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रावण की मृत्यु पर लंकावासियों के शोक का वर्णन आचार्य रविषेण ने बहुत ही सुन्दर उत्प्रेक्षा द्वारा दिया है।'
इसी प्रकार के अनेकों वर्णन आदिपुराण', उत्तरपुराण, धर्माभ्युदय महाकाव्य, पद्मानन्द महाकाव्य, शान्तिनाथचरित तथा मल्लिनाथचरित में भी प्राप्त होते हैं ।
इन काव्यों में कई ऐसे करुणास्पद वर्णन भी प्राप्त होते हैं जो पाठकों के हृदय को भी द्रवित कर देते हैं। पद्मपुराण में गर्भवती अञ्जना, किसी गलतफहमी के कारण न केवल अपने पति द्वारा ही; बल्कि सब सम्बन्धियों द्वारा भी त्याग दी जाती है, तो रविषेणाचार्य द्वारा किया गया यह वर्णन कि किस प्रकार असहाय और कान्तिहीन होकर वह वनों में नंगे पैर घूमती है, सभी पाठकों को अधुपूरित कर देता है ।" एक स्थल पर कवि ने वास्तव में एक ही व्यक्ति ( अञ्जना ) में एक साथ अग्नि, जल, आकाश तथा पृथ्वी के गुणों का वर्णन कर अपनी मौलिक काव्यात्मक प्रतिभा को प्रदर्शित किया है। इस प्रकार एक बहुत ही सुन्दर व नूतन उत्प्रेक्षा द्वारा उसके असीम दुःख का वर्णन मार्मिक ढंग से किया गया है।
कवि धनंजय ने अपने द्विसंधान महाकाव्य में राम और युधिष्ठिर की, वन में रहते हुए, दिन व्यतीत करने की अवस्था के वर्णन को, भूतकालिक अवस्था से तुलना करके और भी अधिक कारुणिक बना दिया है।"
केवल जैन संस्कृत महाकाव्यों में ही नहीं, अपितु अन्य संस्कृत साहित्य में भी विनयचन्द्र सूरिकृत मल्लिनाथचरित में राजा हरिश्चन्द्र का अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने वर्णन बहुत ही हृदयावर्जक है । एक राजा की बेबसी, जो अत्यधिक भूख से पीड़ित अपने छोटे पुत्र राजकुमार रोहिताश्व को लड्डू भी न दे सका, पाठकों के हृदय में भी हाहाकार उत्पन्न कर देती है ।" इसी प्रकार महारानी सुतारा भी अपने मालिक से अपने पुत्र को भी साथ ले चलने की प्रार्थना और याचना का, और उसके मालिक का उसके बेटे को पैर मार कर पृथ्वी पर गिराए जाने का वर्णन कठोर से कठोर हृदय को भी द्रवित कर देता है।"
इसी घटना का भावदेव सूरि ने अपने पार्श्वनाथचरित में और भी अधिक मार्मिक और हृदयविदारक रूप से वर्णन किया है।" एक छोटे और भोले-भाले बच्चे का भूखे होने पर भी मोदक की अपेक्षा अपनी मां के साथ रहना अधिक पसन्द करना सारे वर्णन को और भी अधिक करुण बना देता है।" कवि ने यहां बखूबी बहुत स्वाभाविक व सजीव ढंग से एक बच्चे की मनःस्थिति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है।
१. लंकायां सर्वलोकस्य वाष्पदुर्दिनकारिणः ।
शोकेनैव व्यलीयन्त महता कुट्टिमान्यपि । पद्मपुराण, ७८/४५ ]
२. आदिपुराण, ४४ / २६३-२६६
३. उत्तरपुराण, ४८ / ६२
४. धर्माभ्युदय महाकाव्य, ६/४८-४६ और १ / ६८-६६
५. पद्मानन्द महाकाव्य, ४/७६ १००
६. शान्तिनाथचरित, ५/१०१-१०३
७. मल्लिनाथचरित, १/१६६-१७२
८. पद्मपुराण, १६-१७ सर्ग
६. तेजोमयीव संतापाज्जलात्मेवाश्रु सन्ततेः ।
शून्यत्वाद् गगनारमेव पार्थिवीवा क्रियात्मतः । पद्मपुराण, १६ / १६
१०. अपि चीरिकया द्विषोऽभवन्ननु चामीकरदाश्च्युतौजसः ।
कुसुमैरपि यस्य पीडना शयने शार्करमध्यशेत सः ।।
घनसारसुगन्ध्ययाचितं हृदय शैश्चपकेऽम्बु पायितः ।
स विमृग्य वनेष्वनापिवानटनीखात समुत्थितं पपौ ।। द्विसंधान, ४/३६-४०
११. रोहिताश्वस्ततः प्राह तात ! तात ! क्षुधादितः ।
अयोचे पूर्ववत् राजा देहि पुत्राय मोदकम् ।।
देवी सुतारा श्रुत्वेदमन्तर्दाहकरं वचः ।
किमिदं भाषसे स्वामिन् स्वप्नदृष्टसमं ह्हा ।। मल्लिनाथचरित, १/३६०-६१
१२. मल्लिनाथचरित, १/२६२ / ६४
१२. सवाष्प पट्टदेव्यूचे तात ! पुत्र विना मम ।
भविता हृदयं द्वेधा पक्वेर्वारुफलं यथा ॥
मम प्रसादमाधाय गृहाणनं महाग्रहात् ।
अथिनां प्रार्थना सन्तो नान्यथा कुर्वते यतः ॥ भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथ चरित, १/४०१-२ १४. भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथचरित ३ ७७१-७३
जैन साहित्यानुशीलन
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