SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्पर्शी है । ' करुण रस के प्रसंग में जैन कवियों ने बहुत ही सरल, सरस सुबोध और प्रसादयुक्त शैली का प्रयोग किया है । कान्त कमनीय पदावली का प्रयोग वर्णनों में चार चांद लगा देता है। पहली बार पढ़ने से ही सारा अर्थ स्पष्ट हो जाता है । अन्त में यह कहना आवश्यक है कि तीर्थंकर के विषय में करुण रस कहीं भी प्राप्य नहीं है क्योंकि वे दुःख और सुख की अनुभूति से ऊपर हैं । रौद्र रस इसी प्रकार रोहिताश्व की मृत्यु हो जाने पर सुतारा द्वारा श्मशान का 'कर' दिए जाने की असमर्थता का चित्रण भी बहुत हृदय जैन संस्कृत महाकाव्यों में रौद्र रस प्रायः राजाओं के वर्णन में ही दृष्टिगोचर होता है । जब एक राजा दूसरे राजा के ऊपर किसी भी प्रकार अपना प्रभुत्व जमाना चाहता है और दूसरा राजा इसका विरोध करता है तो इस प्रकार के वर्णनों में इस रस की निष्पत्ति होती है। एक राजा का दूसरे राजा से 'कर' मांगना या उसकी भूमि को हड़पना या उसकी पत्नी या पुत्री का अपहरण कर लेना या उसका निरादर करना रौद्र रस के मुख्य प्रेरक हैं । पद्म पुराण में कुम्भकर्णं द्वारा वैश्रवण की नगरी को लूटने पर और वैश्रवण द्वारा रावण से उसकी शिकायत करने पर रावण के कोपयुक्त उत्तर का वर्णन रविषेणाचार्य द्वारा 'येनायते', 'शरभायते', 'इन्द्रायते' जैसी नामधातु क्रियाओं के प्रयोग से और भी प्रभावशाली हो गया है।' आदिपुराण में कवि ने बहुत ही आकर्षक ढंग से भरत चक्रवर्ती के अन्धे क्रोध का प्रभावशाली वर्णन किया है जब उसके अपने भाई ही उसके स्वामित्व को अपने ऊपर स्वीकार नहीं करते। इसी प्रकार जब राजा मधुसूदन, सुप्रभ बलभद्र व नारायण के ऊपर अपना अधिकार जमाना चाहता है तो उनकी क्रोधाग्नि का वर्णन उत्तरपुराण में सरल भाषा में होने पर भी बहुत ओजस्वी व प्रभावशाली बन पड़ा है।* रावण द्वारा सीता का अपहरण कर लिये जाने पर रावण के प्रति राम का प्रदीप्त क्रोध गुणभद्र द्वारा बहुत ही प्रभावोत्पादक व ओजस्वी ढंग से प्रस्तुत किया गया है । कठोर व संयुक्त शब्दों का तथा लम्बे समासों का प्रयोग रौद्र रस के अनुरूप है । धर्माभ्युदय महाकाव्य में 'कवि उदयप्रभसूरि' ने भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय के प्रसंग में उसके द्वारा स्व-नामांकित बाग को मगध नरेश के राज्य में गिराये जाने पर, मगध नरेश की मनःस्थिति की प्रक्रिया को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है । कवि ने दो संक्षिप्त श्लोकों में ही कई उपमाओं का प्रयोग किया है । अन्तिम उपमा बहुत ही मौलिक व प्रभावशाली है। इसी प्रसंग का वर्णन कवि अमरचन्द्र सूरि द्वारा अपने पद्मानन्द महाकाव्य में भी बखूबी किया गया है। शब्दों द्वारा ही मगध १. भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ३/१६०-६८ २. कोऽसौ वैश्रवणो नाम को वेन्द्रः परिभाषते । अस्मद् गोवक्रमायाता नगरी येन गृह्यते ॥ सोऽयं श्येनायते काकः शृगालः शरभायते । इन्द्रायते स्वभृत्यानां निस्त्रपः पुरुषाधमः । पद्मपुराण, ८ / १८१ १८२ ३. आदिपुराण, ३४ / ५८- ६०j ४. सुप्रभोऽपि प्रभाजालं विकिरन् दिक्षु चक्षुषोः । ज्वालावलिमिव क्रोधपावकाचिस्तताशयः ॥ न ज्ञातः कः करो नाम कि करो येन भुज्यते । तं दास्यामः स्फुरत्खड्गं शिरसाऽसौ प्रतीच्छतु ।। उत्तरपुराण ६० / ७४-७५ ५. पितृलेखार्थमाध्याय रुद्धशोकः क्रुधोद्धतः । अन्तकस्यांकमारोढुं स लंकेशः किमच्छति ॥ शशस्य सिंहपोतेन किं विरोधेऽस्ति जीविका । सत्यमासन्नमृत्यूनां सद्यो विध्वंसनं मतेः ॥ उत्तरपुराण, ६८ / २६२-६३ ६. जिघृक्षुः को हरेदंष्ट्रा ? कः क्षेप्ता ज्वलने पदम् ? भ्रान्तारघट्ट चकारमध्ये कः कुरुते करम् ? एन अक्षिपन्मार्गण मृत्युमार्गमार्गणदूतवत् ॥ धर्माभ्युदय ४ / २२-२३ २० Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210888
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo me Rasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy