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नरेश के क्रोध को ध्वनित किया गया है भाषा में महाप्राण, संयुक्त और कठोर शब्दों का तथा लम्बे समासों का प्रयोग वर्णन की शोभा को द्विगुणित कर देता है।'
बादिराज सूरिकृत पार्श्वनाच चरित में केवल मगध नरेश ही नहीं, बल्कि उनके सिपाही भी कोषाग्नि में जलने लगते हैं।'
जैन संस्कृत महाकाव्यों में अज्ञानवश उपेक्षित किए जाने पर नारद मुनि के क्रोध का वर्णन अनेक स्थलों पर प्राप्त होता हैपद्मपुराण में सीता के प्रसंग में, हरिवंशपुराण में सत्यभामा के प्रसंग में, तथा उत्तरपुराण में अपराजित और अनन्तवीर्य के प्रसंग में नारद मुनि का क्रोध रूपक, उत्प्रेक्षा तथा उपमाओं द्वारा चित्रित किया गया है। उत्तरपुराण में कवि ने तीन उपमाओं द्वारा नारद के क्रोध की तीन अवस्थाओं का निरूपण बहुत कुशलता से किया है। पहली उपमा में क्रुद्ध नारद मुनि की बाह्य आकृति का, दूसरी में उनकी मानसिक अवस्था का तथा तीसरी उपमा में उनके चेहरे की भाव-भंगिमाओं व प्रतिक्रियाओं का वर्णन कवि की काव्य-प्रतिभा का परिचय देता है।
केवल पद्मपुराण में ही हनुमान द्वारा अपने पिता वज्रायुध का नाश किए जाने पर लंकेश सुन्दरी के क्रोध का स्वाभाविक एवं विस्तृत वर्णन किया गया है। केवल इसी उदाहरण में किसी स्त्री का युद्ध में रौद्र रूप दिखलाया गया है ।
क्रमशः अपने शत्रु राम और कृष्ण के समीप आने पर क्रमशः रावण और जरासन्ध के क्रोध का एक साथ वर्णन कवि धनञ्जय ने अपने द्विसंधान महाकाव्य में किया है।" रावण और जरासन्ध की मुखाकृति में तुरन्त ही घटित होने वाले शारीरिक परिवर्तनों का वर्णन कवि की मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने की प्रतिभा को सूचित करता है ।
पुनः इसी काव्य में कवि ने यर्थक शब्दों द्वारा राम / कृष्ण के दूत हनुमान / श्रीशैल के द्वारा राम / कृष्ण के साथ युद्ध न करने का संदेश दिए जाने पर रावण और जरासन्ध की कोपवह्नि का वर्णन अत्यन्त काव्यात्मक व सुन्दर ढंग से किया है । समास-बहुला व महाप्राण संयुक्त अक्षर युक्त भाषा वर्णन के सौंदर्य को बढ़ा देती है। 5 आदिपुराण में जब राजा अकम्पन की पुत्री सुलोचना स्वयंवर में जयकुमार का वरण कर लेती है तो एक अन्य चक्रवर्ती के अर्ककीर्ति का क्रोध भड़क उठता है। कवि के द्वारा प्रयुक्त सभी शब्द व उपमाएँ उसके मिथ्या घमण्ड व अन्धक्रोध को ध्वनित करती हैं।
पुत्र
इन काव्यों में रौद्र रस असहाय व कमजोर व्यक्तियों की सहायता करने के प्रसंग में भी चित्रित किया गया है। द्विसंधान महाकाव्य में साहसगति के अत्याचारों तथा क्रूरताओं को सुनकर राम का क्रोध प्रदीप्त हो जाता है । कवि धनञ्जय ने बहुत ही संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली ढंग से राम को यम, गीष्मर्तु, अग्नि तथा सूर्य से भी अधिक पराक्रमी बतलाया है ।" सारा वर्णन ओजगुण से युक्त है ।
१. धूमोर्णापरिवृढदण्डवत् प्रचण्डापातं तं विशिखमवेक्ष्य मागधेन्द्रः ।
साटोप भृकुटिकरालभालपट्टः प्राकुप्यत् कलितवपू रसो नृ रौद्रः ।। कुञ्जान्तः शयनजुषः सुखं मुखे कः सिंहस्य प्रणिहितवान् हठेन यष्टिम् । ज्वालाभिज्वलति बने भृशं कृशानौ कश्चक्रे चरण निवेशनं विसञ्ज्ञः ॥ तस्याहं हरिरिवहस्तिनः प्रभूतं प्रोद्भूतं मदमपहतं मुद्यतोऽस्मि ।
इत्येषः स्फुरदधरः क्रुधा प्रजल्पन्नुत्तस्थौ पुरत इव स्थिते विरुद्धे । पद्मानन्द, १५ / ७१-७३
२. वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ७ / ५५-६०
३. पद्मपुराण, २८ / १७-१८
४. हरिवंशपुराण, ४२ / २७-३२
५. सूर्याचन्द्रमसौ संहिकेयो वा जनिताशुभ: ।
नृत्तासंगात्कुमाराभ्यां क्रूरः सोऽविहितादरः ।।
जाज्वल्यमानकोपाग्निशिखा संतप्तमानसः ।
चण्डांशुरिव मध्याह्न जज्वाल शुचिसंगमात् ।। उत्तरपुराण, ६२ / ४३२-३२
६. पद्मपुराण, ५२ / ३१-३४
७. ततः समीपे नवमस्य विष्णोः श्रुत्वा बलं संभ्रमदष्टमस्य ।
ऋधा दशन्नोष्ठमरि मनःस्थं गाढं जिघत्सन्निव संनिगृह्य ||
मारगादिवाणास्तदुपाश्रयेण ।
पिव्योवोद्गतधूमराजितं धावेन्द्रायुधमध्य विधानमहाकाव्य १९/१-२
८. द्विसंधान महाकाव्य, १३ / २१-२२
६. आदिपुराण, ४४ / १४-१६
१०. पश्यन्निव पुरः शत्रुमुत्पतन्निव खं मुहुः ।
निगलन्निव दिशाचक्रमुद्गिलन्निव पावकम् ।।
संहरन्निव भूतानि कृतान्तो विहरन्निव । ग्रीष्माग्न्यर्कपदार्थेषु चतुर्थ इव कश्चन ।। द्विसंधान, ६ / ३१-३२
जैन साहित्यानुशीलन
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