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जिनवाणी- जैनागम - साहित्य विशेषाङ्क
| 12.27 ||
नत्थि जीवस्स नासो त्ति.......
आत्मा का कभी नाश नहीं होता।
इस अध्ययन का सार यह है कि परीषह उत्पन्न होने पर संयम से
विचलित नहीं होना चाहिए।
2. ज्ञान अमृत तत्त्व है (बहुसुयपुज्ज - ग्यारहवाँ अध्ययन )
इस अध्ययन में ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता बताई गई है। ज्ञान-प्राप्ति में बाधक कारणों से रहित होकर बहुश्रुत होने का उपदेश दिया गया है। अनगार के आचार को प्रकट किया गया है। अबहुश्रुत विद्या रहिन अथवा विद्या सहित होने पर अभिमानी, विषयों में गृद्ध, अजिनेन्द्रिय, अविनीत और बार - बार बिना विचारे बोलता है । मान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य से युक्त होने पर शिक्षा प्राप्त नहीं होती है। शिक्षा एवं ज्ञान के अवरोधक १. अहंकार २. क्रोध ३. प्रमाद ४. रोग और ५ . आलस्य हैं। इनसे सदा बचने की प्रबल प्रेरणा दी गई है। मनुष्य व्यवहार से विनीत और अविनीत कहलाता है। जो विनीत होता है वह प्रियवादी, हितकारी होने के साथ सबसे मैत्री भाव रखता है और वही शिक्षा का अधिकारी है। ज्ञानी अर्थात् बहुश्रुत का जीवन निर्मल होता है और वह अपना जीवन ज्ञान-आराधना में व्यतीत करता है। श्रुत की समुपासना करते- करते जिनवाणी का रहस्यवेत्ता बन जाता है। ज्ञानामृत प्राप्त करने वाला बहुश्रुत कहलाता है। वह श्रेष्ठ और पूजनीय होता है। यहाँ पन्द्रह सुन्दर उपमाएँ बहुश्रुत की महत्ता बताने के लिए दी गई है। उदाहरणार्थ- देवताओं में इन्द्र, मनुष्यों में वासुदेव, वृक्षों में जम्बू वृक्ष, पर्वतों में सुमेरु पर्वत, नक्षत्रों में सूर्य, चन्द्र आदि !
तम्हा सुयमहिद्विज्जा, उत्तमद्वगवेसए ।
जिणऽप्पाणं परं चेव, सिद्धिं संपाउणेज्जासि । ।11.32 ।।
मोक्ष की गवेषणा करने वाला साधक उस श्रुतज्ञान को पढ़ता है जो अपनी और दूसरों की आत्मा को निश्चय मोक्ष में पहुँचाता है। .
इस अध्ययन का सार है ज्ञान प्राप्त करो। ज्ञान में स्वयं और दूसरों, दोनों को सिद्धि प्राप्त होती है।
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3. भिक्षु का स्वरूप (सभिक्खु--पन्द्रहवाँ अध्ययन )
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इस अध्ययन में साधक - भिक्षु के लक्षण, आचार आदि का वर्णन किया गया है। भिक्षु का अर्थ संयमी साधु है । जिसने विचारपूर्वक मुनिवृत्ति अंगीकार की है, जो सम्यग् दर्शनादि युक्त सरल, निदान रहित संसारियों के परिचय का त्यागी, विषयों की अभिलाषा - रहित और अज्ञात कुलो को गोचरी करता हुआ विहार करता है, वह भिक्षु कहलाता है। राग रहित, संयम में दृढ़तापूर्वक विचसे वाला, असंयम से निवृत्त शास्त्रज्ञ, आत्मरक्षक, बुद्धिमान, परीषहजयी, समदर्शी किसी भी वस्तु में मूर्च्छा नहीं रखने वाला भिक्षु होता है। उसका आचरण संसारी प्राणियों से भिन्न होता है। निर्भयता
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