Book Title: Yogshastra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 469
________________ एकादशप्रकाश. ४५७ . तत्र श्रुताद्मदित्वै, कमर्थमर्थाव्रजेबब्दं ॥ शब्दात्पुनरप्यर्थ, योगायोगांतरं च सुधीः ॥१५॥ अर्थः- त्यां श्रुतथी एक श्रर्थने ग्रहण करीने, ते अर्थथी शब्दप्रत्ये जाय, अने फरीने पण शब्दथी अर्थप्रत्ये जाय, अने एवी रीते ते उत्तम बुद्धिमान् योगी एक योगथी बीजा योगमां प्राप्त थाय. तथा, संक्रामत्यविलंबित, मर्थप्रतिषु यथा किल ध्यानी॥ व्यावर्त्तते स्वयमसौ, पुनरपि तेन प्रकारेण ॥१६॥ अर्थः- जेम ध्यानी माणस तुरत अर्थ श्रादिकमां दाखल थाय , तेवीज रीते फरीने ते पोतानी मेलेज तेउमांथी व्यावर्तन करे . तथा, इति नानात्वे निसिता, न्यासः संजायते यदा योगी॥ विभूतात्मगुण, स्तदैकताया नवेद्योग्यः॥१७॥ अर्थः- एवी रीते जुदा जुदा प्रकारोमां श्रन्यासवान् योगी, प्रगट थएल डे आत्मगुण जेने एवो थयो थको, ते एकताने योग्य थाय . उत्पादस्थिति नंगा, दिपर्यायाणां यदेकयोगः सन् ॥ ध्यायति पर्ययमेकं, तस्यादेकत्वमविचारं ॥१७॥ अर्थः- उत्पाद, स्थिति, अने जंग श्रादिक पर्यायोनो एक योग होते बते एक पर्यायने जे ध्यावं, तेनुं नाम एकत्व अविचारवालुं कहेवाय. तथा, त्रिजगद्विषयं ध्याना, दणुसंस्थं धारयेत् क्रमेण मनः॥ विषमिव सर्वांगगतं, मंत्रबलान्मांत्रिकोदंशे॥१५॥ अर्थः- जेम मंत्रवादी मंत्रना बलथी, सर्व अंगमा व्याप्त थएला केरने दंश उपर लावे , तेम अनुक्रमें त्रण जगतना विषयवालुं मन ध्यानथी अणुमां लावीने धारवं. तथा, अपसारितेंधननरः, शेषस्तोकेंधनोऽनलो ज्वलितः॥ तस्मादपनीतोवा, निर्वाति यथा मनस्तवत् ॥२०॥ अर्थः- दूर करेल ले काष्टोनो समूह जेमांथी, अने बाकी थोडां काटोथी ज्वलायमान थतो अनि, जेम ठरी जाय, तेम सर्व आलंबन विनानुं मन पण शुक्लध्यानप्रत्ये प्राप्त थाय. ५८

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