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________________ यद्यपि 'खग' साधारण पक्षियों का निर्देश करता है लेकिन कवि ने यहां 'खग' शब्द का गिद्ध, चील आदि के लिए प्रयोग किया है।' जिनसेनाचार्य द्वारा आदिपुराण में युद्धक्षेत्र का वर्णन करने के लिए यद्यपि एक नवीन और सुन्दर उपमा का प्रयोग तो किया है लेकिन कवि यह भूल गया कि नाव कीचड़ में कदापि नहीं चल सकती। चन्द्रप्रभचरित में कवि वीरनन्दि ने भी राजा पृथ्वीपाल और राजा पद्मनाभ के युद्ध के पश्चात्, युद्ध-क्षेत्र का वर्णन एक उत्प्रेक्षा द्वारा किया है। कवि बालचन्द्र सूरि ने भी अपने वसन्तविलास महाकाव्य में युद्ध की समाप्ति पर, मृत योद्धाओं के मांस को खाने वाले गिद्ध और चीलों का तथा खून की नदियों में जलक्रीड़ा करती हुई पिशाचिनियों का चित्रण कर बीभत्स रस का वर्णन और भी प्रभावशाली बना दिया है। पद्मपुराण में रविषणाचार्य के, कुलवन्ता नामक लड़की की बीभत्स आकृति के वर्णन से पाठकों में भी उसके प्रति असीम घृणा उत्पन्न हो जाती है। गुणभद्र ने अपने उत्तरपुराण में वसिष्ठ नामक मुनि का अत्यन्त बीभत्स वर्णन दिया है, जो अन्य लोगों के मन में भी घृणा की भावना उत्पन्न करता है। रविषेणाचार्य ने गर्भस्थ शिशु के वर्णन में भी बीभत्स रस का चित्रण किया है। वादिराज सूरि ने अपने यशोधरचरित में चण्डमारी देवी को बलि देने के स्थान का भी प्रभावशाली ढंग से घणास्पद वर्णन दिया है। इन महाकाव्यों में बीभत्स रस का वर्णन यत्र-तत्र ही प्राप्त होता है, लेकिन जहां भी प्राप्त होता है, वहीं कथानक का एक अभिन्न अंग बन जाता है। इस रस के प्रसंग में पिशाच, राक्षस, प्रेतात्मा, गीदड़, गिद्ध, उल्लू, कुत्ते, सांप, मुण्ड, अर्धदग्ध शरीर, रक्त, मांस, दुर्गन्ध आदि सभी का वर्णन इस रस को और भी सजीव, प्रभावशाली और काव्यात्मक बना देता है। अद्भुत रस जैन संस्कृत महाकाव्यों में अद्भुत रस प्रायः त्रिषष्टि शलाकापुरुषों, अलौकिक और पौराणिक वर्णनों के अतिरिक्त, अत्यधिक सौन्दर्य के प्रसंग में भी प्राप्त होता है । जैन दर्शन में तीर्थकर अद्भुत अलौकिक शक्ति से युक्त माने गए हैं, जो मनुष्यों के दुःखों और कष्टों को दूर करने में समर्थ हैं। हरिवंशपुराण में नेमिनाथ तीर्थंकर के आशीर्वाद से अन्धे देखने लगते हैं, बधिर सुनने लगते है, मूक बोलने लगते हैं और पंगु चलने लगते हैं। उनकी उपस्थिति मात्र से ही सर्वत्र कल्याण ही कल्याण व्याप्त हो जाता है। पुन: कवि ने वृषभदत्त भक्त द्वारा, मुनि सुव्रत तीर्थकर के हाथ पर खीर रखे जाने का वर्णन किया है जो उनके असंख्य शिष्यों के १. बभी महल्लोहितसम्भृतं सरः प्रपीयमानं तवतिभिः खगः । यमेन रक्तं विनिगीर्य देहिनामजीर्णमुद्गीर्णमिवातिपानतः। द्विसंधान, ६/४२ २. चक्रसंघट्टसं पिष्टशवासरमासकर्दमे । रथकट्याश्चरन्ति स्म तनाब्धी मन्दपोतवत् ।। ३. चन्द्रप्रभचरित, १५/४७-५३ ४. वसन्तविलास, ५/६०-६१ ५. सा चिल्ला चिपिटा व्याधिशत संकुलविग्रहा। कथंचित्कर्मसंयोगाल्लोकोच्छिष्टेन जीविता ।। दुश्चेला दुर्भगा रूक्षा स्फुटितांगा कुमूर्धजा । उत्तास्यमाना लोकेन लेभे सा शर्म न क्वचित् ।। पद्मपुराण, १३/५७-५८ ६. जटाकलापसम्भूतलिक्षायूकाभिघट्टनम् । सन्ततस्नानसंलग्नजटान्तमतमीनकान् । उत्तरपुराण, ७०/३२६ ७. पद्मपुराण, ३६/११५-१६ ८. रक्तसमाजिता रक्ता नित्यं यस्याजिरक्षितिः । प्रसारितेव जिह्वोच्चव्या रक्तासवेच्छया ।। मांसस्तूपाः स्वयं यत्र मक्षिकापटलावताः। छदिताश्चण्डमार्येव बहुभक्षणदुर्जराः ।। यशोधरचरित, १/४२.४३ ... हरिवंशपुराण, ५६/७७-७८ जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210888
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo me Rasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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