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दरबार के, दूत आव्यो तिहां जूपनो ॥ ८ ॥ श्रासीने दो राय ने दियो लेख के, राय नघाडी वांचीयो ॥ मां हे लखिया हो वे बोल श्रमोल के, जेथी टाढो हुने दियो ||||| स्वस्तिश्री दो प्रणमी जमदोश के, वाला रखीथी मन रसे ॥ मकरध्वज दो लिखितं मादाराय के, उत्तमचरित्र कुमर दिसें ॥ १० ॥ श्रालिंगे दो दर खें सस्नेह के, कुशल खेम वरतुं इहां ॥ तुमकेरा हो बांबु सुखखेम के, कागल दीयो बो जिहां ॥ ११ ॥ जिस दिनधी दो तु चाल्यो परदेश के, खबर करावी में घी ॥ वोडाव्या हो केर्डे प्रस्वार के, निरत न पामी: तुम तणी ॥१२॥ चाख्या केडे हों पुरपाटण गाम के, पर्वत द्वीप नमंतडां ॥ किहां न सुखी हो वत्स ताहरी वात के, निशि दिन वाट जोवंतडां ॥ १३ ॥ निःस्नेही हो तुं तो थयो पुत के, मात पिताने अवगली ॥ मेब्दी ने दो गयो तुं निरधार के, दिपडे अनि दीघी घणी ॥ ॥ १४ ॥ बोरुनें हो मन नांहिं दुःख के, मात पिता: दुःख करी मरे || पूरी यह दो चोवीशमी ढाल के कदी जिनदर्ष नली परे ॥ १५ ॥ सर्वगाथा ||४८३॥ ॥ दोहा ॥
॥ तथा अहं वाक श्रयो, तुज विजोग न खमाय
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