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________________ वज्रजंघ की नाभि का वर्णन करने में तो कवि जिनसेनाचार्य ने कमाल ही कर दिया है। प्रसंगानुकूल 'उत्प्रेक्षा' का प्रयोग वर्णन की सुन्दरता में चार चांद लगा देता है। इसी प्रकार अक्षि, ओष्ठ, भुजाओं आदि का भी अलंकृत वर्णन प्राप्त होता है। शृंगार रस के सन्दर्भ में जैन कवियों ने कान्त कमनीय पदावलि का ही प्रयोग किया है । प्रसाद, माधुर्य व ओज गुण का समावेश है। अभिधा की अपेक्षा व्यंजना शक्ति का ही अधिक आश्रय लिया गया है। परिणामस्वरूप इन महाकाव्यों में शृंगार रस का निरूपण ललित एवं मधुर है। हास्य रस जैनेतर महाकाव्यों की भांति जैन संस्कृत महाकाव्यों में भी हास्य रस यत्र-तत्र ही प्राप्त होता है। असंगति के कारण उत्पन्न हास्य रस का सुन्दर उदाहरण जिनसेनाचार्य के आदिपुराण में प्राप्त होता है। यहां पर कवि ने एक ओर तो वृद्ध लोगों की कामभावना का उपहास किया है तो दूसरी ओर युवा भी धैर्यहीन और जल्दबाज होते हैं। अतः कवि द्वारा 'जरहस' और 'हंसयूना' शब्द का साभिप्राय प्रयोग किया गया है। हास्य का एक बहुत ही रोचक उदाहरण महासेनाचार्य के प्रद्युम्नचरित में है जहां एक पत्नी (सत्यभामा) अपनी ही सपत्नी (रुक्मिणी) को देवी समझकर उससे वरदान मांगती है कि उसका पति उसकी सौत से विमुख हो जाए। स्वामी नेमिनाथ के रूपावलोकन से भावविह्वल युवतियों की प्रतिक्रियाओं का हास्यपूर्ण वर्णन कवि वाग्भट्ट द्वारा नेमिनिर्वाण महाकाव्य में सुन्दर ढंग से दिया गया है। यहां 'असंगति' अलंकार का प्रयोग प्रशंसनीय है। दुसरे की मूर्खतापूर्ण बातें भी पाठकों में हास्य रस का सञ्चार करती हैं। हरिवंशपुराण में रुद्रदत्त द्वारा अपने मित्र चारुदत्त को गम्भीरतापूर्वक स्वर्णद्वीप पहुँचने का सुझाव अत्यन्त हास्यप्रद है। जैन संस्कृत महाकाव्यों में हास्य रस-वर्णन में भ्रान्ति से उत्पन्न अतिशयोक्ति अलंकार अधिकतया प्राप्त होता है। भ्रान्तियुक्त अतिशयोक्ति का एक नवीन प्रयोग धर्मशर्माभ्युदय में प्राप्त होता है, जहां ऐरावत हाथी सूरज को लाल कमल की भ्रान्ति से पकड़ना चाहता है लेकिन उष्ण पाकर उसे तुरन्त छोड़ देता है। प्रद्यम्नचरित में महासेनाचार्य ने श्रीकृष्ण द्वारा अपनी पत्नी सत्यभामा से किए गए परिहास का अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण दिया है। कृष्ण का इस प्रकार ताली बजा-बजा कर हँसना 'अतिहसित' हास्य की श्रेणी में आता है और प्रायः निम्न कोटि के ही पात्रों में दिया जाता है । कवि ने श्रीकृष्ण के हर्षातिरेक को प्रदर्शित करने के लिए ही इस प्रकार का वर्णन दिया है। १. सरिदावर्तगम्भीरा नाभिमध्येऽस्य निर्बभी। नारीदक्करिणीरोधे वारिखातेव हृद्भुवा ।। आदिपुराण, ६/३८ २. मयनाजकिजल्करज. पिञ्जरितां निजाम् । वधूं विधूतां सोऽपश्यच्चक्रवाकी विशंकया। तरगैर्धवलीभूतविग्रहां कोककामिनीम् । व्यामोहादनुधावन्तं स जरद्हसमैक्षत । प्रादिपुराण, २६/६८-६६ ३. देवतास्तुतिविधायक वचः संनिशम्य विपुलो रसोन्नतः । गुल्ममध्यगहनादसी हसन् निर्ययो खचरराजकन्यकाम् ।। प्रद्य म्नचरित, ३/६७ ४. अञ्जनीकृत्य कस्तूरी कुंकुमीकृत्य यावकम् । काचिलिमितनेपथ्या सखीना हास्यतामगात् ।। नेमिनिर्वाण, १२/५१ ५. अतिलघय समा प्राह रुद्रदत्तोऽन्वितादरः । चारुदत्त ! पशून हत्वा कृत्वा भ्रस्राप्रवेशनम् ॥ आस्वहे तन नौ द्वोपे भ.रुडाश्चण्डतुण्डकाः । गहीत्वाऽऽमिषलोभेन पक्षिणः प्रक्षिपन्ति हि ॥ हरिवंशपुराण, २१/१०४-१०५ ६. रक्तोत्पल हरितपत्रविलम्बि तीरे त्रिस्रोतसः स्फुटमिति विदशद्विपेन्द्रः । बिम्ब विकृष्य सहसा तपनस्य मुञ्चन्धुन्वन्कर दिवि चकार न कस्य हास्यम् ।। धर्मशर्माभ्युदय, ६/४४ ७. सा प्रपीष्य तदलं मृगेक्षणा माधवं प्रति लिलेप सुन्दरम्। स्व वपुस्तदवलोक्य केशवस्तां जहास करतालमुच्चकैः ।। प्रद्युम्नचरित, ३/४७ आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210888
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo me Rasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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