Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Shreekrishnamal Lodha
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 17
________________ 336 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क ४. प्राणी, बीज और हरी का मर्दन कर स्वयं असंयती होकर भी अपने को संयती मानना । ५. तृणादि का बिछौना, पाट, आसन, स्वाध्याय भूमि, पांव पोंछने का वस्त्र आदि को बिना पूंजे बैठना और उपयोग में लेना । ६. शीघ्रतापूर्वक अयतना से चलना और प्रमादी होकर बालक आदि पर क्रोधित होना । ७. प्रतिलेखन में प्रमाद करना, पात्र और कम्बल आदि इधर-उधर बिखेरना, प्रतिलेखना में उपयोग नहीं रखना । ८. प्रतिलेखना में प्रमाद करना, विकथा आदि सुनने में मन लगाना, हमेशा शिक्षादाता के सामने बोलना । ९. अतिकपटी, वाचाल, अभिमानी, क्षुब्ध, इन्द्रियों को खुली छोड़ना तथा असंविभागी और अप्रीतिकारी होना । १०. शान्त हुए विवाद को पुनः जगाना, सदाचार रहित हो आत्मप्रज्ञा को नष्ट करना, लड़ाई और क्लेश करना । ११. . अस्थिर आसन वाला होना, कुचेष्टा वाला होना, जहां कहीं भी बैठने वाला होना । १२ सचित्त रज से भरे हुए पैरों को बिना पूंजे सो जाना, शय्या की प्रतिलेखना नहीं करना और संथारे को अनुपयोगी समझना । १३. दूध, दही और विगयों का बार-बार आहार करना, तपकार्य में प्रीति नहीं होना । १४. सूर्य के अस्त होने तक बार-बार खाते रहना, 'ऐसा नहीं करना' कहने पर गुरु के सामने बोलना । १५. आचार्य को छोड़कर परपाषण्ड में जाना, छह-छह मास से गच्छ बदलना । १६. अपना घर छोड़कर साधु हुआ फिर भी अन्य गृहस्थ के यहां रस लोलुप होकर फिरना और निमित्त बताकर व्योपार्जन करना। १७. अपनी जाति के घरों से ही आहार को लेना, किन्तु सामुदानिकी भिक्षा नहीं लेना और गृहस्थ की निषद्या पर बैठना । पाँच प्रकार के कुशीलों से युक्त होकर संवर रहित वेषधारी यह साधु अन्य श्रेष्ठ मुनियों की अपेक्षा निकृष्ट है और वह इस लोक में विष की तरह निन्दनीय है। उसका न इहलोक सुधरता है और न परलोक ही । उपर्युक्त दोषों को त्यागकर मुनि सुव्रती हो जाता है। 6. समिति और गुप्ति (समिइओ - चौबीसवाँ अध्ययन) इस अध्ययन में समिति और गुप्ति रूप आठ प्रवचन माताओं वर्णन है। समितियाँ पाँच और गुप्तियाँ तीन हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उच्चार परिष्ठापनिका समितियां हैं तथा मन, वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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