Book Title: Yogshastra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 441
________________ ४शा सप्तमप्रकाश. उपतापमसंप्राप्तः, शीतवातातपादिनिः॥ पिपासुरमरीकारि, योगामृतरसायनं ॥३॥ रागादिनिरनाक्रांतं, क्रोधादिनिरदूषितं ॥ आत्मारामं मनः कुर्वन् , निर्लेपः सर्वकर्मसु ॥४॥ विरतः कामनोगेन्यः, स्वशरीरेऽपि निःस्टहः॥ संवेगह्रदनिर्मग्नः, सर्वत्र समतां श्रयन् ॥५॥ नरें वा दरिखे वा, तुल्यकल्याणकामनः॥ अमात्रकरुणापात्रं, नवसौख्यपराङ्मुखः॥६॥ सुमेरुरिव निष्कंपः, शशीवानंददायकः॥ समीर श्व निःसंगः, सुधीर्ध्याता प्रशस्यते॥७॥ ॥षड्निः कुलकं ॥ अर्थः-प्राण जाय तो पण संयमनुं एक अग्रेसरपणुं नहीं तजनारो तथा पोताना आत्मस्वरूपी नहीं खसीने, परने, पण पोतानी पेठेज जोतो, तथा टाढ, पवन, अने तडकाथी पण उपतापने नहीं पामतो तथा मोक्ष करनारा योगरूपी अमृतनां रसायनने पीवानी श्छा करतो तथा राग श्रादिकथी नहीं आक्रमण थये, अने क्रोधादिकथी नहि दूषित थएल एवं, आत्मारामरूप मनने करतो, तथा सर्व कार्योमा नि. लैप थएल, तथा काम जोगथी विरक्त थयेलो, तथा पोताना शरीरमां पण स्पृहा विनानो, तथा वैराग्यरूपी सरोवरमां निमग्न थयेलो, तथा सव जगोए समताने धारण करतो, तथा राजा अने दरिज बन्नेनां कल्याणने तुल्यरीतें इवतो, तथा सर्वपर करुणावालो, जवनां सुखथी विरक्त थयेलो, मेरुनी पेठे निश्चल, चंजनी पेठे आनंद देनारो, पवननी पेठे संगरहित, तथा उत्तम बुद्धिवालो ध्यान धरनार प्रशंसाने पात्र बे, हवे नेदपूर्वक ध्येयनुं स्वरूप कहे . पिंडस्थं च पदस्थं च, रूपस्थं रूपवर्जितम् ।। चतुर्धा ध्येयमानातं, ध्यानस्यालंबनं बुधैः॥७॥

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