Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Shreekrishnamal Lodha
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 1
________________ उत्तराध्ययन सूत्र * श्री श्रीकृष्णमल लोढ़ा उत्तराध्ययनसूत्र प्राचीन आगम है। इसकी गणना मूलसूत्रों में प्रथमतया की जाती है। इसके ३६ अध्ययनों में धर्मकथानुयोग, द्रव्य नुयोग एवं चरणानुयोग से संबंधित विभिन्न विषयों का रोनक विवेचन हुआ है! न्यायाधिपति श्री श्रीकृष्ण!मल जी लोढ़ा रे समस्त अध्ययनों को चार भागों –१ उपदेशात्मक २. धर्मकथात्मक ३. आचारात्मक एवं ४. सैद्धान्तिक में विभक्त कर प्रत्येक अध्ययन का प्रेरक परिचय दिया है। -सम्पादक ऐसी मान्यता है कि श्रमणसम्राट् भगवान महावीर ने पावापुरी में निर्वाण प्राप्त करते समय अन्तिम प्रवचन के रूप में उत्तराध्ययन सूत्र का उपदेश किया था। इसके नाम से ही इसकी विशिष्टता ज्ञात होती हैउत्तराध्ययन अर्थात् अध्ययन करने योग्य उत्तमोत्तम प्रकरणों का संग्रह। भवसिद्धिक और परिमित संसारी जीव ही उत्तराध्ययन का भावपूर्वक स्वाध्याय करते हैं। भाषाशास्त्रियों के मत में सर्वाधिक प्राचीन भाषा के तीन सूत्र हैं- १. आचारांग २. सूत्रकृतांग और ३. उत्तराध्ययन। मूलसूत्रों के संबंध में अनेक मान्यताएँ होने पर भी 'उत्तराध्ययन' को सभी विद्वानों ने एक स्वर से मूलसूत्र माना है। स्थानकवासी सम्प्रदाय में १. उत्तराध्ययन २. दशवैकालिक ३. नन्दीसूत्र और ४. अनुयोगद्वार को मूल सूत्र में गिना जाता है। यहाँ उत्तराध्ययन सूत्र का क्रम पहले होते हुए भी साधकों द्वारा पहले दशवैकालिक और फिर उत्तराध्ययन सूत्र पढा जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में ३६ अध्ययन हैं, जिन्हें निम्न चार भागों में विभक्त किया जा सकता है१. उपदेशात्मक-अध्ययन १,३,४,५,६ और १० २. धर्मकथात्मक- अध्ययन ७, ८, ९,१२,१३,१४,१८,१९, २०, २१, २२.२३, २५ और २७ ३. आचरणात्मक-अध्ययन २,११,१५,१६,१७,२४,२६,३२ और ३५ ४. सैद्धान्तिक- अध्ययन २८,२९,३०,३१,३३,३४ और ३६ डॉ.सुदर्शनलाल जैन के अनुसार उत्तराध्ययन सूत्र का विषय वर्गीकरण निम्नानुसार किया गया है-- 1. शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादक अध्ययन- २४ (समितीय), २६ (समाचारी), २८ (मोक्षमार्ग गति), २९(सम्यक्त्व पराक्रम), ३०(तपोमार्ग), ३१(चरणविधि), ३३(लेश्या), ३६(जीवाजीवविभक्ति) और दूसरे एवं १६वें अध्ययन का गद्य भाग। 2. नीति एवं उपदेश प्रधान अध्ययन- १(विनय), २(परीषह), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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