Book Title: Uvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उपाध्याय शान्तिचन्द्र ने कल्पवृक्ष के विवरण का पाठ जीवाजीवाभिगम से उद्धृत किया है। चतुर्थ कल्पवृक्ष के स्वरूप वर्णन में उन्होंने कणग निगरण' पाठ उदधत किया है। उसका अर्थ किया है सूवर्ण राशि। जीवाजीवाभिगम की वृत्ति में 'कणग निगरण' पाठ व्याख्यात है-"कनकस्य निगरणं कनकनिगरणं गालितं कनकमिति भावः । लिपि-परिवर्तन के कारण पाठ परिवर्तन हुआ है। आदर्शों में 'कूडागारटु' पाठ मिलता है । मुद्रित तथा हस्तलिखित वृत्ति में भी 'कूटागाराद्यानि' पाठ उपलब्ध होता है।
___ जीवाजीवाभिगम की वृत्ति में यह व्याख्यात नहीं है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति में इसकी व्याख्या मिलती है-'कुटाकारेण -शिखराकृत्याढ्यानि""
___आचार्य मलयगिरि ने आदर्शगत पाठभेद का स्वयं उल्लेख किया है। वृत्तिकार ने जिन गाथाओं को अन्यत्र कहकर उद्धत किया है। अर्वाचीन आदर्शों में वे गाथाएं मूल पाठ में समाविष्ट हो गई।
वत्ति में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका का उल्लेख मिलता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के व्याख्याकार मलयगिरि के उत्तरवर्ती ही हैं। इसलिए यह उल्लेख प्रक्षिप्त है अथवा मलयगिरि के सामने उसकी कोई प्राचीन व्याख्या रही है यह अन्वेषण का विषय है।
कहीं-कहीं वृत्ति में भी कुछ विमर्शनीय लगता है । 'सिरिवच्छ' पाठ की व्याख्या वृतिकार ने श्रीवक्ष' की है। प्रकरण की दृष्टि से 'श्रीवत्स होना चाहिए।
मूल टीकाकार और मलयगिरि के सामने पाठभेद तथा अर्थभेद की जटिलता रही है और व्याख्याकारों के समय में इस विषय में कुछ चर्चाएं भी होती रही हैं। इस विषय में वत्ति का एक उल्लेख बहुत ही ऐतिहासिक महत्त्व का है। वृत्तिकार ने लिखा है कि यह सूत्र विचित्र अभिप्राय वाला होने के कारण दुर्लक्ष्य है। इसकी व्याख्या सम्यक् सम्प्रदाय के आधार पर ही ज्ञातव्य है। सूत्र
१. जम्बूद्वीप वृ० ५० १०२-'कनकनिकरः सुवर्ण राशिः।" २. जीवाजीवाभिगम वृ०प० २६७ । ३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृ० १० १०७
देखें जीवाजीवाभिगम ३१५६४ का पादटिप्पण । ४. (क) जीवाजीवाभिगम वृ० प ३२१
"इह बहुषा सूत्रेषु पाठभेदाः परमेतावानेव सर्वत्राप्यर्थो नार्थभेदान्तरमित्येतद्व्याख्यानुसारेण
सर्वप्यनुगन्तव्या न मोग्धव्यमिति ।" (ख) जीवा० वृ० ५० ३७६ ।
इह भूयान् पुस्तकेषु वाचनाभेदो गलितानि च सुत्राणि बहुषु पुस्तकेषु ततो यथाऽवस्थितवाचनाभेदप्रतिपत्यर्थगलितसूत्रोद्धरणार्थ चैवं सुगमान्यपि विवियन्ते। ५. जीवा वृ०प० ३३१, ३३३, ३३४ तथा ३८२०, ८३०, ८३४, ८३७ के पादटिप्पण द्रष्टव्य हैं। ६. जीवाभिगम वृ०प० ३८२ क्वचित्सिहादीनां वर्णनं दृश्यते तद् बहुषु पुस्तकेषु न दृष्टमित्युपेक्षितं
अवश्यं चेत्तद्वयाख्यानेन प्रयोजनं तर्हि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका परिभावनीया, तत्र सविस्तरं तद् व्याख्यानस्य कृतत्वात्। ७. जीवा जीवाभिगम वृ०५० २७१---
'श्रीवक्षणांकितं-लाछिछितम् वृक्षो येषां ते श्री वृक्षलाञ्छित वक्षसः" ।
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