Book Title: Vratya Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 216
________________ समय में वर्ण व्यवस्था का प्रचलन नहीं था अथवा प्रज्ञापना उस वर्ण व्यवस्था को स्वीकार नहीं करती है, जो व्यवस्था समाज में विघटन को बढ़ावा देती है । नापित, जुलाहा, बढ़ई आदि का समावेश वर्णव्यवस्था में शुद्रवर्ण में होता है जिसको समाज में हेय समझा जाता था । प्रज्ञापनाकार ने उन व्यक्तियों को उनके शिल्प के आधार पर आर्य श्रेणी में प्रस्थापित करके सामाजिक जागरूकता का परिचय दिया है। कुलार्य एवं जात्यार्य के उल्लेख से यह भी ज्ञात होता है कि प्रज्ञापनाकार उस समय की प्रचलित व्यवस्था को पूर्णतया अस्वीकृत नहीं करते हैं अतः उस समय की धनाढ्य जातियों तथा श्रेष्ठ समझे जाने वाले कुलों का जात्यार्य एवं कुलार्य में समावेश करके उन्होंने सामञ्जस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है। अरिहंत, चक्रवर्ती आदि का ऋद्धिसम्पन्न आर्य में परिगणन करके ऐतिहासिक यथार्थ को गौरव प्रदान किया है। समाज का विकास कोरा लौकिक व्यवस्थाओं एवं आजीविका के संसाधनों से ही नहीं होता है, उसके विकास का हेतु अध्यात्म दर्शन भी बनता है । व्यक्ति में अनादिकाल से अपने आपको जानने की, जगत् के रहस्यों को उद्घाटित करने की इच्छा रही है । उस सत्य को उपलब्ध करने के लिए कुछ लोगों ने घर, परिवार, समाज का भी त्याग कर दिया । सामाजिक लोग उन्हें हेय दृष्टि से न देखे । उनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है, बल्कि यों कहना चाहिये वही जीवन का सर्वोच्च एवं वास्तविक लक्ष्य है । प्रज्ञापनाकार ने ज्ञानार्य, दर्शनार्य एवं चारित्रार्य का उल्लेख करके अध्यात्म एवं समाज में संतुलन स्थापित करने का प्रयत्न किया है। प्रज्ञापनावर्णित आर्य विचार से समाज से लेकर यथाख्यातचारित्र युक्त केवली का निरूपण हो जाता है । सिद्धों का समावेश इसमें नहीं हो सकता क्योंकि सिद्ध शुद्ध आत्मा है तथा आर्य एवं अनार्य ये दो भेद मनुष्य के हैं । आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, उत्तराध्ययन, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, प्रश्नव्याकरण, तत्वार्थसूत्र एवं उसके व्याख्या ग्रंथों में आर्य एवं अनार्य सम्बन्धित जैन मान्यता का वर्णन उपलब्ध है। संदर्भ १. The Vedic age p. 205 2. Ibid p. 205 ३. मेगस्थनीज, एंशियण्ट इंडिया, पृ. ३४ ४. प्रज्ञापना १ / ६३ खेत्तारिया अद्धछव्वीसतिविहा पण्णत्ता तं जहा Jain Education International For Private & Personal Use Only व्रात्य दर्शन १६७ www.jainelibrary.org

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