Book Title: Vinit Kosh
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Gujarat Vidyapith Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 710
________________ परिडीन परिडीन न० गोळ कुंडाळं करतां ऊडवं ते (पक्षीनी ऊडवानी एकरीत) परितर्कण न० विचारणा; विमर्श परित्यागिन् वि० परित्याग करनाएं (संन्यासी) [सूकवी नाखवू परिदह. १ प० पूरेपूर बाळी नाखवू; । परिदिव, परिदेव १, १० प० विलाप करवो; शोक करवो परिपठ -प्रेरक० भणाववं; शीखव, परिपणित वि० सोगन लीधेलं; वचन आपेलं कर ते परिपूरण न० भरी काढवू ते; परिपूर्ण परिपृच्छिक, परिपूष्टिक वि० आग्रह करीने आपे त्यारे ज लेनाएं परिबर्हण न० परिवार (२) मालमता; सामग्री (३) वृद्धि (४) आराधना परिबाध् १ आ० कनडवू; पीडवू परिभविन् वि० पराभव-अपमान करनाएं (२) अपमान वेठनाएं (३) जीतनारे; हरावनाएं परिमर्द पुं० दवाव-कचरवं-छंदवू ते (२) विनाश (३) ईजा करवी ते (४) आलिंगवू ते (५) वापरी नाखवू - भोगवी नाखवू ते परिमंडल न० गोळ कुंडाळं (२) दडो (३) पैडानी नेमि . परिरक्षण न० संरक्षण ; जाळवणी (२) वळगी रहे - उल्लंघन न कर ते परिवर्तक वि० गोळ फरे तेन करतुं (२) बदलो करतुं (३) गोळ फरतुं (४) अंत लावतुं पास फरतुं परिवर्त्य वि० वारंवार आवतुं ; आसपरिवाप पुं० मुंडन (२) वावणी (३) जलाशय (४) साधनसामग्री (५) । परिवार (६) वाणी; पौंवा (७) थोभवानुं स्थळ परिवीज १ आ० पंखो नाखवो परिवेष्ट पुं० पीरसनारो (२) आहुति आपनारो पंचत्वं गम् परिशेष पुं० बाको रहेg ते (२) अंत; विनाश (३) समाप्ति (४) पुरवणी परिसंख्या स्त्री० गणतरी (२) सर वाळो; कुल संख्या जगा परि न० आंतरो के बाउ करेली परिद पु० धबकारो; हलनचलन (२) जुओ पृ० २७२ परिस्फुर ६ प० धबकg; कंपy परीक्षित् पुं० जुओ पृ० ६१२ परुणी स्त्री० जुओ पृ० ६१२ पर्यवस्थात पुं० विरोधी; सामावाळियो पर्यश्रुनयन वि० आंसु ददडती आंखोवाळू पर्याकुलत्व न० अस्तव्यस्त होबापगुं पर्यागल १ प० चोमेर गळवू- टपकवू पर्वकार पुं० बेषांतरधारी; बहुरूपी पर्वसंधि पुं० पूनम अने पडवानी संधि पर्षद्वल पुं० परिषदनो सभ्य पन्छीही स्त्री० जुवान गाय; बाल गर्भिणी गाय पस्त्य न० निवासस्थान; रहेठाण ; घर पस्पश पुं० पतंजलिना महाभाष्यना प्रथम अध्यायनं प्रथम आह्निक (२) उपोद्घात ('अ-पस्पशा' एटले प्रथम आह्निक वगरनी शब्दविद्या; तेम ज 'अप-स्पशा' एटले जासूस विनानी राजविद्या) पंकाक्षालनन्यायः जुओ पृ० ६३४ पंकयति प० (कादववाळं करवू; डहोळं करवू) पंक्तिदूष पुं० जेनी साथे एक पंगते जमवा बेसी न शकाय तेवो; पंगतने अमडावनारो पंक्तिशः अ० पंक्तिसर पंग्वंधन्यायः जुओ पृ० ६३४ पंचजन पुं० जुओ पृ० ६१२ पंचतंत्र न० विष्णुशर्मा रचित पांच प्रकरणवा नीतिशास्त्र पंचत्यभाप्, पंचत्वं गम् मरी जवू (पांच महाभूत छूटां पडी जवां) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724