Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Shreekrishnamal Lodha
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 6
________________ - - उत्तराध्ययन संत्र - 325 विहुणाहि रय पुरे कडं ||10.111 पूर्व संचित कर्म रूपी रज को साफ कर। दुल्लहे खलु माणुसे भवे । 10.4।। मनुष्य जन्म निश्चय ही बड़ा दुर्लभ है। परिजुरइ ते सरीरय, केसा पंडुरया हवन्ति ते। से सव्वबले य हायइ. समयं गोयम! मा पमायए। 110.26 ।। तेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है, केश पककर सफेद हो रहे हैं। शरीर का सब बल क्षीण होता जा रहा है, अतएव है गौतम क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत कर। इस अध्ययन में गणधर गौतम स्वामी के जीवन की प्रेरक घटना का भी वर्णन है। "समयं गोयम! मा पमायए' का संदेश इस अध्ययन में ३६ बार दहराया गया है। गौतम के माध्यम से संसार के प्राणी मात्र को यह उपदेश दिया गया है कि जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए क्षण भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए, प्रत्येक क्षण प्रयत्नशील रहना चाहिए। (आ) धर्मकथात्मक अध्ययन 1. आसक्ति ही दुःख का कारण है (एलयं-सातवाँ अध्ययन) सप्तम अध्ययन में बकरे और मूलधन को गंवा देने वाले व्यापारी के उदाहरणों से अधर्मी और कामभोग में आसक्त जीवों की होने वाली दुर्दशा का दिग्दर्शन करा कर धर्माचरण से होने वाले सुन्दर फल का परिचय दिया गया है। एडक (मेंढा) कांकिणी. तीन वणिक पुत्र और अपथ्य भोजी राजा के दृष्टान्तों द्वारा यह समझाया गया है कि जो खाने-पीने, भोग-विलास में आसक्ति रखता है, वह संसार में मारा जाता है। दृष्टान्त और उपमाओं द्वारा बताया गया है कि सर्वप्रथम मन की आसक्ति को तोड़ो, भोगों का आकर्षण छोड़ो और परलोक को सुखी बनाना हो तो त्याग एवं अनासक्तिमय जीवन की शैली अपनाओ। माणुसत्तं भवे मूलं. लाभो देवगई भवे। मुलच्छेएण जीवाणं णरगतिरिक्खत्तणं धुवं । 17.16 ।। मनुष्य जीवन मूलधन है। देवगति उसमें लाभरूप है। मूलधन के नष्ट होने पर नरक, तिर्यच गति रूप हानि होती है। कम्मसच्चा हु पाणिणो 117.20 ।। प्राणियों के कर्म ही सत्य हैं। धीरस्स पस्स धीरतं. सच्चधम्माणुवत्तिणो । चिच्चा अधम्म धम्मिट्टे, देवेसु उववज्जइ ।।7.29 1। क्षमादि सत्य धमों को पालन करने वाले मानव की धीरता देखो कि वह अधर्म को त्याग कर धर्मात्मा बनकर देवों में उत्पन्न होता है। अधर्मी नरक में जाता है और धर्मी, त्यागी अनासक्त जीव देवगति में उत्पन्न होत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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