Book Title: Yogshastra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 448
________________ ४३६ योगशास्त्र. 5 मुकवां वने तेथी बरफ सरखं उज्वल " " एवं पद थशे. अने ते पद प्राणप्रांतने स्पर्श करनाएं, तथा पापोने नाश करनारुं डे, अने इ. स्व दीर्घ, सूक्ष्म ने अतिसूक्ष्म एवो उच्चार थाय; एवी रीतें उच्चार करवाथी ते नाजि, कंठ, अने हृदयथी घंटिकादि गांगेने विदारे, पी - त्यंत सूक्ष्म ध्वनिथी मध्य मार्गमां जतुं तेने स्मरकुं; पढी बिंडुथी तप्त थयेली कलामांथी निकलता दूध सरखा सफेद अमृतना मोजाउथी अंतरा त्माने जिंजावतुं एवं तेने चिंतवनुं पढी अमृतना सरोवरथी उत्पन्न थयेला तथा सोल पांखडीवाला कमलना मध्यभागमां श्रात्माने राखीने, ते प त्रोमा शोल विद्यादेवीउने चिंतववी, पछी स्फटिक सरखी निर्मल कारीमांथी करता दूध सरखा सफेद श्रमृतची पोताने लांबा कालसुधि सिंचाता चिंतaj; पढी था मंत्रराजना श्रभिधेय तथा परमेष्टी अने स्फटिक सरखा निर्मल एवा श्रने मस्तकने विषे ध्याववा, पढी ते ध्यानना श्रावेशी " सोहं सोहं " एम वारंवार कड़ेतां थकां शंकारहित था. त्मासाथे परमात्मानी एकता जाणवी, पढी राग, द्वेष ने मोहरहित, सर्वदर्शी, देवोथी पूजनीय तथा समवसरणमां धर्मदेशना देता, एवा परमात्माने दणा श्रात्मासाथे ध्यावतां थकां ध्यान धरनार योगी क्लेशने नाश करतो थको, परमात्मपणाने पामे. वली पण प्रकारांतर श्री पंचमयी देवतानुं पांच श्लोकोयें करीने स्वरूप कहे. या मंत्राधिपं धीमान, ऊर्ध्वाधोरेफसंयुतं ॥ कलाबिंऽसमाक्रांत, मनादतयुतं तथा ॥ १८ ॥ कनकांनोजगर्भस्थं, सांप्रचंांशुनिर्मलं ॥ गगने संचरंतं च व्याप्नुवंतं दिशः स्मरेत् ॥ १९ ॥ ततोविशंतं वक्राजे, भ्रमंतं भ्रूलतातरे ॥ स्फुरंतं नेत्रपत्रेषु तिष्ठतं नालमंडले ॥ २० ॥ निर्यातं तालुरंध्रेण श्रवंतं च सुधारसं ॥ स्पर्धमानं शशांकन, स्फुरंतं ज्योतिरंतरे ॥ २१ ॥

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