Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02 Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani Publisher: Shravak Hiralal Hansraj View full book textPage 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन ॥२९॥ ॥२९॥ केनुं शरण लइ शकवाना ? एवा अजित इंद्रियजयरहित तथा प्रमत्त महाप्रमादी, अर्थात् इंद्रियोने पराधीन तथा प्रमादी एवा | पापीओने जरामरणादिक उपद्रव टाणे कोइ शरण देनार जडतोज नथी. 'जणे' 'पमत्ते ' ए वे शब्दोमां प्रथम बहुवचनना | स्थानमा प्राकृत होवाथी सप्तमीनु एक वचन छे. जे' पावकम्महि धणं मणूसा । समाययंती अमई गाय ॥ पहाय ते पापयढिए नरे। वेराणबद्धा नरयं उर्विति ॥२॥ मूलार्थ:-(जे)-जे (मणूसा)=मनुष्यो (अमई) कुमतिने (गहाय)-ग्रहण करीने (पावकम्मे हि)-पापकर्मवडे (धणं) धनने (समाययंती) उपार्जन करे छे, (ते) ते (नरे) मनुष्यो (पासपपढ़िए) स्त्रीपुत्रादिकना पाशमां पडेला (पहाय) द्रव्यादिकनो त्याग करी (वैरानुबद्धा) वैरना हेतुरूप थइ (नरयं) नरकमा (उर्वति)-जाय छे. व्याख्या-जे इति ये मनुष्याः पापकर्मभिर्धनमर्जयंति, धनमुत्पादयंति, ते मनुष्या वैरानुबद्धाः, पूर्वोपार्जितद्वेषवंधनबद्धा नरकं व्रजंति, किं कृत्वा धननुपायंति? अमति गृहीत्वा, न मतिरमतिस्ताममतिं कुमतिमंगीकृत्य, अथवाऽमृतमानंदहेतुं गृहीत्वैहिकसुखहेतुकं धनं विचार्य, किं कृत्वा नरकं व्रजति ? पापकर्मरूपार्जितं धनं प्रहाय त्यक्त्वा, कीदृशास्ते मनुष्याः? पाशप्रवर्तिताः, पाशेषु पुत्रकलनधनप्रमुखबंधनेषु प्रवर्तिता, प्राशप्रवर्तिताः, धनं हि नरके व्रजतो जीवस्य सार्थे नायाति, एकाक्येव महारंभपरिग्रहवशाय नरकं यातीत्यर्थः, 'जरोवणीयस्स हु नथि ताणं' अर्थः-जे मनुष्यो पापकर्मवडे धन उपार्जन करे छे ते वैरानुबद्ध-पूर्वोपार्जित द्वेषबंधनथी बद्ध थयेला नरके जाय छे. केमके For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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