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प्रयोग किया है।'
लेकिन ऐसा नहीं है कि कवि ने हमेशा अलंकारिक और कठिन भाषा का ही प्रयोग किया है। कभी-कभी कवि की भाषा सरल और सुबोध होने पर भी ओजस्वी और प्रभावशाली है। कवि ने युद्धक्षेत्र का वर्णन नवीन कल्पना द्वारा किया है।' यहाँ 'पुण्डरीक' और ‘शिलीमुख' पर श्लेष है । लेकिन एक सुन्दर श्लेष का प्रयोग करने की उत्सुकता में कवि यह भूल गया कि कमल समुद्र में उत्पन्न नहीं होते । नेमिनिर्वाण महाकाव्य में कवि वाग्भट्ट ने राजा समुद्रविजय की वीरता का वर्णन उसके अनुरूप ही भाषा-शैली में किया है। इसमें श्रुतिकटु, संयुक्त, अर्द्धरेफ, कठोर और महाप्राण अक्षरों का प्रयोग हुआ है । लम्बे-लम्बे समासों तथा ओज गुण का प्रयोग वर्णन के सौन्दर्य में चार चांद लगा देता है। कवि, शब्दों द्वारा ही अर्थ की प्रतीति कराने में सफल हुआ है।
अभयदेवसूरि ने अपने जयन्तविजय महाकाव्य में राजा विक्रमसिंह के पराक्रम का वर्णन एक उपभा द्वारा किया है। उसकी कृपाण की यम की जिह्वा से तुलना, कवि की मौलिक प्रतिभा का उदाहरण है ।"
धर्माभ्युदय में कवि उदयप्रभसूरि ने बाहुबलि की वीरता का वर्णन एक निराले व्यतिरेक द्वारा दिया है। कवि वास्तव में प्रशंसा का पात्र है कि इतनी सरल और और प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग करके भी उसने इतना ओजस्वी और प्रभावशाली वर्णन किया है। पद्मानन्द महाकाव्य में अमरचन्द्रसूरि का, अद्वितीय और नवीन 'मालोपमा' की सहायता से, बाहुबलि के अनुपम बल का वर्णन, उसके विस्तृत अनुभव और काव्यचातुरी का सूचक है।'
शत्रु द्वारा चुनौती दिए जाने पर, इन काव्यों के नायक स्वाभिमान को प्रदर्शित करने के लिए आत्म-प्रशंसा करने में भी नहीं हिचकिपाते थे। आदिपुराण में जब भरत चक्रवर्ती अपने भाई बाहुबलि के पास या तो उसका आधिपत्य स्वीकार करने या युद्ध करने का संदेशा भेजता है, तो बाहुबलि का स्वाभिमान तुरन्त जाग्रत हो जाता है। वह या तो युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करने में या विजय प्राप्त करने में ही विश्वास रखता है। एक राजा के लिए इन दो मार्गों में से एक को ही चुनना शोभा देता है।
इसी प्रकार 'चन्द्रप्रभचरित' में वीरनन्दी कवि ने, राजकुमार अजितंजय के मुख द्वारा ही उसकी अद्भुत वीरता का परिचय करवाया है, जब वह अज्ञानवश एक पर्वत पर चढ़ जाता है और पर्वत देवता उसे डराने-धमकाने का प्रयत्न करता है।" अल्पायु होने पर भी वीरता उसमें कूट-कूट कर भरी हुई है।
वसन्तविलास महाकाव्य में जब राजा शंख का दूत, वस्तुपाल मंत्री को चुनौती देता है तो उसके उत्तर में मंत्री, 'रूपकालंकार'
१. तदीयनिस्त्रिशलसद्विधुं तुदे वलाद्गिलत्युद्यतराजमण्डलम् ।
निमज्ज्य धारासलिले स्वमुच्चकैर्ददुद्विजेभ्यः प्रविभज्य विद्विषः । धर्मशर्माभ्युदय, २ /१६
२.हरीकरणाम्।
निपेतुस्तव योधानां तत्र तत्र शिलीमुखा: ।। धर्मशर्माभ्युदय, १६ / ६५
३. झलझलदिग्गजकर्णकीर्णवर्तिरिवाशासु सदा प्रदीप्तः ।
यस्यारिभूभृद्वनवंशदाहे प्रतापवह्निः पटुतां बभार ॥ नेमिनिर्वाण, १ / ६०
४. यस्याहवे वैरिकरीन्द्रकुम्भस्थली गलत्तारक रम्बितांगः |
रेजे कृपाणोऽरिकुलं जिगीषार्यमस्य जिह्व व सदन्तपंक्तिः ॥ जयन्त विजय, १ / ६१
५. पटाञ्चलेन चेद् भानुश्छाद्य: स्यात् तरुणच्छविः ।
यदि ज्वालाकुलो वह्निर्भवेद् ग्राह्यश्च मुष्टिना ॥ ताजस्ता
उत्कषिपौरुषो नान्यैर्जेतुं शक्यः सुरैरपि । धर्माभ्युदय, ४ / २६५-६६
६. पञ्चाननस्येभघटामभित्त्वा पराक्रमः को मृगमर्दनेन ?
प्रचण्डवायोरचलानकृत्वा चलान बलं कि तृणकर्षणेन ? अरं नरस्यानभिभूय लोभं किमद्भुतं दोषविभोषणेन ?
देवस्य कि दिग्विजयेन बाहुबल न चेद् बाहुबलिजितोऽसौ । पद्मानन्द, १७/१५-१६
७. स्वदोर्दुमफलं श्लाघ्यं यत्किञ्चन मनस्विनाम ।
न चातुरन्तमध्येश्यं परभ्र लतिकाफलम् ||
पराज्ञोपहतां लक्ष्मी यो वाञ्छेत् पार्थिवोऽपि सन् ।
सोऽपपार्थयति तामुक्तिं सर्पोक्तिमिव डुण्डभः ।। आदिपुराण, ३५ / ११२-१३
८. चन्द्रप्रभचरित ६/२१-२२
६. दूत ! रे वणिगहं रणट्टे विश्रुतोऽसि तुलया कलयामि ।
मोलिभाण्डपटलानि रिपूणां स्वर्गवेतनमथो वितरामि । वसन्तविलास, ५ / ४४
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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