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________________ वर्णन व्यक्तिगत रूप से न करके सामूहिक रूप से, उनके नामों का उल्लेख किए बिना ही किया गया है। त्रिषष्टिशलाकापुरुष' की श्रेणी में आने वाले महापुरुषों के बारे में श्रृंगार रस यत्र-तत्र ही मिलता है। इसका कारण संम्भवतः जैन कवियों द्वारा उनको आदर की दृष्टि से देखा जाना था। इन कवियों द्वारा तीर्थंकरों के प्रेम का बहुत सीमित वर्णन व्यञ्जना शक्ति द्वारा ही किया गया है, अभिधा द्वारा नहीं। आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में आदि तीर्थंकर वृषभध्वज का अपनी प्रियाओं, सुनन्दा और यशस्वती के प्रति प्रेम का व्यंग्यात्मक चित्रण बहुत ही सुन्दर 'उत्प्रेक्षा' द्वारा किया हैं। यहां पर कवि ने रानी सुनन्दा और यशस्वती के शरीर के रूप में कामदेव के दुर्ग की कल्पना करके अपनी मौलिक प्रतिभा का ज्वलन्त उदाहरण दिया है ! 'दुर्गाश्रित' पद में श्लेष ध्वनित है। पहले भी कामदेव ने 'शिव' पर आक्रमण करने के लिए 'दुर्गा' (पार्वती) का आश्रय लिया था और अब भी वृषभध्वज को अपने पुष्पसायकों द्वारा बींधने के लिए 'दुर्ग' (किले) का आश्रय लिया है। इसी प्रकार भावदेवसूरि ने अपने पार्श्वनाथचरित में पार्श्वनाथ तीर्थंकर की अपनी प्रिया प्रभावती के साथ तुलना बादल और बिजली से की है, जो उनके पारस्परिक चिरस्थायी प्रेम को ध्वनित करता है। इतना ही नहीं, जिस प्रकार बादल स्वयं ही सुन्दर होता है और यदि अनायास बिजली भी उसमें कौंध जाए तो उसकी सुन्दरता में चार चाँद लग जाते हैं, उसी प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ यद्यपि स्वयं लावण्ययुक्त हैं परन्तु प्रभावती के साथ तो उनका सौन्दर्य अवर्णनीय ही हो जाता है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार विद्युतयुक्त बादल सबको प्रसन्नता देता है, उसी प्रकार उन दोनों का विवाह सबको आनन्द व सुख देने वाला था। और भी बिजली और बादल की उपमा उन दोनों के पवित्र और निर्मल प्रेम को भी इंगित करती है। एक छोटे से 'अनुष्टुप्' द्वारा इतनी अधिक बातों को ध्वनित कर कवि ने अपनी काव्यप्रतिभा को द्योतित किया है। अन्य त्रिषष्टिशलाकापुरुषों का प्रेम भी इसी प्रकार बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से चित्रित किया गया है। पद्मपुराण में रविषेणाचार्य द्वारा राम और सीता के पुनर्मिलन का निरूपण अत्यन्त सरस मधुर लेकिन ओजस्वी पदावली द्वारा किया गया है। यहां पर राम और सीता की तुलना शची और शक्र, रति और कामदेव, अहिंसा और धर्म एवं सुभद्रा और भरत से की गई है जो क्रमशः उनकी सुख-सम्पत्ति, रूप-लावण्य, पवित्रता और परस्पर निष्ठा का निदेश करता है । यहाँ पर कवि ने बखूबी एक आदर्श वर और वधू के गुणों को प्रतिपादित किया है। यह सर्वविदित है कि कन्या सुन्दर, माता धनी, पिता शिक्षित और सगे-सम्बन्धी कुलीन वर की आकांक्षा करते हैं जबकि अन्य लोग केवल मिष्टान्न आदि की इच्छा करते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि पद्मपुराण के प्रस्तुत उदाहरण में ऐश्वर्य शची और इन्द्र के द्वारा तथा लावण्य रति और कामदेव के द्वारा ध्वनित किया गया है लेकिन यहां शिक्षा के बदले धर्म और अहिंसा के अर्थात् सच्चरित्रता पर अधिक बल दिया गया है क्योंकि सच्चरित्रता के बिना ऐश्वर्य और सौन्दर्य का क्या लाभ ? इस प्रकार रविषेणाचार्य ने वर और वधु के सबसे महत्त्वपूर्ण गुण का समावेश भी करके अपनी व्यावहारिकता का परिचय दिया है। यह उल्लेखनीय है कि दूसरी श्रेणी के महाकाव्यों ने जैन पुराणों (प्रथम श्रेणी के महाकाव्य) की अपेक्षा शृंगार रस के वर्णन में परम्परा का अधिक निर्वाह किया है क्योंकि इनमें ऋतु, पुष्पावचय, जलक्रीड़ा, दोलाक्रीड़ा, चन्द्रोदय आदि का परम्परागत रूप में विस्तृत वर्णन किया है । सम्भवतः इन्होंने काव्यशास्त्रियों द्वारा दी गई महाकाव्य की परिभाषा की शर्तों को पूरा करने के लिए ही ऐसा किया है। जबकि दूसरी ओर पुराणों के लेखकों ने नायक-नायिकाओं के प्रेम का सामूहिक रूप से आवश्यक वर्णन न करके परम्परा का अन्धानुकरण नहीं किया है। इन्होंने संभोग शृंगार का प्रसंगानुकूल ही समावेश किया है और वह भी बहुत ही संक्षिप्त ढंग से। दूसरी श्रेणी के महाकाव्यों में संभोग शृंगार का बहुत ही अनावश्यक, अवाञ्छित और विस्तृत वर्णन तीन-चार सर्गों में किया गया है। कभी-कभी तो यह वर्णन बहुत ही अशिष्ट, अरुचिकर, अश्लील और मर्यादारहित भी हो गया है और इससे कथानक का विकास भी अवरुद्ध हो गया है। इस विषय में पुराणों के लेखक वास्तव में श्रेय और प्रशंसा के पात्र हैं। इनमें केवल त्रिषष्टिशलाकापुरुषों का ही नहीं, १. अनंगत्वेन तन्नूनमेनयोः प्रविशन वपुः ।। दुर्गाश्रित इवानंगो विव्याधनं स्वसायकैः ।। आदिपुराण, १५/६८ २. जातोद्वाह इति स्वामी नीलरत्ननिभस्तया। गौरांग्या शुशुभेऽत्यन्तं विद्य तेव नवाम्बुदः ।। भावदेवसूरिकृत पार्श्वनाथचरित, ६/४८ ३. शचीव संगता शक रतिर्वा कुसमायधम् । निजधर्ममहिंसा नु सुभद्रा भरतेश्वरम् ।। पद्मपुराण, ७६/४७ ४. कन्या वरयते रूपं माता वित्तं पिता श्रुतम् । बान्धवाः कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरे जनाः ॥ कालिदासकृत कुमारसम्भव, सगं ५ के श्लोक ७१३ पर मल्लिनाथ-भाष्य । जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210888
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo me Rasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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