Book Title: Vratya Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 228
________________ शरीर की संघात एवं परिशाट व्यवस्था संघात अर्थात् ग्रहण एवं परिशाट अर्थात् परित्याग। पूर्वभविक औदारिक आदि शरीर के पुद्गलों को छोड़कर अग्रिम भव में पुनः पुद्गलों का संग्रहण संघातकरण कहलाता है अथवा शरीर योग्य पुद्गलों का प्रथम ग्रहण संघात है। औदारिक शरीरों को छोड़ते समय अन्त में उनका सर्वथा परित्याग करना परिशाटकरण है। संघात और परिशाट का कालमान एक-एक समय है। इन दोनों के मध्य 'संघात-परिशाट' यह उभयकरण होता है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीनों शरीरों के संघात आदि तीनों करण होते हैं। तैजस और कार्मण शरीर प्रवाहरूप से अनादि है अतः इनका संघातकरण नहीं होता।३१ भव्य जीव जो मोक्ष जाते हैं उनकी अपेक्षा से तैजस और कार्मण का परिशाट होता है। मुक्तिगामी भव्यों के शैलेशी अवस्था के चरम समय में तैजस एवं कार्मण शरीर का परिशाट होता है।३२ संघात, परिशाट एवं संघात-परिशाट ये तीनों जीव प्रयोगकरण कहलाते हैं। अभव्य जीवों में तैजस एवं कार्मण शरीर का संघात एवं परिशाट-ये दोनों ही नहीं होते हैं। संघात-परिशाट रूप उभयकरण उनमें होता है। यह करण भी अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनंत है और सिद्धिगमन करने वाले भव्यों की अपेक्षा सांत है। प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने शरीर के संदर्भ में विचार किया है। वेदान्त एवं सांख्य दर्शन सम्मत शरीर के संदर्भ में किये गये विचारों की तुलना यथाशक्य जैन मान्य शरीर की अवधारणा के साथ करने का प्रयत्न प्रस्तुत निबन्ध में किया जी रहा है। सांख्य दर्शन सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति एवं पुरुष ये दो तत्त्व हैं। पुरुष चेतन स्वरूप, अपरिणामी है। उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता। इस दृश्य जगत् का सम्पूर्ण विकास विस्तार प्रकृति के द्वारा ही होता है। प्रकृति ही सर्ग काल में महत्, अहंकार, मन, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच तन्मात्रा एवं पांच भूतों को उत्पन्न कर देती हैं। इन्हीं तत्त्वों से शरीर का निर्माण होता है। सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में प्रकृति प्रत्येक पुरुष के लिए एक विशेष प्रकार के आवरण या शरीर का निर्माण करती है, जिसे लिङ्ग कहते हैं। यह लिङ्ग सृष्टि के प्रारम्भ काल से लेकर प्रलय काल तक बना रहता है अतः व्रात्य दर्शन - २०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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