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(५६) स्थितकूप ज्वार, देवता पण जर नवि शकेजी ॥ ग हन पाताल नूवनें तिहां जइ, परणी मुज कुमरीनू चरथके जी ॥१०॥ पंचरत्न मुज जीवित प्राय, ले गयो हवे किश्शुं किजिये जी ॥ ज्ञान नैमित्तकतर्यु प्रमाण, नाग्य नूचर सखहीजीये जी ॥११॥ एक लो शून्य ही हतो एह, तिहां पण मने जीत्यो एणे जी॥ कहे जिनदर्ष पुण्य फली प्राश, ढाल त्रेवीशमी ए कहीजी॥१२॥ सर्वगामा ॥ ४६३ ॥
॥दोहा॥ ॥ हवे तो ए राजा अयो, पंचरतन सुप्रनाव ॥ हय गय पायक नट कटक, माहरो न लागे दाव ॥१॥ हवे जीती हुँ केम शकुं, केहनो राखुं शोष ॥ जे.कि रतारें वडा किया, तेहशु केहो रोष ॥२॥ प्राणे जा स न पोहोचिये, तेशु किश्यो संग्राम ॥ तेदने नमियें जाइने, तो विणसे नहीं काम ॥ ३ ॥ काज विचारी जे करे, तेहy सीके काम ॥ अविचारयुं धांधल पडे, घटे महत्वने माम॥४॥ हवे जमाइए अयो, क सहतणुं नहीं गम ॥ हसतां रोतां प्राहुणो, राखं किस्यो विराम ॥ ५॥
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