________________ जिन सूत्र भार क्योंकि मित्र अंततः उतने निर्णायक नहीं हैं, जितना शत्रु निर्णायक अर्थ हुआ कि तुम दूसरे के मालिक हो गए। तुमने कहा, ऐसा है। वह तुम्हें परिभाषा देता है। वह तुम्हें जीवन की व्याख्या देता करो; अब अगर न करेगा दूसरा व्यक्ति तो उसके मन में अपराध है। वह तुम्हें चुनौती देता है। वह तम्हें बलावा देता है, प्रतिस्पर्धा | का भाव पैदा होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम्हारी हो गई। अगर का अवसर देता है। करेगा तो गुलामी अनुभव करेगा; तुम्हारी आज्ञा से चला। जैन तो ऋग्वेद ने ऋषभ को बड़े सम्मान से याद किया है। ऋषभ | कहते हैं, अगर आज्ञा मानकर किसी की तुम स्वर्ग भी पहुंच गए जैनों के पहले तीर्थंकर हैं। | तो वह स्वर्ग भी नर्क ही सिद्ध होगा; क्योंकि दूसरे के द्वारा जैनों का विरोध, जैनों की क्रांति उतनी ही पुरानी है, जितनी जबर्दस्ती पहुंचाए गए। हिंदुओं की परंपरा। जैन वेद-विरोधी हैं। लेकिन वेद ने बड़ा सुख में कभी कोई जबर्दस्ती पहुंचाया जा सकता है? सुख तो सम्मान दिया है। जैन मूर्ति-विरोधी हैं, यज्ञ-विरोधी हैं, परमात्मा | स्वेच्छा से निर्मित होता है। अगर नर्क भी तुम स्वयं चुनोगे तो को भी स्वीकार नहीं करते, भक्ति का कोई उपाय नहीं सुख मिलेगा; और स्वर्ग भी अगर धक्का देकर पहुंचा दिया, मानते-मूलतः व्यक्तिवादी हैं, अराजक हैं। समूह में उनका पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ गया और दौड़ाकर तुम्हें स्वर्ग में भरोसा नहीं है, व्यक्ति में भरोसा है। और एक-एक व्यक्ति पहुंचा दिया, तो वहां भी तुम्हें सुख न मिलेगा। अलग और अनूठा है। और एक-एक व्यक्ति को अपना ही मार्ग | निज की स्वतंत्रता में स्वर्ग है। परतंत्रता में नर्क है। खोजना है। कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह जैनों की प्राचीनतम इसलिए महावीर तो आदेश भी नहीं देते। क्रांति उनकी बड़ी परंपरा है, वह कुछ नई बात नहीं है। यद्यपि जैन भी उनसे राजी न प्रगाढ़ है। और वे कहते हैं, तुम स्वयं जिम्मेवार हो, कोई और होंगे, क्योंकि अब तो जैन भी भूल गए हैं कि उनके प्राणों में कभी नहीं। बड़ा बोझ रख देते हैं व्यक्ति के ऊपर। बड़ा भारी बोझ है! क्रांति का तत्व था; वह आग बुझ गई है, राख रह गई है। अब राहत का कोई उपाय नहीं। महावीर के पास कोई सांत्वना नहीं तो वे भी परंपरावादी हैं। है। वे सीधा-सीधा तुम्हारा निदान कर देते हैं कि यह तुम्हारी जैनों को समझना हो तो उनकी क्रांति के रुख को | बीमारी है: अब तुम्हें सांत्वना खोजनी हो तो कहीं और जाओ। / समझना जरूरी होगा। इससे बड़ी क्या क्रांति हो सकती है कि तो महावीर उस मूर्ति-भंजक परंपरा के अंग हैं, जो उतनी ही परमात्मा नहीं है, प्रार्थना नहीं है, पूजा-पूजागृह, सब व्यर्थ हैं। प्राचीन है जितनी परंपरा। इसलिए स्वभावतः उस तुम किसी की अनुकंपा के आसरे मत बैठे रहना; तुम्हें स्वयं ही परंपरा-विरोधी परंपरा ने उन्हें अपना चौबीसवां तीर्थंकर घोषित उठना है। तुम्हें कोई ले जा न सकेगा। महावीर यह भी नहीं कहते किया। वस्तुतः उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों में कोई भी उनकी कि मैं तुम्हें कहीं ले जा सकता हूं; ज्यादा से ज्यादा इशारा करता | महिमा का व्यक्ति नहीं था। वे बड़े महिमाशाली व्यक्ति थे, हूं, जाना तुम्हीं को पड़ेगा-अपने ही पैरों से। | लेकिन महावीर की प्रगाढ़ता बड़ी गहरी है। इसलिए धीरे-धीरे महावीर तो आदेश भी नहीं देते कि जाओ। वे कहते हैं, आदेश | ऐसी हालत हो गई कि तेईस तीर्थंकरों को तो लोग भूल ही गए। में भी हिंसा हो जायेगी। मैं कौन हूं जो तुमसे कहूं कि उठो और पश्चिम से जब पहली दफे लोग जैन-धर्म का अध्ययन करने जाओ? मैं उपदेश दे सकता हूं, आदेश नहीं। पूरब आये तो उन्होंने यही समझा कि ये महावीर ही इस धर्म के इसलिए तीर्थंकर उपदेश देते हैं, आदेश नहीं। उपदेश का जन्मदाता हैं। तो पुरानी सभी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच की किताबों में मतलब है : मात्र सलाह। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी। न मानो | महावीर को जैन-धर्म का स्थापक कहा गया है। वे स्थापक नहीं तो तुम कोई पाप कर रहे हो, ऐसी घोषणा न की जायेगी। मान हैं। वे तो अंतिम हैं, प्रथम तो हैं ही नहीं। लेकिन बाकी तेईस खो लो, तो तुमने कोई महापुण्य किया, ऐसा भी कुछ सवाल नहीं गए। महावीर की प्रतिभा ऐसी थी, ऐसी जाज्वल्यमान थी कि है। मान लिया तो समझदारी, न मानी तो तुम्हारी नासमझी। ऐसा लगने लगा, उन्हीं से जन्म हुआ है इस धर्म का। तेईस तो लेकिन इसमें कुछ पाप-पुण्य नहीं है। करीब-करीब पुराण-कथा हो गए; उनका कोई उल्लेख भी नहीं तीर्थंकर आदेश भी नहीं देते। वे कहते हैं कि आदेश देने का रहा। वे तो धूमिल कथा-कहानी के हिस्से हो गए, पुराण हो 300 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org