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पलटि पहिरे भावसों सोय । उलटी मुद्रा दई अंकन वरन सूधे होय ॥३॥ वेद विधिको नेम नाही भीतकी पहिचान । ब्रजवधू वश किये मोहन सूर चतुर सुजान" ॥४॥ सो जब प्रेमकी पराकाष्ठा दशा आवे तब वत्सलता उत्पन्न होय है। पूर्णदशामें नेम तथा माहात्म्य नहीं रहे । जैसे दोसौ बावन वैष्णवनकी वार्ता में प्रसङ्ग है कि बावाजी रजपूत घोड़ापर सवार राजाके सड़सवारीमें जातहतो सो श्रीठाकुरजीने जतायो कि राजभोगके थालमें धृत थोडो धरयो है । सो श्रीठाकुरजी गलो खुजापत हैं । सो तत्काल राजाकी सवारी छोड़ घोड़ा दौडाय दुकानते घृतलेके घर आय टेरा सरकाय श्रीगकुरजीकू घृत भोग धरयो । सो वत्सलताकी उतावलमें जोड़ीहू उतारबो भूलिगये । सो एक वैष्णव यह अनाचार देखि विनके घर महाप्रसाद न लीनो । तब वा वैष्णवः रात्रिमें श्रीगकुरजीने नममें जतायो कि तैने बाधनीको अनाचार देख्यो परन्तु वाकी प्रेमकी पूर्णावस्थामें देहानुसन्धान नहीं रह्यो सो तैनें नहीं देख्यो ताते विनके घर जायके महाप्रसाद लेय । ऐसेही एक गिरासिआ रजपूतकी वार्ता में है । राजभोगकी चौकी कछु दूर हती श्रीठाकुरजी उझकिके अरोगते सो जानिके गिरासिआ वैष्णव पाँचो कपडा पहिरे झट भीतर जाय के श्रीगकुरजीके नजीक चौकी सरकाई । कपडा उतारत ढील होती इतनो श्रम श्रीठाकुरजीकू होतो सो इनको पूर्ण स्नेह देखि श्रीठाकुरजी बोहोत प्रसन्न भये । सो श्रीगकुरजी तो स्नेह के वसहैं, और छांदोग्य उपनिषदमें भगवतवाक्यहैः-कि “न वेदयज्ञाध्ययनैन दानेन च क्रियाभिन तपोभिरुयैः। प्राप्तिश्च मामेव किं कोटियत्नैः सर्वात्मकं प्रेम सूत्रपि बद्धम् ॥ १॥
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- REDIENER
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