Book Title: Yogshastra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 465
________________ दशमप्रकाश. ४५३ अर्थः- अत्यंत वैराग्यना मेलापथी तरंगित श्रयेला ते धर्मध्यानथी प्राणीने इंजियोने अगोचर एबुं आत्मसंवेद्य सुख थाय . हवे चार श्लोकें करीने तेनुं आ लोकसंबंधि सुख कहे जे. त्यक्तसंगास्तनुं त्यक्त्वा, धर्मध्यानेन योगिनः॥ ग्रैवेयकादिस्वर्गेषु, नवंति त्रिदशोत्तमाः॥२॥ महामदिमसौनाग्यं, शरच्चं निनननं ॥ प्राप्नुवंति वपुस्तत्र, स्रग्नूषांबरनूषितं ॥ १५॥ विशिष्टवीर्यबोधाढ्यं, कामार्तिज्वरवर्जितं ॥ निरंतरायं सेवंते, सुखं चानुपमं चिरं ॥२०॥ श्वासंपन्नसर्वार्थ, मनोहारि सुखामृतं ॥ निर्विघ्नमुपचुंजाना, गतं जन्म न जानते ॥१॥ अर्थः- तजेल जे संग जेये एवा योगी धर्मध्यानथी शरीर तजीने अवेयक आदिक स्वर्गोनेविषे उत्तम देवो थाय जे; तथा त्यां उत्तम महिमावाला, अने शरद् ऋतुना चंग सरखी कांतिवाला, तथा पुष्पमाला, आनूषण अने वस्त्रोथी नूषित थयेला एवां शरीरने पामे बे; वली त्यां विशिष्ट प्रकारनां वीर्यअने बोधवालां, तथा कामनी पीडायें करीने वर्जित, अंतरायरहित, तथा अनुपम एवां सुखने मेलवे बे; वली त्यां पोतानी श्वाप्रमाणे उत्तम एवा सुखरूपी अमृतने विनरहित जोगवता थका, पोताना आगला जवने जाणता पण नथी. दिव्यनोगावसाने च, च्युत्वा त्रिदिवतस्ततः॥ उत्तमेन शरीरेणा, वतरंति महीतले ॥२२॥ दिव्यवंशे समुत्पन्ना, नित्योत्सवमनोरमान ॥ भुंजते विविधान् भोगा, नखंडितमनोरथाः॥२३ ॥ ततोविवेकमाश्रित्य, विरज्याशेषनोगतः॥ ध्यानेन ध्वस्तकर्माणः, प्रयांति पदमव्ययं ॥२४॥ ॥ त्रिनिर्विशेषकं ॥

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