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________________ पूरी ही खाली होती हैं और उनका यह क्रम निरन्तर चलता ही रहता है। यहां मृत्यु की तुलना खाली बाल्टियों से की जा सकती है और और भरी हुई की जीवन से । जिस प्रकार ये बाल्टियां खाली होती रहती हैं और फिर भरती रहती हैं, उसी प्रकार इस संसार-रूपी कुएं में मनुष्य जन्म और मृत्यु के चक्कर में निरन्तर ही घूमता रहता है। कवि ने पुनः 'परम्परित रूपकालंकार' का प्रयोग कर संसार-रूपी समुद्र के सभी पक्षों को सुन्दरता से उभारा है। स्वामी वृषभनाथ के मुखारविन्द से उदयप्रभसूरि ने 'धर्माभ्युदय' महाकाव्य में संसार की तुलना एक वन से करवाई है। कवि ने पुनः उसी काव्य में संसार को वन-सदृश मानकर उसमें व्याप्त जन्म-मृत्यु, कषाय, यम, बीमारी, आयु, विषय-भोगों आदि सबका परम्परित रूपकों द्वारा कलात्मक वर्णन किया है।' जो उत्पन्न हुआ है, उसकी मृत्यु भी अवश्य ही होगी। इन काव्यों में इस प्रकार के उदाहरण जैन दर्शन की 'अशरण भावना' के अन्तर्गत सम्मिलित किए जा सकते हैं। पद्मपुराण में जब राजा सगर अपने पुत्रों के भस्म कर दिए जाने पर कारुणिक विलाप करते हैं तो उनके अमात्य यम के चंगुल से किसी के भी न बचने का वर्णन कर सांत्वना देते हुए उन्हें शोकमुक्त करने का प्रयास करते हैं। जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में यम व उसकी सेना का वर्णन करने में निस्संदेह अपनी कल्पना-शक्ति का अद्भुत परिचय दिया है। प्रद्युम्नचरित में महासेनाचार्य का यम द्वारा विवेकरहित होकर सभी को ग्रसित करने का वर्णन प्रभावशाली बन पड़ा है। इसी प्रकार का समान वर्णन हरिश्चन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य में भी किया है। इन काव्यों में धर्म की प्रशंसा करने वाले पद्य जैन दर्शन की 'धर्म-भावना' में आते हैं । धर्म ही इस संसार को धारण कर रहा है और निर्वाण-प्राप्ति करवाता है। जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में धर्म को ही सर्वस्व माना है। अमरचन्द्रसूरि के अनुसार तो धर्मयुक्त मनुष्य ही वास्तव में मनुष्य कहलाए जाने योग्य है। सभी उपमाओं का अपना-अपना महत्त्व है। सरल भाषा एवं कमनीय तथा कान्त पदावली का प्रयोग वर्णन को और भी रोचक बना देता है। यद्यपि धर्म में दस गुणों का समावेश किया जाता है। परन्तु इन काव्यों में विशेष रूप से सत्य, संयम और तप पर ही अधिक बल दिया गया है। मल्लिनाथचरित में विनयचन्द्रसूरि ने सत्य का महत्त्व एक 'मालोपमा' द्वारा दर्शाया है।" निर्वाण-प्राप्ति के लिए अपनी इन्द्रियों और मन को वश में रखना अत्यावश्यक है। रविषेणाचार्य ने एक सुन्दर 'रूपक' का प्रयोग १. पद्मपुराण, ३१/८६-८८ २. मोहभिल्लेशपल्लीव तदिदं भवकाननम् । __ पुण्यरत्नहरैः क्रूरैश्चौरैः रागादिभिवृतम् ॥ धर्माभ्युदय, ३/३४२ ३. धर्माभ्युदय, ८/१७४-७६ ४. पद्मपुराण, ५,२७१-७३ ५. अग्रेसरी जरातकाः पाणिग्रहास्तरस्विनः । ___ कषायाटविकः साद्धं यमराड्डमरोद्यमी ।। आदिपुराण, ८/७२ ६. बाल कुमारमतिरूपयुतं विदग्धं मेधाविनं विषमशीलमयो सुशीलम् । शरं न कातरनरं गणयत्यकाण्डे नेनीयते निखिलजन्तुगणं हि मृत्युः ।। प्रद्युम्नचरित, १३/१३ ७. धर्मशर्माभ्युदय, २०/२० ८. आदिपुराण, ५/१७-१८ ६. तोयेनेव सर: थियेव विभुता सेनेव सुस्वामिना जीवेनेव कलेवरं जलधरश्रेणीव वृष्टिथिया। प्रासादस्त्रिदशायेव सरसत्वेनेव काव्य प्रिय: प्रेम्णेव प्रतिभासते न हि विना धर्मेण जन्तुः क्वचित् ।। पद्मपुराण, १४/१९६ १०. उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्म । तत्त्वार्थसूत्र, १६ ११. यथा पुण्ट्रण रामाया वक्त्राम्भोज विभूप्यते। यथा गंगाप्रवाहेण पूयते भुबनतयम् ॥ यथा च शोभते काव्यं सार्थया पदशय्यया। तथा सत्येन मनुज इहाऽमुत्र विराजते ।। मल्लिनाथचरित, ७/६३-६४ जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210888
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo me Rasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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