Book Title: Veerjinindachariu Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 3
________________ बोरजिणिवचरिउ हुए एक शबर का जीव था जिसने अपने सामान्य जीवनकी प्रवृत्ति प्राणि-हिंसाको त्यागकर मदिराक मत यहफा भिगा थः नदिने वा पोरके चरणकमलों में दीक्षा ली थी। किन्तु उससे उन आदि तीर्थंकर द्वारा निर्दिष्ट कठोर मुनिन्नतोंका पालन न हो सका और यह मुनिपदसे भ्रष्ट हो गया । तथापि उसमें धार्मिक बीज पड़ चुका था और संस्कार भी उत्पन्न हो गये थे। अतएव देव और मनुष्य लोकमें भ्रमण करते हुए अन्ततः उसने महाबीर तीर्थकर का जन्म धारण किया। इस प्रकार यह सहज ही देखा जा सकता है कि इन अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरकी अध्यात्म-परम्परा आदि-तीर्थकर ऋषभदेवसे जुड़ी हुई प्रतिष्ठित पायी जाती है। किन्तु महावीर के साथ मी तीर्थकर-परम्परा टूटती नहीं। उनके एक शिष्य थे उस समयके भारत-नरेश श्रेणिक-बिम्बसार । उनमें भगवान महावीर द्वारा धर्मका बीज आरोपित किया गया । यद्यपि वे अपने पूर्व दुष्कृत्यों के कारण नरकगामी हुए, तथापि उनमें भी मरीचिके समान धार्मिक संस्कार प्रबलतासे स्थापित हो चुका है, जिसके फलस्वरूप वे अपने अगले जन्ममें एक नयी तीर्थफर-परम्पराके आदि-प्रवर्तक होंगे। अर्थात् वे भाबी चौबीस तीर्थकरोंमें महापद्म नामक प्रथम तीर्थकर होंगे। इस प्रकार समग्न दृष्टिसे विचार किया जाये तो जैन परम्परामें यह बात दृढ़तासे स्थापित की गयी है कि जिस प्रकार महावीर पूर्व-पौराणिक परम्परामें ऐतिहासिक रूपसे अन्तिम तीर्थकर है, उसी प्रकार वे एक नयी तीर्थकरपरम्पराके जन्मदाता भी हैं। २. महावीर-जीवन, जन्म व कुमारकाल महावीर तीर्थकरका जो चरित्र जैन साहित्यमें पाया जाता है वह संक्षेपमें इस प्रकार है। महाबीरका जन्म एक क्षत्रिय राज-परिवारमें हुआ । उनके पिताका नाम सिद्धार्थ और माताका प्रियकारिणी अथवा त्रिशलादेवी था। सिद्धार्थका गोत्र कादयप और त्रिशलाका पैत्रिक गोत्र वशिष्ठका भी उल्लेख पाया जाता है । त्रिशलादेवी उस समयके वैशालीनरेश चेटककी ज्येष्ठ पुत्री, अथवा मतान्तरसे चेटककी बहन थी। महावीरका शैवाघ व कुमारकाल उसी प्रकार लालन-पालन एवं शिक्षण में व्यतीत हुआ जैसा उस कालके राजभवनों में प्रचलित था। उनकी चालक्रीडाका एक यह आस्यान भी पाया जाता है कि उन्होंने एक भीषण सर्पका १. महापुराग (संस्कृत) पर्व ७४ 1 महापुराण (अपभ्रंश) सन्धि २५ । २, महापुराण (संस्थात) ७६, ४७१-७७ ।Page Navigation
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