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________________ प्रेम से मुझे प्रेम है पहुंचते नहीं; क्योंकि अपने घर का पता ही भूल गया है। का एक चित्र बनाकर लाया। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि ऐसा विस्तार की बातें अलग हैं। वे हर एक व्यक्ति की अलग हैं। सुंदर चित्र मैंने पहले कभी देखा न था; कृष्ण की ऐसी छवि कोई उसमें जाने से कोई सार भी नहीं है। बना न पाया था। और मैं तो भावविभोर हो गया, विमुग्ध हो तुम अपना दिल खोलो या न खोलो, इससे कोई फर्क नहीं | गया, नाच उठने का मन हो गया; लेकिन मैं चुप रहा। क्योंकि पड़ता। तुम्हारी आधारभूत पीड़ा का मुझे पता है। अवनींद्रनाथ मौजूद थे, और वे चित्र को बड़े गौर से देख रहे थे। वह पीड़ा यही है कि कैसे प्रभु से मिलन हो जाये! प्रभु नाम दो बड़ी देर सन्नाटा रहा। या न दो। कैसे उससे मिलन हो जाये, जिसे पाकर फिर कुछ और रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैं घबड़ा गया कि बात क्या है, वे पाने को न बचे! कुछ कहें! तोड़ें इस खामोशी को, कुछ तो कहें। नंदलाल भी 'और क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूं?' थरथर कांप रहा था। और आखिर उन्होंने आंखें ऊपर उठाईं और करती बहुत हो, लेकिन करने से वह मिलता नहीं। कर-करके | उस चित्र को उठाकर बाहर फेंक दिया अपनी बैठक से। और हारने से मिलता है। जब तक करना जारी रहता है, तब तक तो नंदलाल से कहा, 'इसको तुम बड़ी कला मानते हो? यह तो थोड़ी न थोड़ी अस्मिता बनी ही रहती है। मैं कर रहा हूं', तो मैं बंगाल में जो पटिये हैं, जो कृष्ण का चित्र बनाते हैं, दो-दो पैसे में बचा रहता हूं। कृत्य से तो अहंकार कभी मरता नहीं। हां, कृत्य | बेचते हैं, उनके लायक भी नहीं है। तुम जाओ पटियों से सीखो से अहंकार सुंदर हो जाता है, सुरुचिकर हो जाता है। कृत्य से कि कृष्ण कैसे बनाये जाते हैं!' अहंकार में सजावट आ जाती है, शृंगार आ जाता है; मिटता नंदलाल सिर झुकाकर, चरण छूकर लौट गया। रवींद्रनाथ को नहीं। मिटता तो तभी है, जब तुम्हें पता चलता है, मेरे किए कुछ तो बड़ा आश्चर्य हुआ और क्रोध भी आया। लेकिन गुरु-शिष्य भी न होगा। आत्यंतिक रूप से ऐसा पता चलता है कि मेरे किए के बीच क्या बोलना, तो वे चुप रहे। जब नंदलाल चला गया कुछ भी न होगा। अंतिम रूप से यह निर्णय आ जाता है कि मेरे तब उन्होंने कहा कि यह मेरी समझ के बाहर है। आपके भी चित्र किए कुछ भी न होगा। वहीं 'मैं' गिरता है, जहां उसके किए मैंने देखे, लेकिन मैं कह सकता हूं कि उन चित्रों में भी मुझे कोई कुछ भी नहीं होता। इतना नहीं भाया जितना यह कृष्ण का चित्र भाया। और आपने तो तुम करते तो बहुत हो; लेकिन मैं तुमसे कहे चला जाता हूं, | इसको उठाकर फेंक दिया! कुछ भी नहीं, यह भी कुछ नहीं, और करो, और करो। और जो लेकिन अवनींद्रनाथ चुप! तो उन्होंने आंखें उठाकर देखा, जितना ज्यादा कर रहा है उससे मैं और ज्यादा कहता हूं, यह कुछ आंख से आंसू बह रहे हैं। अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुम समझे भी नहीं, और करो। क्योंकि जो जितना ज्यादा कर रहा है, उससे नहीं; इससे मुझे बड़ा भरोसा है; इससे अभी और खींचा जा उतनी ही आशा बंधती है कि करीब पहुंच रहा है उस सीमा के, | सकता है। अभी यह और ऊंचाइयां छू सकता है। मैं भी जानता जहां सब करना व्यर्थ हो जाएगा। तो और दौड़ाता हूं। जो पिछड़ हूं कि ऐसा चित्र मैंने भी नहीं बनाया। मगर इसकी अभी और गए हैं, उनको न भी कहूं, क्योंकि उनके दौड़ने से भी कुछ बहुत संभावना है। अगर मैं कह दूं कि बस, बहुत हो गया। मेरी होनेवाला नहीं है। लेकिन जो दौड़ में बहुत आगे हैं और बड़ी | प्रशंसा का हाथ इसके सिर पर पड़ जाये, तो यही इसकी रुकावट शक्ति से दौड़ रहे हैं उनको तो जरा भी शिथिलता खतरनाक होगी | हो जायेगी। मैं इसका दुश्मन नहीं हूं। और महंगी पड़ जायेगी। नंदलाल तीन साल तक पता न चला, कहां चला गया। वह ऐसा उल्लेख है, रवींद्रनाथ के चाचा थे अवनींद्रनाथ। बड़े गांव-गांव बंगाल में घूमता रहा और जहां-जहां पटियों की खबर कार थे। भारत में ऐसे चित्रकार इस सदी में एक-दो ही मिली, गांव के ग्रामीण कलाकारों की, उनसे जाकर कृष्ण के चित्र हुए। दूसरा जो बड़ा चित्रकार भारत में पैदा हुआ, नंदलाल, वह | बनाना सीखता रहा। तीन साल बाद लौटा। रवींद्रनाथ को उनका शिष्य था। रवींद्रनाथ एक दिन बैठे थे अवनींद्रनाथ के | नंदलाल ने आकर कहा कि उनकी बड़ी अनुकंपा है! ऐसा बहुत साथ। और नंदलाल, जब वह युवक था और विद्यार्थी था, कृष्ण कुछ सीखकर लौटा हूं जो यहां बैठकर कभी सीख ही न पाता! 315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340114
Book TitleJinsutra Lecture 14 Prem se Muze Prem Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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