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जैन संस्कृत महाकाव्यों में रस
डॉ० (श्रीमती) पुष्पा गुप्ता
यद्यपि काव्यशास्त्रियों में काव्य' की परिभाषा के विषय में पर्याप्त मतभेद है, फिर भी यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि काव्य में 'रस' की प्रधानता है।
प्रस्तुत लेख में जैन संस्कृत महाकाव्यों में 'रस' का आलोचनात्मक अध्ययन किया गया है। जैन कवियों द्वारा संस्कृत में लिखे गए महाकाव्यों को उनकी भाषा-शैली के आधार पर निम्नलिखित श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है।
(१) वे महाकाव्य जिन्हें पुराण कहा गया है लेकिन चूंकि उनमें महाकाव्य के सभी लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं, अत: महाकाव्य की शृंखला में सम्मिलित किए गए हैं जैसे रविषेणाचार्य का पद्मपुराण, जिनसेनाचार्य का हरिवंशपुराण और आदिपुराण तथा गुणभद्राचार्य का उत्तरपुराण । इनके लेखक भी अपनी रचनाओं को 'महाकाव्य' ही संज्ञा देते थे,' परवर्ती विद्वानों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है।'
(२) वे काव्य जिनकी भाषा अलंकृत है और जिनके शीर्षक में भी 'महाकाव्य' शब्द जुड़ा हुआ है जैसे धनञ्जयकृत द्विसंधान महाकाव्य, वीरनन्दिकृत चन्द्रप्रभचरितम्, महासेनाचार्यकृत प्रद्युम्नचरितम्, हरिश्चन्द्रकृत धर्मशर्माभ्युदयमहाकाव्यम्, वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरितम् एवं यशोधरचरितम्, वाग्भट्टकृत नेमिनिर्वाणमहाकाव्यम्, अभयदेवसूरिकृत जयन्तविजयमहाकाव्यम्, बालचन्द्र सूरिकृत वसन्तविलास महाकाव्यम्, अर्हद्दासकृत मुनिसुव्रतमहाकाव्यम् और अमरचन्द्रसूरिकृत पद्मानन्दमहाकाव्यम् ।
(३) वे काव्य जो महाकाव्य कहलाते हैं परन्तु उनकी भाषा-शैली पौराणिक है जैसे विनयचन्द्रसूरिकृत मल्लिनाथचरितम्, उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदय महाकाव्यम्, भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथचरितम् और मुनिभद्र कृत शान्तिनाथचरितम् ।
सुविधा के लिए प्रस्तुत लेख में इन महाकाव्यों का इनकी श्रेणी के द्वारा उल्लेख किया गया है।
यद्यपि जैन संस्कृत महाकाव्यों में शान्त रस का प्राधान्य है और यह अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि इन काव्यों के लेखकों का मुख्य उद्देश्य जैन दर्शन के तत्त्वों को रोचक, सरल व सरस शैली में जनसाधारण के लिए प्रतिपादित करना ही था । लेकिन फिर भी यह जैन कवियों की काव्य-प्रतिभा को ही इंगित करता है कि अन्य सभी रसों का चित्रण भी उन्होंने उसी कुशलता से किया है । जैसा कि निम्नलिखित विवेचन से स्पष्ट हो जाएगा।
शृंगार रस
जैन संस्कृत महाकाव्यों में संभोग और विप्रलम्भ दोनों ही प्रकार का शृंगार दृष्टिगोचर होता है। संभोग शृंगार
संभोग शृंगार का वर्णन प्रायः तीर्थंकरों के पूर्वजन्म के प्रसंगों व राजाओं के वर्णनों में प्राप्त होता है । नायक और नायिकाओं के विषय में यह तब प्राप्त होता है जब वे हिन्दू पौराणिक कथाओं से लिये गए हैं। दूसरी श्रेणी के महाकाव्यों में नायक-नायिकाओं के प्रेम का
१. महापुराणसम्बन्धि महानायकगोचरम् ।
त्रिवर्गफलसन्दर्भ महाकाव्यं तदिष्यते । आदिपुराण, १/EE २. (क) 'पद्मचरित' एक संस्कृत पद्यबद्ध चरित-काव्य है । इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण हैं । परमानन्द शास्त्री, जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ० १५७ (ख) हरिवंशपुराण न केवल कथाग्रन्थ है अपितु महाकाव्य के गुणों से युक्त उच्च कोटि का महाकाव्य भी है। हरिवंशपुराण, प्रस्तावना, पृ०६, भारतीय ज्ञानपीठ,
वाराणसी, १९६२ (ग) आदिपुराण उच्च दर्जे का संस्कृत महाकाव्य है । परमानन्द शास्त्री, जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ० १८० ३. 'चरितम्' शब्द महाकाव्य का ही द्योतक है।
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वर्णन व्यक्तिगत रूप से न करके सामूहिक रूप से, उनके नामों का उल्लेख किए बिना ही किया गया है।
त्रिषष्टिशलाकापुरुष' की श्रेणी में आने वाले महापुरुषों के बारे में श्रृंगार रस यत्र-तत्र ही मिलता है। इसका कारण संम्भवतः जैन कवियों द्वारा उनको आदर की दृष्टि से देखा जाना था। इन कवियों द्वारा तीर्थंकरों के प्रेम का बहुत सीमित वर्णन व्यञ्जना शक्ति द्वारा ही किया गया है, अभिधा द्वारा नहीं।
आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में आदि तीर्थंकर वृषभध्वज का अपनी प्रियाओं, सुनन्दा और यशस्वती के प्रति प्रेम का व्यंग्यात्मक चित्रण बहुत ही सुन्दर 'उत्प्रेक्षा' द्वारा किया हैं। यहां पर कवि ने रानी सुनन्दा और यशस्वती के शरीर के रूप में कामदेव के दुर्ग की कल्पना करके अपनी मौलिक प्रतिभा का ज्वलन्त उदाहरण दिया है ! 'दुर्गाश्रित' पद में श्लेष ध्वनित है। पहले भी कामदेव ने 'शिव' पर आक्रमण करने के लिए 'दुर्गा' (पार्वती) का आश्रय लिया था और अब भी वृषभध्वज को अपने पुष्पसायकों द्वारा बींधने के लिए 'दुर्ग' (किले) का आश्रय लिया है।
इसी प्रकार भावदेवसूरि ने अपने पार्श्वनाथचरित में पार्श्वनाथ तीर्थंकर की अपनी प्रिया प्रभावती के साथ तुलना बादल और बिजली से की है, जो उनके पारस्परिक चिरस्थायी प्रेम को ध्वनित करता है। इतना ही नहीं, जिस प्रकार बादल स्वयं ही सुन्दर होता है और यदि अनायास बिजली भी उसमें कौंध जाए तो उसकी सुन्दरता में चार चाँद लग जाते हैं, उसी प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ यद्यपि स्वयं लावण्ययुक्त हैं परन्तु प्रभावती के साथ तो उनका सौन्दर्य अवर्णनीय ही हो जाता है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार विद्युतयुक्त बादल सबको प्रसन्नता देता है, उसी प्रकार उन दोनों का विवाह सबको आनन्द व सुख देने वाला था। और भी बिजली और बादल की उपमा उन दोनों के पवित्र और निर्मल प्रेम को भी इंगित करती है। एक छोटे से 'अनुष्टुप्' द्वारा इतनी अधिक बातों को ध्वनित कर कवि ने अपनी काव्यप्रतिभा को द्योतित किया है।
अन्य त्रिषष्टिशलाकापुरुषों का प्रेम भी इसी प्रकार बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से चित्रित किया गया है।
पद्मपुराण में रविषेणाचार्य द्वारा राम और सीता के पुनर्मिलन का निरूपण अत्यन्त सरस मधुर लेकिन ओजस्वी पदावली द्वारा किया गया है। यहां पर राम और सीता की तुलना शची और शक्र, रति और कामदेव, अहिंसा और धर्म एवं सुभद्रा और भरत से की गई है जो क्रमशः उनकी सुख-सम्पत्ति, रूप-लावण्य, पवित्रता और परस्पर निष्ठा का निदेश करता है । यहाँ पर कवि ने बखूबी एक आदर्श वर और वधू के गुणों को प्रतिपादित किया है। यह सर्वविदित है कि कन्या सुन्दर, माता धनी, पिता शिक्षित और सगे-सम्बन्धी कुलीन वर की आकांक्षा करते हैं जबकि अन्य लोग केवल मिष्टान्न आदि की इच्छा करते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि पद्मपुराण के प्रस्तुत उदाहरण में ऐश्वर्य शची और इन्द्र के द्वारा तथा लावण्य रति और कामदेव के द्वारा ध्वनित किया गया है लेकिन यहां शिक्षा के बदले धर्म और अहिंसा के अर्थात् सच्चरित्रता पर अधिक बल दिया गया है क्योंकि सच्चरित्रता के बिना ऐश्वर्य और सौन्दर्य का क्या लाभ ? इस प्रकार रविषेणाचार्य ने वर और वधु के सबसे महत्त्वपूर्ण गुण का समावेश भी करके अपनी व्यावहारिकता का परिचय दिया है।
यह उल्लेखनीय है कि दूसरी श्रेणी के महाकाव्यों ने जैन पुराणों (प्रथम श्रेणी के महाकाव्य) की अपेक्षा शृंगार रस के वर्णन में परम्परा का अधिक निर्वाह किया है क्योंकि इनमें ऋतु, पुष्पावचय, जलक्रीड़ा, दोलाक्रीड़ा, चन्द्रोदय आदि का परम्परागत रूप में विस्तृत वर्णन किया है । सम्भवतः इन्होंने काव्यशास्त्रियों द्वारा दी गई महाकाव्य की परिभाषा की शर्तों को पूरा करने के लिए ही ऐसा किया है। जबकि दूसरी ओर पुराणों के लेखकों ने नायक-नायिकाओं के प्रेम का सामूहिक रूप से आवश्यक वर्णन न करके परम्परा का अन्धानुकरण नहीं किया है। इन्होंने संभोग शृंगार का प्रसंगानुकूल ही समावेश किया है और वह भी बहुत ही संक्षिप्त ढंग से।
दूसरी श्रेणी के महाकाव्यों में संभोग शृंगार का बहुत ही अनावश्यक, अवाञ्छित और विस्तृत वर्णन तीन-चार सर्गों में किया गया है। कभी-कभी तो यह वर्णन बहुत ही अशिष्ट, अरुचिकर, अश्लील और मर्यादारहित भी हो गया है और इससे कथानक का विकास भी अवरुद्ध हो गया है। इस विषय में पुराणों के लेखक वास्तव में श्रेय और प्रशंसा के पात्र हैं। इनमें केवल त्रिषष्टिशलाकापुरुषों का ही नहीं,
१. अनंगत्वेन तन्नूनमेनयोः प्रविशन वपुः ।।
दुर्गाश्रित इवानंगो विव्याधनं स्वसायकैः ।। आदिपुराण, १५/६८ २. जातोद्वाह इति स्वामी नीलरत्ननिभस्तया।
गौरांग्या शुशुभेऽत्यन्तं विद्य तेव नवाम्बुदः ।। भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ६/४८ ३. शचीव संगता शक रतिर्वा कुसमायधम् ।
निजधर्ममहिंसा नु सुभद्रा भरतेश्वरम् ।। पद्मपुराण, ७६/४७ ४. कन्या वरयते रूपं माता वित्तं पिता श्रुतम् । बान्धवाः कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरे जनाः ॥
कालिदासकृत कुमारसम्भव, सगं ५ के श्लोक ७१३ पर मल्लिनाथ-भाष्य ।
जैन साहित्यानुशीलन
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अन्य पात्रों का भी प्रेम-वर्णन बहुत मर्यादित एवं सुरुचिपूर्ण है।
दूसरी श्रेणी के महाकाव्यों में सर्वप्रथम धनञ्जय ने अपने द्विसन्धान महाकाव्य में संभोग शृंगार का वर्णन करने के लिए पुष्पावचय, जलक्रीड़ा, चन्द्रोदय, चुम्बन, आलिंगन, अधरपान और अन्य प्रेम-क्रीड़ाओं का तीन सर्गों में विस्तृत वर्णन किया है। मद्यपान जो जैन दर्शन में व्यसन माना गया है, उसका भी संकेत यहां प्राप्त होता है। यद्यपि चन्द्रप्रभचरित के रचयिता वीरनन्दि ने इस परम्परागत वर्णन को प्रसंगानुकल बनाने का प्रयत्न किया है लेकिन तत्पश्चात् यह भी परम्परागत ही हो गया है। धर्मशर्माभ्युदय के लेखक हरिश्चन्द्र ने तो २१ में से ५ सर्गों में परम्परागत शृंगार रस का अनावश्यक रूप से विस्तृत वर्णन किया है। यहां तक कि ऊर्ध्व और अधोवस्त्रों के उतारने का वर्णन भी बिना किसी हिचकिचाहट के, बेरोकटोक किया गया है और मद्यपान का वर्णन तो बहुतायत से प्राप्त होता है । सम्भवतः इस विषय में जैन कवि अजैन कवियों द्वारा प्रभावित हुए हों। और यह भी सम्भव है कि इस प्रकार का अमर्यादित, उच्छृखल व अश्लील वर्णन लेखकों ने शायद जनसाधारण में शृंगार के प्रति अरुचि उत्पन्न करने के लिए किया हो, जो प्रायः जैन दर्शन में इच्छित है। इसी प्रकार के वर्णन वादि. राजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, वाग्भट्ट के नेमिनिर्वाण, बालचन्द्र सूरि के वसन्तविलास में भी प्राप्त होते हैं । इसी कारण इन काव्यों का कथानक भी अवरुद्ध हो गया है।
यह एक ध्यान देने योग्य बात है कि इन कवियों ने भी किसी व्यक्ति विशेष के प्रेम का वर्णन सीमागत, आकर्षक, रोचक और शिष्ट भाषा में ही किया है। केवल अर्हद्दास ने ही अपने मुनि सुव्रत महाकाव्य में प्रेम-प्रसंगों में गीत, नृत्य और वीणावादन का भी निर्देश किया है।
तीसरी श्रेणी के महाकाव्य के रचयिता भी प्रेम-प्रसंगों का विस्तृत और परम्परागत वर्णन करने के पक्ष में नहीं थे। इन्होंने संभोग शृंगार का समुदाय रूप में वर्णन नहीं किया है। जहां भी इसका उल्लेख है, वह औचित्यपूर्ण और प्रसंग के अनुकूल ही है, अतः कथानक बिना किसी बाधा के नदी-प्रवाह रूप में प्रवाहित होता है। विनयचन्द्र सूरि ने अपने मल्लिनाथचरित में पद्मलोचना का अपने प्रेमी रत्नचन्द्र के प्रति प्रेम का आकर्षक ढंग से व्यंग्यात्मक वर्णन एक सुन्दर उपमा द्वारा किया है।
विप्रलम्भ श्रृंगार
जैन संस्कृत महाकाव्यों में केवल करुणाख्य विप्रलम्भ शृंगार को छोड़कर पूर्व रागाख्य, मानाख्य और प्रवासाख्य तीनों ही प्रकार का विप्रलम्भ शृंगार प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त इनमें विप्रलम्भ शृंगार का एक अन्य प्रकार 'अपहरण' के कारण भी पर्याप्त रूप में मिलता है, लेकिन इस प्रकार के विप्रलम्भ का निर्देश किसी भी काव्यशास्त्री द्वारा नहीं किया गया है।
__यह उल्लेखनीय है कि विप्रलम्भ शृंगार महाकाव्यों की अपेक्षा पुराणों में अधिक प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी है। पद्मपुराण के लेखक रविषेणाचार्य तो पूर्वरागाख्य विप्रलम्भ के चित्रण में अद्वितीय हैं । जब हरिश्चन्द्र नागवती को देख लेने पर उसे प्राप्त नहीं कर पाता तो उसे कहीं भी शान्ति नहीं मिलती। रविषेणाचार्य ने बड़ी सुन्दरता से उसकी विरही-अवस्था का वर्णन करते हुए कहा है कि कमल भी उसे दावाग्नि के समान और चन्द्रकिरण भी उसे वज्रसूची के समान प्रतीत होते थे।
१. पद्मपुराण ७/१६७-१६८; आदिपुराण ७/२४६-२५०; उत्तरपुराण ५८/६४ २. द्विसंधान महाकाव्य, १५ से १७ सर्ग ३. वही, १७/५८-५६ ४. चन्द्रप्रभचरित, ८ से १० सर्ग५. धर्मशर्माभ्युदय, ११ मे १५ सर्ग ६. वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ६ से ८ सर्ग ७. नेमिनिर्वाण, ६ से १० सर्ग ८. वसन्तविलास, ६ से ८ सर्ग है. अगायदेषा स ततान तानमनत्यदेषा स तताड तालम् ।
अवादयदल्लकिकामथैषा स वल्लकीवानुजगी द्वितीया ।। मुनिसुव्रत, २/२७ १०. चन्द्राश्मप्रतिमेवास्य सुधांशोरिख दर्शनात् ।
सिस्विदे सर्वतः पद्या निश्छद्मप्रेममन्दिरम् ।। आलस्यचञ्चलर्लज्जानिर्जितर्नयनोत्पलैः ।
पपौ पचा महः प्रेमरसं नालैरिवोच्चकैः ।। मल्लिनाथचरित, १/१५०-१५१ ११. दावाग्निसदृशास्तेन पद्मखण्डा निरीक्षिताः ।
वजसूचीसमास्तस्य बभूवुश्चन्द्ररश्मयः ।। पद्मपुराण, ८/३११
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रविषेणाचार्य ही एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने विप्रलम्भ शृंगार की दसों अवस्थाओं का काव्यात्मक वर्णन पवंजय की विरही अवस्था में किया है जबकि वह अपनी प्रिया अंजना से नहीं मिल पाता। आदिपुराण में जब श्रीमती को अपने पूर्वभव के पति ललितांग का स्मरण होता है तो उस समय का वर्णन कवि जिनसेन द्वारा मौलिक तथा प्रसंगानुकूल बहुत ही सुन्दर उत्प्रेक्षा द्वारा किया गया है।
नेमि निर्वाण महाकाव्य के रचयिता वाग्भट्ट का नेमिनाथ के अलग होने पर राजीमती की विरहावस्था का वर्णन बहुत ही हृदयस्पर्शी, मार्मिक व यथार्थ है । 'मूर्च्छना' शब्द पर श्लेष का प्रयोग वर्णन में चार चांद लगा देता है।
अपने धर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि उदयप्रभसूरि, धनवती के अपने प्रियतम 'धन' से वियोग-वर्णन में अद्वैतवाद से प्रभावित हआ परिलक्षित होता है।
वस्तुपाल मंत्री की मृत्यु का प्रतीकात्मक वर्णन वसन्तविलास महाकाव्य के रचयिता बालचन्द्र सूरि द्वारा अनुपम, मौलिक व काव्यात्मक ढंग से किया गया है। प्रतीकात्मक वर्णन करते हुए कवि कहता है कि किस प्रकार धर्म की पुत्री सद्गति वस्तुपाल की कीर्ति को स्वर्ग में गाये जाते हुए देखकर कामदेव के बाणों द्वारा पीड़ित की जाती है। यहां पर कवि वास्तव में श्रेय का पात्र है कि शार्दूल-विक्रीडित जैसे लम्बे छन्द का प्रयोग करके भी भाषा में ओज, माधुर्य व प्रसाद गुण है। इस प्रकार का वर्णन इतनी रोचकता से केवल इसी कवि द्वारा किया गया है।
धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि हरिश्चन्द्र ने मानाख्य विप्रलम्भ एक दूती के कथन द्वारा ध्वनित किया है । दूती क्रोधित नायक को शान्त करने के लिए नायिका की विरह-अवस्था का वर्णन करती है। रमते, स्मयते, भाषते, स्वपिति, अत्ति, वेत्ति और स्मरति में लट् लकार का प्रयोग मधुर व संगीतमय है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में 'अपहरण' से उत्पन्न विप्रलम्भ श्रृंगार के अनेकों काव्यात्मक उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं। जब रावण सीता का अपहरण कर लेता है तो राम का विलाप, जहां वह लताओं, पर्वतों, पशु-पक्षियों, वायु और अन्य वस्तुओं से सीता के बारे में पूछते हैं, बहुत ही करुण व हृदयस्पर्शी है। मनुष्य का तो कहना ही क्या, पत्थर भी उससे द्रवित हो जाए। विभिन्न प्राकृतिक वस्तुएं नायक को नायिका के वियोग में उसके अंग-प्रत्यंग के आंशिक सौन्दर्य की याद दिलाकर विरहाग्नि को बढ़ा तो देती हैं, परन्तु कोई भी एक वस्तु अथवा जीव उसे ऐसा नहीं मिलता जो नायिका के सम्पूर्ण सौन्दर्य का प्रतीक बनकर, नायक की वियोग-पीड़ा शान्त कर सके। जैन कवियों ने कभी-कभी नायक नायिकाओं के अंगों का सौन्दर्य वर्णन करके भी शृंगार रस को ध्वनित किया है। कवि हरिश्चन्द्र ने अपने धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में रानी सुव्रता के मुख की सुन्दरता का चित्रण एक नवीन और काव्यमयी कल्पना की सहायता से किया है।
इसी प्रकार रानी प्रभावती की वाणी, मुख, रूप और नेत्रों का आलंकारिक वर्णन भावदेवसूरि द्वारा यथासंख्यालंकार का प्रयोग कर किया गया है।"
आदिपुराण में रानी सुलोचना के मुख-सौन्दर्य को 'व्यतिरेकालंकार' द्वारा कमल और चन्द्रमा से भी कहीं बढ़कर बतलाया गया है।" १. पद्मपुराण, १५/६५-१०० २. इमेऽथ बिन्दवोऽजस्र निर्यान्ति मम लोचनात् ।
मदुःखमक्षमा द्रष्टुं तमन्वेष्टुमिवोद्यताः ।। आदिपुराण, ६/१६५ ३. स्मृत्वा स्मृत्वा ने मिमुद्गातुकामा कामोद्रकाद्वाद्यविद्याप्रगल्भा।
सकूजन्त्याः केवल नो विपञ्च्याश्चक्रे बाला मूर्च्छनामात्मनोऽपि । नेमिनिर्वाण, ११/७ ४. त्व देकतानचित्तेयमपि व्यापारितेन्द्रिया।
त्वया व्याप्त जगद् वेति योगिनीव परात्मना ।। धर्माभ्युदय, १०/३६ ५. वसन्त विलास, १४/१६/३१ ६. न रमते स्मयते न न भाषते स्वपिति नात्ति न वेत्ति न किंचन ।
सुभग केवलमस्मितलोचना स्मरति सा रतिसारगुणस्य ते ॥ धर्मशर्माभ्युदय, ११/४२ ७. पद्मपुराण, ४४११६-१३८ ८. पद्मपुराण, ४८/१४-१८ . ६. कपोलहेतोः खलु लोलचक्षुपो विधिव्यंधात्पूर्ण सुधाकर द्विधा ।
विलोक्यतामस्य तथाहि लाञ्छनच्छलेन पश्चात्कृत्सीवनव्रणम् ॥ धर्मशर्माभ्युदय, २/५० १०. तद्वाक्यमुखरूपाऽजिता इव ययुध वम् ।
सुधा पाताल इन्दुः खे दिवि रम्भा जलेऽम्बुजम् ।। भावदेवमूरिकृत पार्श्वनाथचरितम्, ५/१५७ ११. राताविन्दुर्दिवाम्भोज क्षयीन्दुग्लानिवारजम् ।
पूर्णमेव विकास्येव तद्वक्त्र भात्यहर्दिवम् ।। आदिपुराण, ४३/१६४
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वज्रजंघ की नाभि का वर्णन करने में तो कवि जिनसेनाचार्य ने कमाल ही कर दिया है। प्रसंगानुकूल 'उत्प्रेक्षा' का प्रयोग वर्णन की सुन्दरता में चार चांद लगा देता है।
इसी प्रकार अक्षि, ओष्ठ, भुजाओं आदि का भी अलंकृत वर्णन प्राप्त होता है।
शृंगार रस के सन्दर्भ में जैन कवियों ने कान्त कमनीय पदावलि का ही प्रयोग किया है । प्रसाद, माधुर्य व ओज गुण का समावेश है। अभिधा की अपेक्षा व्यंजना शक्ति का ही अधिक आश्रय लिया गया है। परिणामस्वरूप इन महाकाव्यों में शृंगार रस का निरूपण ललित एवं मधुर है।
हास्य रस
जैनेतर महाकाव्यों की भांति जैन संस्कृत महाकाव्यों में भी हास्य रस यत्र-तत्र ही प्राप्त होता है।
असंगति के कारण उत्पन्न हास्य रस का सुन्दर उदाहरण जिनसेनाचार्य के आदिपुराण में प्राप्त होता है। यहां पर कवि ने एक ओर तो वृद्ध लोगों की कामभावना का उपहास किया है तो दूसरी ओर युवा भी धैर्यहीन और जल्दबाज होते हैं। अतः कवि द्वारा 'जरहस' और 'हंसयूना' शब्द का साभिप्राय प्रयोग किया गया है।
हास्य का एक बहुत ही रोचक उदाहरण महासेनाचार्य के प्रद्युम्नचरित में है जहां एक पत्नी (सत्यभामा) अपनी ही सपत्नी (रुक्मिणी) को देवी समझकर उससे वरदान मांगती है कि उसका पति उसकी सौत से विमुख हो जाए।
स्वामी नेमिनाथ के रूपावलोकन से भावविह्वल युवतियों की प्रतिक्रियाओं का हास्यपूर्ण वर्णन कवि वाग्भट्ट द्वारा नेमिनिर्वाण महाकाव्य में सुन्दर ढंग से दिया गया है। यहां 'असंगति' अलंकार का प्रयोग प्रशंसनीय है।
दुसरे की मूर्खतापूर्ण बातें भी पाठकों में हास्य रस का सञ्चार करती हैं। हरिवंशपुराण में रुद्रदत्त द्वारा अपने मित्र चारुदत्त को गम्भीरतापूर्वक स्वर्णद्वीप पहुँचने का सुझाव अत्यन्त हास्यप्रद है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में हास्य रस-वर्णन में भ्रान्ति से उत्पन्न अतिशयोक्ति अलंकार अधिकतया प्राप्त होता है। भ्रान्तियुक्त अतिशयोक्ति का एक नवीन प्रयोग धर्मशर्माभ्युदय में प्राप्त होता है, जहां ऐरावत हाथी सूरज को लाल कमल की भ्रान्ति से पकड़ना चाहता है लेकिन उष्ण पाकर उसे तुरन्त छोड़ देता है।
प्रद्यम्नचरित में महासेनाचार्य ने श्रीकृष्ण द्वारा अपनी पत्नी सत्यभामा से किए गए परिहास का अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण दिया है। कृष्ण का इस प्रकार ताली बजा-बजा कर हँसना 'अतिहसित' हास्य की श्रेणी में आता है और प्रायः निम्न कोटि के ही पात्रों में दिया जाता है । कवि ने श्रीकृष्ण के हर्षातिरेक को प्रदर्शित करने के लिए ही इस प्रकार का वर्णन दिया है।
१. सरिदावर्तगम्भीरा नाभिमध्येऽस्य निर्बभी।
नारीदक्करिणीरोधे वारिखातेव हृद्भुवा ।। आदिपुराण, ६/३८ २. मयनाजकिजल्करज. पिञ्जरितां निजाम् । वधूं विधूतां सोऽपश्यच्चक्रवाकी विशंकया। तरगैर्धवलीभूतविग्रहां कोककामिनीम् । व्यामोहादनुधावन्तं स जरद्हसमैक्षत । प्रादिपुराण, २६/६८-६६ ३. देवतास्तुतिविधायक वचः संनिशम्य विपुलो रसोन्नतः ।
गुल्ममध्यगहनादसी हसन् निर्ययो खचरराजकन्यकाम् ।। प्रद्य म्नचरित, ३/६७ ४. अञ्जनीकृत्य कस्तूरी कुंकुमीकृत्य यावकम् ।
काचिलिमितनेपथ्या सखीना हास्यतामगात् ।। नेमिनिर्वाण, १२/५१ ५. अतिलघय समा प्राह रुद्रदत्तोऽन्वितादरः । चारुदत्त ! पशून हत्वा कृत्वा भ्रस्राप्रवेशनम् ॥ आस्वहे तन नौ द्वोपे भ.रुडाश्चण्डतुण्डकाः । गहीत्वाऽऽमिषलोभेन पक्षिणः प्रक्षिपन्ति हि ॥ हरिवंशपुराण, २१/१०४-१०५ ६. रक्तोत्पल हरितपत्रविलम्बि तीरे त्रिस्रोतसः स्फुटमिति विदशद्विपेन्द्रः ।
बिम्ब विकृष्य सहसा तपनस्य मुञ्चन्धुन्वन्कर दिवि चकार न कस्य हास्यम् ।। धर्मशर्माभ्युदय, ६/४४ ७. सा प्रपीष्य तदलं मृगेक्षणा माधवं प्रति लिलेप सुन्दरम्।
स्व वपुस्तदवलोक्य केशवस्तां जहास करतालमुच्चकैः ।। प्रद्युम्नचरित, ३/४७
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जैन महाकाव्यों में कई विस्तृत वर्णन कवि द्वारा परिहास के लिए न देकर पूर्ण गाम्भीर्य से दिए गए हैं परन्तु आधुनिक पाठक इन विवरणों को केवल कवि की कल्पनामात्र मानकर हास्यपूर्ण समझ सकता है। क्योंकि वर्तमान परिस्थितियां और समय सर्वथा भिन्न है। उदाहरणार्थ, पद्मपुराण में कुम्भकर्ण की निद्रा का वर्णन' और हरिवंशपुराण में गौतम और कालोदधि द्वीप के निवासियों का वर्णन ।'
वास्तव में ये काव्य जैन कवियों ने जैन दर्शन के गूढ़ तत्त्वों को, सरल और सुबोध भाषा में, जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए ही लिखे थे। परिणामस्वरूप हास-परिहास का प्रश्न ही नहीं उठता था। फिर भी कवियों ने यत्र-तत्र हास्य रस का समावेश करके अपने मौलिक ज्ञान और काव्य-प्रतिभा का प्रमाण दिया है।
करुण रस
__ जैन संस्कृत महाकाव्यों में करुण रस अन्य रसों की अपेक्षा कहीं अधिक स्वाभाविक व यथार्थ है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन कवियों के कण्ठ से यह करुण वाणी स्वयं अनायास ही फूट पड़ी। इसका कारण सम्भवत: यह भी हो सकता है कि जैन धर्म भी, ब्राह्मण और बौद्ध धर्म के समान इस संसार के विषय-भोगों को दुःखमय ही मानता है।
इन काव्यों में पुत्राभाव से उत्पन्न अनल्प दुःखों का वर्णन कवियों द्वारा अत्यन्त विस्तृत, प्रभावशाली और काव्यात्मक ढंग से किया गया है । यहां यह उल्लेखनीय है कि जैन दर्शन में संतानाभाव कभी भी कष्टदायक नहीं समझा गया है। लेकिन जैन कवियों ने दर्शन की इस भावना की उपेक्षा की है। परन्तु पुराणों के लेखक इसके अपवाद हैं। इसका कारण पुराणों की रूढ़िवादिता ही है जो जैन दर्शन से अधिक सामीप्य रखती है।
चन्द्रप्रभचरित में रानी श्रीकान्ता पुत्र न होने के कारण स्वयं को ही दोषी मानती है। उसकी मानसिक व्यथा की प्रतीति कवि बीरनन्दि ने फलरहित लता-वर्णन के द्वारा कराई है।
धर्मशर्माभ्युदय में कवि हरिश्चन्द्र ने एक पुत्र का महत्त्व सुन्दर, यथार्थ, प्रभावोत्पादक और सजीव उपमाओं द्वारा निरूपित किया है। यहां चार अलग-अलग उपमान, जो चार अलग-अलग उपमेय में प्राप्त होते हैं, उन सबको एक पुत्र के अनिवार्य गुण (प्रताप, लक्ष्मी, बल, कान्ति) बतलाकर यह ‘मालोपमा' और भी प्रभावशाली व हृदयस्पर्शी कर दी गई है। इसका व्यंग्यार्थ यह है कि उपरिलिखित चार गुणों से युक्त पुत्ररहित कुल उतना ही दुर्भाग्यशाली है जितना कि ऊपर दी गई चारों घटनाओं का एक साथ ही घटित हो जाना।
जयन्तविजय महाकाव्य में राजा विक्रम की दृष्टि में पुत्र ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है। कवि ने बहुत ही आकर्षक ढंग से पुत्ररहित कुल की तुलना अग्नियुक्त वृक्ष से करके यह स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार अग्नियुक्त वृक्ष दूर से व बाह्य रूप से चाहे कितना भी फल, फूल, पत्तों आदि से युक्त क्यों न हो, उसका विनाश निश्चित ही है, इसी प्रकार पुत्ररहित कुल की-सुख-सम्पत्ति एवं धन-धान्य-ऐश्वर्यादि से युक्त होने पर भी समाप्ति निश्चित ही है।
इसी प्रकार मुनिसुव्रतमहाकाव्य में पुत्राभाव में रानी पद्मावती की पीड़ा कई उपमाओं द्वारा प्रकट की गई है। सभी उपमाएं रानी की व्यथा का मनोवैज्ञानिक, स्वाभाविक व यथार्थवादी चित्रण करती हैं।
शान्तिनाथचरित में कवि विनयचन्द्र सूरि ने भी पुत्राभाव में धनदत्त की मनोव्यथा का बहुत ही चित्ताकर्षक वर्णन किया है।
१. पद्मपुराण, २/२३२-२३६ २. हरिवंशपुराण, ५/४७१-४७६ ३. दुःखमेव सर्व विवेकिनः । योगसूत्र, २/१५ ४. या मद्विधाः पुनरसंचितपूर्वपुण्याः पुष्पं सदा फलविवजितमहन्ति ।
ताः सर्वलोकपरिनिन्दितजन्मलाभा वन्ध्या लता इव भृशं न विभान्ति लोके ।। चन्द्रप्रभचरित, ३/३१ ५. नभो दिनेशेन नयेन विक्रमो वनं मृगेन्द्रेण निशीथमिन्दुना ।
प्रतापलक्ष्मीबलकान्ति शालिना विना न पुत्रेण च भाति नः कुलम् ।। धर्म शर्माभ्युदय, २/७३ ६. अनन्यसाधारणवैभवोद्भवैः सुखैः सदा दुर्ललितोऽपि मानवः ।
अपुत्रजन्मप्रभवाभिबाधितो न कोटराग्निविटपीव नन्दति ।। जयन्त विजय, २/२२ ७. आपुष्पितापि विफलेव रसालयष्टिः सेनेव नायकगतापि जयेन शून्या ।
काले स्थितापि धनराजिरवर्षणेव मिथ्या दधामि हतकुक्षिमदृष्टतोका ।। मुनिसुव्रत, ३/२ ८. नेपथ्यजातमखिलं तिलक विनेव शीलं विनेव विनयं सुभगं कलत्रम् । प्रासादसर्जनमिदं कलशं विनेव काव्य सुबद्धमपि चारुरसं विनेव ।। पुत्र विना न भवनं सुषमां दधाति चन्द्रं विनेव गगनं समुदग्रतारम् । सिंह विनेव विपिन विलसत्प्रतापं क्षेत्र स्वरूप कलितं पुरुषं विनैव ॥ शान्तिनाथचरित, ४७०-७१
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यद्यपि सभी उपमाएं दैनिक जीवन से ही ली गई हैं, लेकिन सबका अपना-अपना महत्त्व है। सबमें कुछ न कुछ नवीनता है और सभी धनदत्त के हादिक दुःख को प्रकट करती हैं। ये उपमाएं साहित्यिक और दार्शनिक भी नहीं हैं अतः एक साधारण व्यक्ति भी इन्हें समझकर आनन्द प्राप्त कर सकता है।
कभी-कभी जैन कवियों पर ब्राह्मण धर्म का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है जैसा कि अभयदेव सूरिकृत 'जयन्तविजय' से प्रमाणित होता है।
जैन कवियों ने करुण रस का बहुत ही सुन्दर, मार्मिक व हृदयस्पर्शी वर्णन किसी प्रिय व्यक्ति से वियोग हो जाने पर भी दिया है। जब रुक्मिणी के नवजात पुत्र प्रद्युम्न का अपहरण हो जाता है, तो उसके विलाप का वर्णन गुणभद्राचार्य ने अपने उत्तरपुराण में बहुत ही मर्मस्पर्शी व हृदयावर्जक ढंग से किया है।
प्रद्युम्नचरित में केवल रुक्मिणी ही नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण भी, जो ब्राह्मण-साहित्य में 'भगवान्' और जैन साहित्य में 'नारायण' माने गए हैं, अपने पुत्र के अपहरण पर फूट-फूटकर रोते हैं।'
उत्तरपुराण में अपनी पुत्रवधू सुतारा के अपहरण पर स्वयम्प्रभा का करुण क्रन्दन नवीन और मर्मस्पर्शी उपमाओं का प्रयोग कर गुणभद्राचार्य ने किया है। चार उपमाएं स्वयम्प्रभा के दुःख की चार अवस्थाओं की प्रतीति करवाती हैं। प्रथम उपमा स्वयम्प्रभा के दुःख और उसके परिणामस्वरूप उसकी क्रियाविहीनता, दूसरी उसके हृदय की अवर्णनीय पीड़ा और कान्तिविहीनता, तीसरी उसकी बेचैनीयुक्त भावविह्वलता और अन्तिम उसकी पूर्ण विवशता की तरफ संकेत करती है।
१६ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी प्रद्युम्न के न आने पर कवि उदयप्रभ सूरि ने धर्माभ्युदय महाकाव्य में रुक्मिणी के विलाप का सन्दर वर्णन किया है। यथास्थान अनुप्रास का प्रयोग वर्णन के सौन्दर्य में और भी वृद्धि कर देता है। 'वेष' और 'विष' में 'ए' का अभाव है। 'आभरण' और 'रण' में 'आ' की अनुपस्थिति है तथा 'भवन' और 'बन' में 'भ' नहीं है। अत: यह अनुप्रास स्वयं ही किसी अभाव (पुत्रवियोग) का संवे त करता है । शब्दों द्वारा ही अर्थ को प्रकट करने के कारण कवि निस्संदेह प्रशंसा का पात्र है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु पर बहुत ही सजीव व स्वाभाविक करुण वर्णन प्राप्त होते हैं। पद्मपुराण में अपने भाई लक्ष्मण की मूर्छा पर राम का विलाप बहुत ही हृदयस्पर्शी व करुणास्पद है। वह अपना सारा विवेक खो देते हैं और उन्मत्त लोगों की तरह विलाप करते हैं।
इसी प्रकार हरिवंशपुराण में अपने अनुज श्रीकृष्ण की मृत्यु के बारे में सुनकर बलदेव अपने कानों पर भी विश्वास नहीं कर पाते। जिनसेनाचार्य का यह वर्णन बहुत ही कारुणिक, यथार्थ, सजीव, स्वाभाविक व मर्मस्पर्शी है। वह भी पागलों की तरह इस प्रकार की क्रियाएं करते हैं जो पाठकों के हृदय को भी बींध देती हैं।
१. जनेऽप्यपुत्रस्य गतिर्न विद्यते क्षयं प्रयाति क्रमशश्च कीर्तनम् ।
इति प्रवाः खलु दु:सहः सतामपुत्रिणां भूप विलोप्य सम्पदाम् ।। जयन्तविजय,२/२४ २. सम्पत्तिर्वा चरित्रस्य दयाभावविवजिता । कार्याकार्यविचारेषु मन्दमन्देव शेमषी । मेघमालेव कालेन निर्गलज्जलसंचया । नावभासे गते प्राणे क्य भवेत्सुप्रभा तनोः ।। उत्तरपुराण, ७२/६३-६४ ३. प्रद्युम्नचरित, ५/११-१२ ४. तद्वातकिर्णनाद्दावपरिम्लानलतोपमा। निर्वाणाभ्यर्णदीपस्य शिखेव विगतप्रभा। श्रुतप्रावृधनध्वान कलहंसीव शोकिनी। स्याद्वाद्वादिविध्वस्त-दुःश्रुतिर्वाकुलाकला ।। उत्तरपुराण, ६२/२५८-२५६ ५. अशानं व्यसनं वेषो विषमाभरणम् रणम् ।
भवनं च वनं जातं विना वत्सेन मेऽधुना ।। धर्माभ्युदय, १३/१४४ ६. पद्मपुराण, ११६-११८ सर्ग ७. माष्टि मार्दवगुणेन पाणिना सन्मुखं मुखमुदीक्षते मुदा ।
लेढि जिघ्रति विमूढधीर्वचः श्रोतुमिच्छति धिगारममूढताम् ॥ हरिवंशपुराण, ६३/२२ ८. हरिवंपुशराण, ६३ सर्ग
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रावण की मृत्यु पर लंकावासियों के शोक का वर्णन आचार्य रविषेण ने बहुत ही सुन्दर उत्प्रेक्षा द्वारा दिया है।'
इसी प्रकार के अनेकों वर्णन आदिपुराण', उत्तरपुराण, धर्माभ्युदय महाकाव्य, पद्मानन्द महाकाव्य, शान्तिनाथचरित तथा मल्लिनाथचरित में भी प्राप्त होते हैं ।
इन काव्यों में कई ऐसे करुणास्पद वर्णन भी प्राप्त होते हैं जो पाठकों के हृदय को भी द्रवित कर देते हैं। पद्मपुराण में गर्भवती अञ्जना, किसी गलतफहमी के कारण न केवल अपने पति द्वारा ही; बल्कि सब सम्बन्धियों द्वारा भी त्याग दी जाती है, तो रविषेणाचार्य द्वारा किया गया यह वर्णन कि किस प्रकार असहाय और कान्तिहीन होकर वह वनों में नंगे पैर घूमती है, सभी पाठकों को अधुपूरित कर देता है ।" एक स्थल पर कवि ने वास्तव में एक ही व्यक्ति ( अञ्जना ) में एक साथ अग्नि, जल, आकाश तथा पृथ्वी के गुणों का वर्णन कर अपनी मौलिक काव्यात्मक प्रतिभा को प्रदर्शित किया है। इस प्रकार एक बहुत ही सुन्दर व नूतन उत्प्रेक्षा द्वारा उसके असीम दुःख का वर्णन मार्मिक ढंग से किया गया है।
कवि धनंजय ने अपने द्विसंधान महाकाव्य में राम और युधिष्ठिर की, वन में रहते हुए, दिन व्यतीत करने की अवस्था के वर्णन को, भूतकालिक अवस्था से तुलना करके और भी अधिक कारुणिक बना दिया है।"
केवल जैन संस्कृत महाकाव्यों में ही नहीं, अपितु अन्य संस्कृत साहित्य में भी विनयचन्द्र सूरिकृत मल्लिनाथचरित में राजा हरिश्चन्द्र का अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने वर्णन बहुत ही हृदयावर्जक है । एक राजा की बेबसी, जो अत्यधिक भूख से पीड़ित अपने छोटे पुत्र राजकुमार रोहिताश्व को लड्डू भी न दे सका, पाठकों के हृदय में भी हाहाकार उत्पन्न कर देती है ।" इसी प्रकार महारानी सुतारा भी अपने मालिक से अपने पुत्र को भी साथ ले चलने की प्रार्थना और याचना का, और उसके मालिक का उसके बेटे को पैर मार कर पृथ्वी पर गिराए जाने का वर्णन कठोर से कठोर हृदय को भी द्रवित कर देता है।"
इसी घटना का भावदेव सूरि ने अपने पार्श्वनाथचरित में और भी अधिक मार्मिक और हृदयविदारक रूप से वर्णन किया है।" एक छोटे और भोले-भाले बच्चे का भूखे होने पर भी मोदक की अपेक्षा अपनी मां के साथ रहना अधिक पसन्द करना सारे वर्णन को और भी अधिक करुण बना देता है।" कवि ने यहां बखूबी बहुत स्वाभाविक व सजीव ढंग से एक बच्चे की मनःस्थिति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है।
१. लंकायां सर्वलोकस्य वाष्पदुर्दिनकारिणः ।
शोकेनैव व्यलीयन्त महता कुट्टिमान्यपि । पद्मपुराण, ७८/४५ ]
२. आदिपुराण, ४४ / २६३-२६६
३. उत्तरपुराण, ४८ / ६२
४. धर्माभ्युदय महाकाव्य, ६/४८-४६ और १ / ६८-६६
५. पद्मानन्द महाकाव्य, ४/७६ १००
६. शान्तिनाथचरित, ५/१०१-१०३
७. मल्लिनाथचरित, १/१६६-१७२
८. पद्मपुराण, १६-१७ सर्ग
६. तेजोमयीव संतापाज्जलात्मेवाश्रु सन्ततेः ।
शून्यत्वाद् गगनारमेव पार्थिवीवा क्रियात्मतः । पद्मपुराण, १६ / १६
१०. अपि चीरिकया द्विषोऽभवन्ननु चामीकरदाश्च्युतौजसः ।
कुसुमैरपि यस्य पीडना शयने शार्करमध्यशेत सः ।।
घनसारसुगन्ध्ययाचितं हृदय शैश्चपकेऽम्बु पायितः ।
स विमृग्य वनेष्वनापिवानटनीखात समुत्थितं पपौ ।। द्विसंधान, ४/३६-४०
११. रोहिताश्वस्ततः प्राह तात ! तात ! क्षुधादितः ।
अयोचे पूर्ववत् राजा देहि पुत्राय मोदकम् ।।
देवी सुतारा श्रुत्वेदमन्तर्दाहकरं वचः ।
किमिदं भाषसे स्वामिन् स्वप्नदृष्टसमं ह्हा ।। मल्लिनाथचरित, १/३६०-६१
१२. मल्लिनाथचरित, १/२६२ / ६४
१२. सवाष्प पट्टदेव्यूचे तात ! पुत्र विना मम ।
भविता हृदयं द्वेधा पक्वेर्वारुफलं यथा ॥
मम प्रसादमाधाय गृहाणनं महाग्रहात् ।
अथिनां प्रार्थना सन्तो नान्यथा कुर्वते यतः ॥ भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथ चरित, १/४०१-२ १४. भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथचरित ३ ७७१-७३
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स्पर्शी है । '
करुण रस के प्रसंग में जैन कवियों ने बहुत ही सरल, सरस सुबोध और प्रसादयुक्त शैली का प्रयोग किया है । कान्त कमनीय पदावली का प्रयोग वर्णनों में चार चांद लगा देता है। पहली बार पढ़ने से ही सारा अर्थ स्पष्ट हो जाता है ।
अन्त में यह कहना आवश्यक है कि तीर्थंकर के विषय में करुण रस कहीं भी प्राप्य नहीं है क्योंकि वे दुःख और सुख की अनुभूति
से ऊपर हैं ।
रौद्र रस
इसी प्रकार रोहिताश्व की मृत्यु हो जाने पर सुतारा द्वारा श्मशान का 'कर' दिए जाने की असमर्थता का चित्रण भी बहुत हृदय
जैन संस्कृत महाकाव्यों में रौद्र रस प्रायः राजाओं के वर्णन में ही दृष्टिगोचर होता है । जब एक राजा दूसरे राजा के ऊपर किसी भी प्रकार अपना प्रभुत्व जमाना चाहता है और दूसरा राजा इसका विरोध करता है तो इस प्रकार के वर्णनों में इस रस की निष्पत्ति होती है। एक राजा का दूसरे राजा से 'कर' मांगना या उसकी भूमि को हड़पना या उसकी पत्नी या पुत्री का अपहरण कर लेना या उसका निरादर करना रौद्र रस के मुख्य प्रेरक हैं ।
पद्म पुराण में कुम्भकर्णं द्वारा वैश्रवण की नगरी को लूटने पर और वैश्रवण द्वारा रावण से उसकी शिकायत करने पर रावण के कोपयुक्त उत्तर का वर्णन रविषेणाचार्य द्वारा 'येनायते', 'शरभायते', 'इन्द्रायते' जैसी नामधातु क्रियाओं के प्रयोग से और भी प्रभावशाली हो गया है।'
आदिपुराण में कवि ने बहुत ही आकर्षक ढंग से भरत चक्रवर्ती के अन्धे क्रोध का प्रभावशाली वर्णन किया है जब उसके अपने भाई ही उसके स्वामित्व को अपने ऊपर स्वीकार नहीं करते।
इसी प्रकार जब राजा मधुसूदन, सुप्रभ बलभद्र व नारायण के ऊपर अपना अधिकार जमाना चाहता है तो उनकी क्रोधाग्नि का वर्णन उत्तरपुराण में सरल भाषा में होने पर भी बहुत ओजस्वी व प्रभावशाली बन पड़ा है।*
रावण द्वारा सीता का अपहरण कर लिये जाने पर रावण के प्रति राम का प्रदीप्त क्रोध गुणभद्र द्वारा बहुत ही प्रभावोत्पादक व ओजस्वी ढंग से प्रस्तुत किया गया है । कठोर व संयुक्त शब्दों का तथा लम्बे समासों का प्रयोग रौद्र रस के अनुरूप है ।
धर्माभ्युदय महाकाव्य में 'कवि उदयप्रभसूरि' ने भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय के प्रसंग में उसके द्वारा स्व-नामांकित बाग को मगध नरेश के राज्य में गिराये जाने पर, मगध नरेश की मनःस्थिति की प्रक्रिया को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है । कवि ने दो संक्षिप्त श्लोकों में ही कई उपमाओं का प्रयोग किया है । अन्तिम उपमा बहुत ही मौलिक व प्रभावशाली है।
इसी प्रसंग का वर्णन कवि अमरचन्द्र सूरि द्वारा अपने पद्मानन्द महाकाव्य में भी बखूबी किया गया है। शब्दों द्वारा ही मगध
१. भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ३/१६०-६८
२. कोऽसौ वैश्रवणो नाम को वेन्द्रः परिभाषते ।
अस्मद् गोवक्रमायाता नगरी येन गृह्यते ॥
सोऽयं श्येनायते काकः शृगालः शरभायते ।
इन्द्रायते स्वभृत्यानां निस्त्रपः पुरुषाधमः । पद्मपुराण, ८ / १८१ १८२
३. आदिपुराण, ३४ / ५८- ६०j
४. सुप्रभोऽपि प्रभाजालं विकिरन् दिक्षु चक्षुषोः ।
ज्वालावलिमिव क्रोधपावकाचिस्तताशयः ॥
न ज्ञातः कः करो नाम कि करो येन भुज्यते ।
तं दास्यामः स्फुरत्खड्गं शिरसाऽसौ प्रतीच्छतु ।। उत्तरपुराण ६० / ७४-७५
५. पितृलेखार्थमाध्याय रुद्धशोकः क्रुधोद्धतः ।
अन्तकस्यांकमारोढुं स लंकेशः किमच्छति ॥
शशस्य सिंहपोतेन किं विरोधेऽस्ति जीविका ।
सत्यमासन्नमृत्यूनां सद्यो विध्वंसनं मतेः ॥ उत्तरपुराण, ६८ / २६२-६३
६. जिघृक्षुः को हरेदंष्ट्रा ? कः क्षेप्ता ज्वलने पदम् ?
भ्रान्तारघट्ट चकारमध्ये कः कुरुते करम् ?
एन
अक्षिपन्मार्गण मृत्युमार्गमार्गणदूतवत् ॥ धर्माभ्युदय ४ / २२-२३
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नरेश के क्रोध को ध्वनित किया गया है भाषा में महाप्राण, संयुक्त और कठोर शब्दों का तथा लम्बे समासों का प्रयोग वर्णन की शोभा को द्विगुणित कर देता है।'
बादिराज सूरिकृत पार्श्वनाच चरित में केवल मगध नरेश ही नहीं, बल्कि उनके सिपाही भी कोषाग्नि में जलने लगते हैं।'
जैन संस्कृत महाकाव्यों में अज्ञानवश उपेक्षित किए जाने पर नारद मुनि के क्रोध का वर्णन अनेक स्थलों पर प्राप्त होता हैपद्मपुराण में सीता के प्रसंग में, हरिवंशपुराण में सत्यभामा के प्रसंग में, तथा उत्तरपुराण में अपराजित और अनन्तवीर्य के प्रसंग में नारद मुनि का क्रोध रूपक, उत्प्रेक्षा तथा उपमाओं द्वारा चित्रित किया गया है। उत्तरपुराण में कवि ने तीन उपमाओं द्वारा नारद के क्रोध की तीन अवस्थाओं का निरूपण बहुत कुशलता से किया है। पहली उपमा में क्रुद्ध नारद मुनि की बाह्य आकृति का, दूसरी में उनकी मानसिक अवस्था का तथा तीसरी उपमा में उनके चेहरे की भाव-भंगिमाओं व प्रतिक्रियाओं का वर्णन कवि की काव्य-प्रतिभा का परिचय देता है।
केवल पद्मपुराण में ही हनुमान द्वारा अपने पिता वज्रायुध का नाश किए जाने पर लंकेश सुन्दरी के क्रोध का स्वाभाविक एवं विस्तृत वर्णन किया गया है। केवल इसी उदाहरण में किसी स्त्री का युद्ध में रौद्र रूप दिखलाया गया है ।
क्रमशः अपने शत्रु राम और कृष्ण के समीप आने पर क्रमशः रावण और जरासन्ध के क्रोध का एक साथ वर्णन कवि धनञ्जय ने अपने द्विसंधान महाकाव्य में किया है।" रावण और जरासन्ध की मुखाकृति में तुरन्त ही घटित होने वाले शारीरिक परिवर्तनों का वर्णन कवि की मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने की प्रतिभा को सूचित करता है ।
पुनः इसी काव्य में कवि ने यर्थक शब्दों द्वारा राम / कृष्ण के दूत हनुमान / श्रीशैल के द्वारा राम / कृष्ण के साथ युद्ध न करने का संदेश दिए जाने पर रावण और जरासन्ध की कोपवह्नि का वर्णन अत्यन्त काव्यात्मक व सुन्दर ढंग से किया है । समास-बहुला व महाप्राण संयुक्त अक्षर युक्त भाषा वर्णन के सौंदर्य को बढ़ा देती है। 5 आदिपुराण में जब राजा अकम्पन की पुत्री सुलोचना स्वयंवर में जयकुमार का वरण कर लेती है तो एक अन्य चक्रवर्ती के अर्ककीर्ति का क्रोध भड़क उठता है। कवि के द्वारा प्रयुक्त सभी शब्द व उपमाएँ उसके मिथ्या घमण्ड व अन्धक्रोध को ध्वनित करती हैं।
पुत्र
इन काव्यों में रौद्र रस असहाय व कमजोर व्यक्तियों की सहायता करने के प्रसंग में भी चित्रित किया गया है। द्विसंधान महाकाव्य में साहसगति के अत्याचारों तथा क्रूरताओं को सुनकर राम का क्रोध प्रदीप्त हो जाता है । कवि धनञ्जय ने बहुत ही संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली ढंग से राम को यम, गीष्मर्तु, अग्नि तथा सूर्य से भी अधिक पराक्रमी बतलाया है ।" सारा वर्णन ओजगुण से युक्त है ।
१. धूमोर्णापरिवृढदण्डवत् प्रचण्डापातं तं विशिखमवेक्ष्य मागधेन्द्रः ।
साटोप भृकुटिकरालभालपट्टः प्राकुप्यत् कलितवपू रसो नृ रौद्रः ।। कुञ्जान्तः शयनजुषः सुखं मुखे कः सिंहस्य प्रणिहितवान् हठेन यष्टिम् । ज्वालाभिज्वलति बने भृशं कृशानौ कश्चक्रे चरण निवेशनं विसञ्ज्ञः ॥ तस्याहं हरिरिवहस्तिनः प्रभूतं प्रोद्भूतं मदमपहतं मुद्यतोऽस्मि ।
इत्येषः स्फुरदधरः क्रुधा प्रजल्पन्नुत्तस्थौ पुरत इव स्थिते विरुद्धे । पद्मानन्द, १५ / ७१-७३
२. वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ७ / ५५-६०
३. पद्मपुराण, २८ / १७-१८
४. हरिवंशपुराण, ४२ / २७-३२
५. सूर्याचन्द्रमसौ संहिकेयो वा जनिताशुभ: ।
नृत्तासंगात्कुमाराभ्यां क्रूरः सोऽविहितादरः ।।
जाज्वल्यमानकोपाग्निशिखा संतप्तमानसः ।
चण्डांशुरिव मध्याह्न जज्वाल शुचिसंगमात् ।। उत्तरपुराण, ६२ / ४३२-३२
६. पद्मपुराण, ५२ / ३१-३४
७. ततः समीपे नवमस्य विष्णोः श्रुत्वा बलं संभ्रमदष्टमस्य ।
ऋधा दशन्नोष्ठमरि मनःस्थं गाढं जिघत्सन्निव संनिगृह्य ||
मारगादिवाणास्तदुपाश्रयेण ।
पिव्योवोद्गतधूमराजितं धावेन्द्रायुधमध्य विधानमहाकाव्य १९/१-२
८. द्विसंधान महाकाव्य, १३ / २१-२२
६. आदिपुराण, ४४ / १४-१६
१०. पश्यन्निव पुरः शत्रुमुत्पतन्निव खं मुहुः ।
निगलन्निव दिशाचक्रमुद्गिलन्निव पावकम् ।।
संहरन्निव भूतानि कृतान्तो विहरन्निव । ग्रीष्माग्न्यर्कपदार्थेषु चतुर्थ इव कश्चन ।। द्विसंधान, ६ / ३१-३२
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कभी-कभी द्वेष ईर्ष्याभाव भी रौद्र रस को प्रेरित करते हैं। हरिवंशपुराण में जरासन्ध की कोधान्नि अपने शत्रु यादवों की समृद्धि
को सुनकर भड़क जाती है । '
जयन्तविजय में सिहलनरेश अपने ही व्रत के मुख से राजा विक्रमसिंह के पराक्रम को सुनकर तुरन्त आगबबूला हो जाता है।"
कभी-कभी परिवार में सदस्यों का मतवैमत्य भी क्रोध भड़का देता है । पद्मपुराण में वन जाते समय एक ब्राह्मणी राम, लक्ष्मण और सीता को भोजन व आश्रय देती है लेकिन उसके पति को यह बिल्कुल भी पसन्द नहीं आता और वह केवल उनको ही नहीं निकाल देता, कि अपनी पत्नी पर भी अत्यधिक क्रुद्ध होता है।"
इसी प्रकार का उदाहरण मुनिभद्र- रचित शान्तिनाथचरित में भी प्राप्त होता है जहां रत्नसार वणिक् अपने पुत्र धनद से इस कारण रुष्ट है क्योंकि उसने सहस्र सुवर्ण मुद्राएं देकर एक श्लोक-पत्र खरीद लिया था। *
लापरवाही के कारण एक बहुत ही विस्मयोत्पादक और असाधारण क्रोध का उदाहरण वादिराजसूरि के यशोधरचरित में मिलता है। यहां राजा यशोधर का हस्तिपालक, अपने ऊपर आसक्त उसकी महारानी अमृतवती के साथ, उसके पास निश्चित समय से थोड़ा विलम्ब से आने के कारण, उस पर ( रानी पर ) अविश्वसनीय रूप से क्रोधित होता है। उसके द्वारा रानी के साथ किया गया दुर्व्यवहार उसके रौद्र रूप को प्रकट करता है ।"
पद्मपुराण में रविषेणाचार्य ने एक नवीन प्रकार के क्रोध का वर्णन किया है। जब राम को ज्ञात होता है कि सीता दीक्षा ले रही है और देवताओं ने इस कार्य में उसकी सारी बाधाएं दूर कर दी हैं, तो वे देवताओं पर अत्यधिक क्रुद्ध होते हैं। किसी अन्य जैन साहित्य में भी इस प्रकार का वर्णन प्राप्त नहीं होता ।
वृषभध्वज के तीर्थंकर के जन्म पर स्वर्गलोक में जब इन्द्र का सिंहासन हिलता है, तो उस समय इन्द्र किस प्रकार कोपवह्नि में जलने लगता है--इसका काव्यात्मक व प्रभावोत्पादक वर्णन पद्मानन्द महाकाव्य में किया गया है।" नेत्रों का लाल हो जाना, भृकुटियों का तन जाना, दांतों द्वारा अधर को काटना, शरीर में कम्पन हो जाना, पसीने का बहना आदि सभी अनुभावों का एक साथ समावेश अमरचन्द्रसूरि द्वारा इस वर्णन में बड़ी चातुरी से किया गया है।
रौद्र रस के अनगणित उदाहरण इन काव्यों में दृष्टिपथ आते हैं, लेकिन यहां पर केवल कुछ की ही समीक्षा की गई है। उपरिनिखित उदाहरणों से कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि जैन कवियों ने एक साधारण मनुष्य की मनःस्थिति का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर, अपने काव्यों के मुख्य पात्नों में रौद्र रस चित्रित किया है, जो जैन दर्शन के सर्वथा विपरीत है । यहां यह उल्लेखनीय है कि इसी
१. हरिवंशपुराण ४०/४
२. जयन्त विजय, ६/५०
३. वातानुकूि
उवाच ब्राह्मणी वाचा तक्षन्निव सुतीक्ष्णया ।
अयि पापे किमित्येषामिह दत्तं प्रवेशनम् ।'
प्रयच्छाम्यद्य ते दुष्टे बन्धं गोरपि दुस्सहम् । पद्मपुराण, ३५ / १३-१४
४. शान्तिनाथचरित, ६ / २६-३०
५. विलम्ब्य काल नरनाथपत्नीमुपस्थितां प्रत्युदितप्रकोपः ।
आकृष्य केशग्रहणेन घोरं जघान जारः स वरत्न मुष्ट्या ॥
निकृष्यमाणा भुवि तेन पद्द्भ्यां मलीमसेनाकृतविप्रलापा ।
इतस्ततोऽगात्तमसेव काले निपीड्यमाना दिवि चन्द्रकान्तिः । यशोधरचरित, २/
!
२ / ५२-५३
६. पद्मपुराण, १०५/८७-८८
७. तत. कम्पं तनौ कम्पमानपञ्चाननासनात् ।
संक्रान्तमिव संक्रुद्धः सौधर्माधिपतिर्दधौ । सहस्रनयनस्यासन् शोणा नयनरश्मयः । ज्वाला इवान्तरुद्दीप्तकोपाग्नेनिर्गता बहिः || स्वान्ते समन्ततः कोपज्वलने ज्वलिते द्रुतम् । अभिमानतरोस्तस्य चकम्पेऽधरपल्लवः ॥ रक्तो ललाटपट्टोsस्य स्वेद बिन्दु कुटुम्बितः । अभिसृत्य भृकुट्याssशु श्लिष्टः कलितकम्पया ।
अये कोऽयमकालेsपि कालेनाथ कटाक्षितः ।
यो ममाकम्पयन्मृत्युत्कण्ठी कण्ठीरवासनम् । पद्मानन्द, ७ / ४१२-४१६
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कारण से साहित्यिक दृष्टि से कथानक का अभिन्न अंग होने पर भी काव्य के अध्ययन के पश्चात्, उसका विवेचनात्मक विश्लेषण करने पर पाठक कुछ असाधारण-सा अनुभव करता है ।
वीर रस
जैन संस्कृत महाकाव्यों में युद्धवीर, धर्मवीर और दानवीर के साथ-साथ दयावीर के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं।
युद्धवीर
1
इन काव्यों में युद्धवीर प्रायः राजाओं के वर्णनों में ही प्राप्त होता है ये राजा यद्यपि अहिंसात्मक दृष्टिकोण रखते थे, लेकिन फिर भी अपनी और अपने राज्य की रक्षा के लिए हमेशा युद्ध तत्पर रहते थे । यद्यपि वे स्वयं युद्ध में पहल नहीं करते थे लेकिन शत्रु द्वारा युद्ध के आह्वान पर ईंट का जवाब पत्थर से देने में अटूट विश्वास रखते थे । एक योद्धा का युद्ध में विजय प्राप्त करना या लड़ते-लड़ते मृत्यु की गोद में सो जाना, परम कर्त्तव्य समझा जाता था । "
यह उल्लेखनीय है कि महाकाव्यों की अपेक्षा पुराणों में वीर रस का वर्णन अधिक विस्तृत तथा प्रभावशाली है। जैन महाकाव्यों में युद्धवीर के उदाहरण कवियों द्वारा, किसी राजा के पराक्रम-वर्णन, उसकी सेना के वर्णन, युद्ध में वीरता प्रदर्शन तथा युद्ध - -क्षेत्र के वर्णन में अधिकतर प्राप्त होते हैं ।
वैश्रवण द्वारा लंका पर आधिपत्य जमा लेने पर विभीषण द्वारा अपनी निराश और निरुत्साहित माता कैकसी को, अपने भाई रावण के पराक्रम का वर्णन कर सांत्वना दी गई है।' यहां प्रयुक्त रूपकालंकार रविषेणाचार्य की अद्भुत कल्पनाशक्ति का उद्घोष करता है ।
केवल पद्मपुराण में ही एक स्त्री के युद्धकौशल का वर्णन दिया गया है। अपने पति नपुष की अनुपस्थिति में सिंहिका न केवल आक्रामक राजाओं को ही पराजित करती है बल्कि अन्य राजाओं को भी अपने वश में कर लेती है ।
रविषेणाचार्य ने 'सांगरूपकालंकार' का प्रयोग करके, सरल भाषा में एक छोटे-से 'अनुष्टुप्' द्वारा युद्धक्षेत्र में रावण के पराक्रम का विस्तृत वर्णन किया है । ४
कवि धनञ्जय ने एक ही श्लोक में रावण और जरासन्ध की, युद्धक्षेत्र में वीरता का वर्णन किया है। यह कवि की आशातीत कल्पनाशक्ति और प्रतिभा का सूचक है। "
दूसरी श्रेणी के महाकाव्यों में कवियों द्वारा दिए गए अपने नायकों के पराक्रम वर्णन में अनेक प्रकार की मौलिक और नवीन कल्पनाओं का कुशलता से प्रयोग किया गया है ।
राजा महासेन के पराक्रम का वर्णन कवि हरिश्चन्द्र ने अपने धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में बहुत ही अलंकारिक भाषा में किया है।' कवि 'पुनः महासेन की तलवार का वर्णन करने में कल्पनाम्बर में उड़ता हुआ सा प्रतीत होता है। विस्तृत तथ्यों का वर्णन इतने अल्प शब्दों में करना, संस्कृत भाषा के प्रयोग पर उसका आधिपत्य प्रमाणित करता है ।"
पुनः यह सीधा-सादा सा वर्णन करने के लिए कि महासेन राजा के शत्रु उसकी तलवार द्वारा किस प्रकार छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दिए गए, कवि पुनः नवीन कल्पना का आश्रय लेता है । 'द्विज' शब्द पर श्लेष है । इस वर्णन में कवि ने कृत्रिम और दुर्बोध भाषा का
१. संग्रामे शस्त्रसंपातजातज्वलनजालके ।
वरं प्राणपरित्यागो न तु प्रतिनरानति ॥ पद्मपुराण, २/१७७
२. राजमार्गों प्रतापस्य स्तम्भो भुवनवेश्मनः ।
अंकुरी दर्पवृक्षस्य न ज्ञातावस्य ते भुजी ।। पद्मपुराण, ७ / २४६ पद्मपुराण, २२/११६-११८,
४. प्रेरितः कोपवातेन दशाननतनूनपात् ।
शस्त्रज्वालाकुल: शत्रुसैन्यकक्षे व्यजृम्भत । पद्मपुराण, ८ / २१६
५. एभिः शिरोभिरतिपीडितपादपीठः संग्रामरंगशवनर्त्तनसूत्रधारः ।
तं कंसमातुल इहारिगणं कृतान्त दन्तान्तरं गमितवान्न समन्दशास्यः । द्विसंधान, ११ / ३८
६. नियोज्य कर्णोत्पलवज्जयश्रिया कृपाणमस्योपगमे समिद्गृहे ।
प्रतापदीपाः शमिता विरोधिनामहो सलज्जा नवसंगमे स्त्रियः । धर्मशर्माभ्युदय, २ / १२
19.
निपीतमातंगघटाय शोणिता 'दृढावगूढा सुरतार्थिभिर्भटैः ।
किन प्रतापनमासदत्तमित्यमस्वामि
धर्मशर्माभ्युदय २ / १२
जैन साहित्यानुशीलन
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प्रयोग किया है।'
लेकिन ऐसा नहीं है कि कवि ने हमेशा अलंकारिक और कठिन भाषा का ही प्रयोग किया है। कभी-कभी कवि की भाषा सरल और सुबोध होने पर भी ओजस्वी और प्रभावशाली है। कवि ने युद्धक्षेत्र का वर्णन नवीन कल्पना द्वारा किया है।' यहाँ 'पुण्डरीक' और ‘शिलीमुख' पर श्लेष है । लेकिन एक सुन्दर श्लेष का प्रयोग करने की उत्सुकता में कवि यह भूल गया कि कमल समुद्र में उत्पन्न नहीं होते । नेमिनिर्वाण महाकाव्य में कवि वाग्भट्ट ने राजा समुद्रविजय की वीरता का वर्णन उसके अनुरूप ही भाषा-शैली में किया है। इसमें श्रुतिकटु, संयुक्त, अर्द्धरेफ, कठोर और महाप्राण अक्षरों का प्रयोग हुआ है । लम्बे-लम्बे समासों तथा ओज गुण का प्रयोग वर्णन के सौन्दर्य में चार चांद लगा देता है। कवि, शब्दों द्वारा ही अर्थ की प्रतीति कराने में सफल हुआ है।
अभयदेवसूरि ने अपने जयन्तविजय महाकाव्य में राजा विक्रमसिंह के पराक्रम का वर्णन एक उपभा द्वारा किया है। उसकी कृपाण की यम की जिह्वा से तुलना, कवि की मौलिक प्रतिभा का उदाहरण है ।"
धर्माभ्युदय में कवि उदयप्रभसूरि ने बाहुबलि की वीरता का वर्णन एक निराले व्यतिरेक द्वारा दिया है। कवि वास्तव में प्रशंसा का पात्र है कि इतनी सरल और और प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग करके भी उसने इतना ओजस्वी और प्रभावशाली वर्णन किया है। पद्मानन्द महाकाव्य में अमरचन्द्रसूरि का, अद्वितीय और नवीन 'मालोपमा' की सहायता से, बाहुबलि के अनुपम बल का वर्णन, उसके विस्तृत अनुभव और काव्यचातुरी का सूचक है।'
शत्रु द्वारा चुनौती दिए जाने पर, इन काव्यों के नायक स्वाभिमान को प्रदर्शित करने के लिए आत्म-प्रशंसा करने में भी नहीं हिचकिपाते थे। आदिपुराण में जब भरत चक्रवर्ती अपने भाई बाहुबलि के पास या तो उसका आधिपत्य स्वीकार करने या युद्ध करने का संदेशा भेजता है, तो बाहुबलि का स्वाभिमान तुरन्त जाग्रत हो जाता है। वह या तो युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करने में या विजय प्राप्त करने में ही विश्वास रखता है। एक राजा के लिए इन दो मार्गों में से एक को ही चुनना शोभा देता है।
इसी प्रकार 'चन्द्रप्रभचरित' में वीरनन्दी कवि ने, राजकुमार अजितंजय के मुख द्वारा ही उसकी अद्भुत वीरता का परिचय करवाया है, जब वह अज्ञानवश एक पर्वत पर चढ़ जाता है और पर्वत देवता उसे डराने-धमकाने का प्रयत्न करता है।" अल्पायु होने पर भी वीरता उसमें कूट-कूट कर भरी हुई है।
वसन्तविलास महाकाव्य में जब राजा शंख का दूत, वस्तुपाल मंत्री को चुनौती देता है तो उसके उत्तर में मंत्री, 'रूपकालंकार'
१. तदीयनिस्त्रिशलसद्विधुं तुदे वलाद्गिलत्युद्यतराजमण्डलम् ।
निमज्ज्य धारासलिले स्वमुच्चकैर्ददुद्विजेभ्यः प्रविभज्य विद्विषः । धर्मशर्माभ्युदय, २ /१६
२.हरीकरणाम्।
निपेतुस्तव योधानां तत्र तत्र शिलीमुखा: ।। धर्मशर्माभ्युदय, १६ / ६५
३. झलझलदिग्गजकर्णकीर्णवर्तिरिवाशासु सदा प्रदीप्तः ।
यस्यारिभूभृद्वनवंशदाहे प्रतापवह्निः पटुतां बभार ॥ नेमिनिर्वाण, १ / ६०
४. यस्याहवे वैरिकरीन्द्रकुम्भस्थली गलत्तारक रम्बितांगः |
रेजे कृपाणोऽरिकुलं जिगीषार्यमस्य जिह्व व सदन्तपंक्तिः ॥ जयन्त विजय, १ / ६१
५. पटाञ्चलेन चेद् भानुश्छाद्य: स्यात् तरुणच्छविः ।
यदि ज्वालाकुलो वह्निर्भवेद् ग्राह्यश्च मुष्टिना ॥ ताजस्ता
उत्कषिपौरुषो नान्यैर्जेतुं शक्यः सुरैरपि । धर्माभ्युदय, ४ / २६५-६६
६. पञ्चाननस्येभघटामभित्त्वा पराक्रमः को मृगमर्दनेन ?
प्रचण्डवायोरचलानकृत्वा चलान बलं कि तृणकर्षणेन ? अरं नरस्यानभिभूय लोभं किमद्भुतं दोषविभोषणेन ?
देवस्य कि दिग्विजयेन बाहुबल न चेद् बाहुबलिजितोऽसौ । पद्मानन्द, १७/१५-१६
७. स्वदोर्दुमफलं श्लाघ्यं यत्किञ्चन मनस्विनाम ।
न चातुरन्तमध्येश्यं परभ्र लतिकाफलम् ||
पराज्ञोपहतां लक्ष्मी यो वाञ्छेत् पार्थिवोऽपि सन् ।
सोऽपपार्थयति तामुक्तिं सर्पोक्तिमिव डुण्डभः ।। आदिपुराण, ३५ / ११२-१३
८. चन्द्रप्रभचरित ६/२१-२२
६. दूत ! रे वणिगहं रणट्टे विश्रुतोऽसि तुलया कलयामि ।
मोलिभाण्डपटलानि रिपूणां स्वर्गवेतनमथो वितरामि । वसन्तविलास, ५ / ४४
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द्वारा जो कुछ भी कहता है, वह कवि की अपनी ही मौलिक कल्पना है। इस प्रकार का अद्वितीय, अनुपम, दुर्लभ व आशातीत काल्पनिक वर्णन न तो किसी अन्य जैन और न ही किसी जैनेतर साहित्य में प्राप्त होता है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में युद्धों के वर्णन में भी वीर रस अधिकता से प्राप्त होता है । पद्मपुराण में सरल भाषा के प्रयोग के बावजूद यह वर्णन कि किस प्रकार एक योद्धा दूसरे योद्धा को प्रेरित कर रहा है, बहुत ही आकर्षक, हृदयग्राही और प्रभावशाली है।' मध्यम पुरुष, लोट् लकार का प्रयोग वर्णन-शोभा को बढ़ाता है । छिन्धि, भिन्धि, क्षिप, उत्तिष्ठ, तिष्ठ, दारय, धारय, चूर्णय, नाशय, सहस्व, दत्तस्व उच्छ्रय कल्पय में 'अनुप्रास' भाषा को संगीतमय बनाकर श्रुतिमय भी बना देता है। लेकिन ऐसा नहीं कि यह वीर रस के अनुचित है। क्योंकि ओज गुण उसी प्रभावशाली ढंग से विद्यमान है।
जिनसेनाचार्य ने जयकुमार की दुर्लंघ्य युद्ध-शक्ति को बहुत यथार्थ व सजीव उपमा द्वारा चित्रित किया है। तिरोहित सर्प, निस्संदेह छिपे हुए शत्रु सैनिकों की तरफ संकेत करता है।
चन्द्रप्रभचरित के रचियता वीरनन्दि का राजा पद्मनाभ और राजा पृथ्वीपाल के युद्ध का चित्रण एक साथ चलन:, वलन:, स्थान:, वल्गनैः और वञ्चन: के प्रयोग से और भी सुन्दर बन पड़ा है।
___ मल्लिनाथचरित में विनयचन्द्रसूरि द्वारा प्रस्तुत युद्ध-वर्णन संक्षिप्त होते हुए भी बहुत प्रभावशाली है । कवि ने अल्प शब्दों में ही युद्ध की समस्त बातों का वर्णन कर 'गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ किया है। यहां दन्तादन्ति, खड्गाखड्गि तथा तुण्डातुण्डि का प्रयोग दर्शनीय है।
कवि बालचन्द्रसूरि ने वसन्तविलास महाकाव्य में राजा शंख और वस्तुपाल मन्त्री के मध्य हुए युद्ध का विस्तृत वर्णन इतने प्रभावशाली ढंग से किया है कि केवल पढ़ने मात्र से युद्ध-क्षेत्र का समस्त दृश्य हमारी आंखों के सामने ज्यों का त्यों घूम जाता है । लम्बे-लम्बे समासों, श्रुतिकटु, महाप्राण और संयुक्त शब्दों तथा ओज गुण की उपस्थिति वर्णन की शोभा को चौगुना कर देती है।
इन महाकाव्यों में सेना के प्रस्थान के वर्णन में भी वीररस प्राप्त होता है। धनञ्जय ने रावण/ जरासन्ध की सेना का राम कृष्ण की सेना के प्रति प्रयाण का बहुत ही सुन्दर चित्रण अपनी अद्भुत काव्य-प्रतिभा से किया है।
___इसके विपरीत गुणभद्राचार्य ने राम की सेना का लंका के प्रति प्रयाण का वर्णन विस्तृत रूप से किया है। इसके प्रत्युत्तर में रावण के सैनिक भी उतने ही शौर्य और उत्साह से आगे बढ़े।
जैसा कि पहले भी निर्देश किया जा चुका है कि वीर रस के वर्णन में कवि वीरनन्दि ने अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति और प्रतिभा का प्रकाशन किया है। इसी प्रकार का एक वर्णन राजा पद्मनाभ के सैनिकों के विषय में दिया गया है जब उन्हें पता चलता है कि उन्हें पुनः युद्ध के लिए प्रस्थान करना है ।।
इसी प्रकार बालचन्द्रसूरि द्वारा अपने वसन्तविलास महाकाव्य में विराधबल की सेना के पराक्रम तथा उत्साह का चित्रण बखूबी
१. गहाण प्रहरागच्छ जहि व्यापादयोद्गिरः । छिन्धि भिन्धि क्षिपोत्तिष्ठ तिष्ठ दारय धारय ।। वधान स्फोटयाकर्ष मुञ्च चूर्णय नाशय ।
सहस्व दत्स्व निःसर्प सन्धत्स्वोच्छय कल्पय ।। पद्मपुराण, ६२/४०-४१ २. तदा रणांगणे वर्षन् शरधारामनारतम् । स रेजे धृतसन्नाहः प्रावृषेण्य इवाम्बुदः । तन्मुक्ता विशिखा दीपा रेजिरे समराजिरे। द्रष्टुं तिरोहितान्नागान् दीपिका इव बोधिता: ।। आदिपुराण, ३२/६९-७० ३. चलनवलन: स्थानवल्गनैमर्मवञ्चनैः ।।
तयोरमूद्धनुर्युद्ध' दृप्तदोर्दण्डचण्डयोः।। चन्द्रप्रभचरित, १५१२३ ४. गजा गरयुध्यन्त योधा योधै रथा रथैः ।
दन्तादन्ति खड्गाखड्गि तुण्डातुण्डि यथाक्रमम् ।। मल्लिनाथचरित, २/१६६ ५. वसन्तविलास महाकाव्य, ५,५०-५३ ६. द्विसंधान महाकाव्य, १६८ ७. उत्तरपुराण, ६८/४७१-४७२ ८. उत्तरपुराण, ६८/५५७-५५८ ६. हुष्यदंगतया सद्यः स्फुटत्पूर्व रणवणः ।
वीरवीररसाविष्ट: संनदध मपचक्रमे ।। चन्द्रप्रभचरित, १५/५
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किया गया है।'
युद्ध के पश्चात् युद्ध-क्षेत्र के दृश्य का वर्णन चन्द्रप्रभचरित में कवि बहुत ही आकर्षक और सजीव ढंग से करता है। एक सुन्दर रूपक के प्रयोग से कवि उदयप्रभसूरि का युद्ध-क्षेत्र-वर्णन बहुत ही नवीन व प्रभावशाली बन गया है।'
जैन संस्कृत महाकाव्यों में वीर रस के प्रसंग में अस्त्र और शस्त्र दोनों का ही उल्लेख मिलता है । युद्ध में प्राय: धनुषबाण और तलवार का ही प्रयोग किया जाता था। कभी-कभी दण्ड, चक्र, गदा, कृपाण, तोमर, मुद्गर, खड्ग व तुण्ड का निर्देश भी मिलता है। केवल हाथी और घोड़ों का ही युद्ध-क्षेत्र में प्रयोग किये जाने का उल्लेख अनेकशः मिलता है।
धर्मवीर
इन काव्यों में श्रेष्ठ लोग अपने प्राणों को देकर भी अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने में विश्वास करते थे।
सीता का पतिव्रत धर्म सर्वविदित ही है । पद्मपुराण में जब रावण साम और दान द्वारा भी सीता का मन राम से विमुख नहीं कर पाता तो वह 'दण्ड' का आश्रय लेता है। विभिन्न कष्टप्रद और असहनीय यातनाओं को भी सीता हँसते-हँसते सह जाती है, लेकिन अपने पति राम के अतिरिक्त किसी भी अन्य पुरुष के विषय में सोचना भी पाप समझती है।
इसी प्रकार गुणभद्राचार्य ने भी सीता का अपने पतिव्रत में दृढ़ विश्वास का वर्णन इतनी सुन्दरता से किया है कि रावण की बहिन शूर्पणखा भी सीता का उत्तर सुनकर आश्चर्यचकित हो जाती है। जब विद्याधरी उसको बार-बार रावण से विवाह के लिए अनेकों लालच भी देती है, डराती-धमकाती भी है और अनेक यातनाएं भी देती है, तो सीता न तो बोलने और न ही अन्न-जल ग्रहण करने की प्रतिज्ञा कर लेती है।
महान लोग अपने कुल के यश की रक्षा के लिए अपने प्रिय व्यक्ति या वस्तु का त्याग करने में भी नहीं हिचकिचाते । यद्यपि राम का सीता के प्रति अगाध प्रेम और विश्वास है, लेकिन फिर भी रावण के यहां रहने के कारण, चूंकि कुछ लोगों ने उसकी पवित्रता की तरफ उंगली उठाना प्रारम्भ कर दिया, अत: राम ने अपने कुल-मर्यादा की रक्षा के लिए उसे जंगलों में निष्कासित कर दिया।
धर्माभ्युदय महाकाव्य में किसी विशेष सिद्धि को प्राप्त करने के लिए, अपराजिता देवी को प्रसन्न करने के लिए, एक योगी, अनंगवती नामक राजकुमारी की जब बलि देना चाहता है, तो राजा अभयंकर अचानक वहां पहुंच जाता है और उस अजनबी राजकुमारी को योगी के चंगुल से छुड़ाने के लिए, वह स्वयं को समर्पित कर देता है । जैसे ही वह अपना सिर स्वयं काटने के लिए तत्पर होता है, उसके हाथ निश्चेष्ट हो जाते हैं। देवी प्रसन्न हो उसे एक वरदान मांगने को कहती है। इस पर राजा जो उत्तर देता है, वह वास्तव में अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने का नवीन, अनूठा और अद्वितीय उदाहरण है, जो अन्यत्र किसी भी साहित्य में दुर्लभ है।
कहीं-कहीं निम्न कोटि के पात्रों में भी धर्मवीर प्राप्त होता है। उत्तरपुराण में एक किरात मांस न खाने की प्रतिज्ञा भंग करने की अपेक्षा अपने प्राणों का त्याग करना ज्यादा अच्छा समझता है।
दानवीर
इन महाकाव्यों में इस प्रकार का वीर रस दो प्रसंगों में प्राप्त होता है । एक तो कवियों द्वारा दिए गए राजाओं के दान देने के
१. वसन्त विलास महाकाव्य, ५/१७ २. क्वचित्पतितपत्त्यश्वं क्वचिद्भग्नमहारथम् ।
क्वचिदभिन्नेभमासीत्तदुःसंचारं रणाजिरम् ॥ चन्द्रप्रभचरित, १५/६० ३. भुजाभृतां भुजादण्डैः शिरोभिश्च क्षितिच्युतः ।
कृतान्तकिकराश्चऋ दण्ड कन्दुककौतुकम् ॥ धर्माभ्युदय, ४/२६४ ४. पद्मपुराण, ४६/६४-१०१ ५. उत्तरपुराण, ६८/१७५-१७८ ६. उत्तरपुराण, ६८/२१६-२२४ ७. पद्मपुराण, ६७/१८-२१ 5. यदि भग्नप्रतिज्ञोऽपि जीवलोकेऽत्र जीवति । वद तद्देवि ! को नाम मृत इत्यभिधीयताम् ।। ततस्त्वं यदि तुष्टाऽसि तत्प्रया हि यथाऽऽगतम् । शिरश्छेदाक्षमोप्येष विशाम्यग्नौ यथा स्वयम् ॥ धर्माभ्युदय, १/२७६-२७७ ६. उत्तरपुराण, ७४३६७-४००
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गुण-वर्णन में और दूसरे जहां कोई अपनी अभीष्ट वस्तु को भी बिना हिचकिचाहट के दूसरे के द्वारा मांगे जाने पर दे देता है। धर्माभ्युदय में राजा अभयंकर अपने मंत्री सुमति के बार-बार मना करने पर भी, बहुत प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की गई अपनी 'खड्गसिद्धि विद्या' राजा नृसिंह को दे देता है और अपने अमात्य को भी दान का महत्त्व बतलाता है।'
शान्तिनाथ चरित में मेघरथ एक चिड़िया को शिकारी के चंगुल से बचाने के लिए अपने शरीर का मांस उसे दे देता है। 'दानवीर' का दूसरी प्रकार का उदाहरण धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में राजा महासेन के दान-पक्ष को उजागर करने के लिए दिया
गया है।'
महासेनाचार्य ने यही वर्णन राजा उपेन्द्र के विषय में अधिक काव्यात्मक तथा अलंकारिक ढंग से किया है।
दयावोर
इन काव्यों में 'दयावीर' एक ही प्रसंग में मिलता है जबकि कोई महान् पुरुष अजनबी लोगों की आपत्ति को देखकर दयार्द्र हो जाते हैं और अपने जीवन को भी खतरे में डालकर, उसकी रक्षा करते हैं । इस प्रकार का एक उदाहरण पद्मपुराण में प्राप्त होता है जहां रत्नचूला विद्याधरी अञ्जना और वनमाला के ऊपर, एक भयानक सिंह द्वारा आक्रमण किये जाने पर, दयाद्रवित हो, अपने पति मणिचूल से उनको बचाने की प्रार्थना करती है, यद्यपि उन दोनों स्त्रियों से वह बिलकुल अपरिचित है।
इसी प्रकार नेमिनाथ तीर्थकर, अपने विवाह के अवसर पर मारे जाने वाले पशुओं के कारुणिक रोदन को सुनकर करुणाभिभूत हो जाते हैं और विवाह किए बिना तुरन्त ही दीक्षा ले लेते हैं।'
अनुरूप भाषा-शैली, पदावली तथा ओज गुण का प्रयोग करने के कारण, वीर रस का सौन्दर्य कहीं अधिक बढ़ गया है।
भयानक रस
___ जैन संस्कृत के महाकाव्यों में भयानक रस प्रायः पशुओं, ऋतुओं, वनों, युद्धों, भयानक आकृतियों, प्रेतात्माओं और नरक के प्रसंग में चित्रित किया गया है।
रविषेणाचार्य ने बहुत ही स्वाभाविक और सजीव चित्रण द्वारा एक शेर की भयंकरता का वर्णन किया है जो वन में अचानक ही अञ्जना और उसकी सखी वनमाला के समक्ष भय की साक्षात् मूर्ति बन कर उपस्थित हुआ। कवि द्वारा प्रयुक्त 'संदेहालंकार' का प्रयोग वास्तव में बहुत ही सुन्दर है। कवि का यह वर्णन इतना सजीव और यथार्थ है कि पाठक का मन भी भय से कांप उठता है। श्रुतिकटु, संयुक्त महाप्राण वर्गों का तथा लम्बे-लम्बे समासों का प्रयोग वर्णन की शोभा में और भी अधिक वृद्धि कर देता है।
एक अन्य स्थल पर भी एक भयंकर शेरनी का वर्णन उतना ही सजीव तया भयोत्पादक है । कवि की कल्पना भी प्रसंगानुकूल है। विद्युतक्ष द्वारा एक बन्दर को मार दिए जाने पर इसी प्रकार का भयप्रद व स्वाभाविक वर्णन पुन: कवि ने अन्य बन्दरों द्वारा
१. धर्माभ्युदय, २/१५०-१५२ २. शान्तिनाथरित, १२/२० ३. असक्तमाकारनिनीक्षणादपि क्षणादभीष्टार्थकृतार्थितार्थिनः ।
कुतश्चिदातिथ्यमियाय कर्णयोनं तस्य देहीति दुरक्षरद्वयम् ।। धर्म शर्मा युदय, २/१३ ४. मनोरथानामधिकं विलोक्य त्याग यदीयं जगते हिताय ।
कल्पद्रुमैीडितया विलिल्ये तथा यथाद्यापि न जन्मलाभः ।। प्रद्य म्नचरित, १/४३ ५. पद्मपुराण, १७/२४४-२४५ ६. हरिवंशपुराण, ५५/८८-८९; उत्तरपुराण, ७१/१६१-१६४ ७. अथ धूतेभकीलालशोणकेसरसंचयः ।
मृत्युपत्रांगुलिच्छायाँ भृकुटि कुटिलां दधत् ।। पद्मपुराण, १७/२२४
जीवाकर्षां कुशाकारां दंष्ट्रां तीक्ष्णाग्रसंकराम् ।। कुटिला धारयन् रौद्रां मृत्योरपि भयंकराम् ॥ पद्मपुराण, १७/२२७ X
X मृत्युदत्यः कृतान्तो नु प्रतेशो न कलिः क्षयः ।
अन्तकस्यान्तको नु स्याद् भास्करो नु तनूनपात् ॥ पद्मपुराण, १७/२३० ८. पद्मपुराण, २२/८६-८८
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बदला लेने के प्रसंग में भी किया है।"
" कवि गुणभद्र द्वारा उत्तरपुराण में दिया गया कालीय नाग का वर्णन भी बहुत औचित्यपूर्ण तथा पाठक के हृदय को भी दहला देने
वाला है।
पुराणों की अपेक्षा महाकाव्य में पशुओं की भयंकरता का वर्णन कम है। चन्द्रप्रभचरित में 'गजकेलि' नामक हाथी का वर्णन कवि वीरनन्दि द्वारा किया तो गया है, लेकिन यह हृदय पर अमिट छाप छोड़ने वाला नहीं कहा जा सकता । ३
धर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि उदयप्रभरि ने लम्बे समासों, कठोर, संयुक्त व महाप्राण अक्षरों का प्रयोग कर एक शेर की भयानकता का वर्णन अधिक कुशलता से किया है । *
ऋतुओं की प्रचण्डता का वर्णन पुराणों में कहीं भी प्राप्त नहीं होता । वादिराज सूरि ने ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्डता का काव्यात्मक और प्रवाहमय वर्णन किया है । वर्णन पढ़ने मात्र से ही सबके द्वारा अनुभव किए जाने वाले, ग्रीष्म ऋतु के दुःखों, कष्टों व पीड़ाओं का अहसास हो जाता है।
अभयदेव सूरि ने प्रसंगानुकूल भाषा व समासों का प्रयोग कर ग्रीष्म ऋतु के वर्णन को साहित्यिक दृष्टि से भी अधिक प्रभावशाली
बना दिया है।
भरत चक्रवर्ती की सेना को पीड़ित करने के लिए किरातों द्वारा की गई भीषण शर-वर्षा का वर्णन कवि उदयप्रभसूरि ने बहुत ही स्वाभाविक और सजीव रूप से प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार वर्षा की भयंकरता का वर्णन भावदेव सूरिकृत पार्श्वनाथचरित में भी प्राप्त होता है। यहां कवि की कल्पना अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर है। 5
कवि रविषेण ने हृदय को कंपा देने वाला, वन की भयंकरता का चित्रण अपने पद्मपुराण में किया है। इसी प्रकार एक-दूसरे स्थल पर भी दुर्गम वन में रहने वाले, अनेकों भयंकर पशुओं की भयंकरता का निरूपण भी कवि द्वारा काव्यात्मक रूप से दिया गया है। शब्दों द्वारा ही कवि अर्थ की प्रतीति कराने में सफल हुआ है।"
कवि धनञ्जय ने अपने द्विसंधान महाकाव्य में 'अतिशयोक्ति अलंकार' प्रयोग कर एक तरफ राम-लक्ष्मण और खर-दूषण में होने वाले और दूसरी ओर अर्जुन, भीम और कौरवों के मध्य होने वाले युद्ध की भयंकरता का बहुत ही सुन्दर वर्णन, एक नवीन व प्रसंगानुकूल उपमा द्वारा किया है। '
युद्ध समाप्त हो जाने पर, सेनाओं द्वारा किए गए भारी विनाश का वर्णन भी उसी काव्य में दिया गया है। कवि की कल्पना और उचित विशेषणों के प्रयोग से वर्णन के सौन्दर्य में वृद्धि हो गई है। "
१. पद्मपुराण, ६ / २४५-४७
२. उत्तरपुराण, ७० / ४६७-६९
३. चन्द्रप्रभचरित, ११ / ८२-८३
४. धर्माभ्युदय, ११ / ४१६-१८
५. वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ५ / ६७-६८
६. गिरिदवानलदग्ध वनोद्भवं भ्रमति भस्मसितं विततीकृतम्।
जगति बन्दिजनैरिव वायुभियंश दवोष्ण ऋतोरवनीपतेः ।।
खररुचे रुचिभिः परितापितैः प्रकुपितैरिव मण्डलमादधे ।
अनिलतो वितर्तदिवरेणुभिः कलितपाकपलाशदलोपमम् । जयन्तविजय, १८/१३-१४
७. रसन्तो विरसं मेधा भुक्तं वार्धे जलैः समम् ।
उद्वमन्तो व्यलोक्यन्त वाडवाग्नि तच्छिलातू ।
धारामुशलपातेन खण्डयन्त इव क्षितिम् ।
राक्षसा इव तेऽभूवन् घना भीषणमूर्तयः ॥ धर्माभ्युदय, ४ / ८३-८४
८. भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, २ / १५६-५८
६. पद्मपुराण, ७/२५८-६१
१०. वही, ३३ / २३ - २६
११. द्विसंधान महाकाव्य, ६/१६-१७
१२. पतितसकलपना तत्र कीर्णारिमेदा वनततिरिव रुग्णा सामजैभू मिरासीत् ।
निहत निरवशेषा स्वांगशेष । वतस्थे कथमपि रिपुलक्ष्मीरेकमूला लतेव ॥ द्विसंधान, १६ / ६५
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्रद्युम्नचरित में महासेनाचार्य द्वारा युद्धक्षेत्र की भयानकता कुशलतापूर्वक पूर्ण रूप से चित्रित की गई है।'
हरिवंशपुराण में श्रीकृष्ण को मारने के लिए अचानक प्रकट हुई ताण्डवी नामक राक्षसी का भयोत्पादक वर्णन बहुत कुशलता से, कवि जिनसेन ने किया है।'
इसी प्रकार एक प्रेत की भयानक आकृति का वर्णन शान्तिनाथचरित में भी प्राप्त होता है।
रावण के कठोर तप को देखकर, यक्षों द्वारा उस पर ढाई गई भयानक विपत्तियों का वर्णन रविषेणाचार्य ने पद्मपुराण में बखुबी किया है।
उत्तरपुराण में गुणभद्र ने राजा वसु के झूठ बोलने पर, चारों तरफ हाहाकार और भय उत्पन्न करने वाली प्राकृतिक दुर्घटनाओं एवं राजा पर आई हुई विपत्तियों और उसके सहित उसके सिंहासन का रसातल को चले जाने का वर्णन बहुत ही हृदयस्पर्शी व सुन्दर ढंग से किया है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों में महापुरुषों द्वारा दिए गए उपदेश में जनसाधारण को अनुचित कार्य करने से रोकने के लिए, नरक की भयानकताओं व यातनाओं का वर्णन, कवियों द्वारा बहुत ही रोमञ्चकारी ढंग से दिया गया है। पद्मपुराण में नरक में दिए जाने वाली असंख्य यातनाओं का वर्णन कवि रविषेण द्वारा इतने विशद, स्पष्ट और प्रभावोत्पादक ढंग से किया गया है कि कोई स्वप्न में भी नरक में ले जाने वाले कार्यों को करने के लिए सोचेगा भी नहीं ।।
जिनसेनाचार्य के आदिपुराण में भी इस प्रकार का नरक का भयोत्पादक वर्णन प्राप्त होता है।
महाकाव्यों में इस प्रकार के वर्णन बहुत कम प्राप्त होते हैं। तीर्थकर जब उपदेश के दौरान विभिन्न गतियों का वर्णन करते हैं तो उसमें प्रसंगवश नरक निवासियों का भी वर्णन संक्षेप से करते हैं। इसी कारण, प्रद्युम्नचरित, वसन्तविलास, जयन्तविजय और धर्माभ्युदय महाकाव्यों में चूंकि जैन दर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया गया है । अत: इस प्रकार के वर्णन भी प्राप्त नहीं होते ।
धर्मशर्माभ्युदय में नरक-वर्णन संक्षिप्त होने पर भी प्रभावशाली है। एक ही अनुष्टुप् में पाययन्ति, घ्नन्ति, बध्नन्ति, मथ्नन्ति तथा दारयन्ति का प्रयोग दर्शनीय है।
सीता की अग्नि-परीक्षा के लिए प्रज्वलित प्रचण्ड अग्नि का वर्णन 'संदेहालंकार' के द्वारा रविषेणाचार्य ने इतने सुन्दर ढंग से किया है कि उसके पढ़ने मात्र से ही पाठक के दिल में भी भय का समावेश पूर्ण रूप से हो जाता है। कवि की कल्पनाएं भी नवीन हैं ।
हरिवंश पुराण में मद्य के नशे में जब यादव राजकुमार तपस्यालीन मुनि द्वैपायन को पीट देते हैं तो बदला लेने की इच्छा से मुनि किस तरह सारी द्वारका नगरी को उसके निवासियों सहित, क्रूरतापूर्वक अग्नि में भस्म कर देते हैं, इसका सजीव, यथार्थ व भयोत्पादक वर्णन कवि जिनसेन द्वारा अपने हरिवंशपुराण में दिया गया है।
त्रिषष्टि शलाका-पुरुषों में भयानक रस का वर्णन कहीं भी प्राप्त नहीं होता। इस रस की निष्पत्ति प्रायः भयोत्पादक वर्णनों में ही हुई है। किसी व्यक्ति विशेष में, व्यक्तिगत रूप में इस रस का वर्णन बहुत कम है। भाषा-शैली का प्रयोग भी इस रस के अनुरूप ही है।
१.शैलेन्द्राभैः पातितः कुञ्जरौधैर्दुःसञ्चार: स्यन्दनैश्चापि भग्नः ।
भल्लू कानां फेत्कृतैरन्त्र भूषवेतालस्तद्भीममासीन्नटद्भिः ।। प्रद्य म्नचरित, १०/१६ २. हरिवंशपुराण, ३५/६६ ३. शान्तिनाथचरित, १६/११७-१२० ४. पद्मपुराण, ७/२८९-३०८ ५. उत्तरपुराण, ६७/४२६-४३३ ६. विच्छिन्ननासिकाकर्णस्कन्धजंघादिविग्रहाः ।
कुम्भीपाके नियुज्यन्ते वांतशोणितवर्षिणः ।। प्रपीड्यन्ते च यन्त्रषु क्रूरारावेषु विह्वलाः । पुनः शैलेषु भिद्यन्ते तीक्ष्णेषु विरसस्वराः ।। पद्मपुराण, २६/८७-८८
और भी देखिए : पद्मपुराण, २६/६१-६३ ७. आदिपुराण, १०/३६-४७ ८. पाययन्ति च निस्त्रिशाः प्रतप्तकललं मुहुः ।
घ्नन्ति बध्नन्ति मनन्ति क्रकचैर्दारयन्ति च ॥ धर्मशर्माभ्युदय, २१/३० ६. पद्मपुराण, १०५/१७-२० १०. हरिवंशपुराण, ६१/७४-७६
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बीभत्स रस
जैन संस्कृत महाकाव्यों में बीभत्स रस प्रायः श्मशान-भूमि के वर्णन और युद्धोपरान्त युद्धक्षेत्र के वर्णन में ही प्राप्त होता है। कहींकहीं किसी घृणास्पद आकृति के वर्णन में भी बीभत्स रस को चित्रित किया गया है।
पद्मपुराण में रविषेणाचार्य ने श्मशान-भूमि का प्रभावशाली वर्णन किया है। इसी प्रकार का वर्णन एक-दूसरे स्थल पर भी प्राप्त होता है। वर्णन को पढ़ने मात्र से पाठक के मन में भी घृणा उत्पन्न हो जाती है।
आदिपुराण में श्मशान-भूमि के वर्णन के प्रसंग में आचार्य जिनसेन ने नाचते हुए कबन्धों, इधर-उधर घूमती हए डाकिनियों, उल्लू, गीदड़ आदि अशुभ जीवों के चिल्लाने का भी वर्णन किया है।
__निःसन्देह अभयदेवसूरि ने अपने जयन्तविजय महाकाव्य में श्मशान-भूमि में प्राप्त होने वाली प्रत्येक वस्तु का अत्यन्त प्रभावशाली वर्णन कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है । लम्बे समासों व संयुक्त अक्षरों का प्रयोग बीभत्स रस के पूर्णतया अनुरूप है। यहां कवि ने गन्ध, चिल्लाहट व भूत-प्रेतों का वर्णन किया है जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों नाक, कान व चक्षु से है। इस प्रकार कवि ने एक व्यक्ति में उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं को नूतन ढंग से ध्वनित किया है।
इसी प्रकार का विशद, स्पष्ट और सभी में घृणा उत्पन्न करने वाला श्मशान-भूमि का वर्णन भावदेव सूरिकृत पार्श्वनाथचरित में दिया गया है । संयुक्त, श्रुतिकटु और महाप्राण अक्षरों का प्रयोग शब्दों द्वारा ही अर्थ का बोध करवाता है ।
मल्लिनाथचरित में भी कवि विनयचन्द्र सूरि ने श्मशान-भूमि का सरल भाषा में सुन्दर वर्णन किया है। युद्धोपरान्त युद्धभूमि का प्रभावशाली घृणोत्पादक वर्णन पद्मपुराण में रविषेणाचार्य ने सुन्दर ढंग से किया है।'
द्विसंधान महाकाव्य में एक तरफ राम-लक्ष्मण और खरदूषण के और दूसरी तरफ भीम, अर्जुन और कौरव सेना के मध्य हुए भीषण युद्ध के उपरान्त युद्धक्षेत्र के बीभत्स दृश्य का कवि धनञ्जय ने रोमांचकारी वर्णन किया है। किस प्रकार राक्षसियां अपने बच्चों को पैरों पर लिटाकर, मृत योद्धाओं के खून और मांस का अवलेह बनाकर उनको खिला रही थीं, कवि की यह कल्पना नवीन है व वर्णन को और भी घृणास्पद बना देती है।
इसी प्रसंग में कवि ने पुनः नवीन कल्पना करते हुए युद्धक्षेत्र का बीभत्स दृश्य पाठकों के नेत्रों के सम्मुख चित्रित कर दिया है।
१. पद्मपुराण, २२/६७-७० २. वही, १०६/६३-६५ ३. आदिपुराण, ३४/१८१-८२ ४. मृतककोटिककरालकलेवरप्रचूरदुःखसहगन्धभरावहे।
अभिमुखागतगन्धवहै मुहुर्य दतिदूरविवर्त्यपि सूच्यते ।। मिलदसंख्यशिवाकृत्फेत्कृतैर्यदसुकम्पकृद्धितमूर्द्धजम् । अधिकघूकघनातिदधूत्कृतः स्खलितकातरजन्तुगतामति ।। भृतदिगन्तरदुःश्रवहुंकृतविकृतवेषवपुर्मुखनर्तनः । प्रचुरराक्षसभूतपिशाचकर्भयकुल रिव दुर्गपथं नृणाम् ।। विपुलमांसवसामदिरोन्मदं विततमत्कलकेशमवस्त्रभृत् । भ्रमति यत्न सताण्डवडाकिनीकुलमकालमृतेरिव सादरम् ।। जयन्त विजय, ४/१-१२ ५. भावदेवसूरिकृतपावनाषचरित, ३/६०४-७ ६. मल्लिनाथचरित, १/३५७-४५८ ७. विच्छिन्नार्धभुजान्कांश्चित्कांश्चिद?स्वजितान् । निःसृतान्त्रचयान् कांश्चित्कांश्चिद्दलितमस्तकान् ।। गोमायुप्रावृतान् कांश्चित् खगः काश्चिन्निषेवितान् । रूदिता परिवर्गेण काश्चिच्छादितविग्रहान् ॥ पयपुराण, ४७/४-५ ८. निपीय रक्तं सुरपुष्पवासितं सितं कपाल परिपूर्य सूनृताम् ।
नतां प्रशंसन्त्यनयोनंनतवाननतंबाचोर्यु धि रक्षसा ततिः ।। प्रसार्य पादावधिरोप्य बालक विधाय वक्रेऽगुलिषंगमंगना ।। प्रवेशयामास वसा महीक्षिता प्रकल्प्य पीथं पिशिताशिनां शनैः ।। द्विसंधान, ६/३७-३८
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यद्यपि 'खग' साधारण पक्षियों का निर्देश करता है लेकिन कवि ने यहां 'खग' शब्द का गिद्ध, चील आदि के लिए प्रयोग किया है।'
जिनसेनाचार्य द्वारा आदिपुराण में युद्धक्षेत्र का वर्णन करने के लिए यद्यपि एक नवीन और सुन्दर उपमा का प्रयोग तो किया है लेकिन कवि यह भूल गया कि नाव कीचड़ में कदापि नहीं चल सकती।
चन्द्रप्रभचरित में कवि वीरनन्दि ने भी राजा पृथ्वीपाल और राजा पद्मनाभ के युद्ध के पश्चात्, युद्ध-क्षेत्र का वर्णन एक उत्प्रेक्षा द्वारा किया है।
कवि बालचन्द्र सूरि ने भी अपने वसन्तविलास महाकाव्य में युद्ध की समाप्ति पर, मृत योद्धाओं के मांस को खाने वाले गिद्ध और चीलों का तथा खून की नदियों में जलक्रीड़ा करती हुई पिशाचिनियों का चित्रण कर बीभत्स रस का वर्णन और भी प्रभावशाली बना दिया है।
पद्मपुराण में रविषणाचार्य के, कुलवन्ता नामक लड़की की बीभत्स आकृति के वर्णन से पाठकों में भी उसके प्रति असीम घृणा उत्पन्न हो जाती है।
गुणभद्र ने अपने उत्तरपुराण में वसिष्ठ नामक मुनि का अत्यन्त बीभत्स वर्णन दिया है, जो अन्य लोगों के मन में भी घृणा की भावना उत्पन्न करता है।
रविषेणाचार्य ने गर्भस्थ शिशु के वर्णन में भी बीभत्स रस का चित्रण किया है।
वादिराज सूरि ने अपने यशोधरचरित में चण्डमारी देवी को बलि देने के स्थान का भी प्रभावशाली ढंग से घणास्पद वर्णन दिया है।
इन महाकाव्यों में बीभत्स रस का वर्णन यत्र-तत्र ही प्राप्त होता है, लेकिन जहां भी प्राप्त होता है, वहीं कथानक का एक अभिन्न अंग बन जाता है। इस रस के प्रसंग में पिशाच, राक्षस, प्रेतात्मा, गीदड़, गिद्ध, उल्लू, कुत्ते, सांप, मुण्ड, अर्धदग्ध शरीर, रक्त, मांस, दुर्गन्ध आदि सभी का वर्णन इस रस को और भी सजीव, प्रभावशाली और काव्यात्मक बना देता है।
अद्भुत रस
जैन संस्कृत महाकाव्यों में अद्भुत रस प्रायः त्रिषष्टि शलाकापुरुषों, अलौकिक और पौराणिक वर्णनों के अतिरिक्त, अत्यधिक सौन्दर्य के प्रसंग में भी प्राप्त होता है ।
जैन दर्शन में तीर्थकर अद्भुत अलौकिक शक्ति से युक्त माने गए हैं, जो मनुष्यों के दुःखों और कष्टों को दूर करने में समर्थ हैं।
हरिवंशपुराण में नेमिनाथ तीर्थंकर के आशीर्वाद से अन्धे देखने लगते हैं, बधिर सुनने लगते है, मूक बोलने लगते हैं और पंगु चलने लगते हैं। उनकी उपस्थिति मात्र से ही सर्वत्र कल्याण ही कल्याण व्याप्त हो जाता है।
पुन: कवि ने वृषभदत्त भक्त द्वारा, मुनि सुव्रत तीर्थकर के हाथ पर खीर रखे जाने का वर्णन किया है जो उनके असंख्य शिष्यों के
१. बभी महल्लोहितसम्भृतं सरः प्रपीयमानं तवतिभिः खगः ।
यमेन रक्तं विनिगीर्य देहिनामजीर्णमुद्गीर्णमिवातिपानतः। द्विसंधान, ६/४२ २. चक्रसंघट्टसं पिष्टशवासरमासकर्दमे ।
रथकट्याश्चरन्ति स्म तनाब्धी मन्दपोतवत् ।। ३. चन्द्रप्रभचरित, १५/४७-५३ ४. वसन्तविलास, ५/६०-६१ ५. सा चिल्ला चिपिटा व्याधिशत संकुलविग्रहा। कथंचित्कर्मसंयोगाल्लोकोच्छिष्टेन जीविता ।। दुश्चेला दुर्भगा रूक्षा स्फुटितांगा कुमूर्धजा । उत्तास्यमाना लोकेन लेभे सा शर्म न क्वचित् ।। पद्मपुराण, १३/५७-५८ ६. जटाकलापसम्भूतलिक्षायूकाभिघट्टनम् ।
सन्ततस्नानसंलग्नजटान्तमतमीनकान् । उत्तरपुराण, ७०/३२६ ७. पद्मपुराण, ३६/११५-१६ ८. रक्तसमाजिता रक्ता नित्यं यस्याजिरक्षितिः । प्रसारितेव जिह्वोच्चव्या रक्तासवेच्छया ।। मांसस्तूपाः स्वयं यत्र मक्षिकापटलावताः।
छदिताश्चण्डमार्येव बहुभक्षणदुर्जराः ।। यशोधरचरित, १/४२.४३ ... हरिवंशपुराण, ५६/७७-७८
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द्वारा भरपेट खा लेने के बाद भी समाप्त नहीं हुई।' इसी प्रकार का वर्णन महाभारत में भी प्राप्य है ।
आदिपुराण में कुबेरप्रिय व्यापारी के वक्षःस्थल पर तलवार से किया गया प्रहार भी मणिहार में परिवर्तित हो जाता है। गुणभद्राचार्य के उत्तरपुराण में भी अपहृत एवं प्रताड़ित राजा चेटक की पुत्री बन्दना, महावीर स्वामी के आने मात्र से केवल उनकी भक्त होने के कारण, सभी यातनाओं में मुक्त हो गई । ३
तीर्थंकरों की अलौकिक शक्ति केवल मनुष्यों को नहीं, अपितु पशु-पक्षियों को भी प्रभावित करती है। इसका सुन्दर और सजीव वर्णन जिनसेनाचार्य ने अपने आदिपुराण में वृषभध्वज स्वामी के संदर्भ में दिया है।*
केवल चेतन प्राणी ही नहीं अपितु अचेतन प्रकृति भी तीर्थकरों की उपस्थिति से प्रभावित होती है।*
तीर्थंकर, अन्तर्यामी व तीनों कालों के द्रष्टा होते हैं। प्रद्युम्नचरित काव्य में जन्म होने के तीन घण्टे पश्चात् ही अपहृत प्रद्युम्न के विषय में, नेमिनाथ स्वामी पहले ही बतला देते हैं कि वह 16 वर्ष पश्चात् स्वयं ही आ जाएगा और उसके आने पर प्रकृति में भी चारों तरफ अद्भुत घटनाएं घटेंगी।
तीर्थकरों की भांति गुनि भी पंचपरमेष्ठी माने गए हैं। वे भी अद्भुत दैविक शक्तियों से युक्त होते हैं। पद्मपुराण में किसी मुनि के 'चरणोदक' के द्वारा एक हंस की काया ही पलट गई । "
'आदिपुराण' में बाहुबलि मुनि के आने मात्र से हो सर्वत्र बहार ही बहार छा गई। इसी प्रकार 'श्रीधर' मुनि के आगमन से चारों ओर कितना विचित्र, निराला और शान्त वातावरण व्याप्त हो गया, इसका सुन्दर वर्णन वीरनन्दी ने अपने चन्द्रप्रभचरित में दिया है।
इतना ही नहीं, किसी परिवारमा द्वारा किए गए कार्य भी विस्मयोत्पादक होते हैं। पद्मपुराण में अपने बीमार पति 'नमुष' को सिंहिका द्वारा अपने पतिव्रत धर्म के कारण ही स्वस्थ करने का विवरण दिया गया है।"
सर्वविदित ही है।"
रावण के घर में रहने के पश्चात् अपनी पवित्रता को प्रमाणित करने के लिए पतिव्रता सीता द्वारा दी गई अग्नि परीक्षा तो
गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण में श्रीकृष्ण के जेल में जन्म से लेकर उनके नन्द के घर पहुंचने तक का वर्णन सुंदरता से किया है। भावदेवसूरि कुल पार्श्वनाथ चरित में अपनी सत्यता की परीक्षा में सफल होने के बाद सब कुछ पूर्ववत् पाकर राजा हरिश्चन्द्र के विस्मयातिरेक का वर्णन 'सन्देहालंकार' द्वारा काव्यात्मक व प्रतिभाशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है । १३
१. हरिवंशपुराण, १६ / ६१
२. तस्य वक्षःस्थले तत्र प्रहारो मणिहारताम् ।
प्राप शीलवतो भक्तस्यार्हत्परमदैवते । आदिपुराण, ४६ / ३२५
३. उत्तरपुराण, ७४ / ३४४-४६
४. कण्टकालग्नबालाग्राश्चमरीश्च मरीमृजाः ।
नरवरैः स्वैरहो व्याघ्राः सानुकम्पं व्यमोचयन् ॥
प्रस्तुवाना महाव्याघ्रीरुपेत्य मृगशावकाः ।
स्वजनन्यास्थया स्वरं पीत्वा स्म सुखमासते ।। आदिपुराण १८/८३-८४
५. आदिपुराण, १३/८
६. प्रद्युम्नचरित ५ / ६४-६६
७. पादोदकप्रभावेण शरीरं तस्य तत्क्षणम् ।
रत्नराशिसमं जातं परीतं चित्रतेजसा ॥
जातो हेमप्रभी पक्षी पादौ वैडूर्यसन्निभौ ।
नानारत्नच्छ विदेहश्चञ्चुर्विद्रुमविभ्रमा । पद्मपुराण, ४१ / ४५-४६
,
८. आदिपुराण, ३६ / ७४ १७६
९. चन्द्रप्रभचरित, २/१३-२३
१०. पद्मपुराण, २२ / १२४-१२६
११. वही, १०५ / २६-४६
१२. उत्तरपुराण, ७० / ३९१-९७
१३. प्रतीहारमुप्तान् विपिविष्णु जनान् ।
३२
दूरतो नमत प्रेक्ष्य किमित्येतदचिन्तयत् ।
किं नु स्वप्नो मया दृष्टः किं वा मे मनसो भ्रमः ।
किं वा कस्याऽपि देवस्य चित्रमेतद् विजृम्भितम् ।। पार्श्वनाथचरित, ३ / १०१०-११
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इन महाकाव्यों में अप्रत्यक्ष अलौकिक शक्तियों द्वारा किए गए कार्य भी अद्भुत रस का संचार करते हैं। पद्मपुराण में रावण ने तपस्या के द्वारा अपने को किसी भी रूप में परिवर्तित करने की अद्भुत शक्ति प्राप्त कर ली थी।
भ्रामरी विद्या की सहायता से, उत्तरपुराण में, राजा अशनिघोष ने स्वयं को अनेकानेक प्रतिबिम्बों में दर्शा कर, शत्रु को विस्मित कर, सरलता से पराजित कर दिया ।२
जयन्त विजय महाकाव्य में 'पंचपरमेष्ठी' मन्त्र के स्मरणमात्र से ही राजा विक्रमसिंह का भयंकर जंगली जानवर, दावानल एवं राक्षस आदि भी कुछ अहित नहीं कर पाए।'
मल्लिनाथचरित में किसी देवी द्वारा दिए गए रत्न के प्रभाव से सारी शत्रु-सेना युद्ध-क्षेत्र में ही गहरी नींद में सो गई।
धर्माभ्युदय महाकाव्य में देवी अपराजिता की अद्भुत शक्ति के अद्भुत प्रभाव का उल्लेख, दृढ़प्रतिज्ञ राजा अभयंकर के प्रसंग में प्राप्त है।
पौराणिक वर्णनों के प्रसंग में अद्भुत रस पुराणों में ही अधिक प्राप्त होता है।
जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हरिवंशपुराण में, बालि को वश में करने के लिए विष्णुकुमार मुनि द्वारा बौने का रूप धारण कर, तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लेने का पौराणिक वर्णन सर्वज्ञात है।
पुनः कवि ने जम्बू वृक्ष का अद्भुत वर्णन किया है।
पद्मानन्द महाकाव्य में कवि अमरचन्द्र सूरि ने, अपने पुण्य कार्यों द्वारा श्रीप्रभ विमान में पहुंच जाने पर, राजा महाबल के विस्मय का वर्णन 'शुद्ध सन्देहालंकार' का प्रयोग करके दिया है।
आदिपुराण में जिनसेन के इच्छापूर्ति करने वाले कल्पवृक्षों का वर्णन दिया है।
इन काव्यों में भावी तीर्थंकरों के जन्म से पहले ही इन्द्र द्वारा, उनकी गर्भवती माताओं की सेवा-शुश्रूषा हेतु भेजी गई अप्सराओं का वर्णन अनेक बार मिलता है । धर्मशर्माभ्युदय में कवि हरिश्चन्द्र ने स्वर्ग से नीचे उतरती हुई अप्सराओं का सुन्दर वर्णन, राजा महासेन और उसके राजकर्मचारियों के तर्क-वितर्क में 'निश्चयगर्भ सन्देहालंकार' द्वारा किया है।
आदिपुराण में वृषभध्वज तीर्थंकर के जन्म पर इन्द्र द्वारा रूप बदलकर किए गये नृत्य का सुन्दर वर्णन है।"
मुनिसुव्रतमहाकाव्य में कवि अर्हद्दास ने ऐरावत हाथी का बिल्कुल नवीन और आश्चर्योत्पादक वर्णन किया है। इसमें एकावली अलंकार दर्शनीय है।
अत्यधिक सौंदर्य-वर्णन के प्रसंग में अद्भुत रस पुराणों की अपेक्षा महाकाव्यों में अधिक प्राप्त होता है। हरिवंशपुराण में
१. पद्मपुराण,८८७-८९ २. उत्तरपुराण, ६२/२७८-७६ ३. जयन्तविजय, २२७ ४. मल्लिनाथचरित, १२७२-७४ ५. अथाकस्माद् द्विषच्छेददक्षिणोऽपि न दक्षिणः । बाहुर्बभूव भूभः खड्गव्यापारणक्षमः ।। बाहस्तम्भेन तेनोच्चरन्सःसन्तापवान् नृपः ।
मन्त्रान्निग्रहमापन्नः पन्नगेन्द्र इवाभवत् ।। धर्माभ्युदय, २२४७-४८ ६. हरिवंशपुराण, २०/५३-५४ ७. वही, ५१७७-८३ ८. सुप्तोत्थित इव पश्यन्निति चित्ते सोऽथ चिन्तयामास, कि स्वप्न: ? कि माया ? किमिन्द्रजालम् ? किमीदृगिदम् ? मामुद्दिश्य किमेतत् प्रवर्तते प्रीतिकारि संगीतम् ? परिवारोऽयं विनयी स्वामीयति मां समग्रः किम् ।। पद्मानन्द, ४/१२-१३ ६. आदिपुराण,६४१-४८ १०. तारकाः क्व न दिवोदिता तो विद्य तोऽपि न वियत्यनम्बदे।
क्वाप्यनेधसि न वह्नयो महस्तत्किमेतदिति दत्तविस्मया: ।। धर्मशर्माभ्युदय, ५/२ ११. आदिपुराण, १४१३०-१३१ १२. द्वाविशदास्यानि मुखेऽष्टदता दंतेऽब्धिरब्धौ बिसिनी बिसिन्याम् ।
द्वात्रिंशदब्जानि दला नि चाब्जे द्वात्रिंशर्दिद्र द्विरदस्य रेजुः ।।
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जिनसेनाचार्य ने वृषभध्वज तीर्थकर के शारीरिक सौन्दर्य की अपेक्षा गुणों पर अधिक महत्त्व दिया है।'
चित्र में चित्रित रुक्मिणी के सौन्दर्य को देखकर श्रीकृष्ण के विस्मय का वर्णन, महासेनाचार्य ने अपने प्रद्युम्नचरित में 'सन्देहालंकार' द्वारा किया है।
इसी प्रकार 'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्य में अपनी भावी पुत्रवधू को चित्र-लिखित देखकर राजा महासेन के आश्चर्य का चित्रण, कवि हरिश्चन्द्र ने 'घुणाक्षरन्याय' की कल्पना द्वारा किया है।'
पुनः स्वामी धर्मनाथ के सौन्दर्य को देखकर विदर्भ स्त्रियों में उनके चन्द्रमा कामदेव कृष्ण और कुबेर होने का सन्देह उत्पन्न होता है। लेकिन चूंकि ये सभी दोषयुक्त हैं और धर्मनाथ दोष-रहित हैं, अत: उनके प्रति इन सबके सन्देह का निवारण कर दिया गया है।' यद्यपि ये चारों क्रमशः पवित्रता, सौन्दर्य, पराक्रम और ऐश्वर्य के प्रतीक हैं, लेकिन कवि ने इनके लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो इनके दोष को स्वयं ही सूचित करते हैं। यहां पर 'व्यतिरेकालंकार' वर्णन की शोभा को बढ़ा देता है।
वसन्तविलास महाकाव्य में वसन्तपाल मन्त्री का असाधारण सौन्दर्य वनदेवताओं में भी उसके इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा या कामदेव होने का भ्रम उत्पन्न कर देता है।
शान्तिनाथचरित में कनकधी को गुणवर्मा स्वयं 'ब्रह्मा' द्वारा 'घुणाक्षरन्याय' की भांति रचित रचना प्रतीत होता है।
उसी काव्य में इन्दुषेण और बिन्दुषेण 'श्रीकान्ता' की अतुलनीय सुन्दरता को देखकर उसे उर्वशी, पार्वती और लक्ष्मी समझ बैठते हैं।
कवि वीरनन्दि ने अपने चन्द्रप्रभचरित में राजा अजितसेन के सौन्दर्य के वर्णन में अपनी अद्भुत कल्पना-शक्ति का परिचय दिया है। 'उत्प्रेक्षालंकार' का प्रयोग अद्वितीय एवं मौलिक है।
धर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि उदयप्रभसूरि ने, कुबड़े होने पर भी राजा नल द्वारा एक भयंकर और मदमस्त हाथी को वश में करने के वर्णन में अद्भुत रस का संचार किया है।
केवल पद्मपुराण में ही कला-चातुरी के प्रसंग में अद्भुत रस दृष्टिगोचर होता है। शत्रुओं में भ्रम उत्पन्न करने के लिए कलाकारों ने राजा जनक और राजा दशरथ के पुतले इतनी कुशलता और सूक्ष्मता से बनाये कि वे और वास्तविक राजा सभी दृष्टियों से बिल्कुल एक-जैसे थे, सिवाय इसके कि एक सजीव थे तो दूसरे निर्जीव ।
भाषा की सुबोधता और प्रसंगानुकूल उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति और सन्देहालंकार का प्रयोग रस के सौन्दर्य को द्विगणित कर देता है।
शान्त रस
जैन दर्शन के अनुसार विषय-भोगों का भोग किए बिना कोई ‘रत्नत्रय' प्राप्त नहीं कर सकता। अत: अन्य रसों का भी जैन कवियों ने विस्तत चित्रण तो किया है लेकिन फिर भी ये काव्य शान्तरस-प्रधान ही हैं। पहले वणित रस मनुष्य-जीवन के पूर्वपक्ष को द्योतित करते हैं तो शान्तरस उत्तरपक्ष को।
१. हरिवंशपुराण, ६/१४८-५ २. सुरेन्द्ररामा किम किन्नरांगना किमिन्दुकान्ता प्रमदाथ भूभृताम् ।
नभःसदा स्त्री उत यक्षकन्यका धृतिः क्षमाश्रीरथ भारती रतिः ।। किमंगकीतिः किमु नागनायका जितान्यकांताजनिकांति बिभ्रती। वपुः कृता लेख्यपदं विकल्पिनो ममेति केयं वद तात सुन्दरी । प्रद्य म्नचरित, २/५१-५२ ३. धर्मशर्माभ्युदय, ६/३४-३५ ४. किमेण केतुः किमसावनंगः कृष्णोऽथवा कि किमसो कुबेरः । ___ लोकेऽथवामी विकलांगशोभा कोऽप्यन्य एवैष विशेषितश्रीः ।। धर्मशर्माभ्युदय, १७/१०१ ५. वसन्तविलास, १३/३८ ६. शान्तिनाथचरित, १६/५३-५६ ७. वही, २/६३-६६ ८. अन्योन्यसंहतकरांगुलिबाहुयुग्ममन्या निधाय निजमूर्धनि जम्भमाणा।
तद्दर्शनात्मविशतो हृदये स्मरस्य मांगल्यतोरणमिबोक्षिपती रराज । चन्द्रप्रभचरित, ७/८७ ६. धर्माभ्युदय, ११/४३१-४३३ १०. पद्मपुराण, २३/४१-४४
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रविषेणाचार्य ने बहुत ही सुन्दर ढंग से विषय-भोगों के स्वभाव का चित्रण करते हुए कहा है कि वे बाह्य रूप में चाहे कितने ही मधुर और मीठे क्यों न प्रतीत होवें, परन्तु अन्त में भयंकर परिणाम वाले ही होते हैं।'
आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने बहुत ही काव्यात्मक ढंग से विषय-भोगों की आकर्षण-शक्ति के बारे में बतलाया है कि किस प्रकार वे मनुष्य को अपनी तरफ आकर्षित कर उसे अनुचित मार्ग पर ले जाते हैं।'
कवि ने पुनः मौलिक व प्रसंगानुकूल 'मालोपमा' का प्रयोग कर सांसारिक विषय-भोगों में आसक्त मनुष्य की कटु आलोचना
पुनः कवि द्वारा व्यावहारिक, सजीव व यथार्थ उपमा देकर मनुष्यों की विषय-भोगों के पीछे भागने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को सुन्दर ढंग से चित्रित किया है।
धर्मशर्माभ्युदय में कवि हरिश्चन्द्र ने इन सांसारिक भोगों की तुलना मृगमरीचिका से करके यह प्रमाणित किया है कि केवल एक मूर्ख ही इनसे आकर्षित हो सकता है, बुद्धिमान नहीं ।
कवि अमरचन्द्रसूरि ने स्वाभाविक और सुन्दर 'मालोपमा' द्वारा प्रारम्भ में सुन्दर लगने वाले, लेकिन बाद में मनुष्य को नष्ट करने वाले विषय-भोगों का चित्रण किया है।
____ कभी शान्त न होने वाली मनुष्य की तृष्णा, अभयदेवसूरि के अनुसार, केवल वैराग्य का आश्रय लेकर ही शान्त की जा सकती है, अन्यथा नहीं।
__ इन महाकाव्यों में लक्ष्मी की कटु आलोचना की गई है। वह तो एक वेश्या के समान अविश्वसनीय एवं मनुष्य को प्रताड़ना देने वाली है।
- धर्माभ्युदय महाकाव्य में कवि उदयप्रभसूरि ने बहुतों के द्वारा भोग कर छोड़ी गई लक्ष्मी के स्वभाव का अनुप्रास-मिश्रित उपमा द्वारा बहुत सुन्दर, सजीव व काव्यात्मक वर्णन किया है।
अमरचन्द्रसूरि ने अपने पद्मानन्द महाकाव्य में लक्ष्मी की चञ्चलता व अस्थिरता का एवं किसी के द्वारा भी उसे वश में न किए जा सकने का वर्णन बहुत प्रभावशाली ढंग से किया है।"
शान्त रस के प्रसंग में जैन कवियों द्वारा स्त्रियों की भी कटु आलोचना की गई है। पद्मपुराण में रविषेणाचार्य ने एक सुन्दर 'रूपक' द्वारा स्त्रियों की भर्त्सना की है।"
उत्तरपुराण में भी गुणभद्राचार्य ने स्त्रियों के मध्य में स्थित जम्बूकुमार की मानसिक अवस्था का वर्णन सुन्दर और प्रभावशाली
१. असिधारामधुस्वादसमं विषयजं सुखम् ।
दग्धे चन्दनवदिव्यं चक्रिणां सविषान्नवत् ।। पद्मपुराण, १०५/१८० २. आदिपुराण, ५/१२८-२६ ३. वही, ११/१७४-२०३ ४. प्रापितोऽप्यसकृदु:खं भोगस्तानेव याचते ।
धत्तेऽवताडितोऽप्यति मात्रास्या एव बालकः ॥ आदिपुराण, ४६ २०३ ५. अहेरिवापातमनोरमेषु भोगेषु नः विश्वसिमः कथंचित् ।
मृगः सतृष्णो मृगतृष्णिकासु प्रतार्यते तोयधिया न धीमान् ॥ धर्मशर्माभ्युदय, ४/५४ ६. कैवतंको मांसकणझषानिव व्याधः सुगीताधिगममगानिव ।
सूनाधिपो घासलवैरवी निव क्रूरो मृदूक्तिप्रकरैर्नरानिव ।। मूर्ख: कुपथ्य रिव रोगयोगिनो मूढः कुबोधैरिव मुग्धधीयुताम् ।
आपातरम्य: परिणामदारुणः क्लिश्नाति मोहो विषय : शारीरिणः ॥ पद्मानन्द, ३/४०-४१ ७. विविधविभवभोगभूरितृष्णा ज्वरलहरीव भवावधिप्ररूढा ।
जनयति हृदि तापमित्य मन्दं प्रशमय निस्पृहतासुधारसैस्ताम् ।। जयन्तविजय, १२/५५ ८. वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, २/६८ ६. अहमस्या: पति: सेयं मर्मवेत्यभिमानिनः । युवा भोगार्थिनः के वा वेश्ययेव न वञ्चिताः ।। पत्नपानीव धात्रीय भुक्त्वा त्यक्ता महात्मभिः ।
विगृह्य गृह्यते लुब्धैः कुक्कुरैरिव ठक्कुरैः ।। १०. पद्मानन्द, ६/२७-३३ ११. पद्मपुराण, १५/१७९-८०
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'मालोपमा' द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि एक बार स्त्रियों के चंगुल में फंसा मनुष्य, अपना नाश किए बिना, बाहर नहीं निकल सकता।
'जयन्तविजय' में अभय देवसूरि ने स्त्री की तुलना पतंगों का विनाश करने वाली शमा से की है।' 'मल्लिनाथचरित' में विनयचंद्र सूरि द्वारा, वे बाह्य रूप में ही सुन्दर बतलाई गई हैं।'
प्रद्युम्नचरित में महासेनाचार्य ने उपमाओं द्वारा विषय-भोगों की निरर्थकता को दर्शाया है। सभी उपमाएं इन भोगों की क्षणभंगुरता, सारहीनता और निरर्थकता की ओर संकेत करती हैं । कवि ने एक संक्षिप्त से श्लोक द्वारा इतनी अर्थयुक्तियों को ध्वनित किया है।
कवि हरिश्चन्द्र ने 'धर्मशर्माभ्युदय' में उल्का-पात देखकर राजा महासेन का राज्य से विमुख हो जाने का वर्णन नवीन और अनूठे ढंग से ही किया है।
नेमिनिर्वाण महाकाव्य में वाग्भट्ट द्वारा स्वामी नेमिनाथ के मुखारविन्द से जनसाधारण को विषय-भोगों से दूर रहने का उपदेश करवाया गया है।
हरिवंशपुराण में जिनसेनाचार्य ने सब सांसारिक वस्तुओं की क्षणभंगुरता का वर्णन किया है। जब पुण्यात्मा देवता भी अपने प्रियजनों से बिछुड़ जाते हैं तो मनुष्य का तो कहना ही क्या ?"
कवि धनजय ने तो अपने 'द्विसंधान' महाकाव्य में विषय-भोगों, लक्ष्मी और आयु की अस्थिरता और चञ्चलता का वर्णन मौलिक, सजीव और प्रभावशाली उपमाओं द्वारा किया है, जो अन्य किसी भी साहित्य में दुर्लभ है।
'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्य में कवि हरिश्चन्द्र ने एक बहुत ही अनूठी और काव्यात्मक उपमा देकर युवावस्था की अस्थिरता का वर्णन बहुत ही रोचक ढंग से किया है। यहां 'आकर्णपूर्ण' शब्द का अपना महत्त्व है। यह अत्यधिक सौन्दर्य को ध्वनित करता है । वृद्धावस्था की झुर्रियों की तुलना सरिताओं से की गई है क्योंकि वे आकृति व रूप में उनके समान होती हैं। सरिताओं के निरन्तर प्रवाह से, वृद्धावस्था के आने पर सौन्दर्य का शीघ्र ही नष्ट हो जाना द्योतित होता है।
शान्तिनाथचरित' में मुनिभद्राचार्य दो संक्षिप्त पद्यों में सांसारिक विषय-भोगों के अस्थायी, क्षणिक और नश्वर स्वरूप को चित्रित करते हैं।"
सब उदाहरण जैन दर्शन में वर्णित बारह भावनाओं में से 'अनित्यभावना' के अन्तर्गत समाविष्ट हैं। इन काव्यों में शान्त रस के कुछ ऐसे भी उदाहरण प्राप्य हैं जिनमें जैन दर्शन की 'संसार-भावना' परिलक्षित होती है।
रविषेणाचार्य ने एक छोटे से अनुष्टुप् द्वारा संसार के स्वरूप का सुन्दर चित्रण अपने 'पद्मपुराण' में किया है। 'उपमा' अपने आप में अनेक बातों को सूचित करती है। जिस प्रकार अरघट्ट में कुछ बाल्टियाँ पूरी भरी होती हैं तो कुछ आधी भरी होती हैं तो कुछ अन्य
१. कन्यकानां कुमारं तं तासां मध्यमधिष्ठितम् । विज़म्भमाणसद्बुद्धि पजरस्थ मिवाण्डजम् ।। जाललग्नणपोतं वा भद्रं वा कुजराधिपम् ।
अपारकर्दमे मग्न सिंह वा लोहपजरे ।। उत्तरपुराण, ७६/६४-६५ २. जयन्तविजय, १२/५४ ३. मल्लिनाथचरित, ५/१९८-२०१ ४ स्वप्नेन्द्रजाल फेनेन्दुमगतृष्णेन्द्रचापवत्।
सर्वेषां सम्पदत्यतं जीवितं च शरीरिणाम् ।। प्रद्य म्नचरित, १२/५६ ५. नियम्य यदाज्यतणेऽपि पालितं तवोदयात्प्राग्गहमैकसत्त्ववत् ।
विबन्धनं तद्विषयेषु निःस्पृह मनो बनायैव ममाद्य धावति ।। धर्मशाभ्युदय, १८/७ ६. नेमिनिर्वाण, १३/२४ । ७. हरिवंशपुराण, १६.३७-३८ ८. तथाहि भोगाः स्तनयित्नुसन्निभाः गजाननाधूननचञ्चला: श्रियः ।
निनादिनाडिन्धमकण्ठनाडिवचलाचलं न स्थिरमायरंगिनाम् ।। द्विसंधान, ६/४५ ६. आकर्णपूर्ण कुटिलालकोमि रराज लावण्यसरो यदंगे ।
वलिच्छलात्सारणिधोरणीभि: प्रवाह्यते तज्जरसा नरस्य ।। धर्मशर्माभ्युदय, ४५८ १०. शान्तिनाथचरित, १३/४४१ ११. अरघट्ट घटीयन्त्रसदृशाः प्राणधारिणः ।
शश्वद्भवमहाकपे भ्रमन्त्यत्यन्तदु:खिताः ॥ पद्मपुराण, ६/८२
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पूरी ही खाली होती हैं और उनका यह क्रम निरन्तर चलता ही रहता है। यहां मृत्यु की तुलना खाली बाल्टियों से की जा सकती है और और भरी हुई की जीवन से । जिस प्रकार ये बाल्टियां खाली होती रहती हैं और फिर भरती रहती हैं, उसी प्रकार इस संसार-रूपी कुएं में मनुष्य जन्म और मृत्यु के चक्कर में निरन्तर ही घूमता रहता है।
कवि ने पुनः 'परम्परित रूपकालंकार' का प्रयोग कर संसार-रूपी समुद्र के सभी पक्षों को सुन्दरता से उभारा है। स्वामी वृषभनाथ के मुखारविन्द से उदयप्रभसूरि ने 'धर्माभ्युदय' महाकाव्य में संसार की तुलना एक वन से करवाई है।
कवि ने पुनः उसी काव्य में संसार को वन-सदृश मानकर उसमें व्याप्त जन्म-मृत्यु, कषाय, यम, बीमारी, आयु, विषय-भोगों आदि सबका परम्परित रूपकों द्वारा कलात्मक वर्णन किया है।'
जो उत्पन्न हुआ है, उसकी मृत्यु भी अवश्य ही होगी। इन काव्यों में इस प्रकार के उदाहरण जैन दर्शन की 'अशरण भावना' के अन्तर्गत सम्मिलित किए जा सकते हैं।
पद्मपुराण में जब राजा सगर अपने पुत्रों के भस्म कर दिए जाने पर कारुणिक विलाप करते हैं तो उनके अमात्य यम के चंगुल से किसी के भी न बचने का वर्णन कर सांत्वना देते हुए उन्हें शोकमुक्त करने का प्रयास करते हैं।
जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में यम व उसकी सेना का वर्णन करने में निस्संदेह अपनी कल्पना-शक्ति का अद्भुत परिचय दिया है।
प्रद्युम्नचरित में महासेनाचार्य का यम द्वारा विवेकरहित होकर सभी को ग्रसित करने का वर्णन प्रभावशाली बन पड़ा है। इसी प्रकार का समान वर्णन हरिश्चन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में भी किया है।
इन काव्यों में धर्म की प्रशंसा करने वाले पद्य जैन दर्शन की 'धर्म-भावना' में आते हैं । धर्म ही इस संसार को धारण कर रहा है और निर्वाण-प्राप्ति करवाता है। जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में धर्म को ही सर्वस्व माना है।
अमरचन्द्रसूरि के अनुसार तो धर्मयुक्त मनुष्य ही वास्तव में मनुष्य कहलाए जाने योग्य है। सभी उपमाओं का अपना-अपना महत्त्व है। सरल भाषा एवं कमनीय तथा कान्त पदावली का प्रयोग वर्णन को और भी रोचक बना देता है।
यद्यपि धर्म में दस गुणों का समावेश किया जाता है। परन्तु इन काव्यों में विशेष रूप से सत्य, संयम और तप पर ही अधिक बल दिया गया है।
मल्लिनाथचरित में विनयचन्द्रसूरि ने सत्य का महत्त्व एक 'मालोपमा' द्वारा दर्शाया है।" निर्वाण-प्राप्ति के लिए अपनी इन्द्रियों और मन को वश में रखना अत्यावश्यक है। रविषेणाचार्य ने एक सुन्दर 'रूपक' का प्रयोग
१. पद्मपुराण, ३१/८६-८८ २. मोहभिल्लेशपल्लीव तदिदं भवकाननम् । __ पुण्यरत्नहरैः क्रूरैश्चौरैः रागादिभिवृतम् ॥ धर्माभ्युदय, ३/३४२ ३. धर्माभ्युदय, ८/१७४-७६ ४. पद्मपुराण, ५,२७१-७३ ५. अग्रेसरी जरातकाः पाणिग्रहास्तरस्विनः । ___ कषायाटविकः साद्धं यमराड्डमरोद्यमी ।। आदिपुराण, ८/७२ ६. बाल कुमारमतिरूपयुतं विदग्धं मेधाविनं विषमशीलमयो सुशीलम् ।
शरं न कातरनरं गणयत्यकाण्डे नेनीयते निखिलजन्तुगणं हि मृत्युः ।। प्रद्युम्नचरित, १३/१३ ७. धर्मशर्माभ्युदय, २०/२० ८. आदिपुराण, ५/१७-१८ ६. तोयेनेव सर: थियेव विभुता सेनेव सुस्वामिना
जीवेनेव कलेवरं जलधरश्रेणीव वृष्टिथिया। प्रासादस्त्रिदशायेव सरसत्वेनेव काव्य प्रिय:
प्रेम्णेव प्रतिभासते न हि विना धर्मेण जन्तुः क्वचित् ।। पद्मपुराण, १४/१९६ १०. उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्म । तत्त्वार्थसूत्र, १६ ११. यथा पुण्ट्रण रामाया वक्त्राम्भोज विभूप्यते।
यथा गंगाप्रवाहेण पूयते भुबनतयम् ॥ यथा च शोभते काव्यं सार्थया पदशय्यया। तथा सत्येन मनुज इहाऽमुत्र विराजते ।। मल्लिनाथचरित, ७/६३-६४
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कर इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखने का उपदेश दिया है। यहां कवि पर कठोपनिषद् का प्रभाव परिलक्षित होता है।
पद्मपुराण में तप और संयम को निर्वाण-प्राप्ति का साधन बतलाया गया है। तो प्रद्युम्नचरित में तप को संसार-रूपी भवसागर को पार करने का साधन बतलाया गया है।
__ अहिंसा पर इन काव्यों में प्रभूत बल दिया गया है। यहां तक कि हिंसा के बारे में सोचने-मात्र से ही मनुष्य के सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं।
___ 'रत्नत्रय' जैन दर्शन की अपनी अनुपम देन है। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र व सम्यग्ज्ञान का प्रतीक है। जैन संस्कृत महाकाव्यों में भी रत्नत्रय' को अनन्त सुख और मोक्ष को देने वाला माना गया है। लेकिन ये तीनों एक-दूसरे के पूरक ही हैं। पहले के बिना दूसरा अधूरा है तो दूसरे के बिना तीसरा।
इन महाकाव्यों में अनेक स्थलों पर भौतिक शरीर के प्रति घृणित भाव परिलक्षित होते हैं जो जैन दर्शन की 'अशुचि-भावना' के अन्तर्गत आते हैं । पद्मपुराण में लक्ष्मण की मृत्यु हो जाने पर, विभीषण राम को शरीर की अपवित्रता के बारे में बतलाकर ढाढ़स बंधाते हैं।
आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने शरीर के प्रति अपने जुगुप्सित भावों को काव्यात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार धर्माभ्युदय महाकाव्य में भी इस नश्वर शरीर को मलमूत्र-आदि घृणित पदार्थों का संग्रह बतलाया गया है।
इन काव्यों में चार कषायों की आलोचना भी की गई है। चन्द्रप्रभचरित में कवि वीरनन्दि ने इन कषायों के स्वरूप तथा इनको दूर करने के उपाय का वर्णन एक सुन्दर रूपक द्वारा किया है।
पद्मानन्द महाकाव्य में भी स्वामी वृषभध्वज ने इन कषायों का तथा इनसे प्राप्त होने वाली गतियों का वर्णन किया है। प्रत्येक पंक्ति में 'चतुः' का प्रयोग दर्शनीय है। "
इसी काव्य में कवि अमरचन्द्रसूरि ने पुनः सांसारिक विषय-भोगों और वास्तविक सुखों का परस्पर विरोध रोचक शैली द्वारा प्रतिपादित किया है ।१२
इन महाकाव्यों में शान्त रस के प्रसंग में, अपने आस-पास के वातावरण से अनभिज्ञ, तप में लीन महात्माओं का भी सुन्दर व सजीव वर्णन प्राप्य है। आदिपुराण में तपोलीन राजा महाबल केवल 'परमात्मा' को ही देखता है, सुनता है व उसी के नाम का उच्चारण करता है। १. परस्त्रीरूपसस्येषु बिभ्राणा लोभमुत्तमम् ।
भमी हृषीकतुरगा धृतमोहमहाजवाः।। शरीररथमुन्मुक्ताः पातयन्ति कुवमसु । चित्तप्रग्रहमत्यन्तं योग्यं कुरुत तदृढम् ॥ पद्मपुराण, ३६/१२३-२४ २. कठोपनिषद्, १/३/३-४ ३. पद्मपुराण, ३६/१२६ ४. प्रद्युम्नचरित, १३/२४ ५. तनोतु जन्तु: शत शस्तपांसि ददातु दानानि निरन्तराणि ।
करोति चेत् प्राणिवधेऽभिलाषं व्यर्थानि सर्वाण्यपि तानि तस्य ।। नेमिनिर्वाण, १३/१८ ६. चन्द्रप्रभचरित, ७/५१-५२ ७. पद्मपुराण, ११७/१३ ८. निरन्तरथवोत्कोथनवद्वारशरीरकम् ।
कृमिपुञ्जचिताभस्मविष्ठानिष्ठं विनश्वरम् ।। आदिपुराण, ४५/१६० ६. धर्माभ्युदय, ६/७५-७६ १०. कषायसारेन्धनबद्धपद्धतिर्भवाग्निरुत्तुंगतरः समुत्थितः ।।
न शान्तिमायाति भृशं परिज्वलन्न यद्ययं ज्ञानजलनिषिच्यते ।। चन्द्रप्रभचरित, ११/१९ ११. चतुष्कषायैः स्खलिताः पृथक् पृथक
चतुर्विधैः सज्वलनादिभेदतः । चतुर्गातस्थप्रभवा भवेऽगिनः
प्रयान्ति नानन्तचतुष्टयं पदम् ॥ पद्मानन्द, १२/४० १२. तृष्णातिरस्करिण्यैव पिहितोऽस्ति सुखोदयः ।
यावत्युत्सायंते सेयं तावानयमवेक्ष्यते ॥ पमानन्द, १६/२६६ १३. चक्षुषी परमात्मानमद्रष्टामस्य योगतः।
अश्रोष्टा परमं मन्वं श्रोत्रे जिह्वा तमापठत् ।। आदिपुराण, ५/२४६
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________________ धर्मशर्माभ्युदय में कवि हरिश्चन्द्र द्वारा तपस्यालीन धर्मनाथ स्वामी का वर्णन सजीव होने के साथ-साथ काव्यात्मक भी है।' इसी प्रकार का वर्णन बाहुबलि के प्रसंग में, अमरचन्द्र सूरि द्वारा पद्मानन्द महाकाव्य में भी दिया गया है। इन महाकाव्यों की एक विशेषता यह भी है कि सांसारिक भोगों से विरक्ति का कारण अचानक ही किसी घटना का घटित हो जाना है। इनमें से 'उल्कापात' वैराग्य उत्पन्न करने का मुख्य प्रेरक बना है। धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में स्वामी धर्मनाथ अचानक 'उल्कापात' को देखकर संसार से विमुख हो जाते हैं। यहां जीवन की क्षणभंगुरता की तुलना पद्मपत्र की नोक पर स्थित पानी की बूंद से करके, कवि ने अपनी मौलिक प्रतिभा का प्रमाण दिया है। कभी-कभी आकाश में लुप्त होता हुआ बादल, वृद्धावस्था तथा कमल में बन्द मृत भौंरा भी विरक्ति का कारण बना है। चन्द्र-ग्रहण और अनलंकृत शरीर भी वैराग्य का प्रेरक बना है। केवल पद्मानन्द महाकाव्य में ही कवि अमरचन्द्रसूरि ने 'मोक्षावस्था' का वर्णन किया है। यह पद्य जैनदर्शन की 'निर्वाण-भावना' के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार यद्यपि शान्त रस का वर्णन भरत द्वारा अपने नाट्यशास्त्र में नहीं किया गया था, लेकिन बाद में इसे जोड़ दिया गया। इससे शान्त रस की स्वीकृति में बौद्ध और जैन दर्शन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। जैन महाकाव्यों के कवियों ने शान्त रस के प्रसंग में, जैन दर्शन में वर्णित लगभग सभी 12 अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का वर्णन अपने काव्यों में किया है। इन महाकाव्यों में सभी रसों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके लेखकों ने मनुष्य-जीवन के चारों पुरुषार्थों पर समान बल दिया है, यद्यपि प्रधानता शान्त रस की ही है। प्रस्तुत लेख में उन्नीस जैन संस्कृत महाकाव्यों का रस की दृष्टि से आलोचनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यहां पर कुछ इनेगिने पद्यों को ही उद्धृत किया गया है। स्थानाभाव के कारण, सभी रसों का अलग-अलग विभाग-उपविभाग बनाकर उल्लेख किया जाना सम्भव नहीं हो सका। लेकिन इन काव्यों में किस प्रकार सभी रसों का काव्यात्मक निरूपण जैन कवियों द्वारा कितनी सुन्दरता से किया गया है, इसका केवल दिग्दर्शन मात्र ही पाठकों को करवाया गया है। विस्तृत जानकारी, समीक्षा व आलोचना के लिए लेखिका द्वारा लिखित शोध-प्रबन्ध पढ़ें। 1. धर्मशर्माभ्य दय, 20/41 2. पद्मानन्द, 17/363 3. वातान्दोलत्पमिनीपल्लवाम्भो बिन्दुच्छायाभंगुरं जीवितव्यम् / तत्संसारासारसौख्याय कस्माज्जन्तुस्ताम्यत्यब्धिवीचीचलाय / / धर्मशर्माभ्युदय, 20/14 4. हरिवंशपुराण, 16/45, वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, 2/65-68 5. पद्मपुराण, 26/73 एवं 32/66; द्विसंधान, 4/1-6 जयन्तविजय, 18/52, चन्द्रप्रभचरित, 1/68 6. पद्मपुराण, 5/311, आदिपुराण, 8/72 7. मोक्षाप्तौ न जरा नाधिन व्याधिर्न शुचो न भीः / न मृत्युर्न परावृत्तिः प्राप्यन्ते पुनरात्मना / / पद्मानन्द, 14/203 8. "Rasa in the Jaina Sanskrit Mahakauyas" From 8th to 15th Cent. A.D; Deptt. of Sanskrit, University of Delhi, 1977 (इस शोध-प्रबन्ध का प्रकाशन अपेक्षित है।) जैन साहित्यानुशीलन 36