Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्व० आचार्य श्रीकर्म सिंहजी स्वामि स्मारक ग्रन्थमाला-मौक्तिकम् २१
॥ श्रीअनाथिमुनि-चरित्रम् ॥
योजक:-युवाचार्य महाराज श्रीनागचन्द्रजित्स्वामि-शिष्य-मुनि-रत्नचन्द्रजी.
प्रकाशक:--- कच्छ भोजाय उनडोठ-ग्रामस्य श्रीसंघस्याऽऽर्थिक साहाय्येन श्रावक
वीरचंद लालचंद शाह
आटकोटवाला हाल धुलीया. प्रथम संस्करणम्
प्रति संख्या ५०० वीराब्दम् २५६० इस्खीसन् १९३४
विक्रमाब्दम् १९९० पलHERIORATORRENT
मूल्यम्-परिशीलनम्
HEERENESDEMEMEHERE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
..
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि
गुरुदेव-युवाचार्य श्रीनागचन्द्रजित्स्वामिने
समर्पणम्. संसारात् सागरान्नेत्रे, ज्ञानदानाऽधिकारिणे ।
प्रपित्सतेऽक्षयं स्थान, नागेन्दुगुरवे नमः ॥१॥ भो कृपालो ! गुरुदेव ! संसारसागरनिमज्जन्नहं सदयैः श्रीमद्भिरुद्धतः । पशुतुल्यजीवनजीवन्तं मां भवदौदार्य गुणमयशान्तमुद्रयाऽऽकृष्य भवद्भि-मनुष्यत्वे स्थापितोऽहम् । मद्धत्क्षेत्रे सज्ज्ञानात्मककल्पतरु समारोपे णाऽहं भवद्भिरतीवोपकृतोऽस्मि । यद्यहं भवदाज्ञानुसारेण सच्चरणशीलो भवेयं तदैव तद्भवदुपकृतिऋणमुक्तो भवितुमह क्षमः स्यां, नान्यथा । तथापि मद्धृत्क्षेत्रोद्गतभवद्रोपितद्रुमस्य किञ्चित्फलस्वरुपमिदमनाथिनिम्रन्थचरित्र श्रीमत्करकमले विनयभक्तिभावपूर्वकं समर्प्य कृतकृत्यो भवाम्यहम् ।।
श्रीमत्पादारविन्दमधुपः वीरान्दम् २४६०
शिष्य-रत्नेन्दुः॥
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
अनाथिमुनि
___ अस्माकं वन्दनम् Com भवबीजांकुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णु वर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै
॥१॥
यत्र तत्र समये यथा तथा, योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । वीतदोषकलुषः स चेद्भवान्नैक ! एक ! भगवन् ! नमोऽस्तु ते ॥१॥
औलोक्य सकलं त्रिकाल विषयं सालोकमालोकित, साक्षायेन यथा स्वयं करतले रेखात्रय सांगुलि । रागद्वेष भया भयान्तक जरा-लोलत्वलोभादयो, नाल यत्पदलं घनाय स महा-देवो मया वन्द्यते
॥२॥
यो विश्वे वेद वेद्य जननजलनिधे में गिनः पारदृश्वा, पौर्वापर्या विरुद्ध वचनमनुपम निष्कलंक यदीयम् । तं वन्दे साधुवन्द्य सकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषन्त, बुद्ध वा वर्द्धमान शतदलनिलय केशव वा शिव वा ॥१॥
(कुमारपाल चरित्रात)
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनायिमुनि
बे बोल
* ___आ अनाथिमुनि-चरित्रना प्रकाशन माटे कच्छ अष्टकोटिबृहत्पक्षना युवाचार्य महाराज श्रीनागचन्द्रजी स्वामीना बालब्रह्मचारी, विद्यारसिक शिष्य मुनि श्रीछोटालालजी स्वामीनी दीक्षा संवत् १९८८ना फाल्गुन शुदि १० गुरुवारे कच्छ लुणीमां थयेल, ते प्रसंगे कच्छदेशना गामो भोजाय अने उनडोठना श्रीसंघोए भरावेल पसलीनी एकट्ठी थयेल रकमनी आर्थिक साहाय्यथी आ चरित्र छपाववामां आवेल छे. तेथी ते ते गामोना श्रीसंघोनो आ स्थले आभार मानवामां आवे छे.
धनिको पोताना द्रव्यनो आवो सदुपयोग आवी रीते उत्तम पुस्तकोना प्रकाशन माटे अने धर्म अर्थे हरहमेशां करवा प्रेराय एवो समय त्वराथी आवी लागे एम हुँइच्छुछु. श्लोकः- उपजातिः
कालानुभावान्मतिमान्द्यतश्च, शानागमः पुस्तकमन्तरेण ।
न स्यादतो ग्रन्थप्रकाशन हि, श्राद्धस्य युक्त नितरां विधातुम् ॥ १॥ आबालवृद्धो सहु आ अनाथिमुनि चरित्रनी पवित्र कथा वांचशे, वंचावशे अने यथाशक्ति जीवनमा उतारशे तो आ दाननी सार्थकता थशे अने आ चरित्र योजकनो प्रयास सफल थयो गणाशे.
____ आ चरित्रनां प्रुफो, जीर्णगढ (जूनागढ) निवासी थिरपुर (थराद) इंग्लीश स्कूलना हेडमास्तर रा. रा.
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
शिवदत्तरायभाइ माधवराय कीकाणीए सौजन्यतापूर्वक निष्कामभावे सुधारी आपेल छे. ते माटे तेओश्रीनो आ स्थले खास आभार मानवामां आवे छे.
अनाथिमुनि
पोष वद ६ शनिवार
सं. १९९०.
निर्ग्रन्थोना पादपद्मनो उपासक. शाह वीरचंद लालचंद आटकोटवाला
__हाल धुलीया (पश्चिम खानदेश)
सूचना
आ चरित्र संस्कृतना अभ्यासीओ अने पुस्तकालयोने भेट भापवान छे. जिज्ञासुओए पोष्टेजनो एक आनो नीचेना स्थले मोकली मंगावबु.
ठे० शाह वीरचंद लालचंद (पश्चिम खानदेश) मु. धुळिया.
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि
ॐ प्रासंगिक-वक्तव्य गमे तेटली आपणी मानीए तो पण काया अने माया कोइनी थइ नथी. छतां मनुष्यो तेनी वधारेमा बधारे संभाळ ले छे, ज्यारे वस्तुतः तेना तरफ ओछामां ओडुलक्ष आपQ जोइए, जगतूनी जंजाळनां ते बन्ने मूळ कारण छे. तेनु मूल्य आंकवामां जेटली उणप रहे ते प्रमाणमां देहधारीने भ्रम रूपी भूतनो वळगाड वळगे छे. अर्थात् सत् अने असत् वस्तुनो विधेक गुमावी चोराशीना चक्करमा तेने गोथां मारवां पड़े छे.
मानवजन्म अति दुर्लभ छे. संसार सागर तरवा माटेनी ते अपूर्व अने एक मात्र नौका छे. . सत्कर्म नो उदय होय तोज आ अमूल्य प्राप्ति थाय छे. आवो पूर्वकृत पुण्यथी मळेलो भव वेडफी नांववानु बुद्धिहीन सिवाय बीजा कोने पालवी शके ? आवो उत्तम भव सुधारवा माटे ज्ञानपूर्वक सत्संग, साधुजनसेवा, आचार अने विचारनी ऐक्यता अने परोपकार परायण जीवन खास आवश्यक छे. संसारना मिथ्या संबंधो तरफ अनासक्तिभाव केळवाय तोज आत्मानु कल्याण थइ शके अने मनुष्यभव सफळ थयो गणाय.
उराम पुरुषोना जीवनचरित्रो उपदेशपूर्ण होइ मनुष्यने मार्गदर्शक थइ पडे छे. तेओ पोतानां अलौकिक जीवन द्वारा आ विचित्र संसारनी असारताने स्पष्ट रीते जाहेर करे छे, अने मनुष्यने सन्मार्ग तरफ प्रेरे छे. ग्राहकशक्तिना प्रमाणमा तेमने पगले पगले चलाय तो तेथी सुख अने शान्तिनो मधुर आस्वाद अनुभवाय.
जगत्ना विषमय विषयी पदार्थो अनर्थना उत्पादक छे. जीवनचरित्रो द्वारा प्राप्त थतो सदुपदेश आवा
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनायिमुनि
विषयी पदार्थो साथेनी अथडामणमाथी मनुष्यने उगारी ले छे, एटलुज नहि पण सरल अने उन्नतिप्रद होर आदर्श तरीके गणाय छे. अनुभव आ सत्यनी सचोट साक्षी पूरे छे.
कषुछ केआपदा कथितः पन्था, इन्द्रियाणादसंयमः। तज्जयः संपदा मार्गो, येनेष्टं तेन गम्यताम् ॥१॥
अर्थात् इन्द्रियोने निरंकुश छूटी मूकी देवामां दुःखनोज अनुभव करवो पडे छे. धन्य छे ते उन्नत जीवात्माओने के जेमणे इन्द्रियो उपर संपूर्ण विजय मेळवी आत्मकल्याणनो विरल मार्ग देखाडी मनुष्यजात उपर परम उपकार कर्यो छे.
चरित्रात्मक सारराजगृही नामनी नगरी हती. त्यां श्रेणिक नामनो राजा हतो. एक समये मंडितकुक्षीवनमा फरतां एक अकिंचन छतां पण दिव्य व्यक्ति रष्टिगोचर थइ तेनी आकृति परथी राजाना मनमा अनेक तर्कवितर्क थया. निराकरण अर्थे राजा ते त्यागी पुरुष पासे विनीत भावे जाय छे, अने त्यागधारण करवानु कारण पूछे छे. उत्तरमा पोतानी वीतक कथा कही, "अनाथ" मटी "सनाय" थवा माटेज त्यागवृत्ति ग्रहण कर्यानु जणावी मुनिपुंगव श्रीअनाथिनिग्रंथ नृपवरने "अनाथ" यथार्थ स्वरूप समझावे छे, अने त्यागी तेमज रागीना दृष्टिबिन्दु विषे रहेलु महान् अन्तर-सामसामी दिशाओ जेटलु-उपदेश आपी तेनी समक्ष खडुकरे छे.
जेने माता, पिता, सुत, भगिनी, दारा, धन, धाम विगेरे ऐहिक सुख सगवडनां साधनो होय तेने
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
श्री
अनाथिमुनि
दुनियांनी दृष्टिए अनाथ कही शकाय नहि; पण वास्तविक रीते आ बधा सबंध स्वार्थ पुरता अने श्वासोश्वास सुधीनाज होय छे, एटले आ बधी अनुकूळताओ होवा छतां पण मनुष्य अनाथ रहे छे. खरो समय आवी. लागे छे त्यारे कोण माता अने कोण पिता ? अरे पोतानी गृहलक्ष्मी जेने शास्त्रकारो अोगना तरीके ओळखावे छे ते पण क्षणमात्रमा बंगळी थह जाय छे. ते बखते साधनसंपन्न मनुष्यने पोतानी खरी स्थितिनो यथार्थ ख्याल थाय छे. माटेज महात्मा-पुरुषो खपरतुं कल्याण साधवा माटे उपदेश आपे छे केः
"खंतो दंतो निरारंभो, पब्बइए अणगारियं" खरो सनाथ तो तेज छे के जे क्षणभंगुर संबंधोना मोहपाशमां न फसातां श्रद्धा अने सानपूर्वक आत्मकल्याणनो अविचळ-मार्ग पकडी समस्त जीवात्माओने अभयदान आपे छे.-आवो सचोट उपदेश सांभळतां राजानी आंख उघडी जाय छे, अने सेना, संपत्ति, सत्ता व्हाय तेटला होय तो पण-आखर वखते तहन निरर्थक तेमज बोजारूप नीवडे छे, एम ते कबूल करे छे. . शास्त्रकारो पण कहे छ के
जरा जाव पीडेइ, बाही जाव न बढ़इ ।
जाविंदिया न हायं ति, ताव धम्म समायरे ॥१॥ मतलबके समय होय ते दरम्यान सावधान था जवु एज परमपद पामवानो प्रिय पंथ छे. अन्यथा महात्मा भर्तृहरिजी कहे छे तेम
"सन्दोप्ले भवने तु कूपखनन प्रत्युद्यमः कीदृशः"
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
अनाथिमुनि ।
अर्थात् घरने आग लाग्या पछी कुवो खोदवानी तैयारी करवा जेवु थाय..
आ प्रमाणे मुनिवर्य श्रीअनाथिमुनि श्रेणिकराजाने उपदेश आपी तेमने सनाथ शब्दनो अर्थ सुन्दर रीते समजावे छे.
आ चरित्र परथी एज सार लेवानो छे के परम कृपाळु परमात्माए दरेक जीवात्माने अखूट स्वातंत्र्य अने सामर्थ्य बक्ष्यु छे, तेनो उत्तम भावथी सदुपयोग करवो अने तेम करीने मनुष्यभावना अन्तिम लक्ष्यने पहोंची
बळबु.
आ चरित्र पवित्र जैनागम श्रीउत्तराध्ययनजीसूचना २० मा अध्ययनना अनुसार विद्याव्यासंगी मुनिश्री रत्नचन्द्रजी महाराजे लोककल्याण माटे लखी भारे परिश्रम उठाव्यो छे, ते बदल आ स्थले तेओश्रीनो विनीतभावे उपकार मानुछु.
संवत् १९९०
सत्पुरुषोनो कृपाकांक्षीशिवदत्तराय माधवराय किकाणी.
थराद.
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥नमः श्रमणाय भगवते महावीराय ॥
अनाथिमुनि
॥श्री अनाथि-मुनेश्चरित्रम् ॥
॥ मङ्गलाचरणम् ॥ . प्रभुं वीरं नमस्कृत्य, सज्ज्ञानधारकं गुरुम् ।
कुर्वे वैराग्यपूर्णा हि, मुनेरनाथिनः कथाम् ॥१॥ अनाथः क उच्यते ? यस्याऽन्तिके जीवनस्येष्टवस्तुमाप्तेरथवा भोगविलासप्राप्तेः साधनान्यपूर्णानि, यस्य च रोगदारिद्रयाद्यापत्समये सहायः स्वजनपरिजनादिः कोऽपि सम्बन्धी नास्ति, तत्त्वतः, स त्वऽनाथ एव गण्यते, किन्तु यस्याऽधीनानि तानि कामभोगसाधनानि सन्ति सोऽत्राऽनाथ:-अशरण इति कथमुच्यते ? अत्र शंकास्थानमेतत् । तां शङ्का निरसितुमत्र दृष्टान्तस्याऽऽवश्यकताऽरित । तदपि सिद्धान्तसम्मतमेव न तु मनः
चरित्रम्
१ अनुष्टुप् ।
www.umaragyanbhandar.com
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara, Surat
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि ॥
कल्पितम् । अतोऽत्र मूलमूत्रस्योत्तराध्ययनस्य विंशतितमेऽध्ययनेऽशरणभावनोपरि निदर्शितमनाथिमुने निदर्शनं युज्यते ॥
तद्यथाराजगृहीनामा नगरी । यत्र दण्ड-बन्धन-ताडन-मदच्छिद्रविलोकनाग्रुपद्रवो नाऽऽसीत् । यदुक्तं
'छोषु दण्डश्चि'कुरेषु बन्धः, शारीषु 'मारिश्च मदो गजेषु ।
हारेषु वै छिद्रविलोकनानि, कन्याविवाहे करपीडनंच ॥१॥प्रा० तत्र श्रेणिकनामा भूपतिः। किं विशिष्टः सः ? यतः
"धर्मशीलः सदा न्यायी, पाने त्यागी गुणादरः।
प्रजानुरागसम्पन्नो, राजा राज्यं करोति सः ॥२॥प्राप्तम् ॥ तस्य मण्डितकुक्षिरित्यभिधानेनाऽऽरामः । स तु नव्यवृक्षवल्ली मण्डपादिमण्डि तोऽनुपमः शोभते स्म ॥ एकदा श्रेणिक भूपः सपरिवारो मण्डितकुक्ष्युपवनमभ्यगच्छत् । उद्याने भूभृति प्रविशति सत्येव तस्यहर
चरित्रम्
१ दृष्टान्तम् । २ इन्द्रवज्ञावृत्तम् । ३ केशसमूहे । ४ सोगठी। ५ ताडनम् । ६ अलङ्कृतः । * अनुष्टुप् ।
Shree SudharmasanGyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
दुरावस्थि तस्यैकस्य पादपस्याभिभुखं पतिता। तत्र तरोरधः किञ्चित्तेजोमयस्वरूपं दृष्टिपथमायातम् । कम्येदं अनाथिमुनि 1
PH तेजस्विस्वरूपमिति ? जिज्ञासाऽजनि, तेन भूपालस्य वाहिनी तदभ्यसरत् । यथा यथाऽग्रेऽगच्छत्तथा तथा नृपते
मानसे विचारोमयः परिवर्तिताः। प्रथम तु दुरतो दृश्यमानं वस्तु काचिद्दिव्याकृतिरियमिति सोऽतर्क यत्, किन्तु 8 समीपं गतेन तेन भूधवेन ज्ञातं यदयं तु मनुष्योऽस्ति । किं च तस्य सौन्दर्य ममानुषमस्ति ॥ यथा
अहो ! आर्यस्य वै रूप-महो! लावण्यवणि का !!
अहो! 'सौम्यमहो! क्षान्ति-रहो ! भोगेष्वसङ्गता ॥३॥प्रा०॥
का तस्याऽऽकर्ष काऽऽकृतिरस्ति ?!। अहो ! का तस्य देहदीप्तिरस्ति ?! | के मनोहरे तस्येक्षणे स्तः!! । तस्य पाटलौ गण्डपिण्डौ तथैवाऽर्धचन्द्राकारं च ललाट प्रेक्षकस्य विस्मयजनकानि सन्ति । न केवलं तस्याऽऽकृतिरेव सुरम्याऽस्ति परं "आकृतिर्गुणान् कथयती"ति न्यायानुसारेण तस्य गुणा अपि तादृशा एव भासन्ते । तस्य शान्ता मूर्तिः समाधिदशा चाऽपि तादृशे एवोत्कटे स्तः। परन्तु कोऽयं पुरुषः ? ईहक शरीरसंपत्ति युवावस्था च सत्यावपि तस्याऽन्तिके भोगसाधनानि कानिचित् कथं न दृश्यन्ते । तस्य समीपं वस्त्राऽऽभूषणानि, सेवकभृत्या,
चरित्रम्
१ सैन्यम् । २ अलौकिकम् । ३ अनुष्टुप् । ४ सौन्दर्य । ५ वेषः । ६ शान्तिः ७ नेत्रे । ८ गुलाबी ।
Shree Sudharma
Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
वाहनादीनि च कानिचिदपि नाऽवलोक्यन्ते । किं तस्यैतादशैव स्थितिः स्यात् । तदपि कथं सम्भाव्यते । अनाथिमुनि 10 अस्य पनिटल तेजसा तु तद्भाति यदेष पुरुषो भाग्यनिधि भवेत्, सम्माप्तसम्पत्तिश्च स्यात् । किन्तु स किं
त्यक्तविभवः स्यात् । यदि चेद्विसृष्ट-समृद्धिक स्तर्हि किमर्थम् । एतादृशा बहुविधास्ता भूधरमनसि क्रमशः समुत्थिताः । किन्त्वेतेषां प्रश्नानां निराकर्ताऽन्यः कोऽपि ना तत्र नाऽऽसीत् ॥
ततः श्रेणिकभूनाथो वाहनादव सोमं भव्याकृतिपुरुषमुपागच्छत् । सागिपुरुषनीतिरोतिज्ञो भकान्तो नियु"क्तकरः सन् मस्तकं प्रणाम्य शिष्टाचारं व्यधात्। ततो विरक्तयुवकस्य लक्ष्य स्वाभिमुखमाकृष्टुं वाग्व्यापारमारभत॥
असौ दिव्यमूर्तिरात्मा नाऽन्यः कोऽपि किन्तु स एको महाव्रतधरो मुनिरासीत् । तरुमूले पद्मासन विधाय शान्तिपूर्वकं समाधिदशायामसौ लीनोऽभवत् । भूपालस्य प्रश्नावलेरारम्भात्पूर्व श्रमणेन स्वध्यान पारित, भूमिपतिना च सह वार्तालाप आरब्धः।
भूमीशोऽपृच्छद् " भो भाग्यविधायक ! तरुणावस्थायामस्यां गृहस्थाश्रमः किमर्थं त्यक्तो भवता ? । किं श्रीमति काऽप्यापदाऽऽपतिताऽभूत् ? केनचित् सह वा कलि र्जातोऽभवदि"? ति ॥
चरित्रम्
१ ललाटम् । २ नरः । ३ उत्तीर्य । ४ ब्रद्धाञ्जलिः ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री अनाथिमुनि
१३
'मुनिराह महाराज!, अनाथोऽस्मि पतिर्न मे।
अनुकम्पाकराऽभावात् , तारुण्येऽप्यातं व्रतम् ॥४॥ प्रा०॥ मुनिना प्रतिभाषितं "हे भूमिपाल !न मयि काचिदाऽऽपत्तिरापतिता तथैव न केनापि सह कलिरपि समजायत । गृहसामे केवलमेक एव हेतुरस्ति स च मेऽनाथता, अर्थान मे कोऽपि नाथः-त्राणः-शरणो वाऽऽसीदतोऽहं गृहाश्रमेऽवस्थानमयुक्तमजान " मिति ।।
श्रेणिकभूमीश्वरोऽपृच्छत् “किं भवाननाथ आसीत् ? । भवदाश्रयदाता भवद्रक्षको वा कोऽपि जनो नाऽमिलदि" ? ति ॥
___ मुनिराह " अथ किं, अहमनाथोऽभवमि" ति ॥ श्रेणिकनृपोऽवदन " मया तु न सम्भाव्यतेऽदः । यतः
__ वर्णादिनाऽमुना साधो !, न युक्ता ते ह्यनाथता !। ईदृक् श्रीमतां सौन्दर्य, मोहन चौजः सन्त्यपि न कोऽपि भवदाश्रयदाता तदहं कथं मन्ये । तथापि | १ अनुष्टुप् । २ अनुष्टुप् , पूर्वार्धः ।
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
युष्मत्कयन कदाचित् सत्यमस्तु, तदा हे भाग्यशेखर ! युष्याकमाश्रयदातू रक्षकस्य वाऽस्त्यावश्यकता?। तादृशः अनाथिमुनि 11 कोऽपि शरणदः प्राप्यते तदा किं भवान् स्वीकुर्यात्त"? मिति ॥
मुनिः प्राह "किं ने" ति ?॥ श्रेणिकनृपतिरभाषत___तदा हि ते त्वनाथस्य, नूनं नाथो भवाम्यहम् ॥५॥प्रा०॥
सुन्दरं सर्वथा तहिं तु, मम सार्धमागम्यताम् । भवत्यहमतीव स्निह्यामि ! श्रीमन्तं मया सहैवाऽहं स्थापयिष्यामि, सर्वथा संरक्षयिष्यामि, श्रीमतश्चाऽहं नाथो भविष्यामि । सर्वथा भवदोयमनोरथान् सर्वान पूरयिष्यामि । भवदिष्टं प्रासाद भवते समर्पयिष्यामि, धनधामकामादीनि च विविधानि साधनान्यहं प्रपूरयिष्ये। अतः परं किमस्ति न्यूनम् । अतः
भोगान् भुंक्ष्व यथास्वैरं, साम्राज्यं परिपालय ।
यतः पुनरिदं मर्त्य-जन्माऽतीवसुदुर्लभम् ॥६।प्रा०॥ १ अनुष्टुप, उत्तरार्धः।
चरित्रम्
Shree Sudharmall
H Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५
गम्यतां, विलसतु श्रीमान् संसारविलास" मिति ॥ मुनिना गदित "हे नृपाल ! पश्चात्त्वं मामामन्त्रयस्व, अनाथिमुनि ।
प्रथमं तु त्वं स्वात्मानमेव विचारये" ति ॥
श्रेणिकनृदेवोऽभणत् “ किमत्र विचारणीयं मया ?। पूर्ण मे सामर्थ्य, पर्याप्ता मम समृद्धिः, पुन फैन केनाऽपि रिपुणा सह योद्धं मेऽलं बलम् । कदाचन भवतां कश्चिदरिः स्यात्तर्हि तस्माद्भवतां रक्षणायाऽप्यह शक्नोम्येवे" ति ॥
मुनिराचष्ट " नराधिप ! शान्तो भव शान्तो भव ! बहु भाषसे त्वम् । विचारसीमोल्लङ्घयते त्वया । अभिमानस्याऽऽवेशेन प्रमुह्यते त्वया । आस्तां ममाऽरे में रक्षण, परं ते विद्विषः स्वात्मत्राणार्थमपि नास्ति तब शक्तिः । मम तव चोभयोरप्याऽऽवयो विपक्षसमक्षं त्वं दीनोऽसि । अतोऽहं तुभ्यं प्रकाम कथयामि यद् यथाऽहमनाथोऽभव तथा त्वं स्वयमप्यनाथ एवाऽसि । त्वमात्मनाऽनाथः सन्त्रपरस्य नाथो भवितुं कथं शक्ष्यसी" १ ति॥
श्रेणिकनरेन्द्रोऽब्रवीत् “कियन्मे सैन्य, कियद् मे बल, कियती च मम प्रख्याति ? स्तयूयं नाऽभिजानीयात, तेनैव मदुपर्यनाथताया मिथ्याऽऽरोपमारोपयत । हे महाराज ! श्रूयतां, मम सेनायां त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि इस्तिनां, त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि घोटकानां त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि स्यन्दनानां त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि च
दूर तिष्ठतु । २-३ शत्रु-।
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
अनाथिमुनि
पदातीनां सन्ति । तथा च मम कोशाऽऽगारेऽअय्या लक्ष्मीरस्ति । यदहमभिलष्यामि तत्माप्तुं शकोमि । कस्याऽपि भोगस्य वस्तु मां दुरापं नाऽस्ति । कीदृशोऽपि रद्विषन्मया योद्धं न ३धृष्णुयादतो भवान विमृश्यैव ब्रूयात् । । यस्य कस्याऽप्यनाथ इति भाषणे भवता भवतोऽज्ञता-भ्रमितता-अविवेकता वाऽऽविष्क्रियत" इति ॥
मुनिरवीचन् “ नराधीश ! ममऽनतामहं प्रतिपादयामि यदि वा तेऽज्ञता वं सँल्लक्षयसि तत्तु कोऽपि तृतीयस्तटस्थजनोऽत्राऽभविष्यत्तहि सोऽकथयिष्यत्, किंच तवाऽग्रेऽहमत्र किश्चिद्वक्तव्यं वक्ष्यामि तच्छुत्वा पश्चात्स्वयमपि स्वमनुमंस्यसे यदज्ञस्त्वहं स्वयमेवाऽस्मीति । श्रुणु, प्रथमं त्वनाथशब्द: केन हेतुना योजितो मया तदपि त्वं नाऽवबुध्यसे। मम गृहे समृद्धि-नाऽऽसीत् कोऽपि वा कौटुम्बिको नाऽभवदतोऽहमनाथोऽस्मिवाऽन्यथा, तदपि त्वयाऽज्ञातं वर्तत" इति।
श्रेणिक नरेशोऽपृच्छन् “मुने ! तदाऽनाथशब्दस्यको ५वाच्यार्थः १ कथं च भवाननाथीभूतस्तच्छ्रोतुमिच्छामि, किं तद्भवान्मां श्रावयिष्यति कृपये "ति ?॥
वाचंयमी कथितवान् “ हे नरपते ! यदि चेद्विक्षेपं विमुच्य शान्या वं शुश्रुषुम्तर्हि तदहं नूनं मुदा श्रावयि-10 ज्यामी "ति॥
चरित्रम्
१ दुःखेन प्राप्तुं योग्यम् । २ शत्रुः । ३ साहस कुर्यात् । ४ प्रकटयसि । ५ यथार्थाऽर्थः ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________ अनाथिमुनि 17 श्रेणिकनरवरेण प्रोक्तं "न मे कोऽपि विक्षेपः। अहं तद्वत्त धृया श्रोतुं सन्निहितोऽस्मि श्रावयत्वतो भवानि" ति // श्रमणस्तच्छावयति, यथा-हे नरनाथ ! मम चरित्र स्वमखेन मया वर्णनीय तदात्मश्लाघारूपमे सनाथाऽनाथयो यथार्थ स्वरूपं बोधयितु तथा विधानाहते नाऽस्त्यऽन्योपायः॥ कौशाम्बीनगरीवास्तव्यः प्रथमतोऽहम् / धनसञ्चयो नाम्ना मम पिता / कौशाम्बीपुर्या स एकः सुगृहीत गृहस्थोऽस्ति / राजकुले प्रजावर्ग चोभययो मम पिताऽतीव माननीयोऽस्ति / मम पितु निधावगण्या श्रीरस्ति / किं बहुना तस्य निधेरये साम्राज्यस्य निधानमपि तृणायते / एवंस धनदोपमः समृद्धः सन्नपि सत्सङ्गपरायणोऽस्ति। "संसारश्रान्तदेहस्य, तिस्रो विश्रामभूमयः / अपत्यं च कलत्रं च, सतां सङ्गतिरेव च ॥७प्रा०॥ पुराऽहं किल गुणसुन्दर इति नान्ना विश्रुतोऽस्मि / अहं बाल्ये प्रभूतप्रभुताश्रीमत्तातले संरक्षितः सन् वृद्धिंगतः, पठितः, कुलीनकन्यया च सह परिणीतः। तावत्काल तु मया केलिक्रीडाभ्रमण-भोगविलासादिकेनैव 1 तत्परः / 2 सुप्रतिष्ठितः / 3 प्रसिद्धः / * अनुष्टुप् / चरित्रम् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री 18 समयो गमितः / दुःखमापदा कीरग्वस्तु स्यात् ! नाऽहं तदप्यबोधम् / ममाऽन्ये भ्रातरो भगिन्यश्चाऽऽसन् / कदापि अनायिमनि केनापि कारणेन तेषां कोऽपि मां नाऽदुनोत् // युवावस्थायामेकेन यूना सह मम सख्यं जातम् / प्रसहमहं मम मित्र चोभावावां द्विघटिकाकाल संगतःघुपाविशाव, शास्रविनोद वार्तालापं चाऽकुर्बाव / यदुक्तम् काव्यशास्त्रविनोदेन, कालोगच्छति धीमताम् व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रया कलहेन च प्रा०॥ मत्सखा मदने सदैव कथामसङ्गे वैराग्यकथां कुर्वाणोऽकथयद यद भो ! गुणसुन्दर ! अस्मॅिलोके सर्वे भोगादिपदार्था भयान्विताः सन्ति / तथैव सम्बन्धिनः सर्वेऽपि स्वार्थ वृत्तय एव भवन्ति / किन्तु परम सौख्यद म निर्मयच मात्र वैराग्यमेवाऽस्ति / यदुक्तम् भोगे रोगभयं कुले 'च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्यं, मौन्ये दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् / 1 सङ्गतौ एकत्र सम्मिलितौ / 2 शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् / 3 संयोगवियोगादि नाशभयम् / चरित्रम् 18 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री अनाथमुनि
१९
शाको वादभयं गुणे खलभयं काये 'कृतान्ताद्भयं,
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाऽभयम् ॥९॥ भर्तृ ० ॥
अतस्त्वं सकलं संसारसम्बन्धं त्यक्त्वा हे मित्र ! शिवसुखायैव यतस्वेति ॥
तदाऽहं तस्य कथनस्य खण्डनमकरवम् । मम स्वकीयदृष्टान्तेनैवाऽहं तस्मै कथयामास यत् पश्यतु, मे पितरौ बन्धवो ललनाप्रभृतयश्च मयि गाढतरं स्निह्यन्ति । ते मां पश्यन्तः सन्त एव पश्यन्तः सन्ति । अहं घटिकामात्रमपि चिराद् दृश्येय यदि, तर्हि ते दूयन्तेतराम् । अस्मत्कुटुम्बे नाऽस्ति स्वार्थिकप्रेम किन्तु वाढतर आन्तरिकप्रेमा परस्परं वर्त्तते । एवं सर्व भोगादिसंयोग प्रत्यक्ष प्रेक्ष्य परित्यक्त्वा च तं परोक्षसुखाय को यतेत ? । या इमे कामा, कालिया जे अणागया ।
I
यतः -
को जाणेइ परे लोए, अस्थि वा णत्थि वा पुणो ॥ १० ॥ उ० अ० ५ ॥
संस्कृतच्छायाहस्ताssगता इमे कामाः, कालिका येऽनागताः । को जानाति परो लोकोऽस्ति वा नाऽस्ति वा पुनः ॥ १० ॥
१ मृत्यो र्भयम् | २ अतीव दुःखं प्राप्नुवन्ति । ३ अनुष्टुप् । ४ कालान्तरे प्राप्तुं योग्याः ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
चरित्रम् १९
www.umaragyanbhandar.com
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
अनाथिमुनि
मम मित्रं मत्कथनमिदं सत्यं नाऽमन्यत । स त्वेवमेव कथयति स्म यदत्र विश्वे पशुपतिमानवगणाः सर्वेऽपि स्वार्थबन्धव एव सन्ति । नाऽस्ति कोऽपि विश्वासस्थानम् । मृते स्वार्थे न कोऽपि कस्यचित् सम्बन्ध्यस्ति।
एकदा शरदि वयमेक तटाकं गतवन्तस्तदा तत्राऽनेकपतत्रिणः क्रीडन्ति स्म, कमलेषु च मधुकरा गुजारवं कुर्वाणा आसन् । पुनद्वितीयवेलायां ग्रीष्मतो गतास्तदा तत्र न किञ्चिदपि दृष्टम् । अतो मम सुहृदा मां कथित “भो ! बन्धो ! पश्येय स्वार्थ बुद्धिः। यतः
गजलरागेआसीद्वारि ह्यासन्नमरा. गतं ह्य दकंगता भ्रमराः। कीहक् सा खार्थिका बुद्धि !-र्न स्तोका प्रेमसंशुद्धिः ॥१॥ स्फुटितपद्मऽभवन्मधुपाः, सङ्कोचे तस्य न हि मधुपाः .
सुखे कुर्वन्ति ये सङ्गतिं, त्यजन्ति ते दुःखे प्रीतिम् ॥२॥ एवमुद्यानवृक्ष पशु पक्षि मानवाऽऽदिखादीनामनेकै निदर्श नैस्तेनाऽल प्रतिबोधितोऽपि दर्ल भवोधित्वान्नाहं
चरित्रम्
१ विगते ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________ अनाथिमुनि किञ्चिदपि तद्वचनं हृदि धारितवान् / मत्साहीत विचारगशावेवाऽहं त्वभिनिवेश्यासम् / मम मित्रमियन्मां किमर्थ कथयति ? तदहं तदा नाऽवोधम् / प्रान्ते मे सुहृन्मत्सा मुधोषरदृष्टिसदृशविप्रलापेन श्रान्तो मामापृच्छय " हे मित्र ! मयाऽऽवश्यककार्यायाऽधुना ग्रामान्तर गन्तव्यमन्ति ततो मम कियत्कालावधि तव सदनेऽनोगमन भविष्यती" ति स गतः। हे नरेश्वर ! मम सहायके मदन्तिकाद्गते सत्येव सद्यो ममाखिलांडगेऽकाण्ड३ वैक्लव्यं समुत्पन्नम् / अस्थिमध्ये काप्येतादृशा व्यथा समुत्थिता यथा विनोदकं मत्स्य इवाऽहं विचेष्टितुं प्रवृत्तः। क्षणेन पल्यङ्के क्षणेन च भूतलेऽहं लुठितुं लग्नः, पर नाऽहं कापि सुख लेभे। तीक्ष्णसूचीसदृशशस्त्राणि शरीरान्तः कोऽपि प्रहरतीव देहे पीडा जाता / "उत्तमाङ्ग वेदनाऽप्यसह्याऽऽसीत् / सर्वाङ्गेषु विपुलदाहोऽजायत / अचिरेणैव मम वेश्मवासिनः प्रातिवेशिकाः कुटुम्बिनश्च सर्वे सम्मिलिताः। सर्वेऽपि मां परिचरन्तिस्म / केचिद्वैद्यान् केचित्तु मान्त्रिकान्, कतिपयाः- "कालज्ञान् कतिपयास्तु भूतविद आकारयितुं प्रश्नयितुं वा मन्त्रयन्ति स्म / एकैके वैद्यादय आगस सर्वेऽपि चिकित्सितुं प्रवृत्ताः / यदुक्त चरित्रम् 1 अभिनिवेशी-आग्रही / 2 ऊषरवृष्टि क्षारभूमौ वर्षण | 3 आकस्मिकम् / 4 पीडा / 5 मस्तक / 6 उपचार सेवां च कुर्वन्ति / 7 ज्योतिर्विदः / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
अनाथिमुनि
वैया वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारान् , नैमित्तिका ग्रहकृतं प्रवदन्ति दोषम् । भूतोपसर्ग इति मन्त्रविदो वदन्ति,
कमेव शुद्धमतयो यतयो रणन्ति ॥११॥सुभाषित०॥ स्वैश्चिकित्सकादिक विविधाऽगदैश्चिकित्सा कृता किन्तु न काचित्पशान्ति र्जाता। "अन्थिक भूतविदादयश्चाऽपि सर्वे क्लान्ताः प्रयाताश्च स्वस्वस्थान, परन्तु न केऽपि मद्वेदनशमनशक्ता अभवन् ॥
प्रभूतकालो व्यतीतः । असह्यवेदनामनुभूयाऽहं तु कातरो जातोऽचिन्तयं च यदस्मात्तु मरणं वरमिति !। समजना अपि सर्वे खिनाः। दिवा "नक्तं च ममाऽत्याक्रन्दै हे न कोऽपि स्तोकामपि शान्ति प्राप्तवान् ।।
ईगवस्थायां कश्चिदेकः परदेशीयश्चिकित्सकस्ता समागतः। स यथा दर्शनीयस्तथैव विचक्षणोऽप्युपालक्ष्यत । मत्पित्रा स भिषगाकारितः कथितं च “मत्पुत्रस्य व्यापिं हरतु, भवतेऽहमभिमतं द्रव्यं प्रदत्स्य"
१ वसन्ततिलका ।:२ बदन्ति । ३ वैद्यादिकैः । ४ रोगपरीक्षा, उपचारो वा । ५ ज्योतिर्विदः । ६ दिवसे । ७ रात्रौ। ( वैद्यः । ९ इप्सितम् ।
चरित्रम्
www.umaragyanbhandar.com
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara, Surat
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि
| इति । वेदोऽभाषत “ न मे 'द्रविणेन प्रयोजन, अहं तु परमार्थ एव भेषज करोमि । मत्सकाशं सन्तीदृशाः सिद्धा औषधयो, यन्मया यस्य रुग्णस्य चिकित्सा कृता स कोऽपि मत्तो निरामयीभूतो न गत इति न किन्तु निरातङ्की भूत्वैव गतः । तथापि न मया कस्मादपि वित्तमादत्तम् । गम्यता, निरूपयामि प्रथम तु युष्मत्तनयतनु मिति पोच्य स मत्समीपमागत्य ममाडी स्वपाणौ गृहीता, मावदच "हे श्रेष्ठिन् ! तवाऽस्य तनुजस्य नाऽस्ति कोऽपि रोगः, किं चाऽमुष्य तु भूतोपसर्ग एवाऽस्ति । एकेन व्यन्तरेण गृहीत एष" इति । मज्जनकेन प्रोक्त भो ! वैदराज ! तस्य प्रतिकारोऽपि भवत्सकाशे तु भवेदेवे" ति ? वैदोऽवदद् "ओम् , अस्त्येव, किन्तु न सन्ति तस्याऽनेक उपायो" इति । मत्तातेनोक्तं किं कार्य प्रभूतोपायै रेकस्त्वस्त्येव ? एतेनैव यदि चे द्रुजा प्रशाम्येहि किमुताऽन्येषामावश्यकते" ? ति ॥
एक उपायोस्ति त्वमोघः,५ परं......" इति भाषमाणो वैद्यो व्यरमत । मम पित्राऽऽचष्टं “पुनः, परमिति किं तदू? व्याकुर्वाणः कथं विरमति भवानि" ? ति । भिषजोदित “स उपायो दुराराध्योऽस्ति । अमुनोपायेन भवत्सूनो यन्तरप्रवेश निष्कासयितुं क्षमोऽस्मि, परन्तु ताम्रजमादातुमन्य एको मानवः सनद्धा
चरित्रम्
१ द्रव्येण । २ रोगिणः । ३ परीक्षे । ४ रोगः । ५ सफलः । ६ समर्थः ।
www.umaragyanbhandar.com
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी
अनाथिमुनि
॥ भवेत् । स व्यन्तरोऽतीव दुष्टो जीवग्राहकोऽस्ति। एकमुद्धरामि तदा तस्मै प्रतिमर्तु मन्येनैकन जनेन सन्निहितेन भाव्य" मिति॥
एतदाकर्ण्य क्षण तु सर्वेऽपि विचारोदधौ निमग्ना अतिष्ठन् । तेषां केचित्तु मेनिरे यदयं चिकित्सको वातुलो जल्पको वाऽस्त्येवेति । एवं विषं कथं भवेत् । अस्तु पश्यतु तावत् ! किं भवतीति ? मनसि ध्यात्वा ते वैद्य कथयन्ति स्म “ हे भिषग्राज ! यूयं गुणसुन्दरांगाद् गदं बहिष्कुरुत, पश्चायं कथयिष्यथ स तं ग्रहीतुमुद्युक्तोऽस्ति । वयं सर्वेऽत्रैव सनद्धा स्तिष्ठाम" इति । भिषगवक "पश्चात्तद्विकत भवद्भिन शक्ष्यतेऽतो विचार्य व ५व्याकुर्याते" ति। सर्वे बभाषिरे "बाढ, वयं विचार्य व वच्म" इति ॥
इयत्मतिपाद्याऽथ वैद्यराजेन मम वासगृहात्मर्वे ऽपि बहिनिष्कासिता, द्वाराणि च पिधत्तानि । मद्वषसि सूक्ष्ममेकं वस्त्रमाच्छाद्य स्वयं मन्त्रजापं कश्चित्कलनः । क्षगान्मम देहे प्रस्वेदो जातश्चेलं च समग्रं क्लिन्नम् । एकस्मिन् ८काचकरके रतदम्बरमापीड्य पुन मदेह आच्छादितम् । एवमेकारं द्विकृत्वस्त्रिश्च तनिष्पीडितं, तेन तत्काचपात्रं पूर्ण स्वेदरूपरोगेण पूरितम् | अहमथ पूर्णतया प्रणष्टव्याधिलब्धसमाधिकोऽभवम् ॥
१ तत्परेण । २ रोगम् । ३ तत्पराः । ४ मिथ्याकतु ५ ब्रूयात् । ६ वस्त्रम् । ७ आर्द्रम् । ८ प्यालो । ९ वस्त्रम् ।
चरित्रम्
E
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
भिषजा कपाटा अपाताः, सर्वेऽपि चान्तराहूताः। २धर्म जलपरिणत गदमल्ल ३ हस्ते लात्वा वैयेन अनाथिमुनि
गदित “पश्यन्तु ! भो ! अयं भवत्पुत्रका सम्पूर्ण तया नीरुजो जातः। तस्याऽखिल ४आतङ्कोऽस्मिन्. ५मल्लके संगतोऽस्ति । प्रकाशयन्तु, रोगभृतमिम करकमधुना पातुं क इच्छती" ? ति वैदोऽघोषयत् ॥
मम जनक जननी सहोदर सोदरीभ्रातृजायादीन् सर्वान् पृथक पृथगाकार्य रोगभृत मल्लकमापातुं वैद्यः कथयांचकार, किन्तु हे नरदेव ! तन्मल्लस्थितप्रवाहिपदार्थः क्षारनिष्कर्ष इवोच्छलनाऽऽसीत्तदा तस्माद् धूमाग्निज्वालासमाचिरुद्गारः प्रादुर्भवनाऽऽसीत् , तेन कारणेन तत्पाने महत्कष्टं मत्वा न कोऽपि साहस चकार ।।
मजनक उदगिरद् यथा-"करकस्थरोगपानं तु करोम्यहं किन्त्वापणव्यवहारः समग्रोऽपि मदायत्तो वर्तते । तत्पानानन्तरं व्यथापीडितोऽहं न तद्व्यवहरणे किञ्चिच्छक्नोमि । अन्यथा मम पुत्रार्थ प्राणान् विहाय 1 मे सर्वस्वमपि दातुमहमुद्यतोऽस्मो" ति ॥
मज्जनयित्री प्रोक्तवती “गुणसुन्दरस्य जनयितुस्तनुरुपतराऽस्ति, ततो मां विना न कोऽपि तां परिपालयितुं शक्तो भवेत् । अतो मरणादन्तरेण मे सर्व मपि १०शुल्क दातुमहं शक्नोमी" ति ॥
। चरित्रम्
१ उद्घाटिताः । २ स्वेद- | ३ प्यालो । ४ रोगः । ५ प्यालो । ६ भगिनी-। ७ तेजाब । ८ अकथयत् । ९ ममाऽधीनः । १० स्त्रीधनम् ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
W
अनाथिमुनि |
२६
ममाऽर्धाङ्गनया लघुडिम्भपालनछप प्रकटित "मत्ते ऋते नैतानि मे बालानि जीवन्ति । यदि मे वल्लभो जीवति तदाऽहं बहुमूल्यानि मदाभूषणान्यर्पयामी" ति ॥
भ्रातरस्तेषां स्त्रीभि निरुद्धाः । मम स्वसः स्वकीयभारो न्यरुन्धन् । अन्ये सम्बन्धिनः केचिन्मलोत्सर्गव्याजेन, केचित्त किञ्चिदन्यकार्य मिषेणैवं सर्वेऽपि पलायिताः।
अन्ते मम व्याधेः करको भिषजा ममोपर्येव सिक्तस्तेनाऽहं पूर्व वदेव पुना रोगग्रस्तो जातः, परमदारुणवेदनां चान्वभवम् । ततश्चिकित्सकोऽप्यन्यत्राऽपैत् ॥
एतस्मिन समये मम मित्रवाक्यमहमस्मरम् । परमार्थतः ! संसारस्वार्थिसम्बन्धो मया चेतसि सम्यग् ज्ञातः ॥ यदुक्तम्
कृतं युद्ध भ्रात्रा भरतविभुना बाहुबलिना, पितु र्घातं चक्र बत ! कुमतिना कूर्णिकनृपः । कृताऽहो ! चुल्लिन्या तनुजहनने स्फारकुमतिः,
सुरीकान्ता राज्ञी स्वपतिमपि हा ! मारितवती ॥१२॥ १ शिखरिणी।
चरित्रम् २६
www.umaragyanbhandar.com
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि २७
'चिच्छेद राज्यलोभैः कनकरथनृपः स्वाङ्गजाङ्गानि लुब्ध्वा, निर्लजः सिंहसेनो युगपददहदात्मीयराइयो निशान्ते। वृत्तान्येतानि भूतान्यहह ! पुनरपीहैवमेवोद्भवन्ति,
संसारे स्वार्थवृत्ति हि तनुतनुभृतां कीदृशी दृश्यतेऽत्र ! ! ! ॥१३॥ इयत्काल वह मोहमस्तो भूत्वा वृथैव कालमपास्यमिति ममाऽवबोधो जातः । तूर्णमेवाऽहमचिन्तयं "यदि चेदिदं मम वैक्लव्यमधुना प्रणश्येत्तर्हि मयाऽसारसंसारोपाधींस्त्यक्त्वा साररूपसंयमः सहसा स्वीकरणीय" ! इति । एवं विचार्य रजन्यामहं सुप्तः । एकः स्वप्नो मया दृष्टः । स्वप्ने मम सखा दृष्टिगोचरो जातः तेनोदीरितं "भो मित्र ! प्रबुध्यस्व, प्रबुध्यस्व, त्वमहं चाऽऽवामुभौ देवावाऽऽस्व । गते देवभवे तवाऽऽयु-र्यदा स्तोकमवशिष्टं तदा त्वयाऽहं वृतो, यथा हे सुहृत् ! तवाऽऽयुष्यमद्यापि मत्तोऽधिकतरमवशिष्यतेऽतोऽहमितो मृत्वा मनुष्यो भवामि, मद्दल भवोधित्वेन ता त्वया मम प्रतिबोधार्थ मागंतव्यम् । येन केनाऽपि प्रकारेण मां त्वं प्रतिबोधयेरिति । मयाऽपि तथेति प्रतिश्रुतं यदहं त्वां प्रतिबोधयितुमागमिष्यामि तदेति । किमेष आवयोः सङ्केतो विस्मृतस्त्वया ।
चरित्रम्
१ स्रग्धरा । २ गृहे । ३ गमितवान् । ४ कथितम् । ५ वचन दत्तम् ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि
क्व गत ते तदानींतन वैराग्यम् ? । क्व गतं ते तदानींतन ज्ञानम् ? । हे वन्धो ! स एवाऽहं प्रतिश्रोता देवोऽद्य तव समक्ष तृतीयवेलायां समुपस्थितोऽस्मि । एकदा मया त्वया सह मैत्र्यं विहित, तव संसारस्वरूपनिदर्शनार्थ प्रयत्नः कृतः किन्तु त्वमसम्बुद्धः । तदा दुःखकारी सन्नपि ससवस्तुज्ञापकोऽयं द्वितीयोपाय दत्तः। द्वितीयवेलायां वैद्यरूपेण तवाऽग्रे समागतः सोऽप्यहमेव । तव वचननिबद्धोऽहमद्य तृतीयवेलायां स्वप्नावस्थायां तब समागमे समायातोऽस्मि । अधुना संसारस्य स्वार्थभृतसम्बन्धस्योपपलक्षण जातम् ? । यदि चेदपलक्षणं जातं भवेत्तर्हि त्वमथाऽऽत्मसाधनकृते सज्जो भव। कृतैकनिश्चयो भव, येन तवाऽखिलाऽपि रोगातिरंजस।२ प्रणक्ष्यतो"ति॥
अत्राऽन्तरेऽहमजागर, यावच्चाऽपश्य तावदमरस्त्वदृष्टोऽभवत् । मया प्रथमत एव निश्चितमासीत् , परन्तु स्वप्नार्थ विचार्य विशेषेण दृढनिश्चयः कृतो, यथाऽधुना ममैतद्वेदनप्रशमनेन सहैव त्वरित संसारसम्बन्धत्यागः कर्त्तव्य इति ॥
हे नरपालक ! एवं निश्चिते सत्येवाऽऽशु मम पीडा शमितुमारब्धा, तत्काल चैव सुखं निद्राधीनो बभूवाऽहम् ॥
* अपरेछु ३रुषायां यदाऽहं प्रबुद्धस्तदा मनिवासौको५ मम सम्बन्धिभिः परिपूर्णोऽभवत् । मम निद्राभङ्गो १ अवबोधः-विवेकः-भान वा । २ शीघम् । ३ प्रातःसमये । ४ जागृतः । ५ ओकः गृहम् । * द्वितीय दिने ।
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि
मा भूयादिति ते सर्वे मौनीभूता मम १प्रबोधन प्रतीक्षमाणा अतिष्ठन् । मयि जागृते सर्वेऽपि "किं विशिष्टो भवानि?" ति मामपृच्छन् । “निरामयोऽह" मिति मया प्रत्युक्ते सत्येव सर्वे सन्तुष्टाः कथितवन्तश्च यदस्माकं प्रतिज्ञा फलितेति । कश्चित्ववदद् यदहमेकं यक्षमुपासितवानिति । कश्चनोवाच “ अम्बिकामाता वृता मये" ति । परमहं व्याजहार यथा नाऽन्यस्यकस्याऽप्यभीष्टं५ फलितं, मात्र ममाऽभिग्रह एव फलितोऽस्ति। मम पितरौ मामपृच्छता "वत्स ! कोऽस्ति तेऽभिग्रहः ? प्रकाशय, प्रथम तवाऽभीष्टं प्रपूरयाम" इति । अहं जगाद "खतो दंतो निरारंभो, पव्वइए अणगारियं । अर्थादिदं ममाऽभीष्टं यदहं निाधितो भवामि तदा क्षान्तः क्षमामाहस, दान्तः दमितेन्द्रियो भूत्वा, निरारम्भः सर्वथाऽऽरम्भपरिग्रहं च सक्ता, प्रबजेय स्वीकुर्या, अनगारितां= साधुत्वमिति !। एवं विमर्श करणमात्रेण मम वेदना प्रलयं गता। अतोऽहं ममाऽऽत्महित साधयिष्यामि । अत्र कृपया मा कोऽप्यात्मसाधनकार्यप्रवृत्तं मां निवारयतु, कांक्षेऽहमेतावतीमत्रभवतां सर्वेषां कृपा" मिति ॥
हे राजन् ! अत्र विषये मम पित्रोः सम्बन्धिनां च सार्थ बहुः संवादो जातः किन्तु प्रान्ते सर्वान् बोधयित्वाऽहं दीक्षां जग्राह, ततोऽहमनाथात् सनाथो जातोऽस्मि । ममाऽऽत्मान्मधुना संरक्षामि तथैवाऽन्यजीवांश्चाताप त्रायेऽतोऽहं किल स्वस्य परेषां च नाथः सातोऽस्मि । अस्मादत्तात्वं स्वयमेव विचारय यत्त्वमात्मना सनाथोऽसि
चरित्रम्
१ जागरणम् । २ मान्यता । ३ याचिता । ४ कथितवान् । ५ मान्यता । ६ पूज्यानाम् ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
अनाथिमुनि
३०
वाऽनाथः । ऋद्धिविलाससाधनानि यानि त्वं मह्यमर्पयितुं भाषसेऽत्र, तेम्योऽप्यभ्यधिकतराणि मया प्राप्तान्यासन्। स्वजनपरिजनमित्रादीन्यप्येतावन्त्येवाऽभवस्तथापि न केनाऽपि मां रोगसन्तापान्मोचयितुं प्राभूयत । अतोऽहं तदाऽनाथीभूत आसम् । हे धराधीश ! बद, दुःखान्मृते व त्राणाय त्वं समर्थोऽसि । अस्मिञ् जगति ज्येष्ठः शत्रु त्युः कर्माणि वा सन्ति, तेभ्यो रक्षितुं नास्ति तव सामर्थ्य मत एव मया "त्वमनाथ" इति कथितम् ॥
किं पुन र्यदि दीक्षितोऽपि सम्यग् न पालयति तदा सोऽप्यनाथ एवाऽस्ति । यदुक्तम्प्रव्रज्य ये पंच महाव्रतानि, न पालयन्ति प्रचुरप्रमादात् । रसेषु यद्धा अजितेन्द्रियाश्च, जिनैरनाथाः कथितास्तएव ॥१४॥प्रा०॥ तेषां साधुता निरर्थका भवत्येव । यतः'निरर्थका तस्य सुसाधुता हि,
प्रान्ते विपर्यासमुपैति योऽलम् । १ उपजातिः । २ उपजातिः ।
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि
न केवलं नश्यति चेह लोक
स्तस्याऽपरः किन्तु भवो विनष्टः ॥१५॥प्रा०॥ कः साधुः सनाथः सन् मोक्ष गच्छति ? । यतःनिरास्त्रवं संयममात्मबुद्धया,
प्रपाल्य चारित्रगुणान्वितः सन् । क्षिप्त्वाऽष्ट कर्माण्यखिलानि साधु
रुपैति निर्वाणमनन्तसौख्यम् ॥१६॥प्रा०॥ भाषस्वाऽधुना हे भूपते ! यदि चेन्मदीयवचनान्यसत्यानि तर्हि तानि प्रत्याकर्ष याम्यहम् ॥
श्रेणिकमहीक्षिता व्याकृतं “भो ! कृतकृत्यमुने ! युष्मद्वाक्यानि सत्यानि सन्ति । ममैव प्रमादोऽयम् । विश्वसिमि भवदचोऽतः परम । अनया रीत्या वह स्वयमप्यनाथोऽस्मि । मया मत्सम्पत्तथैव गर्व: कतः।मरणरसपत्न समक्ष कियत्यपि समृद्धिः कियत्यपि सत्ता वा तुच्छायते । भवानेको दृढवैराग्यवांस्त्यागिपुरुषश्चाऽस्ति ।
चरित्रम् ३१
१ कथितम् । २ -शत्रु-।
18A
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री अनाथिमुनि
।
३२
तथापि यूयं भोगायाऽऽमन्त्रिता मया, तेन भवदपराधः कृतस्तत्कृतेऽहं भवन्त क्षमयामि, भवतश्चाऽनुपमधर्म मथ श्रोतु मिच्छामो" ति ॥
मुनिनाऽपि ततो महीभृते धर्मबोधो दत्तः। तं श्रुत्वा श्रेणिकमहीपालेनाऽनल्पप्रसन्नताभरेण स धर्मः ससम्यक्त्वः स्वीकृतः । यथा
'देवो जिणिंदो गयरागदोसो, गुरू वि चारित्तरहस्सकोसो। जीवाइतत्ताण य सदहाणं, सम्मत्तमेवं भणियं पहाणं ॥१७॥सम्यक्त्वसप्ततिः॥
- संस्कृतच्छायादेवो जिनेन्द्रो गतरागदोषो, गुरुरपि चारित्ररहस्यकोषः । जीवादितत्त्वानां च श्रद्धानं, सम्यक्त्वमेवं भणितं प्रधानम् ॥१७॥
तदनन्तरं त्रिकृत्व २आदाक्षिण प्रदक्षिणां कृत्वा, वन्दित्वा, नमस्कृस, सत्कृस, सन्मान्य, "कल्याणकारी भवान् !, मङ्गलं भवान् !, दैवतं भवान् !, ज्ञानमूर्तिश्च भवान् !, तस्माद् भो ! "भदन्त ! ५अत्रभवन्तं पर्युपासेऽह"
चरित्रम्
१ उपजातिः । २ गुरोर्दक्षिणकर्णादारभ्य वामकर्ण पर्यन्तम् । ३ देवस्वरूपम् । ४ पूज्य !। ५ पूज्यम् ।
AAT३२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री अनायिमुनि ।
मिति च स्तुत्वाऽथ श्रेणिकमहीधर स्ततः प्रस्थितः॥
भव्यात्मनामवबोधार्थ सनाथः सबपि “अनाथी" इत्यभिज्ञानेनोपलक्षितः स मुनिरपि महीमण्डलेऽनेकभव्यजीवान प्रतिबोध्याऽऽन्तरषडरिपु-कामक्रोधमदलोभरागद्वेषात्मकान् विजित्य प्रान्ते निर्भयं सिद्धपदं पाप ॥ तत्र स्थिताः सिद्धजीवाः किं विशिष्टाः ? । यदुक्तम्
अरूपा अपि प्राप्तरूपाः प्रकृष्टा,
अनंगाः स्वयं ये त्वनंगप्रमुक्ताः । अनन्ताऽक्षरा श्चोज्झिता ऽशेषवर्णाः,
स्तुमस्तान् वचोऽगोचरान् सिद्धजीवान् ॥१८॥प्रा०॥ ययोरियती समृद्धिस्तथा बृहद्राज्यमासीत्तथापि तौ गुणसुन्दराख्येभ्य"पुत्रश्रेणिकनृपसदृशावपि यदाऽनाथावास्तां तदा पामरजनैः "वयं सनाथाः" इति वक्तुं कथं युज्यते ॥
महाव्रतधरास्तीव-तपशोषितविग्रहाः। १ अन्यत्रचलितवान् । २ वंशस्थवृत्तम् । ३ अक्षराः-गुणाः। ४ उज्झित वर्जित- । ५ इभ्यधनिक-। ६ अनुष्टुप ।
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि
तारयन्ति परं ये हि, तरन्तः पोतवत्स्वयम् ॥१९॥प्रा०॥
॥ उपसंहारः॥ यस्याऽगारे विपुलविभवः कोटिशो गोगजाऽश्वा, रम्या रामा जनकजननीबन्धवो मित्रवर्गाः । तस्याऽभून्नो व्यथनहरणे कोऽपि साहाय्यकारी, तेनाऽनाथोऽजनि स च युवा का कथा पामराणाम् ? ॥१॥
॥ भावनाशतकम् ॥ भावार्थ:
यस्याऽगारेऽगणिता लक्ष्मीरोसीद, यस्याऽङ्गनेऽगण्यानि करितुरिरथवाहनादीन्यासन् , मनोरमा नार्यपि सानुकूलाऽऽसीत्, पितरौ बन्धवः कुटुम्बिनः परिजनादयश्चापि यस्य बहवोऽभवन , तथापि गुणमुन्दरस्य
चरित्रम्
१ प्रवहणवत् । २ मन्दाक्रान्तावृत्तम् ।
३४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि ॥
(अनाथिमुनेः पूर्वावस्थाया नाम) वपुसि यदाऽतुला वेदना समुत्पन्ना तदा सतां तेषां द्रविणविभक्तृणां सम्बन्धिनामपि न कोऽपि तस्य पोडां विभक्तुं सहायोऽभवत् । हन्त ! कीदृशेयं स्वार्थ वृत्तिः!। अतस्तेन युवकेन खलु निश्चित यदेतावति कुटुम्बे सत्यपि किलाऽहमनाथ एवाऽस्मि ! न कोऽपि मे नाथ इति ॥
भो ! भव्या ! एकस्य कोटिध्वजधनिकस्य पुत्रोऽपि यदाऽनाथ एवाऽगण्यत तदाऽन्येषां पामराणां तु का कथा ?॥
॥ अन्तिमवचनम् ॥ यथाऽनाथिमुनिः प्राप, सनाथतां तथा जनाः । भवन्त्वनाथतो नाथा, भव्याः ! स्वात्मपरात्मनाम् ॥१॥
॥प्रशस्तिः ॥ श्रीकर्मसिंहोऽभवदत्र सूरिः, प्रौढप्रभावी गुरुसम्प्रदाये ।
तच्छिष्यनागेन्दुगुरुः समस्ति, कच्छारव्यदेशे युवसूरिराजः ॥१॥ १ अनुष्टुप । २ इन्द्रवजा ।
चरित्रम्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
तच्छिष्यरत्नेन्दुमुनिप्रणीत-मनाथिनः प्रज्ञमुनेश्चरित्रम् । दीपावलौ धन्यपुरे बुधे च, वीराऽब्दवर्षे खरसैर "जिनेशे ॥२॥युग्मम्।।
अनायिमुनि
॥ इति श्री अनाथिमुनि चरित्रं समाप्तम् ॥
चरित्रम्
१ धानेरा ग्रामे । २ आकाश | ३ रसाः-६ । ४ तीर्थ करः=२४, वीर सं० २४६० वर्षे ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनाथिमुनि
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम्
१ ८ -स्वरुप६४ -दसंयमः ___७ १२ जाव २० ११ तस्यहम्
१ दूरावस्थि तस्येकस्य , कम्येदं
२ -रवरूप. ८ प्रेक्षकस्य १२ ५ -नीति| १२ . ११ केनचित् |, फुटनोट बद्धांजलिः । १३५ -ऽवस्थान
शुद्धिपत्रकम् शुद्धम्
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् -स्वरूप- १६ ४ तेऽज्ञता -मसंयमः
, ७ -स्मिवाजाव न , नाथशब्दस्यको
तस्य हर २१ ३ तता दूरावस्थितस्यैकस्य
११ व्यन्तरं प्रवेश कस्येद
" , सन्नद्धा -स्वरूप
२४ ७ विचार्य व प्रेक्षकस्य
२५ ६ कारणेन -नतिकेनचित्
२८ ३ अदतः बद्धांजलिः। २९ ११ प -ऽवस्थान- ३० तेम्यो
शुद्धम् तेऽज्ञता -स्मि वानाथशब्दस्य को
ततो व्यन्तरप्रवेश
सन्नद्धो
विचार्य व कारणेन आदत्तः
ऽपि
चरित्रम्
तेभ्यो
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री अनाथिमुनि चरित्रं समाप्तम् Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com