Book Title: Yogshastra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 464
________________ ४५३ योगशास्त्र. हवे विपाकविचयनुं स्वरूप कहे जे. प्रतिक्षणसमुद्भूतो, यत्र कर्मफलोदयः॥ चिंत्यते चित्ररूपः स, विपाकविचयोदयः॥१५॥ अर्थः- क्षण क्षणप्रत्ये उत्पन्न थयेलो, कर्मोनां फलोनो विचित्र उदय जेमां चिंतवाय, ते विपाकध्यान जाणवू. तथा, या संपदार्दतोया च, विपदानारकात्मनः॥ एकातपत्रता तत्र, पुण्यापुण्यस्य कर्मणः॥१३॥ अर्थः- बेक अरिहंतसुधिनी संपदा, अने डेक नारकी सुधिनी विपदा, तेमां सघलामां पुण्य अने पापमुंज प्राबल्य जे. हवे संस्थान ध्याननुं स्वरूप कहे . अनाद्यतस्य लोकस्य, स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मनः॥ आकृति चिंतयेद्यत्र, संस्थानविचयः सतु ॥१४॥ अर्थः- अनादि अने अनंत, तथा स्थिति, उत्पत्ति, अने नाशना स्वनाववाला एवा लाकनी आकृति ज्यां चिंतवाय, तेनुं नाम संस्थान ध्यान जाणवं. हवे ते लोकध्याननुं फल कहे . नानाव्यगतानंत, पर्यायपरिवर्त्तनात् ॥ सदासक्तं मनोनैव, रागायाकुलतां ब्रजेत् ॥ १५॥ अर्थः- नाना प्रकारनां अव्योमा प्राप्त श्रयेला अनंता पर्यायोनां परिवर्तनथी तेमां रक्त थयेयूँ मन राग आदिकथी आकुलताने प्राप्त न थाय. हवे धर्मध्याननुज विशेष स्वरूप कहे . धर्मध्याने नवेदनावः, दायोपशामिकादिकः॥ लश्याः क्रमविशुखाः स्युः, पीतपद्मसिताः पुनः॥१६॥ अर्थः- धर्मध्यान होते बते, दायोपशमिक आदिक नाव थाय, श्र ने अनुक्रमें विशुझ एवी, पीत, पद्म, अने सित एवी लेश्या पण थायडे. . हवे ते चतुर्विध धर्मध्यानतुं फल कहे . अस्मिन्नितांतवैराग्य, व्यतिषंगतरंगिते॥ जायते देहिनां सौख्यं, स्वसंवेद्यमतीशियं ॥१७॥

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