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खरतर-पूर्णभद्राणि निम्मिश्र आणंदादिदस उवासगकहाओ
सं. अमृत पटेल
प्रतिपरिचयः
प्रस्तुत 'आणंदादि दस उवासगकहाओ' नी एक मात्र ताडपत्रीय प्रतनी फोटोकोपी मने परमपूज्य प्रवर्तक मुनिश्रीजम्बूविजयजी महाराजे श्रुतप्रसादीरूपे मोकलेल, ते उपरथी सम्पादनकार्य सम्पन्न थयुं छे. जेसलमेरनां ज्ञानभण्डारनी, वि.सं. १३०९ मां लखायेल' आ ताडपत्र प्रतना दरेक पत्रमा ३-४ पंक्तिओ छे. तेमां केटलीक पंक्ति अखण्डित छे, तेमां लगभग ६१ अक्षरो छे; तो केटलीक पंक्तिओ खण्डित छे, तेमां ६-८ अक्षरो छे. अक्षरो खूब झीणा छतां सुवाच्य छे. छतां क्यांक क्यांक पाठवांचनमा क्षति - मारा अल्प अभ्यासवशरहेवा पामेल हशे, तो विद्वान् पुरुषो मने क्षम्य गणे.
कृतिः - 'वादिवृन्दप्रभु' खरतरगच्छीय जिनपतिसूरिना शिष्य पूर्णभद्र गणिो दशम अंगसूत्र ‘उवासगदसा'ना साररूपे, आर्यावृत्तमां निबद्ध करेल छे.
१ली गाथामां मंगलाचरण रूपे वीरजिनने नमस्कार करेल छे. ते वीर जिनना चरणने पांजरा, रूपक अपायुं छे, के जेमां त्रण जगत रूप सालही [देशी नाम ३.४८] सारिकानी जेम निर्भय छे.
रजी गाथामां 'आनन्दादि दस उवासगोनी कहाओ' कहेवानी प्रतिज्ञारूपे अभिधेयनो उल्लेख छे. ३जी गाथाथी १६मी गाथा - वर्ण्य विषयनी यादी = संग्रहणी गाथाओ छे. तेमां दश श्रावकोनां (१) नामो, (२) तेमनी नगरीओनां नामो (३) पत्नीओनां नामो, (४) धर्मप्राप्ति ज्यां थई ते उद्यानोनां नामो, (५) पौषधमा तेमने थयेला उपसर्गो, (६) कालधर्म, (७) अने स्वर्गमां गया ते विमानोनां नामो. त्यारबाद १. आनन्द श्रावक (गाथा १७-१२६) २. कामदेव श्रावक (गाथा १२७-१३९) ३. चुलनीपिता (गाथा १४०-१५०) ४. सुरादेव (गाथा १५१-१५५) ५. (चुल्ल)लघुशतक (गाथा १५६-१६१) ६. कुण्डकोलिक (गाथा १६३-१८४) ७. सद्दालपुत्त (गाथा १८५-२७२) ८. महाशतक (गाथा
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२७३-३२८) ९. नन्दिनीपिता (गाथा ३२९-३३३) १०, लंतिय (शालही० उवा०) पिता (गाथा ३३४-३३८) आटली बाबतोनो संग्रह थयो छे.
___अहीं दरेक श्रावकने ‘गाहावई' गाथापति धनाढ्य-समृद्ध सद्गृहस्थ कह्या छे, एटले दरेक श्रावक समृद्धिसम्पन्न अने समाजमां लब्धप्रतिष्ठ हता. आमां आनन्द श्रावक, कुण्डकोलिक श्रावक, सद्दाल श्रावक अने महाशतक श्रावकनी कथाओ प्रमाणमां कंईक मोटी छे. कारण के आनन्दकथामां तेमनी समृद्धिनुं तथा तेमना अवधिज्ञान अंगेनुं वर्णन छे. कुण्डकोलिक अने कोईक देवनी वच्चे आजीवकमत विषे थयेली चर्चामां देव निरुत्तर थई जाय छे. सद्दालपुत्र पोते आजीवक मतानुयायी हता, वीरभगवाननी देशनाथी सम्यक्त्व पाम्या. त्यार बाद ते समयनां मूर्धन्य आजीवक गोशालक अने सद्दालपुत्र वच्चे चर्चा थाय छे. तेमां आजीवकमतनुं निरसन कई रीते थाय छे तेनुं वर्णन छे. महाशतक श्रावककथामां धर्ममार्गे पौषधव्रतनी आराधना करतां महाशतक ने तेनी ज एक भोग-विलासमग्न पत्नी 'रेवती'अनुकूळ उपसर्गो कर्या हता तेमां निश्चल रहेता महाशतक श्रावकने अवधिज्ञान थाय छे, एचं वर्णन छे.
ग्रन्थकारे ३३९मां प्राकृतभाषामां स्रग्धरावृत्तबद्ध एक ज पद्यमां ग्रन्थनी प्रशस्ति रची छे. त्यार बाद संस्कृत भाषामां मालिनी वगेरे विविध वृत्तबध्ध १० पद्योमां ग्रन्थलेखन प्रशस्ति छे. तेमां ग्रन्थ लखावनार ऊकेशवंशनां भुवनपाल साधुना पूर्वजोनुं वर्णन छे. अन्तमां 'अथ चूर्णि: ना मथाळा हेठळ प्रस्तुत ग्रन्थमा आवता केटलाक प्राकृत देशी - आर्ष शब्दो, संस्कृतभाषामां अर्थ विवरण कर्यु छे. तेमां 'उवासगदसा' नामक आगम ग्रन्थ उपरनी नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरिनी वृत्तिनो पण उपयोग करवामां आव्यो छे. १. प्रस्तुत ताडपत्रीय प्रत वि.सं. १३०९मां, मेदपाट-मेवाडमां बरग्राममां अभयी
श्रावक तथा समुद्धरण श्राविकानी सावि नामनी कुलपुत्रीओ 'धन्य-शालिभद्रकृतपुण्य महर्षिचरितादि पुस्तिका' पोताना श्रेयार्थे लखी छे. पुस्तकनी आ प्रशस्तिनां ९मा पद्यमां पुस्तिका लखावनार भुवनपाल साधुनो उल्लेख छे.
तेना पूर्वजोनो विस्तृत परिचय छे. परन्तु लेखन संवत् नथी. २. जिनपतिसूरिजीए नेमिचन्द्र भंडारीने बोध पमाड्यो हतो. पछी भंडारीओ
षष्ठीशतक ग्रन्थनी रचना करी हती. आ जिनपतिसूरिने पूर्णभद्रगणि
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'वादिविंदप्पहु' कहे छे. ते उचित लागे छे. कारण के जिनपतिसूरिओ 'विधिप्रबोधवादस्थल' नामनो ग्रन्थ रच्यो छे. तेमां (वादिदेवसूरिशिष्य > महेन्द्रसूरि >) प्रद्युम्नसूरिओ 'वादस्थल' नामना पोताना ग्रन्थमां करेल 'आशापल्लीना उदयविहारमा प्रतिष्ठित प्रतिमा पूजनीय नथी', आवा विधान- खण्डन कर्यु छे. सं. १२३३ मां कल्याणनगरमां महावीर भगवाननी प्रतिमानी प्रतिष्ठा करी हती (जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प), तीर्थमाला, जिनवल्लभसूरिकृत 'संघपट्टक' उपर टीका (प्राय: सं. १२९९), जिनेश्वरसूरिकृत पंचलिंगी प्रकरण उपर विवरण वगेरे अपनी रचनाओ छे. (मोहनलाल द. देसाई
जै. सं. साहित्यनो संक्षिप्त इति. पृ. ४९२, सं. मुनिचन्द्रसूरिजी) ३. जिनरत्नकोश. विभाग १, पृ. २२४, तथा पंचतन्त्र उपाख्यान (जे पूर्णभद्रनी
सं. १२५५ नी रचना)ना उपोद्घात, मां डो. सांडेसरा तथा मो.द. देसाई वगेरे 'जिनपतिसूरिशिष्य पूर्णभद्रगणिनो कवन समय १२५५ थी १३०५ गणावे छे. परन्तु 'युगप्रधानाचार्यगुर्वावली' प्रमाणे खर. पूर्णभद्रगणिनी दीक्षा वि. १२६०मां थयेल छे. अटले अगरचंद नाहटा पंचाख्यानना कर्ता अने 'आनंदादिदसकहाओ'ना कर्ता - पूर्णभद्र जुदा हशे अम माने छे. (ही.र. कापडिया, जैन सं. साहित्यनो इति. सं. मुनिचन्द्रसूरिजी - खंड १,
पृ. १३९) ४. पूर्णभद्रगणिनी बीजी कृतिओ आ मुजब छे : १. स्थानांग सूत्र, भगवती सूत्रमाथी उद्धृत करीने 'अतिमुक्तक चरित्र'
(र.सं. १२८२. पालनपुर). २. छ परिच्छेदमां विभक्त 'धन्यशालिभद्र चरित्र' (र.सं. १२८४, जेसलमेर) ३. कृतपुण्यचरित्र (र.सं. १३०५)
आमां सर्वदेवसूरिजीओ सहाय करी हती अने सूरप्रभवाचके कृतिओनुं
संशोधन कर्यु हतुं. ४. 'पंचतन्त्र' आ प्रसिद्ध नीतिकथाग्रन्थ उपरथी 'पंचाख्यान ग्रन्थ'
(र.सं. १२५५ खंभात) ५. आनन्द वगेरे दश श्रावकोनां जीवन उपर [प्रायः उवासगदसाओना
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अनुकरण रूपे] प्राकृतमां बीजी एक रचना साधुविजयशिष्य शुभवर्धन गणीओ 'दशश्रावकचरित्र'नामे करी छे. तेनुं सम्पादन आ. मुनिचन्द्रसूरिजीओ कर्यु छे अने विजयभद्रसूरिचेरिटी ट्रस्टे तेनुं प्रकाशन कयुं छे. ग्रन्थ लेखननी प्रशस्ति संस्कृत भाषामां छे. तेमा मालिनी, वसन्ततिलका स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित, पृथ्वी जेवा प्रसिद्ध छन्दोनो प्रयोग थयो छे. तेमां ८ मुं पद्य 'भामा' नामना अर्धसम (त-भ-स-य + ज-भ-स-य) छन्दमां निबद्ध छ- आ छन्दनु नाम अने लक्षण अक मात्र कानडी दिगम्बर जयकीर्ति कृत 'छन्दोनुशासन (ले.सं. १०५०)मां छे.
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[पीठिका] जस्स पयनहपहाभरपंजरमज्झट्ठिया तिलोई वि । पडिहासइ मि(नि)च्चलसालहि व्च, तं नमिय जिणवीरं ॥१॥ आणंदाइदसण्हं उवासगाणं कहाओ वुच्छामि । दठूण सत्तमंऽगं समासओ आयसरणत्थं ॥२।। तत्थ संगहणिगाहाओआणंदे कामदेवे य, गाहावइचुलणीपिया । सुरदेवे चुल्लसयगे, गाहावइकुंडकोलिय(ये) ॥३॥ सड्डालपुत्ते कुंभारे, महासयए अट्ठमए । नंदिणीपिया नवमे, दसमे सालिहीपिया ॥४॥ [इति श्रावकाः] सिवनंद भद्दा सामा, घण बहुला पुस्स अग्गिमित्ता[य] । रेवइ(ई) अस्सिणी तह, फागुणी भज्जाण नामाई ॥५॥ [इति श्रावकभार्याः] वणियग्गाम चंपा दुवे य, वाणारसीए नयरीए । आलभिया य पुरवरी, कंपिल्लपुरं च बोधव्वं ॥६॥ पोलासं रायगिहं, सावत्थीए पुरीए दुन्नि भवे । एए उवासगाणं नयरा खलु होंति बोधव्वा ॥७॥ [ श्रावकाणां नगर्यः] दूइपलासं तह पुनभदं दो कोट्ठए सरवणं । दोन्नि य सहसंबवण गुणसिलयं कोट्ठए दुबि ॥१८।।
[इति श्रावकाणां व्रतावाप्त्यारामनामानि]
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चत्तारि छच्च अट्ठ य, छट्ठ छच्वेग अट्ठ चत्तारि । चत्तारि य कोडीओ, निहि- वुड्ढि - पवित्रेसु कमा || ९ || चत्तारि छच्च अट्ठ य, छऽट्ठ छच्चेग अट्ठ चत्तारि । चत्तारि वया दस गोसहस्रमाणेण विन्नेया ॥ १० ॥
[ इति श्रावकाणां समृद्धिः गोव्रजसङ्ख्या च] सिरिवीरजिणसगासे, सावयधम्मो दुवालसविहो वि । पडिवन्नो सव्वेहिं वि, तत्तो वरिसम्मि पन्नरसमे ॥११॥ जिट्ठसुए ठविऊणं, गिहभारं सावयाण पडिमाओ । एकारस पडिवन्नाओ वीसं वासाइं परियाओ ॥१२॥
[इति श्रावकाणां धर्मप्राप्तिः प्रतिमाश्च ] ओहिन्नाण पिसाए, माया वाहिंधण उत्तरिज्जे य । भज्जा य सुव्वया, दुव्वया निरुवसग्गा दोनि ||१३||
अंते कयाणसणा मासियसंलेहणा य सोहम्मे । उप्पन्ना सुहभावा एएसुं वरविमाणेसुं ॥ १४ ॥ अरुणे अरुणाभे खलु, अरुणप्पह अरुणकंतऽरुणसिट्ठे । अरुणज्झए य छट्टे, अरुणभूते य सत्तमए भणिए ||१५|| अरुणवार्ड से अरुणगे य, दसमे तह अरुणकीलए । चउपलियाऽऽऊ चविउं सिज्झिस्संती विदेहे ॥ १६ ॥
[इति श्रावकाणां वैशिष्ट्यम् ]
[१] [आनन्द श्रावककथानकम् - ]
[इति पर्यन्ताराधना, सुरविमानानि च] इति पीठिका ||
तत्थ य पढमं समणोवासग आणंदनामधेयस्स | भव्वाण कयाणंदं चरियं परिकित्तइस्सामि ॥१७॥ अस्थि इह भरहवासे, वाणियगामाभिहाण वरनयरं । तं पालइ हयसत्तू, राया नामेण जियसत्तू ॥१८॥ तत्थ सुहि-सयण जणमणकुमुयवणवियासणे अमियकिरणो । आनंदनामधेयो निवसइ गाहावइप्पवरो ॥ १९॥
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दक्खिन्न- सील- सालीणयाइगुणरयणरोहणधरिती । नियपियजणियाणंदा सिवनंदा भारिया तस्स ||२०|| चउरो हिरन्न कोडी निहिम्मि चउरो य वित्थरे तस्स । चउरो कलंतरम्मी सव्वग्गं बारस हवंति ॥२१॥ चत्तारि य तस्स वया गोरूवाणं च अइबलिट्ठाणं । एक्क्क्क चउदस गो- सहस्समाणो मुणेयव्वो ||२२|| तत्थ य रिद्धि-समिद्धा सयणा संबंधि - परियणा सुहिणो । वाणियगामस्स बर्हि, वट्टइ पुव्वुत्ते दिसी (सि) भागे ||२३|| कोल्लागसंनिवेसो, पत्तेय ( तत्थ य ) धणधन्नरमणीओ बहवो । निवसंति सुहसुहेणं आणंद गिहिवइणो ( ? ) ||२४|| [- वीरजिनागमनम् - ]
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अह अन्नया कयाई वाणियगामाभिहाणनयरस्स । ईसाणदिसीभागे दूइपलासम्म उज्जाणे ॥२५॥ सुललियगइप्पयारो सुसाहु - गयकलह - निवहपरिकलिओ । वीरजिणो संपत्ती विहरतो गंधहत्थि व्व ||२६|| जोयणपमाणखित्ता विहुणिय तण - कट्ठ-कयवराईयं । वाउ कुमारेहिं बहिं खित्तं वायं विउव्वित्ता ||२७|| गंधोदगं च वुट्ठ मेहकुमारामरेहिं सुसुगंधं । भूरेणुपसमणट्ठा पविरलधारानिवारण ॥२८॥ रिउदेवयाहिं विहिया वियसियकुसुमाण पंचवन्नाणं । हिट्ठट्ठियवदाणं वुट्टी आजाणु सुरहीणं ॥ २९ ॥ | मणि-कणय-रययविरइय-पायारतियाभिराममोसरणं । विहियं विमाणि - जोइस - भवणाहिवईहिं देवेहि ||३०|| मज्झे य बहलपल्लव - सोहिल्लो वंतरेहिं कंकिल्ली । बत्तीहधणुहमाणो निम्मविओ पवरकप्पतरू ||३१|| सरयससिसियं सोहइ छत्तत्तयमुन्नयं तियसविहियं । सुरसत्तीए एगत्थ पिंडियं जयपहुजसो व्व ||३२|| वरकंचणमणिमइयं विसालसीहासणं विणम्मवियं ।
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देवच्छन्दो वि कओ रयणमओ वंतरसुरेहिं ॥३३॥ देवेहिं दुंदुहीओ पहयाओ नहयलं रसंतीओ । हक्कारंति व्व जणं ओसरणे धम्मसवणत्थं ॥३४॥ अह पुव्वदुवारेणं पविसिय काउं पयाहिणं वीरो । सीहासणे निविट्ठो 'तित्थस्स नमो' त्ति भणिऊणं ॥३५॥ पुव्वाभिमुहो; तत्तो तिदिसं पडिरूवगा सुरेहिं कया । ते वि हु जिणप्पभावा पच्चक्खं जिण व्व दीसंति ॥३६।। अह जियसत्तुनरिंदं गंतुं उज्जाणवालओ तुरियं । वद्धावइ हिट्ठमणो जिणआगमणप्पवित्तीए ॥३७।। दाऊण पा[रि]ओसिय-दाणं उज्जाणवालयस्स तओ । चउरंगबलसमेओ नायरलोएण परियरिओ ॥३८॥ जयकुंजरमारूढो सियछत्तेणं धरिज्जमाणेणं । वीइज्जंतो सियचामरा(रे)हिं जियसत्तुनरनाहो ॥३९।। तित्थयरवंदणत्थं चलिओ भत्तीए महाविभूईए । रुइरालंकारधरो पच्चकखं कप्परुख व्व ॥४०॥ णाऊण जिणागमणं आणंदो गहवई य साणंदो । पहाओ कयबलिकम्मो कयकोउयमंगलसमूहो ॥४१॥ अप्प-महग्घाभरणेहिं भूसिओ पवरपरिहियदुकूलो । नियसयणपुरिसवंदेण परिगओ पायचारेणं ॥४२।। संतुट्ठरायवियरिय-वरछत्तेणं धरिज्जमाणेणं । वियसियकोरंटपलंबमाणमालाभिरामेणं ॥४३।। नियगेहा निग्गंतुं चलिओ जियसत्तुराइणा सद्धि । भयवंतवंदणत्थं भत्तिभरापूरियसरीरो ।।४४|| पुव्वदुवारेण मुणी विमाणदेवीओ तह य समणीओ । पविसिय पयक्खिणेणं अग्गेयदिसाए निवसंति ॥४५।। भवणवइ-वाणमंतर-जोइसियाणं विसंति देवीओ । दाहिणदारेण पयक्खिणाए निवसंति नेरईए ॥४६|| जोइसिय-भवण-वणयरा देवा पविसंति पच्छिमदुवारा । वीरं पयक्खिणित्ता वंदिय निवसंति ईसाणाए (वायवीए) ॥४७||
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राया नायरलोओ आणंदो गिहवई वि ओसरणे । पविसित्तुत्तरदारे काऊण पयाहिणं पहुणो ॥ ४८॥ पणि (ण) मित्तु चलणजुयलं उवविट्टो पुष्वउत्तरदिसाए । तो धम्मकहं एवं वीरजिणो कहिउमाढत्तो ॥ ४९ ॥ भो भो भव्वा सव्वे वि, पाणिणो सुक्खकंखिणो लोए । सुक्खं पुण धम्माओ पाविज्जइ, सो य इह दुविहो ॥५०॥ पढमो मुणीण धम्मो बीओ सुस्सावयाण विन्नेओ । पंचमहव्वयरूवो, पढमो सम्मत्तसहियस्स ॥ ५१ ॥ जीववह- मुसा - ऽदत्ता- मेहुन्न - परिग्गहेसु जाजीवं ! तिविहतिविहेण विरई अक्खेवेणेस सिवजणओ ॥ ५२|| पंचाणुव्वय-तिगुणव्वयाई सिक्खावयाई चत्तारि । सम्मत्तेण जुयाइं सावयधम्मो इमो बीओ ॥५३॥ एसो वि कमेणं चिय सिवपुरपहपवरसंदणसरिच्छो । जं भवगहणं नित्थारिऊण पावेइ सिवनयरं ॥५४॥ जे पुण पमायवसओ एयं दुविहं पि नो वज्र्ज्जति । ते बद्धनिबिडकम्मा भमंति संसारकांतारे ॥५५॥
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तम्हा जो सिग्घं चिय मुत्तिसुहं वंछए निराबाहं । सो साहुधम्मपडिवज्जणेण सहलं कुण्ठ जम्मं ॥५६॥ जो पुण तं असमत्यो काउं, सो सावयाणमिह धम्मं । सम्मत्तमूलमइयार - वज्जियं सम्ममायरउ ॥५७॥ अक्खेवमोक्खसोक्खा - भिलासिणो जे महासत्ता । ते तिहुयणपहुवयणं, सोऊण वयं पवज्जति ॥५८॥ असमत्था जे काउं पव्वज्जं, ते वि सावयवयाई । सम्मत्तसंजुयाई पडिवन्ना वीरपासम्मि ॥५९॥ जियसत्तुनरवरिंदो वंदिय पयपंकयं जिणिदस्स । नियनयरमणुपविट्ठो नायरलोएण सह तुट्ठो ||६०|| आणंदो वि हु सवणंऽजलीहिं जिणणाहवयणकमलाओ । वयणामय-मयरंदं पाउं भमरो व्व संतुट्ठो ||६१||
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अब्भुट्टिऊण जिणनाहसविहमागम्म नमिय पयकमलं । विणएण पंजलिउडो विन्नविउमेवमाढत्तो ॥ ६२ ॥ | भयवं ! जह तुह पासे राईसरमाइया बहू लोया । तणमिव पडग्गलग्गं नियगेहं सिरिं परिच (च्च) च्चा ॥ ६३॥ पडिवन्ना पव्वज्जं न समत्थो हं तहा तिजगनाह ! | ता पसिऊणं सावय-वयाइमारावे (व) सु ममं ॥ ६४ ॥ तो भइ जिणवरिंदो आणंद अमियमहुरवाणीए । देवाणुपिया ! तुमए, नो पडिबंधो विहेयव्वो ||६५ || तो आणंदो पढमे जावज्जीवाए दुविहतिविहेण । थूलगपाणाइवायं पच्चक्खर जिणवरसमीवे ॥६६॥ थूलं च मुसावायं पच्चक्खइ दुविह- तिविहं जाजीवं । एवमदत्तं थूलं दुविहं तिविहेण जाजीवं ॥ ६७॥ सिवनंदं मोत्तूणं उराल - वेउब्वियाओ इत्थीओ । जावज्जीवं वज्जे दुविहं तिविहेण सुद्धमणो ॥६८॥ परिगहपरिमाणम्मि निहिम्मि वुड्ढीए वित्थरेसुं च । पत्तेयं पत्तेयं कोडिचउकं हिरण्णस्स ॥६९॥ दस गो- साहस्सिय- वयचउक्कपरओ चउप्पयं नियमे । खित्तम्मि पंचहलसय चत्तूण य सेस नियमे ( ? ) ||७० || दिसिजत्तियाण सगडाण तह संवाहणियाण पंचसया । परओ सगडविहिम्मि पच्चक्खाणं अहं काहं ॥ ७१ ॥ | दिसिजत्तियाण पोयाण तह संवहणियाण चउन्हं परओ पोयविहिं पि हु पच्चक्खे जावजीवमहं ॥७२॥ मुत्तूण गंधकासाइयं वत्थाई मज्जणनिमित्तं । सेसं उवभोगवर वज्जे अंगाई (इ) लूहणयं ॥ ७३ ॥ अल्लमहुलट्ठिदंत-वणयं च मह एगमेव मुक्कलयं । खीरामलयं एगं फलविहिमज्झम्मि जाजीवं ॥७४॥ तिल्लं सयपाग - सहस्सपागमभंगणे महं होउ । गंधट्टयं च एगं सुरहिं उव्वट्टणविहीए ॥७५॥ अट्ठहिं उट्टि घडएहिं मज्जण सेसयं तु पच्चक्खे | वत्थम्म खोमजुयलं मुत्तुं सेसं परिहरामि ॥७६॥
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कप्पूरागरुचंदण-कुंकुमपभिई विलेवणं होउ । एगं च सुद्धपउमं मालइमालाइ पुप्फाइं ॥७७।। मठें कन्निज्जजुअं नाममुदं च होउ आहरणं । धूयणविहिमवि वज्जे अगुरु-तुरुक्काई(इयं) मोत्तुं ।।७८|| भोयणविहीए पेज्जा-विहिम्मि मह कट्ठपिज्जणया । भकखणविहीए घयउर तह खंडयरखज्जया चेव ।।७९|| कलसूय कलमसाली सेसं सूओयणं परिहरामि । घयमवि सारग्रं गो-घयवजं वज्जेमि सयकालं ॥८०।। चुच्चुय-सुत्थिय-मंडुक्कसागसेसं चएमि सागविहि । पालक्का माहुरयं सेसं वज्जेमि माहुरयं ।।८१॥ आगासोदगवज्जं उदर्ग सेसं सया वि पच्चक्खे । तंबोलं पंचसुगंधियं च सेवे न उण सेसं १८२।। कम्मयओ बीयगुणव्वयम्मि खरकम्म-कम्मदाणाई । पनरस वज्जेमि अहं पुव्वुत्तपरिग्गहे जयणा ॥८३।। चउहा अणत्थदंडं वज्जे तत्थाइमं अवज्झयणं । पमायायरियं हिंसप्पयाण पावोवएसं च ||८४|| तह सामाइयं देसा-वगासियं पोसहोववासं च । अतिहीणं संविभागं पडिवज्जइ सुत्तविहिणा उ ॥८५॥ एवमणुव्वय-गुणवय-सिक्खावयसंजुयम्मि गिहिधम्मे । पडिवने भणइ जिणो, आणंदा ! एत्थ अइयारा ॥८६॥ सम्मत्ताईएसुं सव्वेसु वि पंच पंच हुति कमा । जाणिय परिहरिअव्वा गिहिणा सुत्ताणुसारेण ॥८७।। अह संलेहणजोग्गं तस्स सरूवं वियाणिय भविस्सं । संलेहणं पि साहइ अइयारसमत्तियं वीरो ॥८८|| तो आणंदो सम्मत्तमूलमिय गिहिऊण गिहिधम्म । नाणाभिग्गहजुत्तं संतुट्ठो जाइ नियगेहं ॥८९।। कहिऊण धम्मपडिवत्ति-वइयरं भारियं सिवाणंदं । वीरजिणवंदणत्थं पेसइ गिहिधम्मपेस(पसि)णट्ठा ॥९॥
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सा वि हु रहमारोहिउं संतुट्ठा भत्तुणा समाइट्ठा । विहिणा वंदिय वीरं पडिवज्जइ सावयवयाई ॥९१॥ अहिगयजीवाऽजीवो आणंदो सावओ सभज्जो वि । मुणिजणदाणपसत्तो चउदसवरिसे अइक्कमइ ||१२|| अह पनरसम्मि वरिसे सो चिंतइ स्यणिचरिमजामम्मि । गिहि-सयण-सुहियकज्जेसु वावडो वीरजिणधम्मं ॥ ९३ ॥ नो सम्मं पालेत्तु (त्तुं) सत्तो ता गिहभरम्मि जिट्ठसुयं । संठविउं गंतूणं कोल्लागे सन्निवेसम्म ॥९४॥ पोसहसालं पडिलेहिऊण तह थंडिलाई विहिपुवं । अकयाकारियभोई गिहिपडिमाओ पवज्जिसं ||१५|| इय सिंचितिय बीए दिणम्मि समाविऊण सुहि - सयणे । जिट्ठसुए गिहि (ह) भारं संठवइ ताण पच्चखं ॥९६॥ कोल्लागसंनिवेसे सिरिवीरजिणंदधम्मपन्नत्तिं । पडिवज्जित्ता विहरइ पायं पडिवज्जियारंभो ॥९७|| एक्किारसपडिमाओ उवासगाणं विहीए फासिंतो । तवसोसियसव्वंगो जाओ चम्मट्ठिसेसतणू ॥ ९८ ॥ अह अन्नया विचितइ स्यणिविरामम्मि अस्थि मज्झ बलं । देहे परकूलमजजाओ (?) उट्ठाणवीरियं वा वि ॥९९॥ ताव अपच्छिमसंलेहणाए संलिहियसयलदेहस्स । पडिवन्नाऽणसणस्स य, सेयं विहरित्तए मज्झ ॥ १०० ॥ पडिवन्नाऽणसणस्स य विसुज्झमाणासु भाव-लेसासु । उप्पन्नमोहिनाणं ति पिच्छई खित्तमेवं सो ॥ १०१ ॥ पुवेण दाहिणेणं अवरेणं लवणसायरस्संऽतो । पंचेव जोयणसये पिच्छइ हिमवंतमुत्तरओ ॥१०२॥ उड्ढं जा सोहम्मं अहे य रयणप्पभाए पुढवीए । लोलुय- अच्चुयनरयं चउरासि वाससहस्सठिइं ॥ १०३ ॥ अह वाणियगामबहिं दूइपलासम्मि चेइए रम्मे । बहुदेसे विहरिता वीरजिणिदो समोसरिओ ॥ १०४ ॥
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परिसाए पडिगयाए गोयमसामी वि छट्ठपारणए । सामि वंदिय पविसइ वाणियगामम्मि भिक्खट्टा || १०५ || पंचसमिओ तिगुत्तो हिंडतो गहियभत्तपाणो य । कोल्लागसंनिवेसम्मी गच्छंतो सुणइ जणवायं ॥ १०६ ॥ 'अत्थि इहं आणंदो अंतेवासी जिणस्स वीरस्स । संलेहणाइपुव्वं पडिवन्नो अणसणं विहिणा' ॥१०७॥ ततो गोयमसामी गच्छइ कोल्लागसंनिवेसम्मि | जत्थऽच्छइ आणंदो पोसहसालाए नियमत्थो ॥ १०८ ॥ इंतं गोयमसामि आणंदो पासिऊण साणंदो । भइ 'न सत्तो भंते ! तुम्ह सभीवं हमागंतुं ॥ १०९ ॥ ता इच्छाकारेणं आगच्छह इत्थ मह समीवम्मि | जेणाहं तुह पाए सिरसा वंदामि तिक्खुत्तो ॥ ११०॥ तो वंदित्ता पुच्छर आणंदो गोयमं जहा भंते ! गिहिणो गिट्टियस्स वि उप्पज्जइ ओहिनाणं किं ? ॥ १११ ॥ ता गोयमेण भणियं, 'उप्पज्जइ', सो भणइ जइ एवं तो । ममावि तमुप्पन्नं इइ भणिडं कहई पुव्व (व्वु)तं ||११२॥ अह भणइ गणाहिवई, आणंदा ! न त्थि एत्तिओ विसओ । गिहिणो ओहिन्नाणे, ता आलोयाहि एत्थ तुमं ॥११३॥ निंदण - गरहणपुवं पायच्छित्तं संपवज्जाहि । तो भइ आणंदो 'किं भंते ! जिणवरमयम्मि ||११४ || संताण वि अत्थाणं सब्भूयाणं च होइ पच्छित्तं ?" | 'न हु न हु सब्भूयत्थे, पच्छित्तं' गोयमो भइ ॥ २१५ ॥ जइ एवं तो भंते! गिण्हह तुब्भे वि इत्थ पच्छित्तं । जम्हा पेच्छामि अहं ओहिन्नाणेण इइ खित्तं ॥ ११६ ॥ तत्तो गोयमसामी संकाइ समन्निओ दुयं जाइ । सिरिवीरजिणं नमिउं आलोइय भत्तपाणं च ॥ ११७ ॥ आणंदसावयस्स य कहिऊणं ओहिनाणवुत्तंतं । पुच्छ 'पायच्छित्ती किं आणंदो उयाहु अहं ? ॥ ११८ ॥
अनुसन्धान ४८
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अह भणइ वड्ढमाणो गोयम ! सच्चं कहेइ आणंदो । ता कह पायच्छित्तं अरिहइ सो निरवराहो वि ॥११९।। तं पुण विचित्तछउमत्थनाणआवरणजोगओ इत्थं । जाओ पच्छित्तऽरुहो, आलोएसु ता तुमं सम्मं ॥१२०।। तह खामसु गंतूणं आणंदं सावयं सयं[तं] तु । ता विणएण पडिच्छिय गोयमसामी कुणइ सव्वं ॥१२१।। आणंदो निव्विग्धं सीलव्वयं गुणव्वयाई पालेउं । फासित्ता पडिमाओ उवासगाणं समग्गा वि ॥१२२|| मासं च कयाणसणो पज्जंते सुद्धचित्तपरिणामो । वीसवरिसाइं सावयपरियायं पूरिउं सयलं !।१२३।। सोहम्मदेवलोए सोहम्मवडिंसगस्स ईसाणो । अरुणविमाणाहिवई चउपलियाओ(ऊ) सुरो जाओ ।।१२४॥ तत्तो चओ स जम्मं महाविदेहम्मि उत्तमकुलम्मि । पाविय, भोगसमिद्धिं पढमवए चेव चइण ॥१२५।। पव्वज्जं निरवज्जं सम्मं परिवालिऊण कम्मखए । उप्पाडिऊण केवलनाणं सिज्झिस्सइ महप्पा ॥१२६।।
आणंदश्रावककथानकं समासम् । छ ।
शुभं भवतु लेखक - पाठकयोः ॥छ।। २ - [सिरिकामदेवसावगकहाणयं]
अंगा जणवय, चंपा, जियसत्तू कामदेवो कोडुबी । भद्दा भज्जा तह पुनभद्दनामं च उज्जाणं ॥१२७|| छक्कोडीओ निहाणे वुड्ढीए छच्च, छच्च वित्थारे । छच्चेव वया दसगो-सहस्समाणेण उ वएण ।।१२८॥ वीरजिणसमोसरणं तस्स समीवम्मि धम्मपडिवत्ती । पन्नरसम्मि य वरिसे गिहभारं जिट्ठपुत्तम्मि ॥१२९।। निक्खविऊणं पोसह-सालाए वीरधम्मपत्ति । पडिमापडिवनस्स य पच्छिमपहरम्मि राईए ॥१३०॥ मिच्छद्दिट्ठिसुरेणं पिसाय-करि-भुयंग-भूयकरणेहिं । अच्चंतभीसणेहिं कमसो उवसग्गकरणेणं ॥१३१।।
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अनुसन्धान ४८
पच्चखुभिए साहा-वियरूवधरो गयणसंठिओ देवो । सक्कपसंसं कहिउँ खामेउं पडिगओ तत्तो ॥१३२॥ तम्मि समए वीरो समोसढो पुन्नभद्दउज्जाणे । गच्छइ य कामदेवो स-पोसहो जिणवरं नमिउं ॥१३३।। धम्मकहाए अणंतर कहिउं वीरेण राइवुत्तंतं । ससुरासुरनरपरिसाए पसंसिओ कामदेवगिही ॥१३४|| आमंतेउं गोयम-पभिई समणे उ तह य समणीओ । भणिया 'जिणसमये, जइ गिही वि एवं अवलंबित्ता (अचलवित्ता)॥१३५॥ तो साहु-साहुणीहिं गणिपिडगिकारसंगधारीहिं । होयव्वमचलेहिं विसेसं तु (विसेसतो) मोक्खकंखीहि ॥१३६।। तो नमिय कामदेवो पुच्छिय पसिणाई अट्ठमायाय । पमुदियचित्तो पारिय पोसहं नियगिहं पत्तो ॥१३७॥ सावयपरियायं सो परिवालिऊण वीसवासाई । काऊणं मासमेगं पज्जंते अणसणं विहिणा ॥१३८।। सोहम्मे चउपलियो अरुणाभविमाणअहिवई देवो । महाविदेहे सिज्झिस्सइ खीणकम्ममलो ॥१३९।।
इति कामदेवकथानकं । छ । २ । मङ्गलं महाश्रीः ॥छ।। ३ - [ सिरिचुलणीपियासावगकहाणयं]
कासीविसए वाणा-रसीए जियसत्तु कुट्ठमुज्जाणं । चुलणीपिया गिहवई भद्दा माया, पिया सामा ॥१४०।। कोडीओ हिरन्नस्स उ अट्ठ निहि-वुड्ढि-वित्थरेसु कमा । अट्ठ वया, जिणपासे सावयधम्मस्स पडिवत्ती ॥१४१॥ पोसहिय बंभयारी देवागमणं च पुत्ततियगस्स । तिन्नेव मंससोल्ले काउं रुहिरेण सिंचेइ ॥१४२।। अक्खुभियं तं नाउं भणइ सुरो मायरं इमं भदं । देव-गुरूण समाणिं तुह दुक्खकारयं हणिउं ॥१४३॥ तिनेव मंससोल्ले काउं रुहिरेण हं तुमं सिंचे । अट्टवसट्टो होऊण तुमं अकाले विवज्जिहिसि ॥१४४।।
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तं सोऊण सो खुहिओ, धावइ तं पइ, सुरो गओ गयणे । खंभं आसाइत्ता कुणइ य कोलाहलं गरुयं ॥१४५।। तो भद्दा से माया समागया भणइ 'पुत्त ! किं एयं ? । सो भणइ सुरसरूवं तत्तो मायाएँ सो भणिओ ॥१४६।। उवसग्गो पुत्त ! इमो विहिओ केणवि ता तुम इण्हि । आलोयण-निंदण-गरहणाहिं सोहेसु वयभंगं ॥१४७।। चुलणीपिया वि पडिवज्जिऊण जणणीए चोयणं सम्म । आलोयण-निंदण-गरहणाहिं सोहेइ वयभंगं ॥१४८॥ सावयपरियायं सो परिवालेऊण वीस वासाई । काऊण मासमेगं पज्जते अणसणं विहिणा ॥१४९॥ सोहम्मे चउपलिओ अरुणप्पहविमाणअहिवई देवो । होउं महाविदेहे सिज्झिस्सइ खीणकम्ममलो ॥१५०॥
इति चुलिनीपिताकथानकं ॥छ। ३॥ ४ - [सिरिसुरादेवसावगकहाणयं]
वाणारसि जियसत्तू कोठें छक्कोडीपहू सुरादेवो । धन्ना भज्जा, सामी समोसढो धम्मगहणं च ॥१५१।। पडिमापडिवनस्स य देवागमणं च पुत्ततियगस्स । पंचेव मंससोल्ले काउं रुहिरेण सिंचेइ ॥१५२॥ तह वि हु तं अख़ुभियं नाउं पभणइ सोलसायंके । तुह देहम्मि खिविस्सं, खुभियं संबोहइ धन्ना ॥१५३।। सावयपरियायं सो परिपालिऊण वीस वासाई । काऊण मासमेगं पज्जंते अणसणं विहिणा ॥१५४।। सोहम्मे चउपलिओऽरुणकंतविमाणअहिवई देवो । होउं महाविदेहे सिज्झिस्सइ खीणकम्ममलो ।।१५५।।
___ इति सुरादेवकथानकं । छ ॥४॥ ५ - [ सिरिचुलसयगसावगकहाणयं] -
आलहिया जियसत्तू संखवणं, चुल्लसयग छक्कोडी । बहुला भज्जा, सामी समोसढो धम्मगहणं च ॥१५६।।
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पडिमापडिवन्नस्स य देवागमणं च पुत्ततियगस्स । सत्तेव मंससोल्ले काउं रुहिरेण सिंचेइ ॥ १५७॥ तं अक्खुभियं नाउं भणइ सुरो त (तु) ह हिरन्नकोडीओ गिण्हेउं छ इमाओ निही बुड्ढी वित्थराओ अहं ॥ १५८ ॥ आलभिया सिंघाडग- चाउक्क-तिय- चच्चरेसुं सव्वत्थ । विप्पइरिस्समहं खलु खुभियं संबोहइ भज्जा ॥१५९॥ सावयपरियायं सो परिवालेऊण वीस वासाई । काऊण मासमेगं पज्जेते अणसणं विहिणा ॥ १६० ॥ सोहम्मे चउपलिओ रुणसिठविमाणअहिवई देवो । होउं महाविदेहे सिज्झिस्सइ खीणकम्ममलो ॥१६१ ॥ इति चुल्लशतकश्रावककथा || || ५|
६ - [ सिरिकुंडकोलियसावयकहाणयं ]
अनुसन्धान ४८
पंचाला कंपिल्लं जियसत्तू, कुंडकोलिय कुटुंबी । पूसा य तस्स भज्जा, सहसंबवणं च उज्जाणं ॥ १६२॥ कोडीओ हिरन्नस्स य छच्च निही - वुड्ढी - वित्थरेसु कमा । छच्च वया जिणपासे सावयधम्मस्स पडिवती ॥ १६३॥ अह अन्नया य पच्चा - वरण्हसमए असोगवणियाए । पुढविसिलाए नामा[म]मुद्दे तह उत्तरिज्जं च ॥१६४॥ ठविडं वीरभयवओ उवसंपज्जित्तु धम्मपन्नत्तिं । जा चिट्ठइ ज्झाणपरो ता चेगो एइ एत्थ सुरो ॥ १६५ ॥ पुढविसिलापट्टाओ नाममुद्दोत्तरिज्जए गहिउं । आगासे ठिओ सो कुंडकोलियं भणिउमाढत्तो ॥ १६६ ॥ पवरा गोसालस्स य मंखलिपुत्तस्स धम्मपन्नत्ती । जम्हा नो उट्ठाणं कम्मं बलं वीरियं वा वि ॥१६७॥ नो पुरिसक्कार - परक्कम्मस्स जोगो वि वट्टए को वि । तह सव्वे विहु भावा नियमा जं वन्निया एत्थ ॥ १६८ ॥ समणस्स भगवओ पुण वीरस्स न चारु धम्मपन्नत्ती । जम्हा पुण उट्ठाणाई संति इहं अनियया भावा ॥ १६९ ॥
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अह कुंडकोडिओ तं पभणई उट्ठाण-कम्म-विरियाई । जइ नत्थि, तुमे लद्धा, कहं इमा (कहिमा) भो! दिव्वदेविड्डी ? ॥१७०।। अह भणसि अणुट्ठाणाइणा इमा भो ! मए समणुपत्ता । ता किं ते न लहंती उट्ठाणाई न जेसऽत्थि ? ॥१७१।। इय कुंडकोलिएणं भणिओ सो संकिओ नियमणम्मि । न खमो वुत्तुं मुत्तुं मुद्दाईयं गओ देवो ॥१७२॥ अह तत्थ बीयदिवसे सहसंबवणम्मि जिणसमोसरणं । नाऊण कुंडकोलिय-उवासगो हट्ठ-तुट्ठमणो १७३॥ नियपरियणपरियरिओ कंपिल्लपुरस्स मज्झमज्झेणं । गंतूण जिणं पणमिय धम्मं निसुणेइ विणयजुओ ॥१७४|| तयणंतरं जिणेणं भणिओ सो कुंडकोलिओ एवं । तुझंऽतिए य देवो समागओ कल्लमवरण्हे ॥१७५।। मिच्छद्दिट्ठी तुमए विहिओ निप्पट्ठ-पसिण-वागरणो ॥ तो धन्नो सि तुमं जो, करेसि एवं कुपहमहणं ॥१७६।। आमंतेउं गोयमाईसमणा उ तह[य] समणीओ । भणइ जिणो जइ गिहिणो, मिच्छद्दिट्ठीण निम्महणं ॥१७७|| एवं कुणंति, चउदसपुव्वीहिक्कारसंगधारीहिं । सविसेसं कायव्वं तुब्भेहिं कुतित्थिनिम्महणं ॥१७८।। पडिवण्णं जिणवयणं 'तह' त्ति समणेहिं तह य समणीहिं । तो कुंडकोलिओ नमिअ जिणवरं सगिहमणुपत्तो ॥१७९।। सीलव्वयाई सम्मं पालितो कुंडकोलिओ सड्ढो । साहुजणदाणनिरओ चउदसवरिसे अइक्कमइ ॥१८०॥ पनरसमे पुण वरिसे गिहवावारं निवेसियं सयलं । जिट्ठसुयम्मि सयं पुणो(ण) पोसहसालाए सुद्धमणो ॥१८१।। एक्कारस पडिमाओ कमसो सुत्ताणुसारओ सम्म । पालितो विहिणा सो जाओ तवसोसियसरीरो ॥१८२।। सावयपरियायं सो परिवालेऊण वीस वासाई । काऊण मासमेगं पज्जते अणसणं विहिणा ॥१८३।।
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अनुसन्धान ४८
सोहम्मे चउपलिओ अरुणगवविमाणअहिवई देवो । होउं महाविदेहे सिज्झिस्सइ खीणकम्ममलो ॥१८४।।
इति कुंडकोलिकश्रावककथानकं समाप्तं । छ । ६ ॥ ७ - [ सिरिसद्दालपुत्तकहाणयं] -
पोलासं जियसत्तू सहसंबवणाभिहाणमुज्जाणं । सद्दालपुत्त आजीवु[वगु] वासगो कुंभगारो य ॥१८५।। लट्ठो गहियट्ठो पुच्छियट्ठो विणिच्छियट्ठो य । आजीवमए अहिगयअट्ठो पिम्माणुरत्तो य ॥१८६।। एक्का हिरन्नकोडी, निहि-वुड्ढि-पवित्थरेसु पत्तेयं । तह एगो तस्स वओ भज्जा पुण अग्गिमित्ता य ॥१८७।। पंचसयकुंभगारा-वणेसु पुरबाहिरम्मि तस्स सदा । दिन्न-भइ- भत्त-वेयण-पुरिसा कम्माई कुव्वंति ।।१८८।। घड-पिहड-अद्धघडए वरए करए उट्टियाओ य । कलसाऽलिंजर-जंबूलए य निच्वंपि य कुणंति ॥१८९।। रायपहविवणिमझे धरिऊणं विक्किणंति तस्सऽन्ने । पुरिसा दिवसे दिवसे, तस्सेवं जंति दियहाई ॥१९०।। अह अन्नया कयाई सो अवरण्हे असोगवणियाए । गोसालधम्मपन्नत्तिसंजुओ ठाइ एगते ॥१९१।। एत्थंतरम्मि एगो देवो आगाससंठिओ मइमं । भासुरवरबुदिधरो पभणइ दिव्वंऽबराऽऽहरणो ।।१९२।। 'सद्दालपुत्त ! आजीवु-वासगा ! भद्द ! एहीइ कल्लं । मह-माहण सव्वन्न अरहा तह केवली य जिणो ||१९३।। उप्पन्ननाण-दंसणधारी तियलोक्कवहिय-महियकमो । सुर-असुर-निवइ पूइय-सक्कारिय-पणयकय(म)कमलो ॥१९४।। पच्चुप्पन्नाऽणागय-अईयसमयस्स जाणओ मइमं । तह तच्चकम्मसंपयसंजुत्तो खीणमोहो य ॥१९५।। तं वंदिज्ज नमंसिज्ज सायरं संथुणिज्ज सेविज्जा । तह पाडिहारिएहि सिज्जाईहिं निमंतिज्जा ॥१९६।।
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भणिऊण तिन्नि वारं जहागयं पडिगओ य सो देवो । आजीविसावगो तं सोऊणं चितए हियए ॥१९७॥ 'किं मम धम्मायरियो गोसालओ आगमिस्सर कल्लं । महमाहणपभईहिं विसेसणेहिं समाउत्तो ? ' ॥१९८॥ अह बीयदिणे मोहंऽधयारविद्धंसणो महावीरो । सहसंबवणे सूरो व्व एइ देवेहिं थुव्वंतो ॥ १९९॥ विहियम्मि समोसरणे देवेहिं समागओ नयरलोओ । आजीविसावगो विहु वियाणिऊण जिणागमणं ॥ २०० ॥ पहाओ कयबलिकम्भो [कय] कोउयमंगलो सुनेवत्थो । सपरीवारो वंदइ वीरं तिपयाहिणापुव्वं ॥ २०१ ॥ धम्मक हावसाणे जिणेण सो भणिओ, समायाओ । कल्लमवरण्हसमए देवो तुझंऽतिए एगो ॥ २०२॥ तेणाऽऽगासगएणं वृत्तं ' महमाहणो इहं एही । [तं पाडिहारेहिं सिज्जाईहिं निमंतिज्जा ] ' ॥२०३॥ इच्चाई अस्थि सद्दाल- पुत्त ! आजीवुवासगा तेणं तं नो खलु गोसालं पडुच्च भणिओ इमं वयणं ॥२०४॥ सोऊण इमं तो सो चिंतइ महमाहणो इमो चेव । तं पाडिहारिएहिं इमं निमंतेमि भयवंतं ॥ २०५ ॥ अब्भुट्ठिऊण तत्तो, वंदिय वीरं भणेइ भयवं मे । पंचसया कुंभारा-र (व) णाण तुब्भे तर्हि एह || २०६ || तप्पडिबोहणहेउ याइ जिणवरो महावीरो । पडिवज्जिऊण भयवं वयणं सद्दालपुत्तस्स ॥२०७॥ अह अन्नया कयाई वायाहय- भंडगं स कोलालं । अंतोसालाहिंतो कड्ढेउं आयवे धरइ ॥ २०८॥ तो तं पभणइ वीरो कोलालं भंडगं कुओ एयं । सो भइ - भट्टियाए उदगं निठुब्भए पढमं ॥ २०९ ॥ छारेण करिसेण य मीसिज्जइ एगतो तओ पच्छा । आरोविऊण चक्के घडयाई किज्जए बहुयं ॥ २१० ||
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तो भाइ जिणो 'भंडं किं उट्ठाणाइणा इमं होइ ? |
किं वाऽणुट्ठाणेणं ? भण भो ! सद्दालपुत्त ! तुमं ॥ २१९ ॥ अणुद्वाणा अपुरिसक्कारेण जायए सद्धं ।
सो भाइ नियया सव्वे भावा जम्हा भयवं इमं लोए ॥ २१२||
भा (ता) जइ एवं कोई वायाहयभंडगं तु कोलालं । भिंदिज्ज विक्खरिज्जा परिट्ठविज्जा अवहरिज्जा ॥ २१३ ॥ तुह भारियाए सद्धिं जइ कोइ अग्गिमित्ताए । विउलाई भोगाई भुंजइ, किं तस्स कुणसि तुमं ? || २१४ || सो आ अहं भंते ! तं पुरिसं आओसेमि बंधेमि । तज्जिय ताडिय निच्छोडिऊण मारेमि य अकाले ॥ २१५ ॥ भाइ जिणो जइ नत्थी, उट्ठाणाई तहा निययभावा । तो न तुह भंडगाणं अवहरणाई कुणइ कोई || २१६|| नो वा कुणसि तुमं तह आओसणबंधणाई कस्स विय । अह भंडगाइयं तुह अवहरई कोइ जइ पुरिसो ॥ २१७|| जइ वा कुणसि तुमं पि हु आओसण- बंधणाई पुरिसस्स । तम्हा जं जाणसि तुमं 'नियया भाव' त्ति तं मिच्छा ॥२१८॥ तो आजीवियदि च सद्दालपुत्त कुंभकारो । पडिबुद्धो भणड़ जिणं, भयवं ! मे कहसु नियधम्मं ॥ २१९ ॥ भयवं पि साहु - सावयधम्मं परिकहइ महुरवाणीए । पडिवज्जिऊण सावय- धम्मं सो सगिहमणुपत्तो ॥ २२० ॥ पभणइ अग्गिमित्तं, देवाणुप्पिए मए जिणसगासे । पडिवन्नो जिणधम्मो आजीवियदिट्ठ परिहरिउं ॥ २२१ || वच्चसु पिए ! तुमं पि हु रहमारोहिउं जिणं नमसेउं । पडिवज्जसु जिणधम्मं, तो सा परिओसमावन्ना ॥२२२॥ न्हाया कयबलिकम्मा, कयकोउयमंगला सुनेवत्था । रहमारोहिउं गच्छइ नियचेडीवंदपरियरिया ॥ २२३ ॥ अह तिपयाहिणपुव्वं वंदिय पंजलिउडा ठिया चेव । निसुणिय धम्मं पडि वज्जिऊण नियगेहमणुपत्ता ||२२४ ||
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अह पोलासपुराओ सहसंबवणाओ वीरजिणचंदो । निग्गंतूणं विहरइ पडिबोहितो भव्वकुमुए ॥२२५।। अह गोसालो मंखलिपुत्तो निग्गंथदिढेि पडिवन्नं । परिहरियाऽऽजीवियमयं नाउं सद्दालपुत्तं तु ॥२२६।। आजीवियसंघसहिओ, ठाहि(ही) आजीवियावसहिमेइ । कइवयनियसीसजुत्तो पत्तो सद्दालपुत्तगिहं ॥२२७।। आगच्छंतं तं दटुं नो आढाइ सम्मदिट्ठी सो । तुसिणीओ संचिट्ठइ नो पडिवत्तिं कमवि कुणइ ॥२२८॥ पीढ-फलगाइहेउं गुणसंथवणं जिणस्स वीरस्स । तत्तो गोसालेणं तप्पुरओ काउमाढत्तं ॥२२९।। कहं ?महमाहणो महा-गोवो महाधम्मकही तहा । महंतो सत्थवाहो य महानिज्जामओ विय ॥२३०॥ सद्दालपुत्त ! किं एत्थ ! देवाणुप्पिय ! आगओ ? । तत्तो सद्दालपुत्तेणं वुत्तं तप्पुरओ इमं ॥२३१।। को णं एवंविहो भद्द ! केणऽह्रण एवं वुच्चई । तत्तो मंखलिपुत्तेण गोसालेण वियाहिया ॥२३२॥ उप्पन्ननाणदंसणरयणो तेलुक्कवहिय-महियकमो । तह तच्चकम्मसंपयजुत्तो महमाहणो वीरो ॥२३३।। खज्जंता भिज्जंता छिज्जंता चेव लुप्पमाणा य । कूरकुतित्थियसावय-चोराईहिं भवारन्ने ॥२३४॥ धम्ममएणं दंडेण रक्खिउं पउरजीवसंघाए । पावइ निव्वाण-महावाडं वीरो महागोवो ॥२३५।। उम्मग्गपडिय-सप्पहभट्ठे मिच्छत्तमोहिए जीवे । अट्ठविहकम्मतमपडल-पडयच्छन्ने य सव्वत्तो ॥२३६।। निरुवमधम्मकहाए नित्थारइ चाउरंतसंसारा । महाधम्मकही तेणं समणो भगवं महावीरो ।।२३७।। संसारमहारन्ने उप्पहपडिवनए बहू जीवे । सद्धम्ममयपहेणं पावइ निव्वाणवरनयरं ।।२३८।।
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अनुसन्धान ४८
तो णं देवाणुपिया ! सिद्धत्थनरिंदनंदणो भयवं । एक्को च्चिय पुहवीए महसत्थाहो महावीरो ॥२३९।। संसारमहसमुद्दे उब्बुड-निब्बुड(ड्डु) णाई कुणमाणे । नित्थारिय बहुजीवे धम्म[म]ईए उ नावाए ॥२४०।। निव्वाणतीरऽभिमुहे पावइ नियकरयलेण सो जम्हा । तेण महानिज्जामय-सद्देणं भन्नए वीरो ॥२४१।। तत्तो सद्दालपुत्तो सो सोऊणं गुणसंथवं । जहत्थं वीरनाहस्स हट्ठत्तुट्ठो पयंपइ ॥२४२॥ इयछेओ इयनिउणो तुममेवं वयणलद्धिसंपन्नो । मंखलिपुत्त ! पहू ?, मे धम्मायरिएण वीरेण ॥२४३।। धम्मोवएसएण सद्धि काउं विवायमिहमहुणा । तो गोसालो पभणइ 'नो एसट्टे समठे'त्ति ॥२४४।। जम्हा जहा को वि नरो तरुणो बलवं सुपीवरसरीरो । अय-मिग-सूअर-कुक्कुड-तित्तिरि-लावाइए जीवे ॥२४५।। हत्थे वा पाए वा पुच्छे वा गहिय निच्चले धरइ । एमेव ममं वीरो धरइ दढं हेउ-जुत्तीहिं ।।२४६।। तं न सहो काउमहं वायं सद्दालपुत्त वीरेण । तुह धम्मायरिएण परवाइगइंदसीहेण ॥२४७॥ तो वीरजिणजहट्ठियगुणगणहावज्जिओ सुदिट्ठी । सो सद्दालपुत्तनामा उवासगो भणइ गोसालं ॥२४८।। जं वीरजिणस्स तुमं गुणसंथवं करेसि सब्भूयं । पीढ-फलगाइएहिं तुमं निमंतेमि तेणाहं ।२४९।। 'नो धम्मो'त्ति तवो त्ति य काउं, तं गच्छ कुंभसालासु । मह पाडिहारियासुं जहामुहं चिट्ठ तं तत्थ ॥२५०।। तो तव्वया ठाउं तत्थ तओ पन्नवेइ सद्दि४ि । आजीवियदिट्ठि पइ बहुसो सद्दालपुत्तं सो ॥२५९।। नो तं निग्गंथाओ पावयणाओ स चालिउं तरइ । ताहे संतो तंतो पोलासपुराओ निक्खंतो ॥२५२॥
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अह सद्दालपुत्तस्स तस्स चउदसससमा वइक्कंता । सावयधम्मं रम्मं सम्मं परिवालियंतस्स ॥२५३।। पन्नरसम्मि य वरिसे जिट्ठसुए ठविय गिहनियोगं सो । सावयपडिमा कमसो एक्कारसं काउमारद्धो ॥२५४।। "दंसण-वय-सामाइय-पोसह-पडिमा अबंभ-सचित्ते य । आरंभ-पेस-उद्दिट्ठ-वज्जए समणभूए अ ॥२५५।। पोसहियस्सेगसुरो मिच्छद्दिट्ठी कयाइ रयणीए । गहिउग्गखग्गलट्ठी उवसग्गं काउमाढत्तो ॥२५६।। 'सद्दालपुत ! जइ नो मुंचसि सीलव्वयाइं निययाइं । तो तुह देहं असिणा खंडाहिंडं करिस्सामि ॥२५७॥ इअ दुन्नि तिन्नि वारे भणिओ जाहे न खुब्भए ताहिं । भणइ सुरो तुह पुत्ते तिन्नि वि हणिऊण तुह पुरओ ।।२५८॥ तुह देहं रुहिरेणं सिंचिस्सं, जेण तं अकाले वि । ववरोविज्जसि नूणं अट्टवसट्टो सजीयाओ ।।२५९॥ तत्तो य जिट्ठ-मज्झिम-लहुए कमसो विणासिउं पुत्ते । पत्तेयं मायाए, दंसइ नवमंससुल्लाई ॥२६०॥ रुहिरेणं तद्देहं, सिंचइ तहवि तं अविचलं नाउं । गाढयरमासुरत्तो सुराहमो भणिउमाढत्तो ।।२६१।। सद्दालपुत्त ! जइ नो दंभं मुंचसि तुम इमं अहुणा । तो तुह धम्मसहाया समसुह-दुक्खा य जा एसा ।।२६२।। भज्जा अग्गिमित्ता, तं तुह पुरओ विणासिऊण अहं । काऊण मंससोल्ले नव तं रुहिरेण सिंचिस्सं ॥२६३।। सोऊण इमं खुभिओ चिंतइ हणिऊण पुत्ततियगं मे । को एस दुरायारो भज्जं मह अग्गिमित्तं पि ॥२६४॥ धम्माणुरत्तं धम्मसहायं च वंछए हणिउं । तं दुट्ठमिमं गेण्हामि, धावए तं निगिण्हेउं ॥२६५।। सो आसाइय खंभं 'धावह धाव' त्ति करइ हलबोलं । देवो तब्भीओ इव गयणे अइंसणं पत्तो ॥२६६।।
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अनुसन्धान ४८
सोऊण अग्गिमित्ता गरुयं कोलाहलं निययपइणो । आगंतूणं पभणइ विणएणं नाह ! किं एयं ? ॥२६७|| सो भणइ सुरसरूवं, तत्तो भज्जाए सो इमं भणिओ । तुह तणया सव्वे वि हु अक्खयदेहा गिहे संति ॥२६८। देवेण दाणवेण य तुह मिच्छि(च्छ)द्दिट्ठिणा इमो विहिओ । उवसग्गो केणाऽवि हु नूणं ता नाह ! तुममिहि ॥२६९|| आलोयण-निंदण-गरिहणाहिं सोहेसु निययवयभंगं । सो वि हु तव्वयणाओ "तह'त्ति पडिवज्जए सव्वं ॥२७०।। सावयपरियायं सो परिवालेऊण वीसवासाई । काऊण मासमेगं पज्जंते अणसणं विहिणा ।।२७१।। सोहम्मे चउपलिओ अरुणभ्यविमाणअहिवई देवो । होउं महाविदेहे सिज्झिस्सइ खीणकम्ममलो ॥२७२॥
इति सद्दालपुत्तकथानकं । छ । शुभं भवतु । छ ।।७|| ८ - [सिरिमहासयगकहाणयं] -
रायगिहम्मि य सेणियराया गुणसिलयचे[य] उज्जाणं । नामेण महासयगो निवसइ गाहावई तत्थ ॥२७३।। रेवई पामोक्खाओ भज्जाओ तस्स तेरस अहेसि । अट्ठ य हिरन्ना(न) कोडी कमसो निहि-वुड्ढि-वित्थरओ ।।२७४।। अट्ठ वया गावीणं दसगोसाहस्सिएण माणेण । सगड-हल-पोयमाई आणंदगमेण विनेयं ।।२७५।। रेवइनामाए महासयगस्स भारियाए पढमाए । कोलघरिया य अट्ठ य हिरन्ना(न्न) कोडीओ अट्ठ वया ॥२७६।। सेसाण भारियाणं दुवालसण्हं पि आसि पत्तेयं । एगा हिरन्नकोडी वओ य एकेकओ चेव ॥२७७॥ अह अन्नया कयाई गुणसिलए चेइए समोसरिओ । वीरजिणिदो देविंद-वंदिओ सत्तहत्थतणू ॥२७८।। देवेहि समोसरणे रइए सेणियनिवो सनायरओ । एइ महासयगो वि य परिवारजुओ जिणं नमिउं ॥२७९।।
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अह तिपयाहिणपुव्वं नमंसिउं जिणवरं महावीरं । उवविट्ठा सट्ठाणे कयंजली नर-सुराईया ॥२८०।। भयवं पि साहु-सावयधम्म परिकहइ महुरवाणीए । गिण्हइ य महासयगो सावयधम्मं पहट्ठमणो ॥२८१।। तह परिग्गहपरिमाणं गिण्हइ सो जिणवरिंदपासम्मि । निहि-वुड्ढि-वित्थरेसुं पत्तेयं अट्ठकोडीओ ॥२८२।। अट्ठ वया दससहस्सा सेसाण चउप्पयाण मह नियमो । दुपए तेरस भज्जा तासिं च परिग्गहे जयणा ॥२८३।। रेवइपमुह-सभज्जासेसम्मि मेहुणविहिं परिहरामि । आहारभूसणाई आणंदगमेण विन्नेयं ॥२८४|| दोणदुगपमाणाए हिरण्णभरियाए कंसपाईए । कल्लाकल्लिं कप्पइ ववहरिउं तदुवरि नियमो ॥२८५।। अह अन्नया कयाइं, संचिंतइ रेवई रयणिविरमे । मणवंछिओ न जायइ मह संभोगो वि दइएण |२८६॥ बारसाहिं सवत्तीहि वाघाएणं तओ य मह जुत्तं । हणिउं ससवत्तीओ सत्थ-ऽग्गि-विसप्पओगेणं ॥२८७।। तत्तो छ सवत्तीओ विसेण छच्चेव सत्थघाएणं । अइकूरऽज्झवसाया पन्त(व्व)त्ता रेवई हणिउं ।।२८८।। तासिं दुवालसण्हं हिरन्नकोडी दुवालस वयाइं । कोलघरिअए अहिठइ सव्वासिं रेवइ व्व तओ ॥२८९।। वग्यायविरहिया सा भुंजइ नियभत्तुणा समं भोए । महु-भज्ज-मंसमाईसु गिद्धा अइनिग्घिणा जाता ॥२९०।। अह अन्नया कयाई नयरम्मि अमारिघोसणे विहिए । कोलघरपुरिसेहिं पइदियह गोणपोथदुगं ॥२९१|| तत्थेवुद्दवा(व्वा)विय आणाविय नियघरम्मि पच्छन्नं । महु-मज्ज-मसमाई आहारंती गमइ कालं ॥२९२।। भत्ता जाणतो वि हु तीए सरूवं जहट्ठियं सव्वं । आणाबलाभिओगो भणिओ न जिणेहिं धम्मम्मि ।।२९३॥ तो नो बलाभिओगा न वारइ न य देइ तीए उवएसं । अज्जोग्गयं मुणंतो उविक्खए तं महापावं ॥२९४||
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अनुसन्धान ४८
सीलव्वयाइं सम्मं पालंतो सावगो महासयगो । वरिसाण चउद्दसगं अइक्कमित्ता महाभागो ॥२९५।। पन्नरसम्मि य वरिसे जिट्ठसुए गिहभा(भ)रं निवेसेउं । पोसहसालाए सयं पडिवज्जइ धम्मपन्नत्तिं ॥२९६।। तत्तो सा तब्भज्जा उम्मत्ता भोगलोलुया संती । उम्मुक्ककेसपासा पोसहसालं उवागम्म १२९७।। मोहुम्मायकराई इत्थीजणसुलहहावभावाइं । उवदंसंती पभणइ नियभत्तारं महासयगं ॥२९८।। 'हं हो ! समणोवसग ! मए समं जं न भुंजसे भोए । तं किं धम्मे पुन्ने सग्गे मोक्खे[व] अहिलासो ? ॥२९९।। धम्माणुभावओ च्चिअ भोगा लब्भंति पुन्नमंतेहिं । ते तुज्झ संति विउला तो धम्मेणं किमन्नेणं ॥३००। तरुणो पुरिसो तरुणी य इत्थिआ, ताण जं परा पीई । सो च्चिय सग्गो भन्नइ बुहेहिं सो तुज्झ साहीणो ॥३०१।। अदिट्ठमुक्खसुक्खस्स कारणे दिट्ठभोगपरिहरणं । जं कुणसि तं न जुत्तं जम्हा मूढाण एस ठिई ॥३०२।। तम्हा कट्ठाणुट्ठाणमणुचियं मुंच भो ! महासयगा ! । अणुरत्ताए मए सह भुंजसु मणवंछिए भोए ॥३०३।। तव्वयणवायगुंजाहिं चालिओ नो महासयगमेरू । भणिउं बहुप्पयारं जहाऽऽगयं रेवई वि गया ॥३०४।। एक्कारसपडिमाओ पालिय संलेहणं च काऊणं । विहिणा अणसणमेसो पडिवज्जइ वीसमे वरिसे ॥३०५।। अह तत्थ महासयगस्स तस्स घोरं तवं तवंतस्स । उप्पन्नमोहिनाणं तेण य सो पिक्खए खित्तं ॥३०६॥ पुव्वेण लवणसायर-मज्झे जोयणसहस्समेगं जा । एवं दक्खिण-पच्छिम-उत्तरओ चुल्लहिमवंतं ॥३०७॥ उठें जा सोहम्मं अहे य रयणप्पभाए पुढवीए । लोलुय-अच्चुयनरयं चउरासीवाससहस्सठिई ॥३०८||
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अह अन्नया कयाई पुणो वि सा रेवई महासयगं । पभणइ पुव्वगमेणं पोसहसालं समुवगम्म ||३०९।। मुत्तूण य मज्जायं वारा दो तिन्नि भणइ सा जाव । तो वयणमासुरत्तो दाउं अवहीए उवओगं ॥३१०।। पभणइ महासयगो रेवईए अल्लसरोग-अभिभूया । अट्टदुहट्टा मरिउं, रयणप्पह पढमपुढवीए ॥३११।। लोलुयम्मि नरए चउरासीवरिससहस्सठिइम्मि । नेरइयत्ताए तुम उववज्जसि सत्तरत्तंतो(ते) ॥३१२।। विगयमया भयभीया, तत्तो सा सुणिय भत्तुणो वयणं । चिंतइ कुमारेणं केण वि मं मारिही रुट्ठो ॥३१३।। ता नूणमवक्कमणं जुत्तं ति चिंतिऊण नियगेहं । पत्ता अट्टदुहट्टा अलसरोगेणं मरिऊणं ॥३१४॥ उप्पन्ना रयणप्पह-पुढवीए लोलुअच्चुए नरए । नेरइयत्ताए महा-दुक्खानलतत्तगत्ता सा ||३१५।। एत्थंतरम्मि भयवं वीरजिणो गोयमाइसमणेहिं । जुत्तो पत्तो वीभारपव्वए गुणसिलुज्जाणे ॥३१६।। तत्थ समोसरणम्मि विहिए देवेहिं वीरजिणचंदो । सेणियनिवम्मि पत्ते सनायरे धम्ममह कहइ ||३१७।। तयणंतरमामंतिय गोयमगणहारिणं जिणो भणइ । इह रायगिहे नयरे अंतेवासी ममं अस्थि ॥३१८॥ नामेण महासयगो उवासगो विहियसावयप्पडिमो । संलेहणं च काऊणं पडिवन्नो अणसणं विहिणा ॥३१९।। तस्स तयावरणखओवसमाओ ओहिनाणमुप्पन्न । आगम्म भोगलोला तब्भज्जा रेवई तत्थ ॥३२०।। उवसग्गं कुणमाणी भणिया रुद्रेण तेण सा एवं । मरिठं नरए गमिहिसि रेवइ ! ए ! सत्तरत्तंतो ॥३२१।। तं[न] उवजुत्तं, जम्हा पडिवन्ने उत्तमम्मि ठाणम्मि । संतेण वि जेण परो दूमिज्जइ, तं न वत्तव्वं ॥३२२।।
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अनुसन्धान ४८
ता गच्छ तुमं जह सो, एयट्ठाणस्स निंदणाईयं । काउं पायच्छित्तं पडिवज्जइ तह लहुं कुणसु ॥३२३।। तत्तो गोयमसामी तहत्ति पडिवज्जिऊण जिणवयणं । गच्छइ महासयगस्स, मंदिरं ईरियसंपन्नो ॥३१४|| इंतं गोयमसामिं दठूणं हट्ठ-तुट्ठहयहियओ । वंदेइ महासयगो विणएणं, गोयमो वि तओ ||३२५।। भणिऊण जिणाभिहियं सम्मं चोएइ हेउ-जुत्तीहिं । सो वि हु तव्वयणेणं पडिवज्जइ जाव पच्छित्तं ॥३२६।। सावयपरियायं सो परिवालेऊण वीस वासाई । काऊण मासमेगं पज्जते अणसणं विहिणा ॥३२७।। सोहम्मे अरुणवडिंसयम्मि चउपल्लआउयं देवो । अणुपालिय सिज्झिस्सइ महाविदेहम्मि खित्तम्मि ॥३२८।।
इति महाशतकश्रावककथानकम् ॥छ। ८॥ ९ - [नंदिनीपिता कथानकम् ]
सावत्थी जियसत्तू कुटुं नंदिणिपिया य कोडंबी । अस्सिणि भज्जा, वज्जा चत्तारि हिरण्णकोडीओ ॥३२९।। निहि-वुड्ढि-वित्थरेसुं, चत्तारि वया य, जिणसमोसरणे । पडिवज्जिय गिहिधम्म परिवालइ वरिसचउदसगं ॥३३०॥ पनरसमे पुण वरिसे जिट्ठसुए ठविय गिहभा(भ)रं सयलं । एक्कारस पडिमाओ पालइ सम्मं निरुवसग्गं ॥३३१।। नंदिणिपिया य सावय-पज्जायं पालिऊण वासाई । वीसं, काउं मासं, पज्जंते अणसणं विहिणा ॥३३२॥ सोहम्मे चउपलिओ अरुणगवविमाणअहिवई देवो । होउं महाविदेहे सिज्झिस्सइ खीणकम्ममलो ॥३३३।।
इति नंदिनीपिता कथानकम् ॥छ। ९ । ९ - [लंतियपिया कहाणयं]
सावत्थी जियसत्तू कोठें, लंतियपिया य कोडंबी । फरगुणि भज्जा, वज्जा चत्तारि हिरन्नकोडीओ ||३३४||
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[१]
निहि-वुड्ढि-वित्थरेसुं चत्तारि वया य, जिणसमोसरणे । पडिवज्जिय गिहिधम्मं परिवालइ वरिसचउदसगं ॥३३५।। पनरसमे पुण वरिसे, जिट्ठसुए ठविय गिहभा(भ)रं सयलं । एक्कारस पडिमाओ पालइ सम्मं निरुवसग्गं ।।३३६।। लंदियपिया सावय-पज्जायं पालिऊण वासाइं । वीसं, काउं मासं, पज्जंते अणसणं विहिणा ॥३३७॥ सोहम्मे चउपलिओऽरुणकीलविमाणअहिवई देवो । होउं महाविदेहे सिज्झिस्सइ खीणकम्ममलो ॥३३८॥ इति लंदियपिताकथानकम् । १०। मङ्गलं महाश्रीः ।।
ग्रंथ प्रशस्ति: - आणंदाईण एवं सुचरियदसगं सत्तमंऽगाणुसारा, संखेवेणं विचित्तं कयमिह गणिणा पुन्नभद्देण भई ॥ सीसेणं वाइविंदप्पहु जिणवइणो, विक्कमाइच्चवासे,
५ ७ १२ वटुंते बाण-सेलाऽसिसिरकरमिते कण्हछट्ठीअ जिढे ॥३३९।।
प्रतिलेखनप्रशस्तिः गुरुगिरिविहितास्थः पुण्यपर्वप्रवालः । सुभगविमलमुक्ता शब्दधर्मैकहेतुः ।। सफलमृदुलताढ्यः स्फारतेजोविभूतिस्त्रिजगति वर(रि)वर्ति श्रीमदूकेशवंशः ॥३४०।। साधुस्तत्र बभूव भूमिविदितः क्षेमंधरः श्रीधरः सत्यासक्तमना वृषप्रणयवान् कौमोदकीभावभृत् ।। यश्चक्रेजयमेरुनाम्नि नगरे श्रीपार्श्वनेतुः पुरः । प्रेम्णा सद्ब्रजकष्टवृष्टिहतये शैलं महामण्डपम् ।।३४१।। भेजुस्तस्य महोदधेर्बहुतराः रत्नोपमाः सूनवः सम्पूर्णाः गुणसवजैः सुरुचयो देवश्रियः कुक्षिजाः ॥ कोप्येतेषु जगद्वरः सुकृतिनामग्रेसरः कौस्तुभः श्री श्रीमत्पुरुषोत्तमैकहृदये वासित्वमैद् यो गुणः ॥३४२॥
(१)
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अनुसन्धान ४८
(४)
श्रीमत्पार्श्वस्य नेतुः सदनममदनं भव्यनेत्राब्जमित्रं पुर्यां श्रीजेसलस्य व्यरचिदचिराच्चाऽभितो भूषणानि ।। गेहे साधर्मिकोर्वीरुहवनमनुवी(वि)च्छिन्नवात्सल्यकुल्यां पूरेणाऽवीवहद् यो मरुषु किमपरं प्राप कल्पद्रुमत्वम् ॥३४३।। शालीनतालीश्री(श्रि)शीलं, यदात्मजमपालयत् । तस्य साढलही नाम्ना सा बभूव सर्मिणी ।।३४४।। तस्याऽऽसतेऽक्षतनयास्तनयास्त्रयोऽमी तेषामयं धुरि यशोधवलो यशोऽब्धिः ॥ माध्यन्दिनो भुवनपाल इलापसंसदुज्ज्वालकीतिरनुजः सहदेव एषः ॥३४५|| इह [हि] भुवनपालः प्रीतदिक्चक्रवालः । सुगुरुजिनपतीशस्तूपमूनि ध्वजस्य ।। विघटितमधिरोहं कारयामास पद्या जिनपतिरथयानं चक्रवर्तीव पद्मः ॥३४६।। [भामा.] तस्या प्रिया त्रिभुवनपाल धीदा, रघुप्रभोरिव जनकस्य धीदा । पुत्रद्वयं समजनि खेमुसिंहाऽभयाह्वयं कुश-लवलीलमस्य ॥३४७।। स धन्यकृतपुण्यतां सततशालिभद्रात्मतां किलाऽवनितुमात्मनो मुनिवरीवर(य)स्यामिमां ।। सुधार्मिकजनवजोपवनसारणिः श्रीभरः स्म लेखयति पुस्तिकां भुवनपाल:(ल-) साधुर्मुदा ॥३४८।। मेघाल्याम्बुदवृन्दमुक्तसलिलाऽऽपूरे मणिज्योतिरुद्द्योतिच्छत्रपरीतचक्रिपृतनाभृच्चर्मरत्नश्रियम् । मध्येऽम्भोधिमहीतलं दिनमणी भास्वत्ततः संवृतं; यावद् विन्दति तावदत्र जयतादेषाऽधिकं पुस्तिका ॥३४९।।
(८)
(९)
[अथ चूर्णि:] आनन्दकथायां किञ्चिल्लिख्यते - 'दिसि जत्तिय'० गाहा (७१)- दिसि जत्तियाणं 'ति दिग्यात्रा - देशान्तरगमनं प्रयोजनं येषां तानि । 'संवाहणियाणं'
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ति संवहनं क्षेत्रादिभ्यस्तृण-काष्ठ-धान्यादेगुहादावानयनं, तत्प्रयोजनानि सांवाहनिकानि । मुत्तूण० गाथा (७३) 'गंधकासाइयं' ति गन्धप्रधाना कषायेण रक्ता शाटिका गन्धकाषायी । 'अल्लमहु०' गाहा । (७४) - 'खीरामलयं ति अबद्धाऽस्थिकं क्षीरमिव मधुरं वा यदाऽऽमलकं तत् क्षीरामलकम् । "तिल्लं सयपाग'० गाहा (७५) - सयपाग - सहस्सपागं' त्ति द्रव्यशतस्य क्वाथशतेन सह यत् पच्यते कार्षापणशतेन वा तत् शतपाकं, एवं सहस्रपाकम् । 'गंधट्टयं' ति गन्धद्रव्यैरुपल-कुष्ठादिभिर्युक्तोऽदृश्चूर्णो गन्धाट्टस्तम् । अट्ठहि गाहा (७६) 'उटिअघडिएहिं' ति उट्टिका महन्मृन्मयभाण्ड, तत्पूरणाय घटा उचितप्रमाणा नाऽतिलघवो नाऽतिमहान्तः । 'खोमजुअलं' ति कार्पासिकवस्त्रयुगलं । कप्पूर०' गाहा (७७) 'एगं च सुद्धपउमं' ति कुसुमान्तरवियुतं पुण्डरीकं वा शुद्धं पद्मम्, मालतीमाला जातिपुष्पदाम । मटुं० गाहा (७८) 'मटुं कन्निज्जजुगं' ति मष्टं अचित्रवत्कर्णाभरणम् । भोयण० गाहा (७९) 'कट्ठपेज्जयं ति काष्ठपेया मुद्गादियूषः, घृत-तिल-तन्दुलएला वा । कलसूय० गाहा (८०) १ 'कलसूय'त्ति कलायश्चणकाकारो धान्यविशेषः उपलक्षणत्वात् मुद्-मोषास्तेषां सूपः । चुच्चुय० गाहा (८१) चूचुकादयः शाका लोकप्रसिद्धाः, 'पालक्का माहुरयं' ति पालक्का वल्लीविशेषः, माहुरयं अनाम्लरसशालनकं । आगासोदग० गाहा (८२) पंचसुगंधियं' ति एभिः पञ्चभिः-एला-लवङ्ग-कर्पूर-कक्कोल-जातीफललक्षणैः, सुगन्धिभिर्द्रव्यैरभिसिक्तं' पञ्चसौगन्धिकम् ।।
कुण्डकौलिककथायां किञ्चिल्लिख्यते - अथाऽपराह्नसमयेऽशोकवाटिकायां प्रतिपन्नश्रीमन्महावीरधर्मप्रतिज्ञं कुण्डकौलिक-श्रमणोपासकं कश्चिन्मिथ्याष्टिर्गोसालकमतानुयायी देवो गगनस्थितः प्राह, प्रवरा [१६७] प्रशस्या गोशालकस्य मंखलिपुत्रस्य धर्मप्रज्ञप्तिधर्मप्ररूपणा । कुत इत्याह - यस्मान्नो नैव 'उत्थानं' = उपविष्टस्य ऊर्वीभवनं, 'कर्म' = गमनागमनादिकं, 'बलं' शारीरं वीर्य, जीवप्रभवं वा । पृच्छ्यते वा-नो नैव पुरुषकारश्च पराक्रमश्च-पुरुषकारपराक्रम समाहारः, तस्य योगः सम्बन्धः जीवानामिति शेषः वर्तते । कोऽपि कश्चिदपि । तत्र पुरुषकारः पुरुषाभिमानः, स एव सम्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमः । तथा सर्वेऽपि भावा यत् = यस्मात्, वर्णिताः = प्रतिपादिताः, गोशालकमते-यैर्यथा भवितव्यं ते तथैव भवन्ति - न पुरुषकारबलादन्यथा कर्तुं शक्यन्ते इति । "न भाविनोऽस्ति नाशः', १ । तथा
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अनुसन्धान ४८
नहि भवति यन्न भाव्यं भवति हि भाव्यं विनापि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति यस्य तु भवितव्यता नास्ति ॥२॥
'समणस्स० गाहा [१६९] श्रमणस्य भगवत: पुनर्वीरस्य न चारु न शोभना, धर्मप्रज्ञप्तिधर्मप्ररूपणा । यस्माद् हेतोरुत्थानाद्या: सन्ति विद्यन्ते । इह = अत्र वीरप्रज्ञप्तौ । तथाऽनियताः सर्वे भावाः सन्ति इति क्रियायोगः । इदमत्र तात्पर्य, उत्थानादेर्भवन्ति कृत्या एवंरूपाः, ततश्च नास्ति एतदुत्थानादि जीवानां, एतस्य पुरुषार्थाऽप्रसाधकत्वात्, तदसाधकत्वं च पुरुषकारसद्भावेऽपि पुरुषार्थसिद्ध्यनुपालम्भादिति । अह कुंड० गाहा [१७०] अह भणसि गाहा [१७१] - व्याख्या .. अथ कुण्डकौलिकस्तं देवं प्रभणति - उत्थान-कर्म-वीर्यादिकं यदि नास्ति, तदा त्वं [त्वया] कथं, केन हेतुना, एषा देवऋद्धिः -सुरसम्पद् लब्धा-प्राप्ता ? अथैवं वदसि-अनुत्थानादिना तपोब्रह्मचर्यादीनामकरणेन इमा एषा देवर्द्धिः समनुप्राप्ता-लब्धा, तदा कि केन कारणेन ते न लभन्ते देवद्धि, येषां जीवानां उत्थानादि तपश्चरणादि कारणं नास्ति ? । अयमभिप्रायः-यथा त्वं पुरुषकारं विना देवः संवृत्तः, एवं सर्वेऽपि जीवाः । ये उत्थानादेव जीवाः, ते देवाः प्राप्नुवन्ति [भवन्ति] । तवैतदेव 'मिटुं' इत्युक्त्वा नाद्यपभाए(?) पक्षे दूषणं 'अवत्तया इयं ऋद्धिरुत्थानादिना लब्धा, ततो यदि वदसि 'प्रवरा गोशालस्य प्रज्ञप्तिः, असुन्दरा महावीरधर्मप्रज्ञप्तिः' तन्मिथ्या वचनं, भवतैव तस्य व्यभिचारादिति । इय कुंडगोलिएणं गाहा (१७२) 'इय एवं कुण्डकौलिकेन श्रमणोपासकेन भणितः सः देवः शङ्कितः संशयवान् जातः - किं गोशालकमतं सत्यं उत महावीरमतं? महावीरमतस्य युक्तितोऽनेन प्रतिष्ठितत्वादिति विकल्पवान् संवृत्तः इत्यर्थः । निजे मनसि-स्वचित्ते, उपलक्षणत्वात् कंखिए भेयमावन्नो कलुसमावन्नो' । तत्र काङ्कितो महावीरमतमपि साधितं युक्त्युपपन्नत्वादिति विकल्पवान् संवृत्तः, भेदमापन्नः भेदमुपागतः गोशालकमतमेव साध्विति निश्चयादपोहत्वात्, कलुषमापन्न: प्राक्तननिश्चयविपर्ययलक्षणं गोशालकमतानुसारिणां मते मिथ्यात्वं प्राप्त इत्यर्थः । अथवा कलुषतां 'जितोहमनेनेति' खेदरूपमापन्न इति ततश्च न क्षमो वक्तुमुत्तरमाख्यातुं, मुक्त्वा मुद्रादिकं गतो देव इति गाथार्थः ।
सद्दालपुत्तकथायां किञ्चिल्लिख्यते-पोलास गाहा (१८५) 'आजीवुवासगो' आजीवका गोशालकशिष्यास्तेषामुपासकः । 'लद्धट्ठो (गाहा १८६) - तत्र
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लब्धार्थः श्रवणेन गृहीतार्थबोधन:, 'पृष्टार्थः ' संशये सति विनिश्चिता [र्थोऽ]र्थविदुत्तरलाभे सति । पंचसय गाहा (१८८) 'दिन्न -भय- भत्त - वेयण' त्ति दत्तभृति - भक्त - वेतना: । 'घड' गाहा (१८९) पिठरान् स्थाली:, अर्धघटान् घटार्धमानान् वारकान्, गडुकान् - करकान् वाऽर्धघटिकान् उडिकाः सुरातैलादिभाजनविशेषान्, कलशान् आकारविशेषवतो वृद्धघटान्, अलिञ्जराणि महत उदकभाजनविशेषान् । सद्दालपुत्त गाहा (१९३) 'महमाहण' त्ति माहन्मि न हन्मि इत्यर्थः, आत्मना वा हनननिवृत्तः परं प्रति 'मा हन' इत्येवमाचष्टे यः सः 'माहन:' । स एव मनःप्रभृतिकरणादिभिराजन्मसूक्ष्मादि भेदभिन्नहन [न]निर्वृत्तत्वात् महामाहनः । सर्वज्ञ: 'साकारोपयोगसामर्थ्यत्वात् । 'अरह'त्ति अर्हन् प्रातिहार्यादिपूजार्हत्वात्, अविद्यमानं रह एकान्तः सर्वज्ञत्वात् यस्याऽसौ अरह: । 'केवली' केवलानि परिपूर्णानि शुद्धानि अनन्तानि वा ज्ञानादीनि यस्य सन्ति सं केवली । 'जिनो' रागादिजेतृत्वादिति । उप्पन्ननाण गाहा । ( १९४) उप्पन्न आवरणक्षण आविर्भूते ज्ञान-दर्शने धारयति - इत्येवंशील 'उत्पन्नज्ञानदर्शनधारी । 'तेलोक्क- वहिय महियकमो' त्ति त्रैलोक्यं (त्रैलोक्येन ) त्रिलोकवासिना जनेन, 'वहिय' त्ति समग्रैश्वर्याद्यतिशय सन्दोहदर्शन समाकुलस्वचेतसा हर्षभरेण प्रबलकुतूहल- बलादनिमेषलोचनेनावलोकितः । 'महिय'त्ति सेव्यतया वाञ्छितौ क्रमौ यस्य । एतदेव व्यनक्ति सुरासुरनृपतिभिः पूजितौ पुष्पादिभि: सत्कारितौ वस्त्रादिभिः प्रणतौ क्रमकमलौ पादपद्मौ यस्य स तथा । पच्चुप्पन्न० गाहा ( १९५) पच्चुप्पनाऽणागयअईयसमयस्स जाणओ' प्रत्युत्पन्नाऽनागतातीतसमयस्य ज्ञापकः । ‘तह तच्चकम्मसंपयजुत्तो' - (तथा) तथ्यानि सत्फलानि अव्यभिचारितया यानि कर्माणि क्रियाः तत् तत्सम्पद (दा) स्तत्तत्समृद्ध्या संयुक्तः सहितः, क्षीणमोहश्च । 'अह० गाहा (२०८) 'वायाहयभंडगं स कोलालं' ति वातेन हतं वायुना ईषच्छोषमुपनीतं तच्च तद् भाण्डं च, पण्यं भाजनं वा 'कौलालं'
कुलाला: कुम्भकारा:, तेषामिदं कौलालं । ताजइ गाहा (२१३) 'भिंदिज्ज' इत्यादि भिन्द्यात् काणताकरणेन विकिरन् इतस्ततो विक्षिपन् परिष्ठापयन् बहिनीत्वा त्यजन् अपहरन् चोरयन् । सो आह० गाहा (२१५) आउसेमि' इत्यादि - आक्रोशामि 'मृतोऽसि त्वं' इत्यादिभिः शापैरभिशपामि, बध्नामि रज्ज्वादिना तर्जयित्वा 'ज्ञास्यसि रे दुष्टाचार ! वा' इत्यादिभिर्वचनविशेषैः, ताडयित्वा चपेटादिना, निच्छोटयित्वा धनादित्याजनेन, मारयामि जीविताद्
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________________ अनुसन्धान 48 व्यपरोपयामि, अकाले अप्रस्तावे पठने वाऽर्थः / न्हाया० गाहा (223) 'बलि'कर्म लोकरूढं कौतुकं मषीपुन्द्रकादि, मङ्गलं दध्यक्षतादि, एते एव प्रायश्चित्तमिव प्रायश्चित्तं दुःस्वप्नादिप्रतिघातकत्वेनाऽवश्यं कार्यत्वादिति / खजंता० ग्गहा (234) खाद्यमानान् मृगादिभावे व्याघ्रादिभिः, भिद्यमानान् मनुष्यादिभावे कुन्तादिना, छिद्यमानान् खड्गादिना, लुप्यमानान् चौरादिभिः बाह्योपध्यपहारतः / धम्म० गाहा (235) 'निव्वाणमहावाडं'ति सिद्धिमहा गोष्ठानविशेष / 'महागोप:' - गोपो रक्षकः, स च इतरगोरक्षकेभ्योऽतिविशिष्टत्वान्महानिति महागोपः / उम्मग्ग० गाहा (236) - उन्मार्गपतितान्, आश्रितकुदृष्टिशासनान्, सत्पथभ्रष्टान्, त्यक्तजिनशासनान्, मिथ्यात्वमोहितान्, अष्टविधकमैक-तमःपटलं-अन्धकारसमूहः, स एव पटलस्तेन छन्नान् / इय छेओ० गाहा (243) 'इय' एवं उपलभ्यमानाद्भुतप्रकारेण, एवमन्यत्रापि / छेकः प्रस्तावज्ञः, कलापण्डित इति वृद्धाः / इति निपुणो सूक्ष्मदर्शी, कुशल इति वृद्धोक्तम् / प्रभुः समर्थः / जम्हा जहा० गाहा (245) तरुणोऽपि प्रवर्धमानवयाः, वर्णादिगुणोपेतः इत्यर्थः / बलवान् सामर्थ्यवान् / [हत्थे वा०] गाहा (246) यद्यपि अजादीनां हस्तो न विद्यते, तथाऽपि अग्रेतनपादौ हस्त इव हस्त इति कृत्वा 'हस्ते' इत्युक्तम्, यथासम्भवं तेषां हस्तपादपुच्छादीनि योजनीयानि / महाशतककथानके किञ्चिल्लिख्यते - 'रेवई'० गाहा (276) 'कोलघरिया य' त्ति कुलग्रहात् पितृगृहादागताः कौलगृहिक्यः / पभणेइ० गाहा (311) 'अलसरोग अभिभूय'त्ति अलसकेन विसूचिकाविशेषलक्षणरोगेण ग्रस्ता, तल्लक्षणं चेदम् 'नोर्ध्वं व्रजति नाऽधस्तादाहारो न च पच्यते / / आमाशयेऽलसीभूतस्तेन सोऽलसकः स्मृतः // 1 // समासा चूर्णि: ॥छ। ग्रंथाग्रं - श्लोक 101 / छ / पुष्पिकाः मेदपाटे बरग्रामवास्तव्येन अभयीश्रावकपुत्र समुद्धरण श्रावक भार्यायाः कुलपुत्र्या सावितिश्राविकया, धन्यशालिभद्र - कृतपुण्यमहर्षिचरितादि पुस्तिका, स्वश्रेयोनिमित्तं लेखिता / छा संवत् 1309 / / २०३/बी, अकता अवन्यु, बेरेज रोड, वासणा, अमदावाद-७ मो. 9927258299