Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Shreekrishnamal Lodha
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ 1330 :..:जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङका तब उनका भ्रम टूट गया और अहंकार समाप्त हो गया। व्यक्ति चाहे कितना भी वैभवशाली और शक्तिशाली क्यों न हो वह पीड़ा, वेदना, व्याधि. मरण आदि से अपनी रक्षा नहीं कर सकता है। दूसरे अन्य प्राणी की भी रक्षा नहीं कर सकता है। अत: वह किसी के लिए शरणदायी नहीं हो सकता है। आत्मा स्वयं अपना नाथ है, जब वह सद्प्रवृत्तियों में दन-चित्त रहता है। दुष्प्रवृत्तियों में लगी हुई आत्मा अपनी ही शत्रु है, अपने लिए दु:खों का सृजन करती है। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पढिओ सुप्पढिओ। 120.37 ।। आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र के समान है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है। आत्मा ही अपना नाथ है, अन्य के आधार पर उसे नाथ मानना उचित नहीं। धम्मपद में भी कहा गया है अत्ता हि अत्तनो नाथो, कोहि नाथो परो सिया (धम्मपद 12.4) आत्मा स्वयं ही अपना नाथ है-कौन किसी अन्य का नाथ हो सकता इस अध्ययन के पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि शुद्धाचारी सम्पूर्ण संयमी श्रमण ही अपनी आत्मा के नाथ होते हैं। यहां त्रैकालिक सत्य भी प्रकट किए गए हैं, जिनका मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। 10.समुद्रपाल श्रेष्ठी का चरित्र और मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन (समुद्दपालीयंइक्कीसवाँ अध्ययन) समुद्रपाल ने किसी समय भवन की खिड़की में बैठे हुए एक अपराधी को मृत्यु चिों से युक्त वध-स्थान पर ले जाते हुए देखा। उसे देखकर वे कहने लगे अहो! अशुभ कर्मों का अंतिम फल प्राप्त रूप ही हैयह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। वहां बैठे हुए समुद्रपाल बोध पाकर परम संवेग को प्राप्त हुए और माता-पिता को पूछकर प्रव्रज्या लेकर अनगार हो गए। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों को स्वीकार कर वे बुद्धिमान मुनि जिनोपदेशित धर्म का पालन करने लगे। उवेहमाणो उ परिवएज्जा, पियमप्पियं सव्वं तितिक्खएज्जा। न सव्वं सनत्थऽमिरोएज्जा, न यावि पूर्य गरहं च संजए। 21.1511 मुनि उपेक्षापूर्वक संयम में विचरे, प्रिय और अप्रिय सबको सहन करे। सब जगह सभी वस्तुओं की अभिलाषा नहीं करे तथा पूजा और निन्दा को भी नहीं चाहे। अणुन्नए नावणए महेसी, न यावि. पूयं गरहं च संजए। स उज्जुभावं पडिवज्ज संजए, निव्वाणमग्गं विरए उवेई ।।21.20 ।। जो महर्षि पूजा पाकर उन्नत और निन्दा पाकर अवनत नहीं होता तथा ऋजु भाव रखकर विरत होता है वह निर्वाण मार्ग को प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27