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कारण से साहित्यिक दृष्टि से कथानक का अभिन्न अंग होने पर भी काव्य के अध्ययन के पश्चात्, उसका विवेचनात्मक विश्लेषण करने पर पाठक कुछ असाधारण-सा अनुभव करता है ।
वीर रस
जैन संस्कृत महाकाव्यों में युद्धवीर, धर्मवीर और दानवीर के साथ-साथ दयावीर के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं।
युद्धवीर
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इन काव्यों में युद्धवीर प्रायः राजाओं के वर्णनों में ही प्राप्त होता है ये राजा यद्यपि अहिंसात्मक दृष्टिकोण रखते थे, लेकिन फिर भी अपनी और अपने राज्य की रक्षा के लिए हमेशा युद्ध तत्पर रहते थे । यद्यपि वे स्वयं युद्ध में पहल नहीं करते थे लेकिन शत्रु द्वारा युद्ध के आह्वान पर ईंट का जवाब पत्थर से देने में अटूट विश्वास रखते थे । एक योद्धा का युद्ध में विजय प्राप्त करना या लड़ते-लड़ते मृत्यु की गोद में सो जाना, परम कर्त्तव्य समझा जाता था । "
यह उल्लेखनीय है कि महाकाव्यों की अपेक्षा पुराणों में वीर रस का वर्णन अधिक विस्तृत तथा प्रभावशाली है। जैन महाकाव्यों में युद्धवीर के उदाहरण कवियों द्वारा, किसी राजा के पराक्रम-वर्णन, उसकी सेना के वर्णन, युद्ध में वीरता प्रदर्शन तथा युद्ध - -क्षेत्र के वर्णन में अधिकतर प्राप्त होते हैं ।
वैश्रवण द्वारा लंका पर आधिपत्य जमा लेने पर विभीषण द्वारा अपनी निराश और निरुत्साहित माता कैकसी को, अपने भाई रावण के पराक्रम का वर्णन कर सांत्वना दी गई है।' यहां प्रयुक्त रूपकालंकार रविषेणाचार्य की अद्भुत कल्पनाशक्ति का उद्घोष करता है ।
केवल पद्मपुराण में ही एक स्त्री के युद्धकौशल का वर्णन दिया गया है। अपने पति नपुष की अनुपस्थिति में सिंहिका न केवल आक्रामक राजाओं को ही पराजित करती है बल्कि अन्य राजाओं को भी अपने वश में कर लेती है ।
रविषेणाचार्य ने 'सांगरूपकालंकार' का प्रयोग करके, सरल भाषा में एक छोटे-से 'अनुष्टुप्' द्वारा युद्धक्षेत्र में रावण के पराक्रम का विस्तृत वर्णन किया है । ४
कवि धनञ्जय ने एक ही श्लोक में रावण और जरासन्ध की, युद्धक्षेत्र में वीरता का वर्णन किया है। यह कवि की आशातीत कल्पनाशक्ति और प्रतिभा का सूचक है। "
दूसरी श्रेणी के महाकाव्यों में कवियों द्वारा दिए गए अपने नायकों के पराक्रम वर्णन में अनेक प्रकार की मौलिक और नवीन कल्पनाओं का कुशलता से प्रयोग किया गया है ।
राजा महासेन के पराक्रम का वर्णन कवि हरिश्चन्द्र ने अपने धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में बहुत ही अलंकारिक भाषा में किया है।' कवि 'पुनः महासेन की तलवार का वर्णन करने में कल्पनाम्बर में उड़ता हुआ सा प्रतीत होता है। विस्तृत तथ्यों का वर्णन इतने अल्प शब्दों में करना, संस्कृत भाषा के प्रयोग पर उसका आधिपत्य प्रमाणित करता है ।"
पुनः यह सीधा-सादा सा वर्णन करने के लिए कि महासेन राजा के शत्रु उसकी तलवार द्वारा किस प्रकार छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दिए गए, कवि पुनः नवीन कल्पना का आश्रय लेता है । 'द्विज' शब्द पर श्लेष है । इस वर्णन में कवि ने कृत्रिम और दुर्बोध भाषा का
१. संग्रामे शस्त्रसंपातजातज्वलनजालके ।
वरं प्राणपरित्यागो न तु प्रतिनरानति ॥ पद्मपुराण, २/१७७
२. राजमार्गों प्रतापस्य स्तम्भो भुवनवेश्मनः ।
अंकुरी दर्पवृक्षस्य न ज्ञातावस्य ते भुजी ।। पद्मपुराण, ७ / २४६ पद्मपुराण, २२/११६-११८,
४. प्रेरितः कोपवातेन दशाननतनूनपात् ।
शस्त्रज्वालाकुल: शत्रुसैन्यकक्षे व्यजृम्भत । पद्मपुराण, ८ / २१६
५. एभिः शिरोभिरतिपीडितपादपीठः संग्रामरंगशवनर्त्तनसूत्रधारः ।
तं कंसमातुल इहारिगणं कृतान्त दन्तान्तरं गमितवान्न समन्दशास्यः । द्विसंधान, ११ / ३८
६. नियोज्य कर्णोत्पलवज्जयश्रिया कृपाणमस्योपगमे समिद्गृहे ।
प्रतापदीपाः शमिता विरोधिनामहो सलज्जा नवसंगमे स्त्रियः । धर्मशर्माभ्युदय, २ / १२
19.
निपीतमातंगघटाय शोणिता 'दृढावगूढा सुरतार्थिभिर्भटैः ।
किन प्रतापनमासदत्तमित्यमस्वामि
धर्मशर्माभ्युदय २ / १२
जैन साहित्यानुशीलन
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