Book Title: Vratya Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 223
________________ ही है शरीर जिनका वे पृथ्वीकायिक जीव है। इसी प्रकार अन्य कार्यों के बारे में समझना चाहिये। औदारिक शरीर के धारक गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीवों एवं सम्मूर्छन जीवों के औदारिक शरीर होता है। इन दो प्रकार के जीवों के अतिरिक्त और किसी भी जीव के औदारिक शरीर नहीं होता किंतु गर्भज एवं सम्मूर्छन जीवों के औदारिक शरीर के अतिरिक्त अन्य शरीर भी होते हैं। वैक्रिय शरीर औदारिक शरीर रक्त, मांस आदि सप्त धातुओं से निर्मित होता है जबकि वैक्रिय शरीर रक्त आदि से निर्मित नहीं है। यह शरीर ऊर्जारूप होता है। वैक्रिय शरीर में विशिष्ट प्रकार की शक्ति होती है जिसके कारण यह शरीर एकरूप होकर अनेकरूप हो जाता है और अनेकरूप होकर एकरूप हो जाता है। अणु होकर महान् एवं बड़ा होकर पुनः छोटा बन जाता है। इस प्रकार की विविध क्रियाएं वैक्रिय शरीर में हो सकती है। इस शरीर का धारक जीव विविध एवं विशिष्ट प्रकार की क्रिया करने में समर्थ होता है। विक्रिया, विकार, विकृति और विकरण ये शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं। जो विक्रिया में उत्पन्न होता है, विक्रिया से निर्मित होता है वही वैक्रिय शरीर है। वैक्रिय शरीर के धारक वैक्रिय शरीर देवता और नारकी के तो जन्म से ही होता है। देव एवं नारक जीवों के औदारिक शरीर नहीं होता है। उनके वैक्रिय शरीर जन्मजात, स्वभाव से होता है। मनुष्य एवं तिर्यञ्चों के यह शरीर लब्धिजन्य होता है। वायुकाय के भी वैक्रिय शरीर लब्धिजन्य होता है। दिगम्बर परम्परा में तैजसकाय आदि के भी वैक्रिय शरीर माना गया है। मनुष्य आदि में भी यह शरीर लब्धिजन्य है अतः जिनके पास वैक्रियलब्धि होती है उनके ही यह शरीर हो सकता है अन्य के नहीं हो सकता। आहारक शरीर आहारक शरीर एक विशिष्ट प्रकार की शरीर संरचना है, जो विशिष्ट २०४ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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