Book Title: Vratya Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 188
________________ स्वाध्याय क्रियायोग प्रणव (ओम्) आदि पवित्र मंत्रों का जप अथवा मोक्ष शास्त्र के अध्ययन को स्वाध्याय कहा जाता है। 'स्वाध्यायः प्रणवादिपवित्राणां जपः, मोक्षशास्त्राध्ययनं वा।' स्वाध्याय भी योग का साधन है। परमेश्वर के नामों का उच्चारण तथा उपनिषद् आदि शास्त्रों का वाचन वृत्तिनिरोधरूप योग में साधन बनता है। स्वाध्याय के द्वारा साधक समाधि की अवस्था को प्राप्त कर लेता है। समाधि के लिए, परमात्मा की प्राप्ति के लिए ध्यान एवं स्वाध्याय का आलम्बन लेना चाहिये। ध्यान एवं स्वाध्याय की सम्पत्ति से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है। कहा भी है स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यस्तां ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत्। स्वाध्यायध्यानसम्पत्या परमात्मा प्रकाशते ॥ जप और शास्त्रों का अध्ययन-ये स्वाध्याय के दो प्रकार हैं। परमेश्वर की प्राप्ति के लिए उसका जप किया जाता है। योगदर्शन में प्रणव अर्थात् ओम् को ईश्वर का वाचक कहा गया है 'तस्यवाचकः प्रणवः ।' ईश्वर वाच्य एवं प्रणव वाचक है। जप के द्वारा मानसिक एकाग्रता प्राप्त होती है और अन्ततोगत्वा इसके माध्यम से ज्ञाता का साक्षात्कार हो जाता है। स्वाध्याय का फल स्वाध्याय से इष्ट देवता के साथ मिलन होता है। 'स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः' देव, ऋषि तथा सिद्धगण स्वाध्यायशील योगी के प्रत्यक्ष होते रहते हैं और उनके द्वारा योगी का कार्य भी सिद्ध होता है। साधारण अवस्था में जप करने के समय अर्थभावना ठीक नहीं रहती। जपकर्ता के शाब्दिक उच्चारण चलता रहता है और उसका मन विषयान्तर में भटकता रहता है। ऐसी स्थिति में स्वाध्याय का वांछित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। इष्ट के साथ तन्मय एवं तदाकार होने से ही इष्ट की प्राप्ति संभव है। स्वाध्याय-स्थैर्य होने पर बहुकाल तक मंत्र तथा मन्त्रार्थ भावना अविच्छिन्न रहती है। ऐसी प्रबल इच्छा के साथ देव आदि की भावना करने से वे दर्शन देंगे ही, यह असंदिग्ध है। व्रात्य दर्शन . १६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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