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________________ जिन सूत्र भागः 1 सकता हो, तो फिक्र छोड़ो। जब गीत गाकर और नाचकर उसके | जरूरी हैं। तुम्हें लोरी ही गाकर सुनाता रहूं तो तुम और भी सो घर की तरफ जा सकते हैं, तो फिर लंबे चेहरे, उदास चेहरे लेकर जाओगे। हालांकि लोरी तुम्हें अच्छी लगती है। मगर तुम्हारे जाने की कोई जरूरत नहीं। जब स्वस्थ, प्रफुल्लित उसकी तरफ अच्छे लगने को देखू? तो तुम्हें तो नींद ही अच्छी लगती है। जा सकते हैं, तो नाहक की उदासी, नाहक का वैराग्य थोपने की तुम्हें जगाना होगा! तुम्हें झकझोरना होगा! कोई जरूरत नहीं। | और धीरे-धीरे तुमने अपने रोगों को भी अपने जीवन का महावीर के मार्ग से लोग पहुंचे हैं, तुम भी पहुंच सकते हो। हिस्सा मान लिया है। तुम धीरे-धीरे अपने रोगों के भी प्रेम में पड़ लेकिन महावीर का मार्ग बहुत संकीर्ण है; बहुत थोड़े-से लोग | गए हो। पहुंचते हैं; बहुत थोड़े-से लोग जा सकते हैं। __ एक छोटा बच्चा अपने नाना-नानी के घर आया था। रात जब भक्ति का मार्ग बड़ा विस्तीर्ण है। उस पर जितने लोग जाना नानी उसकी सुला गई उसे कमरे में और बिजली की बत्ती बुझाई, चाहें, जा सकते हैं। लेकिन कुछ लोगों को कठिनाई में रस होता तो वह बैठ गया और रोने लगा। उसने पूछा कि क्या हुआ तुझे। है। कुछ लोगों को जो चीज सुलभता से मिलती हो, वह जंचती नानी ने पूछा, क्या हुआ तुझे? उसने कहा कि मुझे अंधेरे का नहीं। कुछ लोगों को जितने ज्यादा उपद्रव और मुसीबतों में से बहुत डर लगता है। पर उसने कहा, 'अरे पागल! और तू अपने गुजरना पड़े उतना ही उन्हें लगता है, कुछ कर रहे हैं। उनके लिए | घर भी तो अंधेरे में ही सोता है और अलग ही कमरे में सोता है, महावीर का मार्ग बिलकुल ठीक है। तो फिर क्या डर है?' तो उसने कहा, नानी, वह बात अलग है। वह मेरा अंधेरा है। आखिरी प्रश्न: आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप अपने-अपने अंधेरे से भी लगाव हो जाता है। मेरा अंधेरा, नाराज हो जाते हैं। पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके मेरी बीमारी, मेरा रोग, मेरी चिंता, मेरा संताप- 'मेरा' उससे पास दिल खोलूं कि नहीं खोलूं। और क्या मैं कुछ भी नहीं कर भी जुड़ जाता है। तभी तो हम अपने दुख को भी पकड़े बैठे रहते पाती? कोशिश तो हर हाल करती हूं कि आपकी बात समझ में | हैं। दुख छोड़ने में भी डर लगता है, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि आए। भक्त को अहंकार का कुछ भी पता नहीं। कैसे क्या | दुख भी छूट जाये और हाथ खाली हो जायें, और कुछ मिले न; करूं? मेरी हिम्मत अब टूटी जा रही है। कृपया एक बार फिर कम से कम कुछ तो है, दुख ही सही, दर्द ही सही! होने का पता समझाएं! तो चलता है कि है। तो कई बार तुमसे मुझे नाराज भी होना पड़ता है-सिर्फ तरु का प्रश्न है। इसीलिए कि तुम्हें प्रेम करता हूं, अन्यथा कोई कारण नहीं है। . 'आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप नाराज हो जाते 'और पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके पास दिल हैं।' बहुत बार ऐसा लगेगा कि मैं नाराज हुआ हूं, पर मेरी खोलूं कि नहीं खोलूं!' / नाराजगी में केवल इतनी ही अभिलाषा है कि शायद नाराज क्या तुम्हारे खोलने न खोलने से कुछ फर्क पड़ेगा? खुला ही होकर कहूं तो तुम सुन लो; शायद नाराज होकर कहूं तो तुम्हारा हुआ है। जिस दिन अपने को जाना, उसी दिन से सभी का दिल सपना टूटे; शायद चोट देकर कहूं तो तुम थोड़े तिलमिलाओ खुल गया है। अपना दिल खुले तो सब का दिल खुल जाता है। और जागो। अब मुझसे छिपाने का उपाय नहीं है। न बताओ, कोई फर्क न झेन फकीर तो डंडा हाथ में रखते हैं तरु! और उन्होंने देखा कि पड़ेगा। क्योंकि मनुष्य मात्र की पीड़ा एक है। विस्तार के फर्क जरा उनका कोई शिष्य झपकी खा रहा है कि उन्होंने सिर फोड़ा। | होंगे, थोड़े बहुत रंग-ढंग के फर्क होंगे; लेकिन मनुष्य मात्र की लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि झेन सदगुरु का डंडा पड़ा है | पीड़ा एक है कि जिससे हम जन्मे हैं उससे हम बिछुड़ गए हैं; और उसी क्षण साधक समाधि को उपलब्ध हो गया है। कि जो हमारा मूल स्रोत है उससे हम खो गये हैं। और इसलिए तुम्हारी नींद्र गहरी है; चोट करनी जरूरी है। तुम्हें धक्के देने सब खोजते हैं, लेकिन तृप्ति नहीं होती। बहुत दौड़ते हैं, लेकिन 314 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340114
Book TitleJinsutra Lecture 14 Prem se Muze Prem Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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