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________________ कभी-कभी द्वेष ईर्ष्याभाव भी रौद्र रस को प्रेरित करते हैं। हरिवंशपुराण में जरासन्ध की कोधान्नि अपने शत्रु यादवों की समृद्धि को सुनकर भड़क जाती है । ' जयन्तविजय में सिहलनरेश अपने ही व्रत के मुख से राजा विक्रमसिंह के पराक्रम को सुनकर तुरन्त आगबबूला हो जाता है।" कभी-कभी परिवार में सदस्यों का मतवैमत्य भी क्रोध भड़का देता है । पद्मपुराण में वन जाते समय एक ब्राह्मणी राम, लक्ष्मण और सीता को भोजन व आश्रय देती है लेकिन उसके पति को यह बिल्कुल भी पसन्द नहीं आता और वह केवल उनको ही नहीं निकाल देता, कि अपनी पत्नी पर भी अत्यधिक क्रुद्ध होता है।" इसी प्रकार का उदाहरण मुनिभद्र- रचित शान्तिनाथचरित में भी प्राप्त होता है जहां रत्नसार वणिक् अपने पुत्र धनद से इस कारण रुष्ट है क्योंकि उसने सहस्र सुवर्ण मुद्राएं देकर एक श्लोक-पत्र खरीद लिया था। * लापरवाही के कारण एक बहुत ही विस्मयोत्पादक और असाधारण क्रोध का उदाहरण वादिराजसूरि के यशोधरचरित में मिलता है। यहां राजा यशोधर का हस्तिपालक, अपने ऊपर आसक्त उसकी महारानी अमृतवती के साथ, उसके पास निश्चित समय से थोड़ा विलम्ब से आने के कारण, उस पर ( रानी पर ) अविश्वसनीय रूप से क्रोधित होता है। उसके द्वारा रानी के साथ किया गया दुर्व्यवहार उसके रौद्र रूप को प्रकट करता है ।" पद्मपुराण में रविषेणाचार्य ने एक नवीन प्रकार के क्रोध का वर्णन किया है। जब राम को ज्ञात होता है कि सीता दीक्षा ले रही है और देवताओं ने इस कार्य में उसकी सारी बाधाएं दूर कर दी हैं, तो वे देवताओं पर अत्यधिक क्रुद्ध होते हैं। किसी अन्य जैन साहित्य में भी इस प्रकार का वर्णन प्राप्त नहीं होता । वृषभध्वज के तीर्थंकर के जन्म पर स्वर्गलोक में जब इन्द्र का सिंहासन हिलता है, तो उस समय इन्द्र किस प्रकार कोपवह्नि में जलने लगता है--इसका काव्यात्मक व प्रभावोत्पादक वर्णन पद्मानन्द महाकाव्य में किया गया है।" नेत्रों का लाल हो जाना, भृकुटियों का तन जाना, दांतों द्वारा अधर को काटना, शरीर में कम्पन हो जाना, पसीने का बहना आदि सभी अनुभावों का एक साथ समावेश अमरचन्द्रसूरि द्वारा इस वर्णन में बड़ी चातुरी से किया गया है। रौद्र रस के अनगणित उदाहरण इन काव्यों में दृष्टिपथ आते हैं, लेकिन यहां पर केवल कुछ की ही समीक्षा की गई है। उपरिनिखित उदाहरणों से कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि जैन कवियों ने एक साधारण मनुष्य की मनःस्थिति का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर, अपने काव्यों के मुख्य पात्नों में रौद्र रस चित्रित किया है, जो जैन दर्शन के सर्वथा विपरीत है । यहां यह उल्लेखनीय है कि इसी १. हरिवंशपुराण ४०/४ २. जयन्त विजय, ६/५० ३. वातानुकूि उवाच ब्राह्मणी वाचा तक्षन्निव सुतीक्ष्णया । अयि पापे किमित्येषामिह दत्तं प्रवेशनम् ।' प्रयच्छाम्यद्य ते दुष्टे बन्धं गोरपि दुस्सहम् । पद्मपुराण, ३५ / १३-१४ ४. शान्तिनाथचरित, ६ / २६-३० ५. विलम्ब्य काल नरनाथपत्नीमुपस्थितां प्रत्युदितप्रकोपः । आकृष्य केशग्रहणेन घोरं जघान जारः स वरत्न मुष्ट्या ॥ निकृष्यमाणा भुवि तेन पद्द्भ्यां मलीमसेनाकृतविप्रलापा । इतस्ततोऽगात्तमसेव काले निपीड्यमाना दिवि चन्द्रकान्तिः । यशोधरचरित, २/ ! २ / ५२-५३ ६. पद्मपुराण, १०५/८७-८८ ७. तत. कम्पं तनौ कम्पमानपञ्चाननासनात् । संक्रान्तमिव संक्रुद्धः सौधर्माधिपतिर्दधौ । सहस्रनयनस्यासन् शोणा नयनरश्मयः । ज्वाला इवान्तरुद्दीप्तकोपाग्नेनिर्गता बहिः || स्वान्ते समन्ततः कोपज्वलने ज्वलिते द्रुतम् । अभिमानतरोस्तस्य चकम्पेऽधरपल्लवः ॥ रक्तो ललाटपट्टोsस्य स्वेद बिन्दु कुटुम्बितः । अभिसृत्य भृकुट्याssशु श्लिष्टः कलितकम्पया । अये कोऽयमकालेsपि कालेनाथ कटाक्षितः । यो ममाकम्पयन्मृत्युत्कण्ठी कण्ठीरवासनम् । पद्मानन्द, ७ / ४१२-४१६ २२ Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210888
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo me Rasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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