Book Title: Uvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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विषयवस्तु के आधारपर 'रायपएसिय' नाम की कल्पना की जा सकती है। किन्तु इसका कोई प्राचीन आधार प्राप्त नहीं है।
राजा प्रदेशी के प्रश्न प्रस्तुत सूत्र की रचना के आधार रहे हैं, इसलिए इसका नाम रायपसेणिय' ही होना चाहिए।
व्याख्या ग्रन्थ
प्रस्तुत सूत्र के व्याख्या-ग्रंथ दो हैं---[१] वृत्ति और [२] स्तबक [टब्बा, बालावबोध] । वत्ति संस्कृत में लिखित है और स्तबक गुजराती मिश्रित राजस्थानी में। वृत्ति के लेखक सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य मलयगिरि हैं और स्तबककार हैं पार्श्वचन्द्रगणी [१६ वी शती] और मुनि धर्मसिंह [१८ वीं शती] । स्तबक संक्षिप्त अनुवाद ग्रन्थ है । प्रस्तुत सुत्र के रहस्यों को स्पष्ट करने वाला व्याख्या ग्रन्थ वास्तव में वृत्ति ही है । वृत्तिकार ने सूत्र के सब विषयों को स्पष्ट नहीं किया है, फिर
में अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएं दी हैं। वत्तिकार को वृत्ति-निर्माण में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनके सामने सबसे बड़ी कठिनाई पाठ-भेद की थी। इसका उन्होंने स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है। वर्तमान कठिनाइयों के आधार पर वृत्ति दो भागों में विभक्त हो गई । पूर्वभाग में वृत्तिकार ने सुगमपदों की भी व्याख्या की है। उत्तरभाग में केवल विषमपदों की व्याख्या की है। अतएव पूर्वभाग की व्याख्या विस्तृत और उत्तरभाग की संक्षिप्त है । पूर्वभाग की विस्तृत व्याख्या के उन्होंने दो हेतु बतलाए हैं
१. विषय की नवीनता २. पाठ-भेद की प्रचुरता उत्तरभाग की संक्षिप्त व्याख्या के भी तीन हेतु बतलाए हैं१. पाठ की सुगमता २. पूर्व व्याख्यातपदों की पुनरावृत्ति ३. पाठ-भेद की अल्पता।
वत्तिकार ने लौकिक विषयों को लौकिक कला के निष्णात व्यक्तियों से जानने का अनरोध किया है। राजप्रश्नीय और जीवाभिगम में अनेक स्थलों पर प्रकरण की समानता है। दोनों के व्याख्याकार आचार्य मलयगिरि हैं। इसलिए उनके समप्रकरणों की वृत्ति में भी प्रचुर समानता है। वृत्तिकार को जीवाभिगम की मूल टीका प्राप्त थी। उसका वृत्तिकार ने प्रस्तुत वृत्ति में स्थान-स्थान १. रायपसेणिय वृत्ति, पृ० २०४, २४१, २५६ २. रायपसेणिय वृत्ति, पृ० २३६ : ___ इह प्राक्तनो ग्रन्थः प्रायोऽपूर्वः भूयानपि च पुस्तकेषु वाचनाभेदस्ततो माऽभूत् शिष्याणां सम्मोह इति क्वापि सुगमोऽपि यथावस्थितवाचनाक्रमप्रदर्शनार्थ लिखित, इत ऊध्वं । प्रायः सुगमः प्राग्व्याख्यातस्वरूपश्च न च वाचना-भेदोऽप्यतिबादर इति स्वयं परिभावनोयः, विषमपदव्याख्या तु विधास्यते इति । ३. वही, पृ० १४५ :
एते नर्तनविधयः अभिनयविधयश्च नादयकुशलेम्यो वेदितव्याः ।
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