घेरा है। और टेबिल ठोककर कह दे कि हां, ईश्वर है। और इतने जोर से कहे आत्मा का तभी जन्म होता है जब तुम्हारी दृष्टि सभी दृष्टियों से कि तुम घबड़ा जाओ और मान लो। लेकिन महावीर कहते हैं, मुक्त हो जाती है। उस अवस्था को महावीर ने सम्यक दृष्टि कहा | स्यात; वे तुम्हें सांत्वना नहीं देते। वे कहते हैं, हो भी सकता है, है-जब कोई दृष्टि नहीं पकड़ती। न भी हो। इसमें कोई झिझक नहीं है। इसलिए महावीर ने अपने विचार-दर्शन को अनेकांत कहा है। अनेकों को ऐसा लगेगा, शायद महावीर को पता नहीं है। अनेकांत का अर्थ होता है। जिसने कोई एकांतिक दृष्टि नहीं कहते हैं 'शायद'? लेकिन महावीर को पता है, इसलिए कहते पकड़ी। महावीर ने जिस दर्शन को जन्म दिया, उसका नाम हैं स्यात। क्योंकि जो पता है वह इतना बड़ा है कि उसके संबंध में स्यातवाद है। तुम महावीर से कुछ पूछो तो वे सात भंगियों में कोई भी वक्तव्य एकांगी हो जाता है। उसके संबंध में सभी उत्तर देते हैं। तुम उनसे पूछो, ईश्वर है? तो वे कहते हैं, है; और वक्तव्य एक साथ ही सार्थक हो सकते हैं। तब एक वक्तव्य तत्क्षण कहते हैं, नहीं है। और वे कहते हैं, दोनों है, और कहते हैं | दूसरे वक्तव्य को काटता जाता है। तुम्हारे पास कुछ सिद्धांत दोनों नहीं है। और ऐसा उत्तर देते चले जाते हैं। सात दृष्टियां हो नहीं बचता, आखिर में तुम ही बचते हो। तुम्हारी बुद्धि के पास सकती हैं ईश्वर के बाबत, वे सातों दृष्टियों का एक साथ उपयोग कोई दृष्टिकोण नहीं बचता, केवल देखने की क्षमता बचती है। करते हैं। वे तुम्हें कोई जगह नहीं देना चाहते। तुमने पूछा, ईश्वर __इससे बड़ी क्रांति कभी घटी नहीं। इसलिए क्रांतिकारियों ने है? महावीर कहते हैं, है। इसके पहले कि तुम उठो और सोचो अगर महावीर को अपना चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार किया तो | कि बस फैसला हो गया, वे कहते हैं रुको, नहीं है। तुम सोचोगे, कुछ आश्चर्य नहीं है। तुम्हें अड़चन होती है सोचने में कि क्रांति, चलो यह भी ठीक है-नहीं है तो भी बात साफ हो गई। उठने | मूर्ति-भंजन और उसमें भी फिर चौबीसवें तीर्थंकर! क्योंकि तुमने लगे, वे कहते हैं, बैठो, दोनों है, है भी और नहीं भी। अब तुम सोचा है और समझा है अब तक कि क्रांति कोई नई चीज है। जरा अड़चन में पड़े। लेकिन वे अभी भी नहीं रुकते. वे बढ़ते ही | क्रांति और परंपरा ऐसे हैं, जैसे तुम्हारे दो पैर। सभी क्रांतियां चले जाते हैं। कहते हैं, दोनों है। चौथा उनका उत्तर है, दोनों नहीं। अंततः परंपरा बन जाती हैं और सभी परंपराएं प्रारंभ में क्रांतियां है। और ऐसा सात भंगियों में सप्त-भंग! थीं। क्रांति परंपरा का पहला कदम है और परंपरा क्रांति की Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mithuniti प्रेम से मुझे प्रेम है। अंतिम दशा है। है। इसलिए क्रांति को फिर-फिर करते रहना पड़ता है और धर्म कृष्णमूर्ति कुछ कहते हैं, वचन क्रांतिकारी हैं—परंपरा बनने को पुनः पुनः जन्म देना पड़ता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति धर्म को लगे। कृष्णमूर्तिवादी आदमी पैदा हो गया है। कृष्णमूर्ति कहते जन्म देते वक्त यह न सोचे कि उसका धर्म अपवाद होगा। हैं, कोई गुरु नहीं। उनका माननेवाला भी कहता है, कोई गुरु असंभव है। अपवाद कोई भी नहीं हो सकता। जो पैदा हो रहा नहीं। लेकिन मेरे पास उनके माननेवाले आ जाते हैं। वे कहते है, वह मरेगा। फिर नये धर्मों की जरूरत रहेगी। हैं, कोई गुरु नहीं। मैंने कहा, तुमने यह सीखा कहां? वे कहते अब यहां भी थोड़ा सोचने जैसा है। जब धर्म क्रांतिकारी होता हैं, उनके चरणों में बैठकर सीखा है। तो वे तुम्हारे गुरु हो गए। है तब अलग तरह के लोगों को आकर्षित करता तुम यह स्वयं के बोध से दोहरा रहे हो कि कोई गुरु नहीं? यह है—क्रांतिकारियों को, बगावतियों को, विद्रोहियों को। फिर भी तुमने सीख लिया है। और जहां सीखना हो गया, वहां गुरु | धीरे-धीरे जैसे-जैसे धर्म स्थापित होने लगता है, ऐस्टेब्लिश होने आ गया। कृष्णमूर्तिवादी भी अपने पक्ष की तर्कणा करता है, लगता है, फिर वह क्रांतिकारियों को आकर्षित करना तो दूर, विचारणा करता है, सिद्ध करने के लिए प्रमाण देता है, अगर वे पैदा हो जायें तो उन्हें निकाल बाहर करता है, क्योंकि वे वाद-विवाद करता है। बचना मुश्किल है। खतरा करने लगते हैं। क्रांति ऐसे ही है जैसे जन्म-और जब जन्म हो गया तो मौत | अब यह एक बड़ा विरोधाभास है। अगर जैन-धर्म में फिर भी होगी। अब तुम लाख उपाय करो बचने के; अगर बचना था महावीर पैदा हो जायें तो जैनी उन्हें निकाल बाहर कर देंगे, तो जन्मना ही नहीं था। वहीं भूल हो गई। अब कुछ किया नहीं बर्दाश्त न करेंगे। अगर जीसस फिर पैदा हो जायें ईसाई घर में तो जा सकता। मरना तो पड़ेगा ही। अब की बार फिर सूली लगेगी-अब की बार ईसाई लगाएंगे। आगे खयाल रखना, जन्मना मत। इसलिए जिसको मौत से | पिछली बार यहूदियों ने लगाई थी, क्योंकि उन्होंने यहूदी-घर में बचना हो उसे जन्म से बचना चाहिए। पैदा होने की गलती की थी। किसी और ने नहीं लगाई, यहूदियों कहते हैं. डायोजनीज को किसी ने पछा कि दनिया में सबसे ने लगाई थी। बेहतर बात कौन-सी है। उसने कहा, बेहतर बात तो है पैदा न और यहूदी बड़े क्रांतिकारी थे अपने प्रथम चरण में। मूसा बड़े होना। उस आदमी ने कहा, खैर अब यह तो हो ही नहीं सकता, क्रांतिकारी हैं। यहूदियों की मुक्ति, इजिप्त से उनका छुटकारा, हम हो ही गए पैदा-नंबर दो क्या? उसने कहा, नंबर नए जीवन और जगत की खोज, नए समाज की पूरी की पूरी दो-जितनी जल्दी मर सको मर जाना। पैदा न होते, कोई झंझट अंतरचिंतना और उसकी नींव मूसा ने भरी। न होती; मर गए, फिर झंझट मिट गई। लेकिन उसी घर में, उसी कल में, उसी परंपरा में आता है क्रांति जन्म है। मगर जब क्रांति हो गई तो मौत भी होगी। जीसस, और जीसस वही करना चाहता है जो मूसा ने किया था; क्रांति परंपरा बनेगी। यही तो तुम देख रहे हो। ये जो सारे धर्म लेकिन मूसा के माननेवाले बरदाश्त न करेंगे, क्योंकि यह फिर तुम्हें पृथ्वी पर दिखाई पड़ते हैं, क्या तुम सोचते हो, ये पहले ही उखाड़ डालेगा। क्षण से परंपरा थे? पहले क्षण में तो ये क्रांति की तरह उठे थे। कहीं भी तुम पैदा हो जाओ, अगर तुमने नये धर्म की चिंतना फिर सम्हल गए, संगठित हो गए, व्यवस्थित हो गए; | की और धर्म सदा ही नया है, क्रांति उसकी शुरुआत है तो अराजकता खो गई, ज्योति खो गई। फिर सब बात बंद हो जाती तुम निकाल बाहर किये जाओगे। हां, तुम्हारे आसपास एक नया है। फिर धीरे-धीरे सब समाप्त हो जाता है। धर्म निर्मित हो जायेगा। जल्दी ही तुम्हारे बच्चे वहां भी क्रांति न जैन-धर्म अब एक परंपरा है। बुद्ध-धर्म एक परंपरा है। चलने देंगे। वहां भी जब कोई क्रांतिकारी पैदा होगा, उसे निकाल सिक्ख-धर्म अब एक परंपरा है। नानक के साथ क्रांति थी, बड़ी बाहर किया जायेगा। यह क्रांतिकारी का भाग्य है कि सूली पर बगावत थी। फिर खो गई बात। फिर धीरे-धीरे राख जम गई। लटके। और यह सभी धर्मों की नियति है कि क्रांति की तरह पैदा सभी चीजों पर राख जम जायेगी, क्योंकि यह जीवन का नियम हों, परंपरा की तरह सड़ जाएं। 305 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रश्न: कल आपने समझाया कि महावीर ने बड़ी पकड़कर उतारता नहीं। ऊबड़-खाबड़ जंगल पहाड़ में उतरना कुशलता से, बड़ी अहिंसा के साथ ईश्वर, पूजा, प्रार्थना, प्रेम | मुश्किल होता है। वह घाट बना देता है। वह सब व्यवस्थित कर आदि शब्दों का इनकार किया। उसके पहले भी आपने बताया देता है। ठीक जगह-जहां से दूसरा किनारा करीब से करीब है, था कि उन्होंने शरण और भक्ति का भी इनकार किया। कृपया ऐसी जगह, जहां जलधार बहुत खतरनाक नहीं है; ऐसी जगह, समझाएं कि तब उनका स्वयं एक सदगुरु, तीर्थंकर बनना व जहां जलधार छिछली है, तुम चलकर भी पार हो सकोगे; ऐसी शिष्यों को दीक्षा व आशीर्वाद देना क्या उनके ही सिद्धांत के जगह, जहां कम से कम डूबने का भय है-वह घाट बना देता विपरीत नहीं है? है। वह घाट के ऊपर सारे नक्शे रख देता है कि बाएं जाओ कि दाएं जाओ, कि कितने कदम चलने पर पानी गहरा होगा और पहली बात–महावीर तीर्थंकर हैं, सदगुरु नहीं। सदगुरु कितने कदम चलने पर दूसरा किनारा करीब आ जायेगा। वह भक्तों का शब्द है। इसलिए महावीर के लिए सदगुरु शब्द का दूसरे किनारे का वर्णन कर देता है। वह सारी बात कर देता है, उपयोग मत करना। और तीर्थंकर का बड़ा अलग अर्थ होता है। घाट निर्मित कर देता है, सारे उपकरण यात्रा के मौजूद कर देता सदगुरु का बड़ा अलग अर्थ होता है। | है-बस, वहीं छोड़ देता है। फिर तुम जाओ, यात्रा तुम्हीं को सदगुरु का अर्थ होता है जो तुम्हारा हाथ पकड़ ले; जैसे बाप करनी है। बेटे का हाथ पकड़ लेता है और ले चलता है। और बेटा अपनी तीर्थंकर सदगुरु नहीं है। तीर्थंकर से तुम्हारा कोई व्यक्तिगत सारी श्रद्धा बाप को दे देता है; वह जानता है कि हम ठीक जा रहे संबंध नहीं है। तीर्थंकर से तुम्हारा बड़ा अव्यक्तिगत संबंध है। हैं—चाहे बाप खतरे में भी जा रहा हो, भयंकर जंगल से गुजर महावीर के पास तुम जाओ तो तुम्हारा जो प्रेम महावीर के प्रति है रहा हो। बाप डरता हो तो डरता रहे, बेटा मस्ती से चलता है। वह एकतरफा है। तुम्हारा होगा। महावीर तो कहते हैं, उसे भी बाप के हाथ में हाथ है, अब और क्या चाहिए! बेटा आनंदित छोड़ो, क्योंकि वह भी बंधन बनेगा। महावीर का तो बिलकुल होकर देखता है जंगल। वह हजार प्रश्न उठाता है। बाप कहता नहीं है। तुम भला अपनी कल्पना से सोचते होओ कि हम दीवाने है, चुप रहो! बाप घबड़ा रहा है। बाप अकेला है। बेटे को क्या हैं महावीर के, लेकिन महावीर तुम्हारे दीवाने नहीं हैं। तुम चले फिक्र है। जब बाप साथ है तो सब बात हो गई। जाओगे तो वे बैठकर रोएंगे नहीं कि कहां खो गया। सदगुरु का अर्थ होता है: समर्पण किसी के प्रति; उसके हाथ भक्त और सदगुरु की बात अलग है। जीसस ने कहा है: में हाथ दे देना, बस। फिर भक्त कहता है, अब हम छोटे बच्चे सदगुरु ऐसा है...वह धारणा है पैगंबर की, सदगरु की, कि जैसे की तरह हो गए; अब तुम्हें जहां ले चलना हो ले चलो; हम गडरिये की कोई भेड़ भटक जाये। सांझ हो गई, सारी भेड़ें आ शिष्य हो गए। | गईं, लेकिन एक भेड़ जंगल में भटक गई, तो सारी भेड़ों को 'तीर्थंकर का बड़ा अलग अर्थ है। तीर्थकर तुम्हारे हाथ को खतरे में छोड़कर वह उस एक भेड़ की तलाश में जाता है। वह अपने हाथ में नहीं लेता। तीर्थंकर तुम्हें सहारा नहीं देता। जंगल में उतरता है फिर अंधेरी रात में, चिल्लाता है, पुकारता है। तीर्थंकर शब्द का अर्थ होता है: तीर्थ बनानेवाला, घाट जब भेड़ को खोज लेता है तो उसे कंधे पर रखकर लौटता है। बनानेवाला। नदी के किनारे घाट बना देता है, फिर जिसकी मौज | भटकी भेड़ को कंधे पर रखकर लौटता है। और भटकी भेड़ के हो उस घाट से उतर जाये। लेकिन वह तुम्हें इस नाव में बिठाकर लिए जो भेड़ें साथ थीं, उनको खतरे में छोड़ जाता है। इस बीच ले नहीं जाता। वह माझी नहीं है। वह तुम्हें नाव में बिठाकर उस | जंगली जानवर हमला भी कर सकते हैं! पार नहीं ले जाता, न वह तुम्हारा हाथ पकड़कर नदी में तैराता है। यह ईसाइयों की मसीहा की धारणा है, सदगुरु की। उसका वह सिर्फ घाट बना देता है। संबंध वैयक्तिक है। वह तुम्हारी तरफ व्यक्तिगत ढंग से तीर्थ का अर्थ होता है: घाट। तीर्थंकर का अर्थ होता है | सोचता-विचारता है। तीर्थंकर निर्वैयक्तिक है। वह सिर्फ जिन्होंने घाट बनाये। तो सुगम कर देता है उतरना, लेकिन हाथ | सिद्धांत बता देता है। वह कहता है, दो और दो चार होते हैं, तुम 306 ain Eucation International Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मुझे प्रेम है जोड़ लो। गणित बता दिया, नियम बता दिया, अब तुम कर लो शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है। तुम्हारा होश काम आएगा, मेरी हल। इससे ज्यादा उसका कोई संबंध नहीं है। | शुभाकांक्षा थोड़े ही! और वे कहते हैं, कहीं तुम्हारे मन में ऐसा अगर तुम चले जाओ, खो जाओ, तो तुम्हारे लिए बैठकर रोता | भरोसा आने लगे जैसा कि काहिलों और सुस्तों को आ जाता नहीं और न बीहड़ में तुम्हें चिल्लाता हुआ आता है। क्योंकि है—किसी के आशीर्वाद से सब हो जायेगा तो वे वैसे ही मर तीर्थंकरों की धारणा ऐसी है। वे कहते हैं, जिसे भटकना है वह रहे थे और मर जाते। वे वैसे ही डूब रहे थे, वे और हाथ-पैर भटकेगा। जब अपने ही भटकने से ऊब न जायेगा, तब तक | तड़फड़ाना छोड़ देते हैं। वे कहते हैं, अब आशीर्वाद मिल गया, भटकेगा। और अगर कोई भटकना ही चाहता है तो उसे न अब सब ठीक है। भटकने देना उचित नहीं है, उसकी स्वतंत्रता में बाधा है। अब महावीर कहते हैं, ऐसी झूठी बातों के लिए मेरे पास मत इस बात का भी मूल्य है। आना। दीक्षा देते हैं। दीक्षा का अर्थ है : इनिसिएशन। दीक्षा का जीसस की बात भी समझ में आती है कि जो जाग गया है, वह अर्थ है : वे तुम्हें बता देते हैं, जो उन्हें हुआ है। वे कहते हैं, यह उसको सहारा दे जो सोया है। महावीर की बात भी समझ में रहा रास्ता। ज्योति फेंक देते हैं रास्ते पर। दीक्षा का तो अर्थ है, आती है। वे कहते हैं, सहारा देना एक बात है; लेकिन वह उदघाटन कर देते हैं एक द्वार का। जिस द्वार से वे प्रवेश किए हैं, सहारा न चाहता हो तो उस पर सहारा थोपना बिलकुल दूसरी वह द्वार तुम्हें भी इंगित कर देते हैं, कि वो रहा। आशीर्वाद का बात है। इसलिए वे उपदेश देते हैं, आदेश नहीं देते। वे मार्ग | अर्थ है कि वे तुम्हारे लिए प्रार्थना करते हैं। आशीर्वाद का अर्थ है दिखा देते हैं, फिर यह भी नहीं कहते कि चलो, उठो। फिर तुम्हें कि वे मंगल कामना करते हैं। आशीर्वाद का अर्थ है कि तुम्हारी झिझकारते नहीं हैं, तुम्हें सोए से उठाते नहीं, तुम्हारे सपने को यात्रा में वह भी सम्मिलित हैं। नहीं, तीर्थंकर आशीर्वाद नहीं तोड़ते नहीं। वे कहते हैं, अगर तुम्हारी यही मर्जी है तो तुम्हारी देते। ये अलग-अलग परंपराओं के शब्द हैं, इनका वैयक्तिक स्वतंत्रता है। वे तुम्हारी वैयक्तिक स्वतंत्रता को अलग-अलग अर्थ समझ लेना जरूरी है, अन्यथा बड़ी भ्रांति सम्मान देते हैं। अगर तुमने भटकना तय किया है तो यही तुम्हारी | पैदा होती है। नियति है, अभी और भटको; जब तुम्हें समझ में आ जाये तब पहली दफा मैं बंबई निमंत्रित हुआ, कई वर्ष पहले-एक लौट आना। इसका मतलब यह हुआ: वे तुम्हें भेड़-बकरी नहीं महावीर जयंती पर। मेरे पहले, एक जैन मुनि बोले तो मैं तो बहुत मानते, तुम्हें मनुष्य मानते हैं। तब तम्हें समझ में आयेगी बात कि | चकित हुआ, क्योंकि उन्होंने जो बातें कहीं, वे बिलकुल अ-जैन उनकी बात का भी बल है। वे कहते हैं, तुम कोई भेड़ थोड़े ही हो | थीं। उन्होंने कहा महावीर का जन्म हआ जगत के कल्याण के कि हम तुम्हें उठाकर कंधे पर ले आएं। तुम मनुष्य हो! तुम्हारे लिए। ऐसा जैनी मुनि कहते हैं। जैनी भी कहते हैं। उनको पता भीतर परमात्मा छिपा है। और अगर तुम्हारे परमात्मा ने यही नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। यह तो हिंदू-भाषा है। कृष्ण का अभी तय किया है कि अभी और थोड़ा झेलना है दुख, और थोड़ा जन्म हुआ जगत के कल्याण के लिए। यह समझ में आ जाता जीना है नर्क, तो कौन तुम्हें रोक सकता है! तुम्हारे ऊपर कोई भी है। यदा-यदा हि धर्मस्य...जब-जब होगी धर्म को अड़चन, नहीं है, तुम अंतिम हो। मुझे कुछ मिला है, वह मैं कह देता हूं तब तब आऊंगा...युगे-युगे। यह ठीक है। अवतार की भाषा उपयोग करना हो कर लेना, न करना हो न कर लेना। ऐसा तो बिलकुल ठीक है कि जब जरूरत होगी मेरी, मैं आऊंगा, तुम निर्वैयक्तिक संबंध है। फिक्र मत करना। जब अंधेरा होगा तब आऊंगा दीया लेकर। इसलिए पहली बात तीर्थंकर सदगरु नहीं है। दसरी जब जाल फैलेगा घणा का और हिंसा का. तब आऊंगा तम्हें बात-तीर्थकर दीक्षा तो देता है, आशीर्वाद नहीं देता। उठाने। और हमेशा-हमेशा, तुम भरोसा कर सकते हो। आशीर्वाद सदगुरु देता है। आशीर्वाद का अर्थ है: मेरी लेकिन तीर्थंकर ऐसी भाषा नहीं बोलते। तीर्थंकर की भाषा ही शुभाकांक्षा तुम्हारे साथ है। न, महावीर बिलकुल निर्वैयक्तिक अलग है। तीर्थंकर कहता है, कौन किसका कल्याण कर सकता हैं। वे कहते हैं, मेरी शुभाकांक्षा क्या करेगी? नर्क का रास्ता है? महावीर पैदा हुए अपने पिछले जन्मों के कर्म-फल के 307 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः कारण। पैदा होना मजबूरी है। महावीर की कोई स्वेच्छा नहीं है। तो मत करो। इतना ही कह दो कि हमें अभी कोई आकांक्षा नहीं पैदा हुए, क्योंकि पिछले जन्म में जो कर्म-जाल पैदा किया है, | पैदा हुई है। नहीं, लेकिन वह कहना जरा अभद्र मालूम पड़ता वह खींच लाया। और जो चेष्टा उन्होंने की, कोई है। तुम शिष्टाचार को मानते हो, सभ्यता को मानते हो। तुम जगत-कल्याण के लिए नहीं है। क्योंकि महावीर का मानना ही कहते हो, यह कहना जरा, साफ-साफ कहना ठीक नहीं। तुम है कि कोई दूसरा किसी दूसरे का कल्याण नहीं कर सकता। जरा चोरी-छिपे, लुके-लुके कहते हो। तुम ढंग से, सजाकर कल्याण तो सदा आत्म-कल्याण है। कहते हो, शृंगार से कहते हो। तुम कहते हो, जब प्रभु की कृपा तो जब मैं बोला और मैंने यह कहा तो मुनि तो बहुत नाराज होगी, जब आशीर्वाद होगा सदगुरु का...। हुए। बड़ी घबड़ाहट फैल गई। ‘गुणा' यहां मौजूद है, वह उस | मेरे पास लोग आते हैं। मैं उनसे पूछता हूं, कभी बहुत वर्ष से सभा में भी मौजूद थी। उसने बाद में मुझे बताया, कई साल नहीं दिखाई पड़े। वे कहते हैं, आपने बुलाया ही नहीं। कितनी बाद, कि उसने तो 'ईश्वर भाई' को कहा कि अब हम यहां से मजेदार बात कह रहे हैं वे! तो मैंने कहा, अब कैसे आ गये? निकल चलें, यहां कुछ झगड़ा-फसाद होगा। यहां मारपीट मैंने तो अभी भी नहीं बुलाया था। वे कहते हैं, जरा पूने में कुछ होकर रहेगी अब। क्योंकि सभी जैन नाराज हो गए, क्योंकि मैंने धंधे का काम आ गया था। धंधा का जब काम होता है तब वे कहा, महावीर किसी के कल्याण के लिए पैदा नहीं हुए। लेकिन अपने से आते हैं। अब रहा यह कि मैं पूना में हूं तो मेरे पास भी नाराजगी से क्या होता है? तुम्हारे शास्त्र, तम्हारी परी दुष्टि चलो हो आओ। लेकिन मेरे पास आने के लिए जिम्मेवारी मझ अलग है। और उस दृष्टि का अपना मूल्य है। इसलिए उसकी पर ही छोड़ते हैं कि आपने बुलाया ही नहीं। हालांकि वे सोचते शुद्धता को बचाया जाना चाहिए। ऐसे तो सब वर्णसंकर हो होंगे, बड़ी प्रेमपूर्ण बात कह रहे हैं, लेकिन बड़ी बेईमानी की बात जाती हैं बातें। कह रहे हो। आना हो तो तुम आ जाते हो; न आना हो तो कहते महावीर कहते हैं, कल्याण आत्म-कल्याण है। इसलिए हो, जब आप बुलायेंगे। कसूर जैसे मेरा है! तुम जब कहते हो, आशीर्वाद नहीं दे सकते। फिर उस दिन से जो जैन नाराज हुए तो जब प्रभु की कृपा होगी...इसका अर्थ हुआ कि प्रभु की कृपा नाराज ही हैं। क्योंकि उनको लगा कि मैंने उनके महावीर की कुछ नहीं हो रही है। तुम सोचते हो, ऐसा भी हो सकता है कि प्रभु की प्रतिष्ठा छीन ली है। मैं उनके महावीर को ठीक-ठीक प्रतिष्ठा कृपा न होती हो? क्या तुम सोचते हो, प्रभु कुछ अड़चन डाल दिया। मैंने वही कहा जो महावीर कहते। रहा है कि दूसरों पर कृपा बरसा रहा है, तुम पर नहीं कर रहा है ? लेकिन साधारण आदमी साधारण आदमी है। वह खुद नहीं | अगर कोई कृपा जैसी चीज है तो वह सभी पर बरस रही है। करना चाहता। वह चाहता है कि कोई के आशीर्वाद से हो जाये, लेकिन तुम जब लेना चाहोगे तभी ले सकोगे। मुफ्त मिल जाये। धन तो तुम खुद कमाते हो, धर्म तुम आशीर्वाद इसलिए महावीर कहते हैं, यह बात ही छोड़ दो आशीर्वाद से चाहते हो। तुमने बेईमानी परखी? मकान बनाना हो, तुम की। इशारा मैं कर देता हूं, चलना तुम्हें है। और वे कोई खुद बनाते हो; मोक्ष आशीर्वाद से हो जाये! तुम जो करना नहीं | व्यक्तिगत संबंध नहीं बांधते। उनका जो सबसे बड़ा शिष्य था, चाहते, जो तुम कहते हो मुफ्त मिले तो ले लेंगे, उसमें भी सोचने गौतम, वह महावीर के जीते-जी समाधि का अनुभव न कर का समय मांगोगे। अगर सच में ही कोई देने आ जाये कि यह सका, 'केवल ज्ञान' उसे उपलब्ध न हो सका। जिस दिन रहा मोक्ष, लेते हो? तुम कहोगे, अभी इत्ती जल्दी तो मत करो, महावीर की मृत्यु हुई, उस दिन वह गांव के बाहर उपदेश देने थोड़ा सोचने दो, घर जाने दो, पत्नी भी है, बच्चे भी हैं, थोड़ा पूछ गया था, दूसरे गांव। जब वह लौटता था, रास्ते में उसे खबर तो लूं! जो तुम टालना चाहते हो, तुम बड़ी कुशलता से टालते मिली की महावीर ने शरीर छोड़ दिया, उनका महापरिनिर्वाण हो हो। तुम कहते हो, जब होगी प्रभु की कृपा! मगर और चीजों के गया। तो वह रोने लगा। उसने राहगीरों से पूछा कि यह तो हद्द लिए तुम नहीं कहते। और के लिए तुम खूब आपा-धापी करते हो गई, जिनके साथ मैं जीवनभर रहा, आखिरी क्षण में किस हो। तो साफ-साफ कहो न कि अभी चाहिए नहीं। यह बेईमानी दुर्भाग्य के कारण मैं दूसरे गांव चला गया। आखिरी क्षण तो उन्हें 308 . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेम से मझे प्रेम है देख लेता! और अब मेरा क्या होगा? उनके रहते-रहते मैं मुक्त अपनी कल्पना को भी मैं किनारे की बात से भ्रष्ट नहीं करता। न हो सका, अब मेरा क्या होगा? अब तो गहन अंधकार है और सहारे की बात ही गलत है। बे-सहारा! जब तक तुम इतने दीया भी बुझ गया। क्या उन्होंने कुछ मेरे लिए संदेश छोड़ा है? | बे-सहारा न हो जाओ कि तुम्हें लगे अब अपने ही पैरों पर खड़ा तो राहगीरों ने कहा, हां। आखिरी समय में उन्होंने आंख खोली; होना होगा, और कोई पैर नहीं हैं; अब अपनी ही बुद्धि को उन्होंने कहा, गौतम यहां नहीं है; लौटे तो उसे इतनी बात कह जगाना होगा, और कोई सहारा नहीं है; और अपने ही प्राणों का देना कि तू पूरी नदी तो पार कर गया, अब किनारे को पकड़कर उत्कर्ष करना होगा, कोई और आशीर्वाद, कोई और सांत्वना नहीं क्यों रुक गया है? | है...। तुमने कभी सोचा? / कहते हैं, उसी क्षण गौतम ज्ञान को उपलब्ध हुआ। क्या कहा आस्कर वाइल्ड ने लिखा है कि जब नाव डूब जाती है किसी महावीर ने उसके लिए? क्या संदेश छोड़ा कि तू पूरी नदी तो पार की और आदमी सागर में तड़फड़ाता है तो जैसी उसकी दशा कर गया-संसार छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, पत्नी छोड़ दी, होती है, जब तक तुम्हारी न हो जाये तब तक तुम कुछ करोगे न। घर-द्वार छोड़ दिया, सब छोड़ दिया, सब तरफ से राग हटा नाव डूब गई। सागर की उत्तंग तरंगें, किनारे का कोई पता लिया–अब तूने राग मुझ पर जमा लिया! किनारे को पकड़ नहीं—तब क्या दशा होती है? तब तुम सोचते हो कि आयेगा लिया। अब तू कहता है, गुरु...। यह भी छोड़ दे, नहीं तो नदी किसी का आशीर्वाद या उसको बचाना होगा बचायेगा? नहीं, तो पार कर आया, अब किनारे को पकड़कर अटका है, तो बाहर तब तुम प्राणपण से, अपनी समग्र ऊर्जा से बचने की चेष्टा में कैसे निकलेगा? अब यह भी छोड़। जब सब छोड़ा है तो सभी लग जाते हो; तुम सागर से लड़ने लगते हो। उस समय न तो छोड़। अब इतना भी अपवाद मत रख। विचार रह जाते हैं। कहां विचार की जगह है? सुविधा कहां उसी क्षण गौतम को बोध आया कि अरे, मैं महावीर को | है? फर्सत किसे है उस समय विचार करने की? जीवन संकट पकड़ने के कारण ही रुक गया हूं! यह मोह छूटता नहीं, इसलिए में है। न विचार रह जाते हैं। कितनी बार ध्यान किया था और न रुक गया हूं। | लगा था; उस दिन लग जाता है। अब कोई विचार नहीं रह तो जैन भाषा अमोह की भाषा है। वहां आशीर्वाद नहीं है। जाते। न कोई कामना उठती, न कोई वासना उठती, न धन, न डूब जाये कि सलामत रहे किश्ती मेरी स्त्री, न संसार, कुछ भी नहीं, सब खो जाता है। सिर्फ एक स्वयं न हाथ बढ़ा कभी खिज्र के दामन की तरफ। को बचाने की-वह भी भाव की दशा होती है, विचार नहीं --चाहे डब जाये, चाहे बचे नाव: लेकिन महावीर कहते हैं. होता। और तम जझने लगते हो सागर से। किसी और की तरफ हाथ बढ़ाना मत। न हाथ बढ़ा कभी खिज्र महावीर कहते हैं, ऐसी ही तुम्हारी स्थिति होनी चाहिए। ऐसी कसी सदगरु की तरफ हाथ मत बढाना। ही स्थिति है, लेकिन तमने कल्पना की नावें बना रखी हैं और आशीर्वाद मत मांगना। डूब जाए तो भी ठीक है, पार हो जाये तो | तुमने कल्पना के सहारे ले रखे हैं। उन सहारों के कारण तुम भी ठीक है, लेकिन भीख मत मांगना। चेष्टा नहीं कर पाते जितनी कि कर सकते थे। इसलिए वे कहते महावीर का पथ सम्राटों का पथ है, भिखारियों का नहीं। हैं, हटा लो सारी सांत्वनाएं। मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूं। महावीर ने अपने साथ चलनेवालों के सब आश्रय छीन लिये। तसव्वुर का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से। उनको बे-आसरा कर दिया, ताकि उनके भीतर जो सोए हुए -स्वभाव मेरा तूफान का है। प्राणों की ऊर्जा है वह इस चुनौती में उठ जाये, ज्योतिर्मय हो उठे। मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूँ। मुकाबिल में तेरे लाखों खुदा इसने बनाए हैं -और मैं प्रकृति की मुक्त निगाह, मुक्त दृष्टि हूं। तसव्वुर | उन्हें पूजा है, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं। का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से—साहिल की तो बात आदमी ने असली परमात्मा की जगह न मालूम कितने ही नहीं करता, किनारे की तो बात ही नहीं करता। बात तो दूर, परमात्मा बनाए हैं। उन्हें पूजा, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं। 309 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन सत्र भागः। महावीर कहते हैं, असली परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपा है। न तो | वस्त्रों में पड़ा है; बिलकुल धुले-धुलाए वस्त्र हैं, शुभ्र वस्त्र हैं; बंदगी से कुछ होगा, न गीतों से कुछ होगा, न पूजा-अर्चा के धूल का कण भी नहीं है। और एक जिंदा आदमी बैठा है; पसीने थालों से कुछ होगा। तुम जीवन के तथ्य को समझो। इस सत्य से तरबतर है; धूल भी चिपक गई है; दिनभर मेहनत की है; को समझो कि भवसागर में पड़े हो और डूब रहे हो। स्थिति को स्नान की जरूरत है। और तुम अगर मुझसे पूछो कि किसको ठीक से समझ लोगे तो तुम स्वयं को बचाने में लग जाओगे। चुनोगे, तो मैं कहूंगा, मैं जिंदा को चुनता हूं। पसीना है, नहाने से और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई और बचा नहीं सकता है। छूट जायेगा। धूल जम गई है वस्त्रों पर, साबुन उपलब्ध है। इसलिए महावीर कहते हैं, शरण-भावना से बचना, | मगर आदमी जिंदा है! यह मुर्दा आदमी, माना कि न इसमें अशरण-भावना में ध्यान करना। किसी की शरण जाने की बात | पसीना निकलता है, न इस पर धूल जमी है, यह कांच के ताबूत मत सोचना। समर्पण नहीं, संकल्प। में रखा रह सकता है, ऐसा ही साफ-सुथरा बना रहेगा-पर इसका करोगे क्या? इससे होगा क्या? तीसरा प्रश्न H आपने कहा कि लोक-व्यवहार में आकर | अहिंसा मुर्दा शब्द है। प्रेम जीवंत है। निश्चित ही प्रेम के साथ प्रज्ञापुरुषों के शब्द अपना अर्थ खो बैठते हैं। और आपने पसीना भी है। पसीने में कभी-कभी बदबू भी आती है। पसीने बताया कि महावीर ने 'अहिंसा', जीसस ने 'प्रेम' और पर धूल भी जम जाती है। आदमी गंदा भी हो जाता है, लेकिन सूफियों ने 'इश्क' शब्द अपनाए। भगवान! वर्तमान शताब्दि यह सब जिंदगी के लक्षण हैं। जहां गंदगी हो सकती है, वहां में आप कौन-सा शब्द हमें देना पसंद करेंगे? स्वच्छता लायी जा सकती है। ध्यान रखना, जहां गंदगी हो ही नहीं सकती, वहां स्वच्छता कैसे लाओगे? वहां तो मौत आ मैं तो प्रेम के प्रेम में हूं। उस शब्द से बहमूल्य मुझे कोई और चुकी। तुम उस बच्चे को पसंद करोगे जो मुर्दे की तरह एक कोने दूसरा शब्द मालूम नहीं होता। लाख विकृतियां हो गई हों, फिर में बैठा रहता है! मां-बाप पसंद करते हैं अकसर, क्योंकि उनके भी उस शब्द में जादू है। अहिंसा मरा-मरा शब्द लगता है। लिए कम उपद्रव का कारण होता है। गोबर-गणेश! बैठे हैं। उससे औषधि की बास आती है। अहिंसा-अस्पताल में जैसी कभी-कभी पूजा करनी हो तो गणपति जी की पूजा कर लो, बास आती है, वैसी बास आती है। कुछ नहीं करना है, कुछ बाकी वे बैठे रहते हैं। मां-बाप को ठीक लगते हैं, लेकिन बाद में रोकना है, कुछ निषेध-प्रेम जैसे फल नहीं खिलते। प्रेम शब्द पछताएंगे। वे ऐसे ही बैठे रहेंगे। फिर एक उपद्रवी, नटखटी | हृदय में कुछ और ही गंज लाता है, कोई कमल खिल जाते हैं, | बच्चा है, दौड़ता है, हाथ-पैर भी तोड़ लाता है, खन भी निकल कोई द्वार खुलते हैं। अहिंसा से ऐसा पता चलता है, कुछ आता है, कपड़े भी गंदे कर आता है, कीचड़ में सना हुआ घर आ मजबूरी, कुछ कर्तव्य-विधायकता नहीं है, पाजिटीविटी नहीं जाता है। मैं तो इसी को चुनूंगा। यह जिंदा तो है! इससे कुछ है। 'नहीं' में होती भी नहीं। होने की संभावना है। प्रेम में 'हां' है. स्वीकार है। प्रेम में एक अहोभाव है. गीत है. अहिंसा में कछ न हो, इसकी चेष्टा है। प्रेम में कछ हो. इसकी नृत्य है। तो लाखों विकृतियां हो गई हों प्रेम में, तो भी मैं प्रेम को चेष्टा है। मैं जीवन के पक्ष में हूं, मौत चाहे कितनी ही चुनता हूं। क्योंकि प्रेम जिंदा है और उन विकृतियों को अलग | साफ-सुथरी हो। और मौत बड़ी साफ-सुथरी चीज है। झंझटें करने की क्षमता है उसमें। अहिंसा शब्द में कोई प्राण नहीं हैं। तो | तो जीवन में हैं, मौत में क्या झंझट है? वह तो सब झंझटों का भला उसमें महावीर ने जब प्रयोग किया तो कोई विकृतियां न रही अंत है। तो भी में मौत को न चुनंगा, मैं जीवन को ही चनंगा। हों, अब तो हजारों विकृतियां हो गई हैं। और तकलीफ यह है कि दयारे-रंगो-निकहत में गुजर क्या होशमंदों का अहिंसा मुर्दा शब्द है। इसलिए उन विकृतियों को छिटकाकर यह पैगामे-बाहर आया तो दीवानों के नाम आया। फेंक नहीं सकता। प्रेम फेंक सकता है। प्रेम जीवंत है। -वे जो बहुत होशियार हैं, गणित से जीते हैं, ऐसा ही समझो कि एक आदमी मरा हुआ पड़ा है, साफ-सुथरे समझदारी-समझदारी ही जिनके जीवन में है और दीवानगी Jain Eucation International Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिलकुल नहीं, जिन्होंने पागल होने की सारी क्षमता को नष्ट कर पकड़ोगे? न पकड़ोगे न छोड़ोगे, क्योंकि वह धन-दौलत ही न दिया है—उनके जीवन में कभी वसंत का पैगाम नहीं आता। रही। छोड़ने लायक भी न रही, पकड़ने की तो बात दूर है। रखा दयारे-रंगो-निकहत में गुजर क्या होशमंदों का! ही क्या है वहां? जहां भीतर के हीरे दिखाई पड़ने लगें, वहां सब -इस रंग-रूप, फूलों से भरी दुनिया में समझदारों की कहां | बाहर का कंकड़-पत्थर हो जाता है। जब भीतर के सौंदर्य में जीने जरूरत है? लगे तो बाहर सौंदर्य दिखता ही नहीं। लेकिन अगर तुम बाहर के यह पैगामे-बहार आया तो दीवानों के नाम आया। सौंदर्य को छोड़कर भागे और यही तुम्हारी जीवन की शैली हो और जब भी वसंत की लहर आती है, संदेश आता है जीवन गई, निषेध, इनकार, नेति-नेति, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। का, तो दीवानों के नाम आता है। फांसी लगा लोगे अपने हाथ से गले में। और जिसको तुम अहिंसा तुम्हें होशियारी दे देगी, लेकिन दीवानगी कहां से छोड़कर भागे हो, उसकी बुरी तरह याद आएगी। आयेगी ही। लाओगे? अहिंसा तुम्हें गलत करने से बचा लेगी; लेकिन सही | इसलिए जो छोड़कर भागते हैं—स्त्रियों के संबंध में चिंतन करने का रंग-रूप कहां से लाओगे? अहिंसा तुम्हें गाली देने से | चलता रहता है, धन के संबंध में चिंतन चलता रहता है। रोक लेगी, लेकिन गीत कहां से जन्माओगे? छिड़कते हैं, झिटकते हैं उस चिंतन को, हटाते हैं। जब-जब स्त्री गाली देने से रुक जाना काफी है? तो जो आदमी गाली नहीं की याद आ जाती है, जोर-जोर से राम-राम-राम-राम जपने देता, बस पर्याप्त है? लगते हैं कि किसी तरह...। मगर तम्हारे जपने से क्या होता यही तो जैन मनियों की दशा हो गई है। वे गाली नहीं देते; गीत है? राम-राम-राम ऊपर रह जाता है, काम-काम-काम-काम उनसे पैदा नहीं होता। बैठे हैं, गोबर-गणेश, उनकी पूजा कर भीतर चलता जाता है। तुम्हारे हर दो राम के बीच में से काम की लो! जैनी जाते हैं सेवा को। उनसे बुराई तो उन्होंने काट डाली, | खबर आने लगती है। लेकिन कहीं कुछ भूल हो गई, कहीं कुछ बड़ी बुनियादी चूक हो भागो मत! घबड़ाओ मत। डरो मत! परमात्मा जीवन का गई। और वह चूक यह है कि उन्होंने गलत को छोड़ने की निषेध नहीं है, जीवन का परिपूर्ण अनुभव है। और धर्म पलायन आकांक्षा की, गलत से बचने की चेष्टा की; लेकिन सही को नहीं है, जीवन का परिपूर्ण भोग है। जन्माने के लिए उन्होंने कोई प्रयास न किया। उनका खयाल है महावीर ने प्रेम के लिए अहिंसा शब्द चुना; वहां भूल हो गई। कि गलत हट जाए तो सही अपने से आ जायेगा। मेरा खयाल है पर भूल हो जाने के लिए कारण थे। क्योंकि प्रेम कि सही आ जाये तो गलत अपने से हट जायेगा। और मैं तुमसे शब्द...उपनिषद और वेद प्रेम की चर्चा कर रहे थे। और प्रेम का कहता हूं कि उनका खयाल गलत है। उनका खयाल ऐसे ही है | सब तरफ जाल था। और प्रेम के नाम पर सब तरफ भ्रष्टाचार जैसे कोई आदमी, अंधेरा भरा हो कमरे में, अंधेरे को धक्का दे | था। तो महावीर को लगा, अब प्रेम का शब्द उपयोग करना देकर निकालने लगे। नहीं, अंधेरे को कोई धक्के देकर नहीं खतरे से खाली नहीं है। उन्होंने इसी आशा में अहिंसा का निकाल सकता-थकेगा, मरेगा, जिंदगी खराब हो जायेगी। उपयोग किया कि वे समझा लेंगे तुम्हें कि अहिंसा का अर्थ प्रेम ही दीया जलाओ! कुछ विधायक को जलाओ! अंधेरा अपने से है। लेकिन वे न समझा पाए। कसूर उनका नहीं है। कसूर चला जाता है। उनका है जिन्होंने सुना। उन्होंने तत्क्षण अहिंसा में से प्रेम तो न तो मैं तुमसे नहीं कहता, क्रोध छोड़ो। मैं कहता हूं, करुणा निकाला, नकारात्मकता निकाल ली। तो महावीर का धर्म जन्माओ। मैं तुमसे नहीं कहता, संसार छोड़ो। मैं कहता हूं, धीरे-धीरे ऐसा धर्म हो गया कि इसमें क्या-क्या नहीं करना है, आत्मा को जगाओ। मैं तुमसे नहीं कहता, धन-दौलत छोड़ो। मैं वही महत्वपूर्ण हो गया। कहता हूं, भीतर एक धन-दौलत है, उस खोजो। मेरा रुख ज़ाहिद हद्दे-होशो-खिरद में रहा 'असीर' विधायक है। और यह मेरा जानना है कि जिस दिन तुम्हें भीतर नादां ने जिंदगी ही को जिंदां बना दिया। www.jainelibrarorg Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः ज़ाहिद हद्दे-होशो-खिरद में रहा 'असीर' कुछ बंधा है प्रेम से, वहां हमें यह मानकर चलना पड़ेगा कि हम --जो सदा ही बुद्धि की सीमा में ही घिरा रहा, छोड़ने-त्यागने | एक प्रेम के सागर में जी रहे हैं। की सीमा में ही घिरा रहा... जब अणु की पहली दफा खोज हुई और अणु का विस्फोट नादां ने जिंदगी ही को जिंदा बना दिया। किया गया, तो रदरफोर्ड ने, जिसने पहली दफा अणु के संबंध में -उस ना-समझ ने अपने जीवन को ही एक कारागृह बना गहरी खोज की, उसको एक सवाल उठा कि अणु के जो परमाणु लिया। छोड़ो-छोड़ो, सिकुड़ते जाओ-धीरे-धीरे तुम पाओगे, | हैं—इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान-ये आपस में कैसे बंधे हैं? फांसी लग गई अपने ही हाथों। लेकिन, तुम समझ न पाओगे, इनको कौन-सी शक्ति बांधे हुए है ? ये बिखर क्यों नहीं जाते? क्योंकि जितनी तुम्हारी फांसी लगेगी उतने ही लोग तुम्हारे पैरों में तुमने कभी खयाल किया—एक पत्थर पड़ा है, सदियों से पड़ा फूल चढ़ायेंगे। वे कहेंगे, कैसे महात्यागी! तो तुम्हें फांसी में भी है, बिखरता क्यों नहीं? तुम इसे तोड़ दो हथौड़े से, बिखर गया, रस आने लगेगा। क्योंकि फांसी जितनी तुम कसते जाओगे, फिर तुम इसे जोड़ो, फिर रख दो टुकड़ों को पास-पास, मगर | उतना ही तुम्हें सम्मान मिलेगा। जितने ज्यादा उपवास करोगे, / अब न जुड़ेगा। बात क्या हो गई? इतने दिन तक कौन-सी चीज जितना अपने को तोड़ते जाओगे, उतना सम्मान मिलेगा। जितना इसे जोड़े थी? अगर वह चीज इतने दिन तक जोड़े थी, फिर अपने को मिटाओगे, अपना घात करोगे, उतना सम्मान | तुमने टुकड़े पास रख दिये, अब क्यों नहीं जोड़ती? कोई चीज मिलेगा। तो उस मुनि को ज्यादा सम्मान मिलता है जो ज्यादा तोड़ दी तुमने। पत्थर नहीं तोड़ा तुमने कोई और चीज जो सूक्ष्म त्याग करता है। उसको वे लोग कहते हैं, महामनि। लोग सिर | थी, तोड़ दी। पत्थर तो अब भी वही का वही है, उसका वजन भी रखते हैं उसके चरणों में। तो अहंकार मजा लेता है! वही है, टुकड़े भी उतने के उतने हैं लेकिन पहले जुड़े थे, अब तो जिन्होंने भी निषेध की यात्रा की, उन्होंने सिर्फ अहंकार को | टूट गए। अब तुम लाख उनको पास-पास बिठाओ, उनको भर लिया। उनके जीवन में आत्मा खुली नहीं, खिली नहीं। लाख समझाओ कि अब फिर से जुड़ जाओ, पूजा-प्रार्थना करो, तो मैं तो प्रेम को ही चुनता हूं। मैं प्रेम के प्रेम में हूं। मैं तो तुमसे यज्ञ-हवन करो, वह सुनेगा नहीं। कोई चीज तमने तोड़ दी. कोई कहूंगा, लाख खराबियां हो इस शब्द में-महावीर से कुछ सीख बहुत सूक्ष्म चीज तोड़ दी। लो। महावीर ने इस शब्द की खराबियों को देखकर अहिंसा रदरफोर्ड सोचने लगा, कौन-सी चीज जोड़े हुए है। बहुत-से चुना, लेकिन जो परिणाम हुए वे और भी बदतर हुए। बीमारी तो सिद्धांत प्रतिपादित किये गये हैं। उनमें एक सिद्धांत प्रेम का भी बीमारी, औषधि भी बीमारी बन गई। है, यह आश्चर्य की बात है। वैज्ञानिक और प्रेम की बात करें! मैं तो तुमसे कहूंगा, प्रेम चुनो। और प्रेम इतना सबल है कि वह लेकिन आश्चर्यचकित होने की जरूरत नहीं है। अगर जीवन अपनी भूलों को पार करने की क्षमता रखता है। वह जिंदा है, तो सब तरफ प्रेम से जुड़ा है, अगर वृक्ष फलों से प्रेम के कारण जुड़े गंदा भी हो जाये तो स्नान कर सकता है। अहिंसा लाश है, गंदी | हैं, अगर वृक्ष फूलों से प्रेम के कारण जुड़े हैं, अगर आदमी न होगी, लेकिन उसकी स्वच्छता का भी क्या मूल्य है? उसकी आदमी से प्रेम के कारण जुड़ा है तो फिर निश्चित ही जीवन की स्वच्छता में जीवन की सुवास नहीं है। उसकी स्वच्छता | इकाइयां भी, ईंटें भी प्रेम से ही जुड़ी होंगी। चाहे तुम उसे क्लिनिकल है। मैग्नेटिज्म कहो, चाहे तुम उसे इलेक्ट्रिसिटी कहो-यह नाम का मुझे तो प्रेम शब्द में रस है। क्योंकि मेरे देखे, यह सारा जगत | भेद है। लेकिन कोई चुंबकीय शक्ति सारे जीवन को जोड़े हुए प्रेम से आंदोलित है। यहां श्वास-श्वास प्रेम से चल रही है। है। उस चुंबकीय शक्ति को भक्तों ने भगवान कहा है, प्रेम कहा यहां फूल-फूल प्रेम से खिल रहे हैं। और अभी तो वैज्ञानिक भी है, परमात्मा कहा है। महावीर उसे सत्य कहते हैं। सोचने लगे हैं कि जब प्रेम से सारा जगत बंधा हुआ है-स्त्री लेकिन फिर महावीर का 'सत्य' शब्द बड़ा तटस्थ है। उससे पुरुषों से बंधी, पुरुष स्त्रियों से बंधे, मां-बाप बेटों-बच्चों से रसधार नहीं बहती। सत्य बड़ा रूखा-सूखा है, मरुस्थल जैसा बंधे, बेटे-बच्चे मां-बाप से बंधे, मित्र मित्रों से बंधे-जहां सब है। प्रेम मरूद्यान है। बड़ी रसधार बहती है। उपनिषद कहते हैं, 312 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मुझे प्रेम है रसो वै सः। वह जो परमात्मा है, रस उसका स्वभाव है। | का रास्ता मधुशाला का है। वह कहता है, यह होश ही हमारी रस को मैं भी जीवन का सत्य मानता हूं। और तुम्हारे जीवन में पीड़ा है। रस तभी होता है जब प्रेम होता है। जहां-जहां प्रेम, वहां-वहां तुझ पे कुर्बा मेरे दिल की हर एक बेखबरी रस। जहां-जहां प्रेम खोया, वहां-वहां रस सूखा। रस में डूबो। आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ। तन डूबे, मन डूबे, सब डूबे। रस में डूबो! और तब तुम्हारी | हे प्रभु! भक्त कहता है, तुझ पे कुर्बा मेरे दिल की हर एक दृष्टि में एक अलग ही दृश्य दिखाई पड़ना शुरू हो जायेगा। बेखबरी और तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, बेहोशी है। यह मेरे 'जमील' अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर दिल का पागलपन है, दीवानगी है। यह तुझ पर कुर्बान करता यह फन कम है कि सैय्याद ने पसंद किया! हूं। यह तुझ पर न्योछावर करता हूं। और तो मेरे पास कुछ भी 'जमील' अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर! जमील ने कहा | नहीं है। है, क्यों न हम अभिमान करें इस बात का कि परमात्मा ने हमें तझ पे कुर्बा मेरे दिल की हर एक बेखबरी कैद करने योग्य समझा, बांधने योग्य समझा! यह फन कम है आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ। कि सैय्याद ने पसंद किया!–कि उसने हमें पसंद किया, कि और मैं तुझे याद भी कर सकू, यह भी मेरी सामर्थ्य नहीं। तू मेरे भेजा, कि बनाया। विस्मरण के द्वार से ही आ! भक्त तो अपने दुख में से भी सुख का गीत सुन लेता है। आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ। मेरी इस बेहोशी अपनी जंजीरों में भी रस पा लेता है। कहता है, परमात्मा ने ही केरास्ते से ही तू आ! बांधा है। छूटने की जल्दी भक्त को नहीं है। भक्त कहता है, तेरे | भक्त का ढंग और। भक्त भी पहुंच जाते हैं। साधक भी पहुंच बंधन हैं—राजी हैं। और ऐसे भक्त छूट जाता है। क्योंकि जिस जाते हैं। महावीर का मार्ग साधक का है। नारद का मार्ग भक्त बंधन को तुमने सौभाग्य समझ लिया, वह बंधन बांधेगा कैसे? का है। लेकिन अगर तुम मुझसे पूछते हो, तो मेरे देखे भक्त के बंधन तभी तक बांधता है जब तक तुम छूटना चाहते हो। तुम्हारे मार्ग से अधिक लोग पहुंच सकते हैं। हां, जिनको भक्ति छूटने की वृत्ति के विपरीत होने के कारण बंधन मालूम होता है। असंभव ही मालूम पड़ती हो, उनको साधक का मार्ग है। वह जब तुम स्वीकार कर लिये, राजी हो गए, तुमने कहा कि मजबूरी है। तुम्हारा प्रेम अगर इतना मर गया है और जड़ हो गया ठीक...। है कि उसमें से तुम परमात्मा को प्रगट नहीं कर सकते, तो फिर 'जमील' अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर छोड़ो। फिर तुम साधक के मार्ग से चलो। यह फख्र कम है कि सैय्याद ने पसंद किया। लेकिन साधक का मार्ग दोयम है, नंबर दो है। वह उनके लिए यह कोई कम गौरव की बात है कि परमात्मा ने चुना! जो है जिनके भीतर की आत्मा कुछ मुर्दा हो गई है और जिनके भीतर बनाया, जैसा बनाया...। वह हर जगह उसके प्रेम को खोज प्रेम के स्रोत सूख गए हैं, जिनके भीतर गीत-गान नहीं उठता, लेता है। | जिनके भीतर नृत्य-नाच नहीं उठता, जिनकी बांसुरी खो गई और तुम्हारा जीवन अगर हर जगह प्रेम को खोजने है उनके लिए है। अगर तुम्हारी बांसुरी अभी भी तुम्हारे पास लगे-ऐसी जगह भी जहां खोजना बड़ा मुश्किल है—जिस हो और तुम गुनगुना सको गीत, तो सौभाग्यशाली हो। अगर दिन तुम सब जगह प्रेम के दर्शन करने लगो, उस दिन परमात्मा यह न हो; अगर कहीं सब खो चुके बांसुरी दूर जीवन की यात्रा के दर्शन हो गए। में; कहीं प्रेम को कुठाराघात हो गया; कहीं सब जड़ हो गया जीसस ने कहा है, परमात्मा प्रेम है। और मैं कहता हूं, प्रेम तुम्हारा हृदय, अब उसमें कोई पुलक नहीं उठती-तो फिर परमात्मा है। साधक का मार्ग है। साधक का मार्ग उन थोड़े-से लोगों के लिए पर ये रास्ते अलग-अलग हैं। महावीर का रास्ता भक्त का है, जिनके भीतर प्रेम की सब संभावनाएं समाप्त हो गई हैं। रास्ता नहीं है-होश का। भक्त का रास्ता है बेहोशी का। भक्त लेकिन अगर प्रेम की जरा-सी भी संभावना हो और अंकुरण हो www.jainelibran.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः 1 सकता हो, तो फिक्र छोड़ो। जब गीत गाकर और नाचकर उसके | जरूरी हैं। तुम्हें लोरी ही गाकर सुनाता रहूं तो तुम और भी सो घर की तरफ जा सकते हैं, तो फिर लंबे चेहरे, उदास चेहरे लेकर जाओगे। हालांकि लोरी तुम्हें अच्छी लगती है। मगर तुम्हारे जाने की कोई जरूरत नहीं। जब स्वस्थ, प्रफुल्लित उसकी तरफ अच्छे लगने को देखू? तो तुम्हें तो नींद ही अच्छी लगती है। जा सकते हैं, तो नाहक की उदासी, नाहक का वैराग्य थोपने की तुम्हें जगाना होगा! तुम्हें झकझोरना होगा! कोई जरूरत नहीं। | और धीरे-धीरे तुमने अपने रोगों को भी अपने जीवन का महावीर के मार्ग से लोग पहुंचे हैं, तुम भी पहुंच सकते हो। हिस्सा मान लिया है। तुम धीरे-धीरे अपने रोगों के भी प्रेम में पड़ लेकिन महावीर का मार्ग बहुत संकीर्ण है; बहुत थोड़े-से लोग | गए हो। पहुंचते हैं; बहुत थोड़े-से लोग जा सकते हैं। __ एक छोटा बच्चा अपने नाना-नानी के घर आया था। रात जब भक्ति का मार्ग बड़ा विस्तीर्ण है। उस पर जितने लोग जाना नानी उसकी सुला गई उसे कमरे में और बिजली की बत्ती बुझाई, चाहें, जा सकते हैं। लेकिन कुछ लोगों को कठिनाई में रस होता तो वह बैठ गया और रोने लगा। उसने पूछा कि क्या हुआ तुझे। है। कुछ लोगों को जो चीज सुलभता से मिलती हो, वह जंचती नानी ने पूछा, क्या हुआ तुझे? उसने कहा कि मुझे अंधेरे का नहीं। कुछ लोगों को जितने ज्यादा उपद्रव और मुसीबतों में से बहुत डर लगता है। पर उसने कहा, 'अरे पागल! और तू अपने गुजरना पड़े उतना ही उन्हें लगता है, कुछ कर रहे हैं। उनके लिए | घर भी तो अंधेरे में ही सोता है और अलग ही कमरे में सोता है, महावीर का मार्ग बिलकुल ठीक है। तो फिर क्या डर है?' तो उसने कहा, नानी, वह बात अलग है। वह मेरा अंधेरा है। आखिरी प्रश्न: आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप अपने-अपने अंधेरे से भी लगाव हो जाता है। मेरा अंधेरा, नाराज हो जाते हैं। पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके मेरी बीमारी, मेरा रोग, मेरी चिंता, मेरा संताप- 'मेरा' उससे पास दिल खोलूं कि नहीं खोलूं। और क्या मैं कुछ भी नहीं कर भी जुड़ जाता है। तभी तो हम अपने दुख को भी पकड़े बैठे रहते पाती? कोशिश तो हर हाल करती हूं कि आपकी बात समझ में | हैं। दुख छोड़ने में भी डर लगता है, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि आए। भक्त को अहंकार का कुछ भी पता नहीं। कैसे क्या | दुख भी छूट जाये और हाथ खाली हो जायें, और कुछ मिले न; करूं? मेरी हिम्मत अब टूटी जा रही है। कृपया एक बार फिर कम से कम कुछ तो है, दुख ही सही, दर्द ही सही! होने का पता समझाएं! तो चलता है कि है। तो कई बार तुमसे मुझे नाराज भी होना पड़ता है-सिर्फ तरु का प्रश्न है। इसीलिए कि तुम्हें प्रेम करता हूं, अन्यथा कोई कारण नहीं है। . 'आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप नाराज हो जाते 'और पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके पास दिल हैं।' बहुत बार ऐसा लगेगा कि मैं नाराज हुआ हूं, पर मेरी खोलूं कि नहीं खोलूं!' / नाराजगी में केवल इतनी ही अभिलाषा है कि शायद नाराज क्या तुम्हारे खोलने न खोलने से कुछ फर्क पड़ेगा? खुला ही होकर कहूं तो तुम सुन लो; शायद नाराज होकर कहूं तो तुम्हारा हुआ है। जिस दिन अपने को जाना, उसी दिन से सभी का दिल सपना टूटे; शायद चोट देकर कहूं तो तुम थोड़े तिलमिलाओ खुल गया है। अपना दिल खुले तो सब का दिल खुल जाता है। और जागो। अब मुझसे छिपाने का उपाय नहीं है। न बताओ, कोई फर्क न झेन फकीर तो डंडा हाथ में रखते हैं तरु! और उन्होंने देखा कि पड़ेगा। क्योंकि मनुष्य मात्र की पीड़ा एक है। विस्तार के फर्क जरा उनका कोई शिष्य झपकी खा रहा है कि उन्होंने सिर फोड़ा। | होंगे, थोड़े बहुत रंग-ढंग के फर्क होंगे; लेकिन मनुष्य मात्र की लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि झेन सदगुरु का डंडा पड़ा है | पीड़ा एक है कि जिससे हम जन्मे हैं उससे हम बिछुड़ गए हैं; और उसी क्षण साधक समाधि को उपलब्ध हो गया है। कि जो हमारा मूल स्रोत है उससे हम खो गये हैं। और इसलिए तुम्हारी नींद्र गहरी है; चोट करनी जरूरी है। तुम्हें धक्के देने सब खोजते हैं, लेकिन तृप्ति नहीं होती। बहुत दौड़ते हैं, लेकिन 314 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मुझे प्रेम है पहुंचते नहीं; क्योंकि अपने घर का पता ही भूल गया है। का एक चित्र बनाकर लाया। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि ऐसा विस्तार की बातें अलग हैं। वे हर एक व्यक्ति की अलग हैं। सुंदर चित्र मैंने पहले कभी देखा न था; कृष्ण की ऐसी छवि कोई उसमें जाने से कोई सार भी नहीं है। बना न पाया था। और मैं तो भावविभोर हो गया, विमुग्ध हो तुम अपना दिल खोलो या न खोलो, इससे कोई फर्क नहीं | गया, नाच उठने का मन हो गया; लेकिन मैं चुप रहा। क्योंकि पड़ता। तुम्हारी आधारभूत पीड़ा का मुझे पता है। अवनींद्रनाथ मौजूद थे, और वे चित्र को बड़े गौर से देख रहे थे। वह पीड़ा यही है कि कैसे प्रभु से मिलन हो जाये! प्रभु नाम दो बड़ी देर सन्नाटा रहा। या न दो। कैसे उससे मिलन हो जाये, जिसे पाकर फिर कुछ और रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैं घबड़ा गया कि बात क्या है, वे पाने को न बचे! कुछ कहें! तोड़ें इस खामोशी को, कुछ तो कहें। नंदलाल भी 'और क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूं?' थरथर कांप रहा था। और आखिर उन्होंने आंखें ऊपर उठाईं और करती बहुत हो, लेकिन करने से वह मिलता नहीं। कर-करके | उस चित्र को उठाकर बाहर फेंक दिया अपनी बैठक से। और हारने से मिलता है। जब तक करना जारी रहता है, तब तक तो नंदलाल से कहा, 'इसको तुम बड़ी कला मानते हो? यह तो थोड़ी न थोड़ी अस्मिता बनी ही रहती है। मैं कर रहा हूं', तो मैं बंगाल में जो पटिये हैं, जो कृष्ण का चित्र बनाते हैं, दो-दो पैसे में बचा रहता हूं। कृत्य से तो अहंकार कभी मरता नहीं। हां, कृत्य | बेचते हैं, उनके लायक भी नहीं है। तुम जाओ पटियों से सीखो से अहंकार सुंदर हो जाता है, सुरुचिकर हो जाता है। कृत्य से कि कृष्ण कैसे बनाये जाते हैं!' अहंकार में सजावट आ जाती है, शृंगार आ जाता है; मिटता नंदलाल सिर झुकाकर, चरण छूकर लौट गया। रवींद्रनाथ को नहीं। मिटता तो तभी है, जब तुम्हें पता चलता है, मेरे किए कुछ तो बड़ा आश्चर्य हुआ और क्रोध भी आया। लेकिन गुरु-शिष्य भी न होगा। आत्यंतिक रूप से ऐसा पता चलता है कि मेरे किए के बीच क्या बोलना, तो वे चुप रहे। जब नंदलाल चला गया कुछ भी न होगा। अंतिम रूप से यह निर्णय आ जाता है कि मेरे तब उन्होंने कहा कि यह मेरी समझ के बाहर है। आपके भी चित्र किए कुछ भी न होगा। वहीं 'मैं' गिरता है, जहां उसके किए मैंने देखे, लेकिन मैं कह सकता हूं कि उन चित्रों में भी मुझे कोई कुछ भी नहीं होता। इतना नहीं भाया जितना यह कृष्ण का चित्र भाया। और आपने तो तुम करते तो बहुत हो; लेकिन मैं तुमसे कहे चला जाता हूं, | इसको उठाकर फेंक दिया! कुछ भी नहीं, यह भी कुछ नहीं, और करो, और करो। और जो लेकिन अवनींद्रनाथ चुप! तो उन्होंने आंखें उठाकर देखा, जितना ज्यादा कर रहा है उससे मैं और ज्यादा कहता हूं, यह कुछ आंख से आंसू बह रहे हैं। अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुम समझे भी नहीं, और करो। क्योंकि जो जितना ज्यादा कर रहा है, उससे नहीं; इससे मुझे बड़ा भरोसा है; इससे अभी और खींचा जा उतनी ही आशा बंधती है कि करीब पहुंच रहा है उस सीमा के, | सकता है। अभी यह और ऊंचाइयां छू सकता है। मैं भी जानता जहां सब करना व्यर्थ हो जाएगा। तो और दौड़ाता हूं। जो पिछड़ हूं कि ऐसा चित्र मैंने भी नहीं बनाया। मगर इसकी अभी और गए हैं, उनको न भी कहूं, क्योंकि उनके दौड़ने से भी कुछ बहुत संभावना है। अगर मैं कह दूं कि बस, बहुत हो गया। मेरी होनेवाला नहीं है। लेकिन जो दौड़ में बहुत आगे हैं और बड़ी | प्रशंसा का हाथ इसके सिर पर पड़ जाये, तो यही इसकी रुकावट शक्ति से दौड़ रहे हैं उनको तो जरा भी शिथिलता खतरनाक होगी | हो जायेगी। मैं इसका दुश्मन नहीं हूं। और महंगी पड़ जायेगी। नंदलाल तीन साल तक पता न चला, कहां चला गया। वह ऐसा उल्लेख है, रवींद्रनाथ के चाचा थे अवनींद्रनाथ। बड़े गांव-गांव बंगाल में घूमता रहा और जहां-जहां पटियों की खबर कार थे। भारत में ऐसे चित्रकार इस सदी में एक-दो ही मिली, गांव के ग्रामीण कलाकारों की, उनसे जाकर कृष्ण के चित्र हुए। दूसरा जो बड़ा चित्रकार भारत में पैदा हुआ, नंदलाल, वह | बनाना सीखता रहा। तीन साल बाद लौटा। रवींद्रनाथ को उनका शिष्य था। रवींद्रनाथ एक दिन बैठे थे अवनींद्रनाथ के | नंदलाल ने आकर कहा कि उनकी बड़ी अनुकंपा है! ऐसा बहुत साथ। और नंदलाल, जब वह युवक था और विद्यार्थी था, कृष्ण कुछ सीखकर लौटा हूं जो यहां बैठकर कभी सीख ही न पाता! 315 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 1 TIMERA उन ग्रामीण सरल हृदय लोगों में तकनीक तो नहीं है, तकनीक की हर एक रंजो-गम से रिहा हो गये हम। उन्हें कोई शिक्षा नहीं मिली है। लेकिन भाव की बड़ी गहनता है। अब तू जान! और असली चीज तो भाव है, तकनीक में क्या रखा है? कितने दीवाने मुहब्बत में मिटे हैं 'सीमाब' तो जो यहां मेरे पास तीव्रता से काम में लगे हैं, उनकी पीठ में जमा की जाए जो खाक उनकी तो वीराना बने। नहीं थपथपाता। उनसे तो मैं कहता हूं, यह क्या है? बंगाल के कितने प्रेमी उसके प्रेम में मिट गए हैं! जमा की जाये जो खाक पटिये भी इससे बेहतर कर लेते हैं। उनसे तो मैं यही कहे चला उनकी तो वीराना बने। एक मरुस्थल बन जाये, अगर उनकी जाऊंगा, यह भी कुछ नहीं-और-और-और-उस घड़ी तक, | राख इकट्ठी करें। उसी राख के मरुस्थल में अपनी राख को भी जहां कि करने की पराकाष्ठा आ जाये। क्योंकि जहां करने की मिला दो। पराकाष्ठा आती है वहीं अहंकार की भी पराकाष्ठा आ जाती है। गर बाजी इश्क की बाजी है और जब करना-मात्र गिर जाता है, जब तुम्हें लगता है, अब | जो चाहो लगा दो, डर कैसा? आगे करने को कुछ भी नहीं बचा और तुम बैठ जाते हो, उस गर जीत गए तो क्या कहना बैठने में ही पहली दफा परमात्म-तत्व से संबंध होता है। तुम हारे भी तो बाजी मात नहीं। नहीं होते, उस बैठने में तुम नहीं होते; उस बैठने में तुम्हारे भीतर गर जीत गए तो क्या कहना। परमात्मा ही होता है। तो महावीर हो जाता है आदमी, अगर जीत गया। 'क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूँ? कोशिश तो हर हाल हारे भी तो बाजी मात नहीं! हार गए तो मीरा पैदा हो जाती है। करती हूं कि आपकी बात समझ में आये। भक्त को अहंकार का अड़चन नहीं है, बाधा नहीं है। कुछ भी पता नहीं। कैसे क्या करूं? मेरी हिम्मत अब टूटी जा गर बाजी इश्क की बाजी है रही है।' जो चाहो लगा दो डर कैसा? बड़े शुभ लक्षण हैं। किए जाओ। गर जीत गए तो क्या कहना हिम्मत को टूट ही जाना है। तुम्हारी हिम्मत ही बाधा हारे भी तो बाजी मात नहीं। है-भक्त के लिए। समर्पण के मार्ग पर तुम्हारी हिम्मत और यह कुछ रास्ता ऐसा है प्रभु का कि जो पहुंचते हैं, वे तो पहुंच तुम्हारा बल ही बाधा है। निर्बल के बल राम! वहां तो जब तुम ही जाते हैं; जो भटकते हैं वे भी पहुंच जाते हैं। संसार के मार्ग बिलकुल निर्बल हो जाओगे, सब टूट जायेगा, उसी क्षण, उसी पर उलटी ही कथा है: जो पहुंचते हैं, वे भी नहीं पहुंचते; जो पल अनिर्वचनीय से मिलन हो जाता है। भटकते हैं, उनका तो कहना ही क्या! परमात्मा के मार्ग पर जो . मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर पहुंचते हैं, वे तो पहुंच ही जाते हैं; जो भटकते हैं, वे भी पहुंच हर एक रंजो-गम से रिहा हो गए हम। जाते हैं। इतना ही क्या कम है कि हम उसे खोजने में भटके? उसके प्रेम को तुम्हारे चारों तरफ बंधने दो, उसके प्रेम को | इतना कम है कि हमने उसे खोजना चाहा? इतना कम है कि कसने दो। उसके प्रेम की फांसी में तुम्हारा अहंकार मर जायेगा। अंधेरी रात में हमने उस दीये की आशाएं और सपने संजोए? महब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर कैफियत उनके करम की कोई हमसे पूछे हर एक रंजो-गम से रिहा हो गए हम। जिससे खुश होते हैं दीवाना बना देते हैं। . अब तुम छोड़ो अपना रंज भी, अपना गम भी; जो तुम्हारे पास परमात्मा का प्रेम जब तुम पर बरसेगा तो दीवानगी और है उसके चरणों में चढ़ा दो! कुछ और तो है नहीं, कहां से बढ़ेगी, आंसू और बहेंगे, हृदय टूटेगा, बिखरेगा। राख हो लाओगे फूल? जो है...आंसू सही। उसके चरणों में रख दो! जाओगे तुम उस बड़े मरुस्थल में-जहां मीरा भी खो गई है, और उससे कहा दो कि चैतन्य भी खो गए हैं, जहां राबिया खो गई है, जहां कबीर, मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर नानक, रैदास खो गए हैं। उस विराट मरुस्थल में तुम भी खो 316 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से मझे प्रेम है / जाओगे। लेकिन खोने के पहले एक शर्त पूरी कर देनी जरूरी है। यहां संसार में धन नहीं मिलता; यहां संसार में प्रेमपात्र नहीं कि तुम जो कर सकते हो वह कर लो; अन्यथा तुम्हें ऐसा लगा | मिलता; यहां संसार में कुछ भी नहीं मिलता-ऐसे संसार में रहेगा कुछ न कुछ कर लेते। अटके रहोगे। अहंकार थोड़ी-सी हमने परमात्मा को मांगा है। जहां कुछ भी नहीं मिलता; जहां जो जगह बनाए रखेगा। दिखाई पड़नेवाली चीजें हैं, वे भी हाथ में पकड़ में नहीं प्रेम की आकांक्षा जिसने की है और भक्ति का मार्ग जिसने आतीं-वहां हमने अदृश्य को पकड़ना मांगा है! दृश्य पकड़ में चुना है, उसने बड़े असंभव की आकांक्षा की है। नहीं आता, सीमित पर हाथ नहीं बंधते-वहां हमने असीम की इसलिए महावीर गणित की तरह साफ हैं। वहां साफ-सुथरा अभीप्सा की है! विज्ञान है। इसलिए जैन-धर्म में विज्ञान की भाषा है। मीरा और ___ उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे चैतन्य, नारद और कबीर-उनकी भाषा अटपटी है, जो दर्द भी नाकाबिले-दरमा नज़र आया। सधुक्कड़ी, उलटबांसी जैसी। वहां गंगा गंगोत्री की तरफ बहती राह बड़ी पीड़ा से भरी है, पर पीड़ा बड़ी मधुर है। उसके मार्ग है। बड़ी रहस्य से भरी, क्योंकि उन्होंने बड़े असंभव की पर लगे कांटे भी अंततः फूल बन जाते हैं। आकांक्षा की है। महावीर की बात चाहे कितनी ही कठोर मालूम पड़ती हो, लेकिन गणित के समझ में आनेवाली है। और प्रेमियों आज इतना ही। की बात चाहे कितनी ही सरल मालूम पड़ती हो, बड़ी असाध्य मालूम होती है। उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया। -प्रेम का दर्द ऐसा है कि असाध्य है। इसका कोई इलाज नहीं उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया। -जिसका कोई इलाज नहीं, असाध्य है, जिसकी कोई औषधि नहीं। प्रेम एक ऐसी पीड़ा है, जिसका कोई इलाज नहीं। लेकिन पायेगाः पीड़ा मीठी होती जाती है; पीड़ा और मीठी होती जाती है। और एक दिन पता चलता है कि जिसे हमने पहले क्षण में दर्द जाना था, वह दर्द न था; वह उस प्रभु के आने की खबर थी, उसके पगों की ध्वनि थी, आहट थी। हम परिचित न थे, इसलिए दर्द जैसा मालूम हुआ था; या प्रभु इतनी तीव्रता से करीब आया था कि हम झेल न सके थे, हमारी पात्रता न थी; जैसे कि आंख में सूरज एकदम से पड़ गया हो और आंखें चौंधिया जायें और दर्द मालूम पड़े। जब परमात्मा की तरफ कोई चल रहा है तो उसने एक ऐसी दीवानगी मांगी है, जो असंभव जैसी लगती है।