Book Title: Yogshastra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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अष्टमप्रकाश.
४४२ अर्थः- मोक्षसुखने देनारी पंदर अक्षरी विद्या ध्याववी, अने सर्वज्ञान प्रकाश करनारो “ श्रीक्षी अर्हनमः एवा सर्वातुल्य मंत्रनेस्मरवो.
वक्तुं न कश्चिदप्यस्य, प्रनावं सर्वतः दमः॥
समं नगवता साम्यं, सर्वशेन बिनर्ति यः॥४५॥ अर्थः- सर्वज्ञपणायें करीने प्रजुनी तुलनाने जे धारण करे , एवो कयो माणस था मंत्रना प्रजावने कहेवाने समर्थ थाय.? तथा,
यदीछेदूनवदावाग्नेः, समुन्नेदं दाणादपि॥
स्मरेत्तदादिमंत्रस्य, वर्णसप्तकमादिमं ॥४६॥ अर्थः- जो नवरूपी दावानलना एक क्षणवारमांनाशने श्छता होयें, तो मूलमंत्रना पेहेला सात अक्षरोन (नमो अरहंताणं) स्मरणकर.
पंचवर्ण स्मरेन्मंत्रं, कर्मनिर्घातकं तथा ॥
वर्णमालांचितं मंत्रं, ध्यायेत् सर्वानयप्रदं ॥४॥ अर्थः- कर्मोंने नाश करनारा पांच अक्षरना मंत्रने तथा अक्षरोनी श्रेणियुक्त अने सर्व प्रकारनां अजयने देनारा एवा मंत्रने पण ध्याववो.
हवे दश श्लोकोयें करीने व्युष्टिसहित मंत्रादर कहे बे. ध्यायेत शितानं वक्रांत, रष्टवर्गी दलाष्टके। अनमो अरहंताण, मिति वर्णानपिक्रमात् ॥४॥ केसराली स्वरमयीं, सुधाबिंजविनूषितां ॥ कर्णिकां कर्णिकायां च, चंबिंबात्समापतत् ॥ ४॥ संचरमाणं वक्रेण, प्रनामंडलमध्यगं॥ सुधादीधितिसंकाशं, मायाबीजं विचिंतयेत् ॥ ५० ॥ ततो भ्रमंतं पत्रेषु, संचरंतं ननस्तले ॥ ध्वंसयंतं मनोवांतं, स्रवंतंच सुधारसं ॥५॥ तालुरंध्रेण गतं, लसंतं भूलतांतरे॥ त्रैलोक्याचिंत्यमाहात्म्यं, ज्योतिर्मयमिवाद्भुतं ॥ ५॥

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