Book Title: Vratya Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 230
________________ तथा स्नायु, अस्थि एवं मज्जा के निर्मापक तत्त्वों की प्राप्ति पिता से होती है अतः शरीर को पाट्कौशिक कहा जाता है । व्यक्तित्व के विकास में भावों से अधिवासित सूक्ष्म शरीर का ही अधिक महत्त्व है। सूक्ष्म शरीर के अनुसार ही स्थूल शरीर एवं अन्य भोग्य सामग्री प्राप्त होती है। तुलना जैन दर्शन मान्य कार्मण शरीर की कथंचित् तुलना लिङ्ग शरीर से की जा सकती है । लिङ्ग शरीर को जैसे स्थूल शरीर का कारण माना गया है वैसे ही कार्मण शरीर औदारिक आदि शरीरों का कारण है । लिङ्ग शरीर की तरह ही कार्मण शरीर अप्रतिघाती एवं निरुपभोग है । उसमें ही सारे संस्कार संचित रहते हैं । जीव के संसार में परिभ्रमण का हेतु लिङ्ग शरीर की तरह कार्मण शरीर ही है । जैन दर्शन में जिसे औदारिक शरीर कहा जाता है उसे ही सांख्य स्थूल शरीर कहता है । उदार शब्द से औदारिक शब्द निष्पन्न हुआ है एवं उदार का एक अर्थ स्थूल भी है जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है । जैन परम्परा मान्य औदारिक एवं कार्मण शरीर की तुलना तो सांख्य मान्य स्थूल एवं लिङ्ग शरीर से क्रमशः हो जाती है किंतु जैन सम्मत वैक्रिय, आहारक एवं तैजस शरीर की अवधारणा सदृश विचार सांख्य में उपलब्ध है या नहीं यह अन्वेषणीय हैं। सांख्य दर्शन में भी देव, नारक आदि योनियों की स्वीकृति है, उनका शरीर कैसा होता है? मनुष्य के स्थूल शरीर से तो अवश्य ही वह भिन्न प्रकार का होना चाहिये । सांख्य किस रूप में उसका वर्णन करता है यह खोज का विषय है । वेदान्त दर्शन वेदान्त दर्शन में सृष्टि का क्रमिक विकास स्वीकार किया गया है। यह क्रमिक विकास सूक्ष्मतम रूप से स्थूलतर रूप की ओर होता है । इस विकास प्रक्रिया की तीन अवस्थाएं हैं १. कारणावस्था २. सूक्ष्मावस्था ३. स्थूलावस्था तमोगुण प्रधान माया की विक्षेप शक्ति से उपहित ब्रह्म को ही ईश्वर कहा व्रात्य दर्शन २११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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